"सद्गुरू मेँहीँ के साथ 'महर्षि' और 'परमहंस' की उपाधियों का इतिहास"
'शान्ति-सन्देश' पत्रिका के प्रथम सम्पादक परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी के परम भक्तोपासक प्रो0 श्रीविश्वानंदजी थे| पत्रिका में और विविध साहित्यों में भी सम्पादक महोदय के द्वारा परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी का नाम केवल "स्वामी मेँहीँ दास" ही छपता था| कुछ समय पीछे सत्संगी श्रद्धालुओं और सेवक-शिष्यों के आपसी आग्रह एवं सम्पादक महोदय के हठ-प्रभुत्व के कारण नाम के अंत में 'जी महाराज' जोड़ा जाने लगा और तब सभी कोई आदर एवं पूज्य भाव से "स्वामी मेँहीँ दासजी महाराज" करके संबोधन एवं पत्रिका एवं साहित्यों में प्रकाशित करने लगे|
बाद में प्रो0 विश्वानन्दजी की जगह चंद्रधर प्रसाद नन्दकुलियारजी सम्पादक बने|इस प्रकार कई सम्पादक समयानुकूल बने और हटे| फिर टीकापट्टी निवासी श्री आनन्दजी सम्पादक बने|
काफी समय तक परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का उपर्युक्त नाम ही प्रकाशित होता रहा| एक बार श्री आनन्दजी ने अग्यात प्रेरणावश सोचा कि जब महर्षि अरविन्द,महर्षि रमण और महर्षि वेदव्यास आदि नाम महर्षि की उपाधि से विभूषित होकर जगतविख्यात हो सकता है,तो हमारे परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का नाम महर्षि से विभूषित क्यों नहीं हो सकता है|
उन्होंने बिना किसी की सलाह और समर्थन लिए ही पत्रिका में परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का नाम "महर्षि" और "परमहंस" से संयुक्त कर "महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज" छपवा दिया|
संयोगवश वह पत्रिका किसी के द्वारा परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी के हाथ लग गई| उलट-पलटकर देखने के क्रम में जैसे ही उनकी निगाह उक्त उपाधियों से विभूषित अपने नाम पर पड़ी,वैसे ही इनका भयंकर रौद्री रोष प्रकट हो गया|सामने जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी| श्रीआनंदजी तो आश्रम छोडकर ही पलायन कर गये|
परिणाम यह हुआ कि पत्रिका-प्रकाशन का कार्य दीर्घ समय तक स्थगित हो गया| फिर उस समय के 'अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा' के महामंत्री श्री लक्ष्मी प्रसाद चौधरी 'विशारद' जी ने तमाम संतमत-सत्संगियों का प्रतिनिधि बनकर एवं स्वयं भी श्रद्धापूरित होकर डरे हुए से परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी के पास जाकर प्रार्थना की- "हुजूर! पत्रिका प्रकाशन का कार्य बंद हो चूका है| सत्संगियों को इस अभाव की हार्दिक पीड़ा है| दूसरी बात यह है कि हुजूर का जो नाम पत्रिका में छप चूका है,उसको बदलने से सत्संगियों की आस्था पर ठेस पहुँचेगी और सब के सब दुखी हो जाएँगे|
अत: हुजूर से प्रार्थना है कि जो हो गया,उसके लिए हम भक्तों को क्षमा-दान कर पत्रिका-प्रकाशन के लिए स्वीकृति देने की कृपा की जाय|"
उपर्युक्त प्रार्थना के समय परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी अपने युगल कमल नेत्रों को बंद कर मौन बने रहे| तभी से इनके नाम में "महर्षि" और "परमहंस" की उपाधियाँ लगने लगी|
इन्हें बड़े-बड़े विद्वान लोग महान-से महान और अति पावन उपाधि देकर भी तृप्त नहीं होते थे| इनके महिमामय व्यक्तित्व और कृतित्व के सामने सभी उपाधियाँ निरा पंगु ही लगती थी|
इनमें इतनी अहंकार-शून्यता थी की एक बार गैदुहा सत्संग में एक महिला इन्हें प्रणाम निवेदित करती हुई बोली- 'स्वामीजी! मुझको आशीर्वाद दीजिए!' यह सुनकर गुरू महाराज ने उस महिला पर खूब गुस्साये, और कहा- "मैं तुम्हारा स्वामीजी हूँ,मैं तो दास का भी दास नहीं हूँ|" और कहकर रोने लगे|
वास्तव में जो पुरूष तीनों अवस्थाओं को पारकर तुरियातीत-अवस्था को प्राप्त किये होते हैं,अर्थात् नि:शब्द-परम-पद को प्राप्त किये होते हैं,वे किसी उपाधि या पद-प्रतिष्ठा के बंधन में नहीं होते हैं| इससे तो उन्हें तकलीफ ही होतीे है|
किसी संत ने बड़ा अच्छा कहा है-
"मान-बड़ाई जबसे आइ,तबसे किस्मत फूटी|"
परम-पद को प्राप्त किये हुए भी हमारे गुरू महाराज अपने को हमेशा "मोरी मति अति नीच अनाड़ी" तथा "मोको सम कौन कुटिल खल कामी|" कहा करते थे| ये उनकी अहंकार-शून्यता नहीं थी तो क्या थी?
परन्तु, आजकल तीन अवस्थाओं में पड़े रहनेवाले महात्माओं में भी अपने आप को "स्वामी", "महर्षि" "परमहंस" इत्यादि उपाधि पाने के लिए होड़ सी लगी हुई है| वे अपने आप को इन उपाधियों से महिमामंडित होने पर फूले नहीं समाते हैं|
जबकि परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी 5.4.1977 ई0 को महेश योगी के आश्रम ऋषिकेश में कहने की कृपा की थी-
..."महर्षि मेँहीँ हम कभी नहीं| महर्षि नाम से हम बहुत डरते हैं| अगर कोई मुझे महर्षि कह देते हैं,तो मैं अपने को बहुत लज्जा मानता हूँ|"
एक बार संत की उपाधि के लिए भी कहने की कृपा की थी-
..."मैं अपने को संत नहीं मानता; क्योंकि पूरे संत से एक चींटी को भी कष्ट नहीं होता| मेरे नहीं चाहने पर भी बहुतों को कष्ट हो जाता है|"
ऐसे महान विभूति थे हमारे परमाराध्य "श्रीसद्गुरू महाराज"|
(बोलिए प्रेम से श्री सद्गुरू महाराज की जय)
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