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रविवार, 23 मई 2021

दूसरे का दोष कभी नहीं देखना चाहिए | Dusre ke dosh ko nahi dekhna chahiye | One should not see the fault of the other | SELF-THINKING

दूसरे का दोष कभी नहीं देखना चाहिए! पर-दोष दर्शन नहीं, हम आत्म-सुधार करें! पर-दोष दर्शन में स्व-दोष दर्शन का सामर्थ्य व जीवन में भावी आत्म-सुधार की संम्भावना खो जाती है! 


 जहाँ आत्म-चिंतन व आत्म-सुधार की प्रवृति है, वहाँ से ही आत्म-मिलन की राह है!


बुधवार, 20 नवंबर 2019

जिसका मन निश्छल वही बड़ा | Jiska man nischhal hai vahi bara | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🌸जिसका मन निश्छल वही बड़ा🌸
जो मनुष्य दूसरों की भलाई करता है, वह फरिश्ते से कम नहीं। जो व्यक्ति दूसरों की मदद करता हो, किसी का बुरा नहीं करता हो, जो शील स्वभाव का हो, सभी को प्यार से बोलता हो और समय पर कार्य करता हो वह फरिश्ता ही तो है। 
हर पल जो नवीन दिखाई दे, वही सुंदरता का नमूना है। अपने दिमाग के द्वार बंद करने से न जाने किस समय क्या अनोखा तत्व समझ में आ जाए। बुरी बातों को भूल जाना ही बेहतर है वरना अच्छे विचार मन में प्रवेश करना बंद कर देंगे। बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट से नहीं होता है। जिसका मन निश्छल है, वही बड़ा है। व्यस्त रहना ठीक है किंतु  अस्त-व्यस्त नहीं। एक पाप दूसरे पाप का दरवाजा खोल देता है। आदमी आराम के साधन जुटाने में आराम खो देता है। धनी व्यक्ति जहां रुपयों के सहारे जीता है वहीं निर्धन व्यक्ति परिश्रम, प्रभु के सहारे जीता है। 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
प्रस्तुति: एस.के. मेहता

ज्ञान मार्ग पर चलने वाला और भक्त | Gyan ke marg par chalne wala bhakt | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌹जय गुरु महाराज🌹🙏
🍁ज्ञानमार्ग पर चलने वाला तो अपने साधन का बल मानता है, पर भक्त की यह विलक्षणता होती है कि वह अपने साधन का बल मानता ही नहीं। कारण कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना तप करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना सत्संग करता हूँ‒इस तरह भीतर में अभिमान रहने से भक्ति प्राप्त नहीं होती। जिनका सीधा-सरल स्वभाव है, जो भगवान्‌ की कृपा पर निर्भर रहते हैं और हरेक परिस्थिति में मस्त, आनन्दित रहते हैं, उन्हीं को भक्ति प्राप्त होती है‒

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा॥
सरल सुभाव  न  मन कुटिलाई।
जथा   लाभ    संतोष    सदाई ।।
         (मानस, उत्तर॰ ४६ । १)

जब तक अपने साधन का अभिमान रहता है, तब तक असली भक्ति प्राप्त नहीं होती। भक्ति प्राप्त होने पर भक्त के मन में यह बात आती ही नहीं कि मैं भजन करता हूँ । जैसे, हनुमान्‌जी महाराज कहते हैं‒ ‘जानउँ नहिं कछु भजन उपाई’ (मानस, किष्किन्धा॰ ३ । २)

हनुमान्‌जी भक्ति के खास आचार्य होते हुए भी कहते हैं कि मैं भजन का उपाय नहीं जानता कि भजन क्या होता है ? कैसे होता है? शबरी को पता ही नहीं था कि भक्ति नौ प्रकार की होती है और वह मेरे में पूर्णरूप से विद्यमान है ! वह कहती है‒


अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह  महँ  मैं  मतिमंद  अघारी।।
        (मानस, अरण्य॰ ३५ । २)

परन्तु भगवान् उसको कहते हैं‒

नवधा  भगति  कहउँ  तोहि पाहीं।
सावधान  सुनु   धरु   मन   माहीं॥......

नव महुँ एकउ   जिन्ह   कें   होई।
नारि पुरुष   सचराचर      कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
सकल प्रकार  भगति  दृढ़   तोरें ॥
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

अहंकार से ज्ञान का नाश | Ahankar se gyan ka naash | कभी किसी को नहीं सताओ | गुप्तदान महादान | मृत्यु से कोई नहीं बच पाया | Santmat Satsang

अहंकार से ज्ञान का नाश;
अहंकार से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है। अहंकार से ज्ञान का नाश हो जाता है। अहंकार होने से मनुष्य के सब काम बिगड़ जाते हैं। भगवान कण-कण में व्याप्त है। जहाँ उसे प्रेम से पुकारो वहीं प्रकट हो जाते हैं। भगवान को पाने का उपाय केवल प्रेम ही है। भगवान किसी को सुख-दुख नहीं देता। जो जीव जैसा कर्म करेगा, वैसा उसे फल मिलता है। मनुष्य को हमेशा शुभ कार्य करते रहना चाहिए।

कभी किसी को नहीं सताओ :

धर्मशास्त्रों के श्रवण, अध्ययन एवं मनन करने से मानव मात्र के मन में एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सद्भावना एवं मर्यादा का उदय होता है। हमारे धर्मग्रंथों में जीवमात्र के प्रति दुर्विचारों को पाप कहा है और जो दूसरे का हित करता है, वही सबसे बड़ा धर्म है। हमें कभी किसी को नहीं सताना चाहिए। और सर्व सुख के लिए कार्य करते रहना चाहिए।

गुप्तदान महादान :
मनुष्य को दान देने के लिए प्रचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि दान में जो भी वस्तु दी जाए, उसको गुप्त रूप से देना चाहिए। हर मनुष्य को भक्त प्रहलाद जैसी भक्ति करना चाहिए। जीवन में किसी से कुछ भी माँगो तो छोटा बनकर ही माँगो। जब तक मनुष्य जीवन में शुभ कर्म नहीं करेगा, भगवान का स्मरण नहीं करेगा, तब तक उसे सद्‍बुद्धि नहीं मिलेगी।

मृत्यु से कोई नहीं बच पाया :

धन, मित्र, स्त्री तथा पृथ्वी के समस्त भोग आदि तो बार-बार मिलते हैं, किन्तु मनुष्य शरीर बार-बार जीव को नहीं मिलता। अतः मनुष्य को कुछ न कुछ सत्कर्म करते रहना चाहिए। मनुष्य वही है, जिसमें विवेक, संयम, दान-शीलता, शील, दया और धर्म में प्रीति हो। संसार में सर्वमान्य यदि कोई है तो वह है मृत्यु। दुनिया में जो जन्मा है, वह एक न एक दिन अवश्य मरेगा। सृष्टि के आदिकाल से लेकर आज तक मृत्यु से कोई भी नहीं बच पाया।
   ।। जय गुरू महाराज ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 17 जुलाई 2019

कर्मयोग | KARMAYOG | मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विषय-भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं होती | Santmat Satsang

कर्मयोग 

अध्याय तीन : कर्मयोग      श्लोक-39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च || ३९ ||

अनुवाद:

इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है |

तात्पर्य

मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विषय-भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं होती, जिस प्रकार कि निरन्तर ईंधन डालने से अग्नि कभी नहीं बुझती | भौतिक जगत् में समस्त कार्यकलापों का केन्द्रबिन्दु मैथुन (कामसुख) है, अतः इस जगत् को मैथुन्य-आगार या विषयी-जीवन की हथकड़ियाँ कहा गया है | एक सामान्य वन्दीगृह में अपराधियों को छड़ों के भीतर रखा जाता है इसी प्रकार जो अपराधी भगवान् के नियमों की अवज्ञा करते हैं, वे मैथुन-जीवन द्वारा बंदी बनाये जाते हैं | इन्द्रियतृप्ति के आधार पर भौतिक सभ्यता की प्रगति का अर्थ है, इस जगत् में जीवात्मा की बन्धन अवधि का बढाना | अतः यह काम अज्ञान का प्रतीक है जिसके द्वारा जीवात्मा को इस संसार में रखा जाता है | इन्द्रियतृप्ति का भोग करते समय हो सकता है कि कुछ प्रसन्नता की अनुभूति हो, किन्तु यह प्रसन्नता की अनुभूति ही इन्द्रियभोक्ता का चरम शत्रु है |

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

मेरे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है | Mere pass Parmatma ke liye samay nahi hai | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

मेरे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है!

आज जब हम लोगों से आत्मा परमात्मा के बारे में बात करते हैं, तो बहुत से लोगों का यही प्रशन होता है कि हमारे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है | व्यस्त जीवन है, एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है | यही प्रशन एक वार एक व्यक्ति ने एक महात्मा जी के समक्ष्य रखा |

प्रशन - मैं एक व्यापारी हूँ | मेरा लाखों का बिजनेस है | मैंने दो-तीन बार आपके सत्संग- प्रवचन सुने हैं |मुझे बहुत अच्छे लगे | सुनकर मन को शांति भी मिली | पर फिर भी मैं ज्ञान लेने मैं असमर्थ हूँ | क्यों कि मेरे पास एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है | मैं सुमिरन - भजन के लिए समय नहीं निकाल सकता | अब आप ही कोई उपाय बताएँ |
उत्तर ) समय नहीं है! यह तो केवल एक बहाना है | वास्तव में आपने परमात्मा व उसके ज्ञान के महत्व को अभी तक समझा ही नहीं | इस लिए आप संसार को ही सब कुछ मान बैठे हैं | सांसारिक कार्यों व विषयों में अपना एक - एक क्षण एवं एक - एक श्वास गवाए चले जा रहे हैं | जब कि संत महापुरषों के अनुसार यह जीवन तो मिला ही ईश्वर - भक्ति एंव उसकी प्राप्ति के लिए है | मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल  नौकरी, बिजनेस या धन - संग्रह करना नहीं | इसका परम लक्ष्य ईश्वर को पाना है | उसका बनना एंव उसे अपना बनाना है - 'बड़े भाग मनुष्य तन पावा ......साधन धाम मोच्छ कर द्वारा' | यदि समय रहते हम इस तथ्य को नहीं समझते, तो आगे की पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास जी हमें एक चेतावनी भी देते हैं -
सो परत्र दुख  पावइ  सिर धुनि -धुनि पछताइ |
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ||

फिर हमें सिर धुन - धुन कर पछताना पड़ेगा | चाहे हम 'कालहि' - समय नहीं था; 'कर्महि' - मेरे कर्मों में ही नहीं था; 'ईस्वरहि ' शायद ईश्वर को ही मंजूर नहीं था आदि कितने ही बहाने बनाएँ, कोई सुनवाई नहीं होगी | इस लिए जीवन के इस परम लक्ष्य  के विषय में विचार करें | ब्रह्मज्ञान की महत्ता को समझें | एक बार महत्व समझ आ गया, तो समय तो खुद-व-खुद निकल आएगा |
साथ ही, आपकी जानकारी के लिए यह भी बता दें कि ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त सुमिरन - भजन के लिए कोई अलग से समय निकालने की आवश्कयता नहीं है | यह तो वह ज्ञान है जिसके द्वारा आप चलते फिरते, खाते - पीते, उठते - बैठते हुए भी प्रभु सुमिरन कर सकते हैं | याद कीजिए प्रभु श्री कृष्ण का उदघोष -'माम स्मृत तात.....अर्थात (हे अर्जुन) तू युद्ध भी कर और सुमिरन भी कर | आपका बिजनेस युद्ध से अधिक एकाग्रता नहीं माँगता | इसलिए आप आगे बढें और अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करें |
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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सोमवार, 1 जुलाई 2019

मनुष्यों का हित अन्योन्याश्रित है | Manushyo ka hit anyoyashrit hai | Santmat-Satsang | एक मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाने के साथ-साथ स्वयं भी हानि उठाता है तो यह भी निश्चय है कि एक मनुष्य दूसरे को उन्नत बनाकर स्वयं भी उन्नति करता है।

मनुष्यों का हित अन्योन्याश्रित है।

जीवन की सबसे बड़ी श्रेष्ठता इसी में है कि एक मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपना समझे और उनके काम आवे। इस प्रकार दूसरों को प्रसन्न बनाने की भावना में वह स्वयं अधिक प्रसन्न और सुखी हो सकेगा। यही भावना प्रकृति का आदेश है। इस प्रकृति के द्वारा न जाने कितने पुरुष दूसरों की सेवा और सहायता करके महापुरुष बन गये। परन्तु जिन लोगों ने दूसरों के साथ घृणा करना सीखा उनका भयानक पतन हुआ। मालूम नहीं कि मनुष्य जाति में परस्पर द्वेष की भावना किस आधार पर उत्पन्न की गई? विश्व की सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक शरीर के रूप में है और अगणित व्यक्ति उसके संख्यातीत अंग-प्रत्यंग हैं। ये छोटे भी हैं और बड़े भी परन्तु उनमें किसी की आवश्यकता कम और किसी की अधिक नहीं है। सम्पूर्ण शरीर की रक्षा के लिए सब की आवश्यकता समान रूप से है। इस सत्य को अनुभव करके किसी महात्मा ने कहा है—

“आँखें हाथों से नहीं कह सकती कि हमको तुम्हारी आवश्यकता नहीं और न मस्तक पैरों से कह सकता है कि हमको तुम्हारी जरूरत नहीं है। यदि शरीर का एक अंग पीड़ित होता है तो सम्पूर्ण शरीर पीड़ित और अस्त-व्यस्त हो जाता है। यही मानव प्रकृति है और यदि उसका कोई एक अंग स्वास्थ्य प्राप्त करता है तो उसका लाभ सम्पूर्ण शरीर को मिलता है। ” महात्मात्मन के कथनानुसार “एक मनुष्य दूसरे को उसी दशा में हानि और पीड़ा पहुँचा सकता है जब वह स्वयं पीड़ित होता है और हानि उठाता है; और कोई एक देश अथवा राष्ट्र किसी दूसरे देश अथवा राष्ट्र को उसी दशा में क्षति पहुँचा सकता है, जब वह स्वयं क्षति उठाता है।” जब यह सत्य है कि एक मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाने के साथ-साथ स्वयं भी हानि उठाता है तो यह भी निश्चय है कि एक मनुष्य दूसरे को उन्नत बनाकर स्वयं भी उन्नति करता है। अब यह समझना हमारा काम है कि हम उन्नत होना चाहते हैं अथवा पतित, लाभ उठाना चाहते हैं या हानि?

—”सादगी से श्रेष्ठता”
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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गुरुवार, 24 जनवरी 2019

जीवन का मूल्य क्या है? | Jeevan ka mulya kya hai | Santmat-Satsang

एक आदमी ने भगवान बुद्ध से पुछा : जीवन का मूल्य क्या है ?
बुद्ध ने उसे एक Stone दिया और कहा : जा और इस stone का मूल्य पता करके आ, लेकिन ध्यान रखना stone को बेचना नही है।

वह आदमी stone को बाजार मे एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला : इसकी कीमत क्या है ?
संतरे वाला चमकीले stone को देखकर बोला, "12 संतरे
लेजा और इसे मुझे दे जा"
आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले stone को देखा और कहा "एक बोरी आलू ले जा और इस stone को मेरे पास छोड़ जा"
आगे एक सोना बेचने वाले के पास गया उसे stone दिखाया सुनार उस चमकीले stone को देखकर बोला, "50 लाख में बेच दे"।
उसने मना कर दिया तो सुनार बोला "2 करोड़ में दे दे
या बता इसकी कीमत जो माँगेगा वह दूँगा तुझे..
उस आदमी ने सुनार से कहा मेरे गुरू ने इसे बेचने से मना किया है l
आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया उसे stone दिखाया।
जौहरी ने जब उस बेसकीमती रुबी को देखा, तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपडा बिछाया, फिर उस
बेसकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई माथा टेका, फिर जौहरी बोला, "कहा से लाया है ये बेसकीमती रुबी ? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी
इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, ये तो बेसकीमती है।"
वह आदमी हैरान परेशान होकर सीधे बुद्ध के पास आया।
अपनी आप बिती बताई और बोला "अब बताओ भगवन, मानवीय जीवन का मूल्य क्या है ?
बुद्ध बोले :
संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत "12 संतरे" की बताई।
सब्जी वाले के पास गया उसने इसकी कीमत "1 बोरी आलू" बताई।
आगे सुनार ने "2 करोड़" बताई, और जौहरी ने इसे "बेसकीमती" बताया।
अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है।
तू बेशक हीरा है..!! लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत, अपनी औकात - अपनी जानकारी - अपनी हैसियत से
लगाएगा।
घबराओ मत दुनिया में.. तुझे पहचानने वाले भी मिल जायेंगे।

Respect Yourself,
You are very Unique..

कभी न करें इन चार का अपमान, माना जाता है महापाप; | Apmaan | गुरु या शिक्षक | ज्ञानी या पंडित | माता | पिता | GURU | TEACHER | MOTHER | FATHER

कभी न करें इन 4 का अपमान, माना जाता है महापाप;

वाल्मीकि रामायण में 4 ऐसे लोगों के बारे में बताया गया है, जिनका अपमान करना महापाप है।

मनुष्य चाहे कितनी ही पूजा-पाठ या दान-धर्म कर ले, लेकिन उसका पाप नहीं मिटता और उसे इसकी सजा भुगतनी ही पड़ती है। इसलिए, ध्यान रखें कि भूलकर भी आपसे इन 4 लोगों का अपमान न हो जाए।

1. गुरु या शिक्षक

गुरु या शिक्षक हमें शिक्षा और ज्ञान देने वाले को गुरु कहा जाता हैं। गुरु का दर्जा बहुत ऊंचा माना जाता है। सभी धर्म ग्रंथों में गुरु का सम्मान करने की बात कही गई है। जो छात्र अपने गुरु का सम्मान नहीं करता, उनकी दी गई शिक्षा का अनादर करता है, वह कभी भी सफलता हासिल नहीं कर पाता। गुरु का अपमान करने वालों को कभी भी सम्मान नहीं मिलता। ये एक ऐसा पाप कहा गया है, जिसका प्रायश्चित किसी भी तरह नहीं किया जा सकता। इसलिए कभी भी अपने गुरुओं का अपमान नहीं करना चाहिए।

2. ज्ञानी या पंडित
ज्ञानी और पंडित देवतुल्य माने जाते हैं। वे भी देवताओं के समान पूजनीय होते हैं। ज्ञानी लोगों की संगति से हमें कई लाभ होते हैं, हमारी किसी भी मुश्किल परिस्थिति का हल ज्ञानी मनुष्य अपनी सूझ-बूझ और अनुभव से निकाल सकता है। ऐसे लोगों का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए। ऐसे लोगों का अपमान करना महापाप कहा जाता है और इसके कई दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते है।

3. माता

मां को भगवान का दर्जा दिया जाता है। कई धर्म ग्रंथों में मां का सम्मान करने और भूलकर भी उनका अपमान न करने के बारे में बताया गया है। माता की सेवा करने वाला मनुष्य जीवन में सभी सफलताएं पाता है। इसके विपरीत उनका अपमान करने वाला मनुष्य कभी खुश नहीं रह पाता। ऐसे मनुष्य पर भगवान भी रूठे हुए रहते हैं और उसे अपने किसी भी पुण्य कर्म का फल नहीं मिलता। इसलिए, ध्यान रखें किसी भी परिस्थिति में अपनी माता का अपमान न करें।

4. पिता
हर मनुष्य को अपने माता-पिता में ही अपना पूरा विश्व जानना चाहिए। जो व्यक्ति अपने पिता का सम्मान नहीं करता, उनकी आज्ञा का पालन नहीं करता, वह पशु के समान माना जाता है। माता-पिता का अपमान करना मनुष्य का सबसे बड़ा अवगुण माना जाता है। ऐसा करने वाला मनुष्य चाहे कितनी ही तरक्की कर ले, लेकिन वह समाज में मान-सम्मान नहीं पाता। इसलिए किसी को भी अपने पिता का अपमान बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। जय गुरु।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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बुधवार, 16 जनवरी 2019

हमारे जीवनका प्रत्येक पल पल मूल्यवान .... | Hamare Jeevan ka pratyek pal mulyavaan | Santmat-Satsang

हमारे जीवन का प्रत्येक पल मूल्यवान व अंतहीन संभावनाअों से भरा है, प्रत्येक पल के प्रति अादर अौर विश्वास रखें व उस का सदुपयोग करें। 

सगुण भक्तिधारा के संत तुलसीदास ने रामचरितमानस में संतों के दिव्य स्वरूप का वर्णन किया है। संतों की उनकी इस व्याख्या में एक ओर स्फटिक की सुँदरता है, तो दूसरी और मोती के आब की तरलता। तुलसी का संत स्वरूप उदात्त, निर्मल और पावन है। उनके अनुसार जिसके अंतःकरण में ‘स्व’ की भावना का विसर्जन हो गया वही संत में राग उस समय गलता है, जब वह स्वयं को परमार्थ के लिए उत्सर्ग कर देता है। उसके उत्सर्ग में प्रतिदान नहीं, बलिदान की भावना रहती है। प्रतिग्रह न होकर आत्मसमर्पण होता है, लेने का नहीं लुटा देने का भाव प्रधान होता है। संत औरों के लिए स्वयं को लुटा देता है। अपने को निःशेष भाव से लुटाकर ही मेघ जलधि कहलाता है। संत भी मेघ की भाँति अवघड़दानी होता है।

तुलसीदास जी कहते हैं संतों के अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह रूपी मनोविकार नहीं होता। उनका जीवन जप, तप, व्रत और संयम से संयमित होता है। श्रद्धा, मैत्री, मुदिता, दया आदि श्रेष्ठ गुण उनके हृदय में सदैव वास करते हैं। संतों का हृदय मोम के समान होता है। उनकी करुणा हिमालय सदृश्य होती है, जो पिघल−पिघलकर अगणित धाराओं के रूप में प्रवाहित होती है। यही धाराएँ आगे चलकर संत परंपरा बनी हैं। संतों के उपदेशों ने ही संत परंपरा की नींव डाली। 

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि; | गुरु नानक देव जी कहते हैं कि सब से पहले इस जीव आत्मा का माता के दूध से प्रेम हो गया | GURU-NANAK | SANTMAT-SATSANG

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि।।

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि।।
दूजै माइ बाप की सुधि॥
तीजै भया भाभी बेब।।
चउथै पिआरि उपंनी खेड॥
पंजवै खाण पीअण की धातु।।
छिवै कामु न पुछै जाति॥
सतवै संजि कीआ घर वासु॥
अठवै क्रोधु होआ तन नासु॥
नावै धउले उभे साह॥
दसवै दधा होआ सुआह॥
गए सिगीत पुकारी धाह॥
उडिआ हंसु दसाए राह॥
आइआ गइआ मुइआ नाउ॥
पिछै पतलि सदिहु काव॥
नानक मनमुखि अंधु पिआरु॥
बाझु गुरू डुबा संसारु॥ (गुरवाणी)

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि सब से पहले इस जीव आत्मा का माता के दूध से प्रेम हो गया और जब कुछ  होश आया तो माँ-बाप की पहचान हो गई | बहन भाई  की जानकारी मिल गई | उस के बाद खेलने कूदने में मस्त हो गया | कुछ बड़ा हुआ तो खाने पीने की इच्छाएँ  पैदा होने लगी | उस के बाद तरह-तरह की कामनाओं का शिकार हुआ | फिर घर गृहस्ती में उलझ गया | आठवें स्थान पर कहतें हैं कि क्रोश द्वारा तन का नाश करने पर तुल गया | बाल सफेद हो गये, बूढा हो गया, शवांस भी आने मुश्किल हो गये | उस के बाद शरीर जल कर राख बन जाता है | हंस रुपी जीव आत्मा शरीर छोड़ देती है | सगे सम्बन्धी सभी रोते हैं | मानव शरीर में जन्म लिया और शरीर के ही कार्य व्वहार में लगे रहे | एक दिन ऐसा आया जब शरीर छोड़कर चले गये | जाने के बाद  घर वाले श्राद्ध इत्यादि में लग जाते हैं | श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि मनमुख व्यक्ति, मन के विचारों के अनुसार चलने वाले, अंधों के समान व्यवहार करते हुए नजर आते हैं | क्योंकि जीवन को पहचानने की आँख गुरु द्वारा मिलती है | परन्तु गुरु को जाने बिना यह संसार अज्ञानता के अंधकार में डूब रहा है | इसलिए हमें चाहिए कि पूर्ण संत सद्गुरु की शरण में जाएँ जहाँ हमारी अज्ञानता का अंधकार समाप्त हो सकता है और मानव जीवन सफल हो सकता है |

पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै। गुरवाणी | GURVANI | श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि पशु, प्रेत, मूर्ख और पत्थर का भी सत्संग के माध्यम से कल्याण हो जाता है | SANTMAT-SATSANG

|| ॐ श्री सद्गुरवे नमः ||
पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै। (गुरवाणी)

श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि पशु, प्रेत, मूर्ख और पत्थर का भी सत्संग के माध्यम से कल्याण हो जाता है | श्री मदभागवत पुराण में एक कथा आती है गोकर्ण  के भाई धुन्धकारी को बुरे कर्मों के कारण प्रेत योनि की प्राप्ति हुई | जब गोकर्ण ने उसको प्रभु की कथा सुनाई तो वह प्रेत योनि से मुक्त हो गया | इस लिए गोस्वामी तुलसी दास जी ने कहा कि संत महापुरषों की संगत आनंद देने वाली है और कल्याण करती है | सत्संग की प्राप्ति होना फल है, बाकी सभी कर्म फूल की भांति है | जैसे एक पेड़ पर लगा हुआ फूल देखने में तो सुन्दर लगता है किन्तु वास्तव में रस तो फूल के फल में परिवर्तित हो जाने के बाद ही मिलता है | सत्संग को आनंद और कल्याण का मूल कहा गया | जिस के जीवन में सत्संग नहीं, उस के जीवन में सुख सदैव नहीं रह सकता | आत्मिक रस तो महापुरषों की संगति से ही प्राप्त हो सकता है | इस लिए कबीर जी कहते हैं -

कबीर साकत संगु न कीजीऐ दूरहि जाईऐ भागि ॥
बासनु कारो परसीऐ तउ कछु लागै दागु।।

दुष्टों का संग कभी भूल कर भी न करो | यह मानव के पतन का कारण बनता है | जैसे कोयले की खान में जाने पर कालिख लग ही जाती है | दुष्ट और सज्जन देखने में एक ही जैसे लगते हैं परन्तु फल से पता चल जाता है कि दुष्टों का संग अशांति देता है और सज्जनों का संग शांति |

जो दुष्ट हैं, वो भी जब संत महापुरषों जैसे वस्त्र धारण कर लेते हैं सब  लोग उन को को संत समझकर उन का सम्मान करते है | संत की पहचान उसके भगवे वस्त्र नहीं है,भगवे वस्त्र में तो रावण भी आया था जो सीता माता को चुरा कर ले गया | संत की पहचान उस का ज्ञान है, जो संत हमें परमात्मा का ज्ञान करवा दे, वह पूर्ण है, अगर वो हमें किसी बाहरी कर्म कांड में लगाता है, इस का मतलब है वह अधूरा है, ऐसे संतों से हमें सावधान रहना चाहिए। ये बात हमारे सभी धार्मिक शास्त्र कहते हैं | इसलिए हमें ऐसे पूर्ण संत सद्गुरु की खोज करनी चाहिए, जो हमें परमात्मा तक कैसे पहुंचा जा सकता है, का सत्य मार्ग बतावे, ज्ञान करावे। तभी हमारे जीवन का कल्याण संभव है।

।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 9 जनवरी 2019

आए जगत् में क्या किया तन पाला के पेट | AAYE JAGAT ME TAN PALA KI PET | जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है |

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।
सहजो दिन धंधे गया रैन गई सुख लेट।।

संत सहजो बाई जी कहती हैं कि जगत में जन्म तो ले लिया परन्तु किया क्या ? तन को पाला या खा-खा कर पेट को बढाया | दिन तो संसार के कार्यों में गँवा दिया और रात सो कर गँवा  दी |

रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥
हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि रात सो कर गँवा  दी और दिन खा कर गँवा  दिया | हीरे जैसे जन्म को अर्थात्त तन को कौड़ी  के भाव गँवा दिया | इस जगत में मनुष्य  की यह स्थिति है कि उसने शरीर को तो जान लिया परन्तु जीवन को भूल गया | यह अहसास नहीं है कि जीवन क्या है ? आज हम जिसे जीवन कहते हैं, वह तो पल प्रतिपल मृत्यु की  और बढ रहा है | परन्तु यह 30-40  वर्ष का जीवन, जीवन नहीं है | हम अपना जन्म दिन मनाते है, हम इतने बड़े हो गए | हमारी आयु बढ़ी नहीं, यह तो हमारे जीवन में से 30-40 वर्ष कम हो गए है, हम मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं | हमें विचार करना चाहिए के हम ने इतने वर्षों में क्या किया, क्या हम ने अपने जीवन के  लक्ष्य को जाना |

एक बार ईसा नदी के किनारे जा रहे थे, रस्ते में देखा कि  एक मछुआरा मछलियाँ पकड़ रहा था | उसके निकट गये उस से पूछते हैं, तुमारा नाम क्या है ? उसने कहा पीटर ! ईसा ने पूछा के पीटर, क्या तुमने जीवन को जाना ? क्या तुम जीवन को पहचानते हो ? उसने कहा हाँ मैं जीवन को जानता हूँ | मछलियाँ पकड़ता हूँ और बाजार में बेचकर अपने जीवन का निर्वाह करता हूँ |

ईसा ने कहा -पीटर ! यह जीवन, जीवन नहीं, जिसे तुम जीवन समझ रहे हो वह जीवन तो मृत्यु की तरफ बढ रहा है | आओ मैं तुम्हे उस जीवन से मिला दूं , जो  मृत्यु के बाद  भी रहता है | पीटर आश्चर्य से  कहता है कि  क्या मृत्यु के बाद भी जीवन है | ईसा कहते हैं - हाँ पीटर ! मृत्यु के बाद  भी जीवन है, इस जीवन का उदेश ही उस शश्वत जीवन को जानना है | अब  ईसा मसीह पीटर को जीवन से अवगत करने के लिए उसे अपने साथ लेकर चलते हैं | तभी कुछ  लोग आते हैं और पीटर से कहते हैं, पीटर! तुम कहाँ जा रहे हो? तुम्हारे  पिता का देहांत हो गया है |

ईसा ने पूछा, पीटर कहाँ चले? पीटर ने कहा -"पिता को दफ़नाने, उन का देहांत हो गया है, दफनाना जरूरी है |" तब ईसा ने कहा - Let the dead burry their deads. "मुर्दे को मुर्दे दफ़नाने दो" तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हे जिन्दगी से मिलाता हूँ  | ईसा के कहने के भाव से स्पष्ट होता है कि  जिन के ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम नहीं, जिन्हों ने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को नहीं जाना वह जिन्दा नहीं, वरन  मरे हुए के सामान ही है | राम चरित मानस में भी कहा है -

जिन्ह हरि भगति ह्रदय नाहि आनी |
जीवत सव समान तई प्रानी ||

संत गोस्वामी तुलसी दास जी कहते है कि जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है | इस लिए हमें भी चाहिए कि हम ऐसे  पूर्ण संत सद्गुरु की खोज कर, उस परम प्रभु परमात्मा को जानें और आवागमन के महा दुःख से छुटकारा पायें। तभी हमारा जीवन सफल हो सकता है |
जय गुरु महाराज

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति | SACHCHAI JEEVAN KI SARVASHRESHTHA REETI-NEETI | SANTMAT=SATSANG

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति: 

सत्य का सम्पूर्ण तत्व है। उसके खण्ड नहीं किये जा सकते। सत्य बोला जाय और उसके अनुसार आचरण न किया जाय। सत्याचरण और सत्य भाषण तो किया जाय किन्तु मनोदशा उसके अनुसार न रखी जाय तो उसे सत्यनिष्ठा नहीं कहा जायेगा। ऐसे विखंडित सत्य से किसी प्रकार के लाभ की आशा नहीं की जा सकती। टूटा-फूटा, अस्त-व्यस्त अथवा कौटिल्यपूर्ण सत्य भी अमृत का ही एक स्वरूप है। 

सत्य का स्वरूप वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-

सत्य यथाथे वांग् मनसे यथा दृष्टं तथानुमतिं तथा वांग् मनश्चेति, परत्र स्वबोध संक्रान्तये वागुप्ता सा यदि न वंचिता, भ्रान्ता वा, प्रतिपन्ति बन्ध्या व भवेत्।”

“सत्य का तात्पर्य है- वाणी के साथ-साथ मन का भी सच्चा होना। जैसा देखा जाय अथवा जैसा अनुमान किया जाय, वैसा ही भाव प्रकट करने का निश्चय रखते हुए बात कहना ‘सत्य’ माना जायेगा। उसमें छल न हो। दूसरों को भ्रम में डालने वाला अथवा वस्तुस्थिति से भिन्न ज्ञान देने का प्रयत्न न किया जाय।” इस प्रकार सर्वांगपूर्ण सत्य ही सत्य है, विखंडित सत्य-असत्य का ही एक प्रकार होता है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति; | SACHCHAI JEEVAN KI SARVASHRESHTHA REETI-NEETI | SANTMAT-SATSANG | सृष्टि के आदि में सत्य की जो महत्ता और श्रेष्ठता थी

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति:

सृष्टि के आदि में सत्य की जो महत्ता और श्रेष्ठता थी वैसी आज बनी बनी हुई है। कोई मानवीय नियम समय के अनुसार भले ही बदले और संशोधित किए गये हों किन्तु सत्य के नियम में आज तक परिवर्तन नहीं किया गया और न कभी किया जा सकता है। सत्य सारे जीवन और सारी सृष्टि का एक मात्र आधार है। सत्य की महत्ता बतलाते हुए महात्मा इमरसन ने एक स्थान पर कहा है- “जिस सुन्दरतम और श्रेष्ठतम आधार पर मनुष्य को अपना जीवन अवस्थित करना चाहिए वह है- सत्य। सत्य के विरुद्ध किया हुआ प्रत्येक आचरण मानव समाज के स्वस्थ शरीर में छुरी भोंकने के समान निन्दनीय है।”

।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

चित्त और वित्त की स्थिति लगभग एक जैसी है | चित्त अर्थात मन को काबू में में रखना असम्भव सा है वैसे ही धन को भी मुट्ठी में बंद कर नहीं रखा जा सकता।

।। चिन्तन ।।

           चित्त और वित्त की स्थिति लगभग एक जैसी है। चित्त अर्थात मन को काबू में में रखना असम्भव सा है वैसे ही धन को भी मुट्ठी में बंद कर नहीं रखा जा सकता। हमारा मन वहीं ज्यादा जाता है जहाँ हम इसे रोकना चाहते हैं। इसीलिए कहा गया है कि मन के लिए निषेध ही निमंत्रण का काम करता है। जहाँ से हटाना चाहेंगे यह उसी तरफ भागेगा।
         ठीक ऐसे ही धन जब आता है तो शांति भी बाहर की ओर भागने लगती है। धन के साथ-साथ स्वयं की शांति और परिवार का सदभाव बना रहे, यह थोड़ा मुश्किल काम है।
          चित्त और वित्त दोनों चंचल हैं, दोनों जायेंगे ही, इसलिए दोनों को जाने भी दीजिए! मगर कहाँ ? जहाँ सत्संग हो, परोपकार हो, जहाँ प्रभु का द्वार हो और जहाँ से हमारा उद्धार हो।
।। जय गुरु ।।

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

सत्संग का अर्थ; Meaning of Satsang | Santmat Satsang

सत्संग
अक्सर सत्संग का अर्थ लोग प्रवचन सुनना समझते हैं। लेकिन सत्संग का अर्थ प्रवचन सुनना ही नहीं है। सत्संग का अर्थ हैं अच्छे लोगों से मिलना, सत्य का संग करना, अच्छी पुस्तकेें पढ़ना, अच्छी बातें सोचना आदि।
किसी भी क्षेत्र में सफलता पाने का यह प्रवेश द्वार है।

सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्वं निश्चलतत्वे जीवन्मुक्ति:।।

अर्थ :- सत्संग से निस्संगता पैदा होती है और निस्संगता से अमोह ! अमोह से चित्त निश्चल होता है और निश्चल चित्त से जीवन मुक्ति उपलब्ध होती है।
इस श्लोक में बताई गई बात अध्यात्म का एक प्रमुख बिंदु है।
शास्त्रों में न सिर्फ समस्या बताई गई है, बल्कि उसे कैसे सुधारा जाए, यह भी बताया गया है। जिससे व्यक्ति का उत्थान होगा वो पहली चीज है सत्संग।

हमारा मन आग की तरह है, आग में रबर डालो तो चारों तरफ बदबू फैलती है। आग में चंदन डालो तो चारों तरफ खुशबू फैलती है। तो सोचिए की मन रूपी आग में सुबह से शाम तक क्या पड़ रहा है?

यदि अच्छे विचार इस हवन कुंड में पड़ रहे हैं तो आपके आसपास के माहौल में एक खुशी, एक आनंद बहेगा।

सत्संग मतलब है अच्छे विचार। सत्संग का मतलब सिर्फ प्रवचन सुनना नहीं है।
सत्संग का मतलब है कि आप किस तरह की किताबें पढ़ रहे हैं?
किस तरह की बातें सोच रहे हैं?
किस तरह के लोगों से मिल रहे हैं?
किस तरह का खाना खा रहे हैं?
किस तरह के कपड़े पहन रहे हैं?
आप जो भी कर रहे हैं, वे यज्ञ की आहुतियां हैं।
आपके मन और बुद्धि में आहुति पड़ रही है।
प्रश्न यह है कि वह कैसी पड़ रही है?
सत्संग से मन में निस्संगता आती है, निस्संगता से मन शांत होता है। शांत मन से ही आप ध्यान के अधिकारी बनते हैं। क्योंकि जब हमारा मन अशांत हो, चित्त निश्चल न हो, तब
हम ध्यान में नहीं बैठ सकते। ध्यान में तभी बैठ सकते हैं, जब मन शांत हो।
निश्चल तत्वे जीवन मुक्ति:।
और जब मन शांत हो तभी मुक्ति होती है। सत्संग केवल अध्यात्म में ही नहीं होना चाहिए। आप किसी भी क्षेत्र में हों, आपको सत्संग चाहिए। आप यदि किसी व्यवसाय में भी ऊपर उठना चाहते हैं, तो आपको हमेशा उस व्यवसाय से संबंधित पुस्तकें पढ़नी पड़ेंगी। नई-नई रिसर्च हुई है, उसको पढ़ना पड़ेगा। आप ऐसा नहीं सोच सकते कि बस मैंने डिग्री प्राप्त कर ली, अब उसके बाद मुझे पढ़ाई की कोई जरूरत नहीं। आप किसी भी क्षेत्र में यदि आगे बढ़ना चाहते हैं, तो आपको अपने आंख-कान खुले रखने पड़ेंगे, ध्यान में उतरना पड़ेगा। यदि किसी भी क्षेत्र मे सफलता चाहते हैं, तो संग करें उस क्षेत्र में अपने से श्रेष्ठ व्यक्तियों का, जो उस क्षेत्र में माहिर हों।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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सोमवार, 3 दिसंबर 2018

मनुष्य जीवन का उद्देश्य- शरणागति!! | MANUSHYA JEEVAN KA UDHESYA-SHARNAGATI | SANTMAT-SATSANG

॥ मनुष्य जीवन का उद्देश्य - शरणागति ॥

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....


त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥

(गीताः ७/१३)
प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
(गीताः ७/१४)
यह तीनों दिव्य गुणों से युक्त मेरी माया को पार कर पाना असंभव है, परन्तु जो मनुष्य मेरे शरणागत हो जाते हैं, वह मेरी इस माया को आसानी से पार कर जाते हैं।

मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, वह भगवान की अनन्य-भक्ति प्राप्त करना है। अनन्य-भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है। यहाँ सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। हमारे पास किसी प्रकार की शक्ति है, धन-सम्पदा है, शारीरिक बल है, किसी प्रकार का पद है, बुद्धि की योग्यता है तो उसी को सभी चाहते है न कि हमको चाहते है। हम भी संसार से किसी न किसी प्रकार की विद्या, धन, योग्यता, कला आदि ही चाहते हैं, संसार को नहीं चाहते हैं।

इन बातों से सिद्ध होता है संसार में हमारा कोई नहीं है, सभी किसी न किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही हम से जुड़े हुए है। सभी एक दूसरे से अपना ही मतलब सिद्ध करना चाहते हैं। जीवात्मा रूपी हम, संसार रूपी माया से अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और माया रूपी संसार हम से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं।

भ्रम के कारण हम समझते हैं कि हम माया को भोग रहें है जबकि माया जन्म-जन्मान्तर से हमारा भोग कर रही है।

वास्तव में संसार को हमारे से जो अपेक्षा है, वही संसार हमारे से चाहता है। हमें अपनी शक्ति को पहचान कर संसार से किसी प्रकार की अपेक्षा न रखते हुए अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की इच्छा को पूरी करनी चाहिए। इस प्रकार से कार्य करने से ही जीवात्मा रूपी हम कर्म बंधन से मुक्त हो सकतें हैं। सामर्थ्य से अधिक सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करने से हम पुन: कर्म बंधन में बंध जाते हैं। हमें कर्म बंधन से मुक्त होने के लिये ही कर्म करना होता है, कर्म बंधन से मुक्त होना ही मोक्ष है। मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त होने पर ही जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परम-लक्ष्य स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

जब तक संसार को हम अपना समझते रहेंगे और संसार से किसी भी प्रकार की आशा रखेंगे, तब तक परम-लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है। जब तक अपना सुख, आदर, सम्मान चाहते रहेंगे तब तक परमात्मा को अपना कभी नहीं समझ सकेंगे। परमात्मा की कितनी भी बातें कर लें, सुन भी लें, पढ़ भी लें लेकिन जब तक सुख की चाहत बनी रहेगी तब तक भगवान में मन नहीं लग पायेगा।

हम परमात्मा से परमात्मा को नहीं चाहते है, हम परमात्मा से संसारिक सुख, सांसारिक मान, सांसारिक सम्पदा चाहते हैं।

जब तक हमारे अन्दर परमात्मा से परमात्मा को ही पाने की चाहत नहीं होगी तब तक परमात्मा को कैसे प्राप्त हो सकेंगे? संसारिक सभी रिश्ते तो स्वार्थ के रिश्ते हैं, हमारी जितनी सामर्थ्य हो सके उतना ही सांसारिक रिश्तों को निभाने का प्रयत्न करना चाहिये। हमें अपनी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की सेवा करनी चाहिये, स्वयं के सुख-सुविधा की अपेक्षा संसार से नही करनी चाहिये।

परमात्मा में हमारा मन तभी लग पायेगा जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि संसार में न तो हमारा कभी कोई था, न ही कभी कोई हमारा होगा और न ही कोई हमारा है। केवल भगवान ही हमारे थे, भगवान ही हमारे हैं और भगवान ही हमारे रहेंगे। इस संसार में कोई हमारा हो भी नहीं सकता है जो हमें चिर स्थाई सुख-सुविधा और प्रसन्नता दे सके। संसार में तो सभी सुख-सुविधा के भूखे हैं, मान के भूखे हैं, संपत्ति के भूखे हैं तो वह हमारे को सुख-सुविधा, मान-सम्मान, धन-संपदा कैसे दे सकते हैं?

किसी कवि ने लिखा है........
दाता एक राम, भीखारी सारी दुनियाँ।
राम एक देवता, पुजारी सारी दुनियाँ॥

संसार में तो हर कोई भिखारी हैं। इस संसार में तो हर एक भिखारी हर दूसरे भीखारी से भीख ही तो माँग रहा है लेकिन भ्रम के कारण स्वयं को दाता समझता है। जब कि दाता तो केवल परमात्मा ही है। हम जहाँ भी जाते है, वहाँ अपना स्वार्थ और अपनी सुख-सुविधा ही देखते हैं। अपने मान की अपेक्षा रखते हैं, अपना स्वागत चाहते हैं, अपनी तारीफ सुनना चाहते है। यह सब हमें संसार से मिलता तो है यह सब क्षणिक मात्रा में लेकिन धोखा अधिक मिलता है। हमें दूसरों को सुख और प्रेम देना चाहिये परन्तु लेने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये।

मनुष्य के लिये दूसरों की सेवा करना और भगवान को निरन्तर याद करना यह दो कर्म मुख्य है। यदि जो मनुष्य यह दो कर्म नहीं करता हैं तो वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं होता है, बल्कि ऎसा मनुष्य पशु-पक्षीयों के समान ही होता है। जब हम किसी भी व्यक्ति से आदर-सम्मान चाहते हैं उससे हमें सम्मान नही मिलता है तो हमें कष्ट का अनुभव होता है तब हम कहते हैं वह व्यक्ति अच्छा नहीं है। यह किसी को जानने की कसौटी नहीं है। बिना किसी मतलब के हर किसी का आदर-सम्मान तो भगवान और भगवान के भक्त महात्मा लोग ही किया करते है। जब तक हमारे अन्दर आदर-सत्कार पाने की इच्छा है, तब तक यह बात हम समझ नहीं सकते हैं।

संत कबीर दास जी कहते हैं..........
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय॥

जब तक हम अपने मतलब की बात सोचते रहेंगे तब तक यही दिखलाई देगा कि भगवान ने हमारे को दुःख दे दिया, भगवान ने हमारे साथ यह कर दिया, संत-महात्मा ने यह कर दिया ऎसा उन्हे नहीं करना चाहिये। जब कि वास्तव में दोष हमारा स्वयं का ही है, संसार की वस्तु ही चाहते है। यदि परमात्मा को ही चाहेंगे तो सांसारिक सुख की इच्छा नहीं रहेगी।

जिस दिन परमात्मा को पाने की इच्छा जाग्रत हो जायेगी उसी दिन से संसार से कुछ भी पाने की इच्छा समाप्त हो जायेगी। जब हमें संसार से मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और स्वयं की तारीफ अच्छी न लगे तब समझना चाहिये कि परमात्मा को पाने की इच्छा उत्पन्न हुई है। जब हम परमात्मा को चाहते हैं तब हमें अपमान, दुःख और किसी भी प्रकार की प्रतिकूलता में भी प्रसन्नता और आनंद का अनुभव होता है।

यह बात कुछ ऐसी है..... हमारी समझ में आये या न आये लेकिन महात्माओं से सुना है, जब कभी बीमार पड़ गये और कोई पानी पिलाने वाला न हो तो भी आनंद मिलता है। यदि कोई हमारी सेवा करता है तो वह भी अच्छा नहीं लगता है। यह बात हर किसी की समझ में नहीं आयेगी लेकिन सत्य है। जो जगदीश का प्रेमी होता है उसको जगत के सुख अच्छे नहीं लगते हैं और जिसे सांसारिक सुख अच्छे लगते हैं तो उसको परमात्मा से प्रेम कैसे हो सकता है? इस ज्ञान को ग्रहण करने की शक्ति व्यक्ति के विवेक जाग्रत होने पर ही मिल सकती है।

श्री राम चरित मानस में तुलसी दास जी कहते हैं.........

बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥

सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग ईश्वर की कृपा के बिना नहीं मिलता है। संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, संतों की संगति ही परम-सिद्धि का फल है और सभी साधन तो फूल के समान है।

भगवान की कृपा निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर कर्म करने से प्राप्त होती है। इसलिये मनुष्य को संसार में भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिये ही कर्म करना चाहिये। मनुष्य का संसार में विश्वास पतन का कारण होता है, और ईश्वर में विश्वास शाश्वत-सुख और परम-शान्ति का कारण होता है। हम किसी का कहना मानें यह हमारे वश की बात है, कोई हमारा कहना मानें यह हमारे वश की बात नहीं होती है। इसी प्रकार किसी को सुख देना हमारे हाथ में होता है परन्तु किसी से सुख पाना हमारे हाथ में नहीं होता है। जो हमारे हाथ की बात है, उसे करना ही स्वयं का उद्धार का कारण होती है, और जो हमारे हाथ की बात नहीं है उसे करना स्वयं के पतन का कारण होती है।

यदि हमें परमात्मा की तरफ चलना है तो हमें सांसारिक सुख अच्छे नहीं लगने चाहिए। जब हम पिछले कदम को छोड़ते हैं तभी हम आगे चल पाते हैं, जैसे-जैसे हम पिछले कदमों को छोड़ते जाते हैं उतने ही आगे बढ़ते चले जाते हैं। इस प्रकार से आगे बढ़ते रहने से एक दिन मंज़िल पर पहुँच ही जायेंगे। यदि हम पिछले कदम को छोड़ेंगे नहीं तो आगे नही बढ़ सकते हैं इसी प्रकार हम सांसारिक सुख को छोड़ने की इच्छा करेंगे तभी परमात्मा का आनन्द प्राप्त कर पायेंगे। दो नावों में सवार होकर नहीं चला जा सकता है। एक संसार रूपी भौतिक नाव है, दूसरी परमात्मा रूपी आध्यात्मिक नाव है। जब तक संसार रूपी नाव से नहीं उतरोगे तब तक परमात्मा रूपी नाव पर सवार कैसे हो सकते हैं?

जब संसार के लोग हमारा आदर करते है तो हमें समझना चाहिये कि हमारे ऊपर भगवान की कृपा है। वह हमारा आदर नहीं कर रहें हैं वह तो भगवान का आदर कर रहें होते हैं। जिस प्रकार किसी पद पर आसीन व्यक्ति को कोई सलाम करता है तो वह सलाम उस व्यक्ति के लिये न होकर उस पद के लिये होता है। हमारा आदर तो केवल भगवान ही कर सकते है।

संसार में जब तक किसी व्यक्ति का स्वार्थ नहीं होता है तब तक वह किसी का भी आदर नहीं कर सकता है। आज तक का इतिहास उठाकर देख लो इस संसार से कभी कोई तृप्त नही हुआ है। जो वस्तु जिसके पास अधिक है उसको उसकी उतनी ही अधिक ज़रुरत रहती है। जिसके पास धन अधिक है, उसको और अधिक धन पाने की इच्छा होती है। जिस निर्धन व्यक्ति के पास रुपये नहीं है उसको पचास, सौ रुपये मिल जायेगें तो समझेगा कि बहुत मिल गया लेकिन जो जितना धनवान व्यक्ति होता है उसकी भूख उस निर्धन व्यक्ति से अधिक होती है।

संसार में हमें सुख-सम्पत्ति का त्याग नहीं करना है, परन्तु सुख-सम्पत्ति को पाने की इच्छा का त्याग करना चाहिये।

यह इच्छा ही तो हमारे पतन का कारण बनती आयी है। ज्ञान के द्वारा ही संसार का त्याग हो सकता है और सम्पूर्ण विश्वास के साथ ही परमात्मा से प्रेम हो सकता है। जिनसे भी हमारा संसारिक संबन्ध है उन सभी का हमारे ऊपर पूर्व जन्मों का कर्जा है, उन सभी का कर्जा चुकाने के लिये ही तो यह शरीर मिला है। कर्जा तो हम चुकता करते हैं लेकिन साथ ही नया कर्जा हम फिर से चढ़ा लेते हैं। जब तक हम कर्जदार रहेंगे तो मुक्त कैसे हो सकते हैं। यह तभी संभव हो सकेगा जब कि हम इस संसार से नया कर्जा नहीं लेंगे। संसार तो केवल हमसे वस्तु ही चाहता है, हमारे को कोई नहीं चाहता है।

हम सभी के ऊपर मुख्य रूप से दो प्रकार का ही कर्जा है, एक शरीर जो प्रकृति का कर्जा है, दूसरा आत्मा जो परमात्मा का कर्जा है।

इसलिये हमें संसार से किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा का त्याग कर देना चाहिये और शरीर सहित जो कुछ भी सांसारिक वस्तु हमारे पास है उसे सहज मन-भाव से संसार को ही सोंपना देनी चाहिये। हम स्वयं आत्मा स्वरूप परमात्मा के अंश हैं इसलिये स्वयं को सहज मन-भाव से परमात्मा को सोंप चाहिये यानि भगवान के प्रति मन से, वाणी से और कर्म से पूर्ण समर्पण कर देना चाहिये।
यही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है। यही मानव जीवन की परमसिद्धि है। यही वास्तविक मुक्ति है। यह मुक्ति शरीर रहते हुए ही प्राप्त होती है। इसलिये यह मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

ब्रह्म मुहूर्त का ही विशेष महत्व क्यों? | BRAHAMMUHURTA KA VISHESH MAHATVA KYON? | MORNING VISHESH | SANTMAT-SATSANG

ब्रह्म मुहूर्त का ही विशेष महत्व क्यों ?

रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने इस मुहूर्त का विशेष महत्व बताया है। उनके अनुसार यह समय निद्रा त्याग के लिए सर्वोत्तम है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। सूर्योदय से चार घड़ी (लगभग डेढ़ घण्टे) पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में ही जग जाना चाहिये। इस समय सोना शास्त्र निषिद्ध है।
आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है। इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल दिए जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है।
वाल्मीकि रामायण के मुताबिक, जब माता सीता को ढूंढते हुए श्रीहनुमान ब्रह्ममुहूर्त में ही अशोक वाटिका पहुंचे। जहां उन्होंने वेद व यज्ञ के ज्ञाताओं के मंत्र उच्चारण की आवाज सुनी। सुबह जल्दी उठने से प्राप्त होते हैं ये पांच लाभ…
वर्णं कीर्तिं मतिं लक्ष्मीं स्वास्थ्यमायुश्च विदन्ति।
ब्राह्मे मुहूर्ते संजाग्रच्छि वा पंकज यथा॥

अर्थात – ब्रह्म मुहूर्त में उठने से व्यक्ति को

1.सुंदरता,
2. लक्ष्मी,
3. बुद्धि,
4. स्वास्थ्य,
5.आयु
आदि की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से शरीर कमल की तरह सुंदर हो जाता है।
क्या लिखा है शास्त्रों में?  वेदों में भी ब्रह्म मुहूर्त में उठने का महत्व और उससे होने वाले लाभ का उल्लेख किया गया है।
प्रातारत्नं प्रातरिष्वा दधाति तं चिकित्वा प्रतिगृह्यनिधत्तो।
तेन प्रजां वर्धयुमान आय रायस्पोषेण सचेत सुवीर:॥

– ऋग्वेद-1/125/1

अर्थात- सुबह सूर्य उदय होने से पहले उठने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इसीलिए बुद्धिमान लोग इस समय को व्यर्थ नहीं गंवाते। सुबह जल्दी उठने वालाव्यक्ति
स्वस्थ, सुखी, ताकतवाला और दीर्घायु होता है।
यद्य सूर उदितोऽनागा मित्रोऽर्यमा।
सुवाति सविता भग:॥–

सामवेद-35

अर्थात- व्यक्ति को सुबह सूर्योदय से पहले शौच व स्नान कर लेना चाहिए। इसके बाद भगवान की पूजा-अर्चना करना चाहिए। इस समय की शुद्ध व निर्मल हवा से स्वास्थ्य और संपत्ति की वृद्धि होती है।
उद्यन्त्सूर्यं इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आददे।

अथर्ववेद- 7/16/२

अर्थात- सूरज उगने के बाद भी जो नहीं उठते या जागते उनका तेज खत्म हो जाता है। अच्छे स्वास्थ्य का रहस्य
हमारे धर्मग्रंथों में ब्रह्म मुहूर्त में उठने का सबसे बड़ा लाभ अच्छा स्वास्थ्य बताया गया है। क्या है इसका रहस्य? दरअसल सुबह चार बजे से साढ़े पांच बजे तक वायुमंडल में यानी हमारे चारों ओर ऑक्सीजन अधिक होती है।
वैज्ञानिक खोजों में भी पता चला है कि इस समय ऑक्सी जन गैस की मात्रा अधिक होती है। सूर्योदय के बाद वायु मंडल में ऑक्सीजन कम होने लगती है और कार्बन डाई आक्साइड बढऩे लगती है। ऑक्सीजन हमारे जीवन का आधार है। शास्त्रों में इसे प्राणवायु कहा गया है। ज्यादा ऑक्सीजन मिलने से हमारा शरीर स्वस्थ रहता है। इसलिए मिलती है सफलता व समृद्धि ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाला व्यक्ति सफल, सुखी और समृद्ध होता है, क्यों? क्योंकि जल्दी उठने से दिनभर के कार्यों और योजनाओं को बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। इसलिए न केवल जीवन सफल होता है। शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने वाला हर व्यक्ति सुखी और समृद्ध हो सकता
है। इस कारण वह जो काम करता है, उसमें प्रगति होती है। विद्यार्थी परीक्षा में सफल रहता है। नौकरी करने वाले से प्रबंधक खुश रहता है। बिजनेसमैन अच्छी कमाई कर सकता है। सफलता उसी के कदम चूमती है जो समय
का सदुपयोग करे और स्वस्थ रहे। अत: स्वस्थ और सफल रहना है तो ब्रह्म मुहूर्त में उठें। शरीर रहता है स्वस्थ ब्रह्म मुहूर्त में उठना हमारे जीवन के लिए बहुत लाभकारी है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ होता है और दिनभर स्फूर्ति बनी रहती है। स्वस्थ रहने और सफल जीवन का यह ऐसा
उपाय है, जिसमें खर्च कुछ नहीं होता। केवल आलस्य छोड़ने की जरुरत है।                                            

ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति *********
ब्रह्म मुहूर्त और प्रकृति का गहरा नाता है। इस समय में पशु-पक्षी जाग जाते हैं। उनका मधुर कलरव शुरू होजाता है। कमल का फूल भी खिल उठता है। मुर्गे बांग देने लगते हैं। एक तरह से प्रकृति भी ब्रह्म मुहूर्त में चैतन्य हो जाती है। यह प्रतीक है उठने, जागने का। प्रकृति हमें संदेश देती है ब्रह्म मुहूर्त में उठने के लिए।
। जय गुरु महाराज।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

उत्तम वाणी, सत्य वचन, धीर गंभीर मृदु वाक्य | SANTMAT-SATSANG

उत्‍तम वाणी, सत्‍य वचन, धीर गंभीर मृदु वाक्‍य!

मनुष्‍य को सदा उत्‍तम वाणी अर्थात श्रेष्‍ठ लहजे में बात करना चाहिये, और सत्‍य वचन बोलना चाहिये, संयमित बोलना, मितभाषी होना अर्थात कम बोलने वाला मनुष्‍य सदा सर्वत्र सम्‍मानित व सुपूज्‍य होता है। कारण यह कि प्रत्‍येक मनुष्‍य के पास सत्‍य का कोष (कोटा) सीमित ही होता है और शुरू में इस कोष (कोटा) के बने रहने तक वह सत्‍य बोलता ही है, किन्‍तु अधिक बोलने वाले मनुष्‍य सत्‍य का संचित कोष समाप्‍त हो जाने के बाद भी बोलते रहते हैं, तो कुछ न सूझने पर झूठ बोलना शुरू कर देते हैं, जिससे वे विसंगतियों और उपहास के पात्र होकर अपमानित व निन्‍दनीय हो अलोकप्रिय हो जाते हैं। अत: वहीं तक बोलना जारी रखो जहॉं तक सत्‍य का संचित कोष आपके पास है। धीर गंभीर और मृदु (मधुर) वाक्‍य बोलना एक कला है जो संस्‍कारों से और अभ्‍यास से स्‍वत: आती है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...