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बुधवार, 26 मई 2021

श्री सद्गुरु की सार शिक्षा, याद रखनी चाहिए | The essence education of Shri Sadguru should be remembered.

श्री सद्गुरु की सार शिक्षा, याद रखनी चाहिए।

अति अटल श्रद्धा प्रेम से, गुरु-भक्ति करनी चाहिए।I
मृग-वारि सम सबही प्रप´्चन्ह, विषय सब दुःख रूप हैं।
निज सुरत को इनसे हटा, प्रभु में लगाना चाहिए।।
अव्यक्त व्यापक व्याप्य पर जो, राजते सबके परे।
उस अज अनादि अनन्त प्रभु में, प्रेम करना चाहिए।।
जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिए।
घट मठ प्रप´्चन्ह जब मिटैं, नहिं अंश कहना चाहिए।।
ये प्रकृति द्वय उत्पत्ति लय, होवैं, प्रभू की मौज से।
ये अजा अनाद्या स्वयं हैं, हरगिज न कहना चाहिए।।
आवागमन सम दुःख दूजा, है नहीं जग में कोई।
इसके निवारण के लिए, प्रभु-भक्ति करनी चाहिए।
जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभ-भक्ति कर सकते सभी।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट-पट हटाना चाहिए।।
गुरु-जाप मानस ध्यान मानस, कीजिए दृढ़ साधकर।
इनका प्रथम अभ्यास कर सु्रत शुद्ध करना चाहिए।।
घट-तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे।
कर दृष्टि अरू ध्वनि-योग-साधन, ये हटाना चाहिए।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिए।।
पाखण्ड अरूऽहंकार तजि, निष्कपट हो अरू दीन हो।
सब कुछ समर्पण कर गुरु की, सेव करनी चाहिए।
सत्संग नित अरू ध्यान नित, रहित करत संलग्न हो।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए।।
सब सन्तमत सिद्धान्त ये, सब सन्त दृढ़ हैं कर दिए।
इन अमल थिर सिद्धान्त को, दृढ़ याद रखना चाहिए।।
यह सार है सिद्धान्त सबका, सत्य गुरु को सेवना।
'मेँहीँ' न हो कुछ यहि बिना, गुरु सेवा करनी चाहिए।

रविवार, 23 मई 2021

जो भगवद्-भजन करेंगे, सत्संग करेंगे, वे चौरासी लाख योनियों में क्यों जाएंगे? | MAHARSHI-SANTSEVIJI-MAHARAJ | SANTMAT-SATSANG |

 जो भगवद्-भजन करेंगे, सत्संग करेंगे, वे चौरासी लाख योनियों में क्यों जाएंगे? 

वे तो अंततः प्रभु में ही मिलेंगे। एक अँगीठी थी। उसमें दहकते हुए सारे कोयले लाल-लाल हो रहे थे। उन कोयलों में से एक ने सोचा- एक साथ रहने से तो सभी लाल-ही-लाल हैं। क्यों ना अलग होकर हम अपना अलग प्रभाव डालें। वह अंगूठी से कूदकर नीचे आ गया। जब तक वह सब कोयले के साथ था, तब तक उसमें गर्मी थी और वह लाल था। जब वह अंगूठी से नीचे गिरा तो कुछ देर वह लाल रहा और उसमें गर्मी भी रही, लेकिन धीरे-धीरे लाली खत्म हो गई और गर्मी भी समाप्त हो गई। कोयला काला ही रह गया। उसी तरह जो अपने को सत्संग के माहौल में रखता है वह लाल-ही-लाल बन कर एक दिन परम लाल-परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। 

पर जब कोई अपरिपक्व साधक अलग जाकर संस्था बनाता है, तो कुछ दिन तक तो लाली रहती है, लेकिन धीरे-धीरे वह माया में पड़ जाता है और उसका मन कोयले की तरह काला बनकर रह जाता है। संत तुलसी साहब ने कहा है:-

"सखी सीख सुनि गुनि गाँठि बाँधौं।                 

ठाठ ठट सत्संग करै।।

जब   रंग   संग   अपंग  आली  री।                

अंग सत मत मन मरै।।"

सत्संग करते-करते ही सत्संग का रंग लगेगा और जो मन विषयों में भागता है, वह मन मर जाएगा, उस ओर से मुड़ जाएगा। विषय की ओर से निर्विषय की ओर चला जाएगा। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-"सठ सुधरहिं सत्संगत पाई। पारस परसि कुधातु सोहाई।।"जो मूर्ख हैं वे भी सत्संग पाकर सुधर जाते हैं।(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)

🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏

सोमवार, 9 दिसंबर 2019

सत्संग-महिमा | SATSANG MAHIMA | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Ashram | Kuppaghat-Bhagalpur

सत्संग-महिमा
☘शास्त्रों में सत्संग की महिमा खूब गाई गई है। 'श्रीरामचरितमानस' के सुंदरकांड में आता हैः

तात स्वर्ग आपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तुल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।

हे तात ! 'स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये तो भी वे सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव माने क्षण मात्र के सत्संग से होता है।'

एक क्षण के सत्संग से जो वास्तविक आनंद मिलता है, वास्तविक सत्य स्वरूप का जो ज्ञान मिलता है, जो सुख मिलता है वैसा सुख स्वर्ग में भी नहीं मिलता। इस प्रकार, सत्संग से मिलने वाला सुख ही वास्तविक सुख है।

'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में ब्रह्मर्षि वशिष्ठजी महाराज मोक्ष के द्वारपालों का विवेचन करते हुए भगवान श्रीराम से कहते हैं-

"शम, संतोष, विचार एवं सत्संग – ये संसाररूपी समुद्र से तरने के उपाय हैं। संतोष परम लाभ है। विचार परम ज्ञान है। शम परम सुख है। सत्संग परम गति है।"

सत्संग का महत्त्व बताते हुए उन्होंने कहा हैः

विशेषेण महाबुद्धे संसारोत्तरणे नृणाम्।
सर्वत्रोपकरोतीह साधुः साधुसमागमः।।

'हे महाबुद्धिमान् ! विशेष करके मनुष्यों के लिए इस संसार से तरने में साधुओं का समागम ही सर्वत्र खूब उपकारक है।'

सत्संग बुद्धि को अत्यंत सात्त्विक बनाने वाला, अज्ञानरूपी वृक्ष को काटने वाला एवं मानसिक व्याधियों को दूर करने वाला है। जो मनुष्य सत्संगतिरूप शीतल एवं स्वच्छ गंगा में स्नान करता है उसे दान, तीर्थ-सेवन, तप या यज्ञ करने की क्या जरूरत है ?"

कलियुग में सत्संग जैसा सरल साधन दूसरा कोई नहीं है। भगवान शंकर भी पार्वतीजी को सत्संग की महिमा बताते हुए कहते हैं-

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।

सभी ब्रह्मवेत्ता संत स्वप्न समान जगत में सत्संग एवं आत्म-विचार से सराबोर रहने का बोध देते हैं। मेरे गुरुदेव के उपदेश एवं आचरण में कभी-भी भिन्नता देखने को नहीं मिलती थी। वे सदैव आत्मचिंतन में निमग्न रहने का आदेश देते थे।

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन से कहा था..... -महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi | Krishna

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏


🍁भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन से कहा था कि तुम किसको मारोगे? कुरुक्षेत्र के मैदान में जितने लड़ने आए हैं, ये पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे, ऐसी बात नहीं। शरीर बदलता है, आत्मा अविनाशी है। इस शरीर में जीवात्मा है और शरीर के बंधन में है। शरीर के बंधन में रहने से क्या होता है, यह सबको मालूम है। कभी सुख, कभी दुःख दिन रात की तरह आता-जाता रहता है। कभी लगभग चौदह घंटे की रात और कभी चौदह घंटे का दिन होता है। लेकिन बराबर न रात रहती है, न दिन रहता है। उसी तरह दुःख कभी अधिक, कभी कम। कभी पाण्डव बड़े सुख में थे और कभी भीख भी माँगी, कभी नौकरी भी की। नौकरी में युधिष्ठिर ने भी मार खायी और द्रौपदी ने भी। महारानी सीता भी रोयीं। एक बार कौन कहे, दो-दो बार। 

सूरदासजी ने कहा- 
*ताते सेइये यदुराई।*
*सम्पति विपति विपति सों सम्पति देह धरे को यहै सुभाई।।* 
*तरुवर फूलै फलै परिहरै अपने कालहिं पाई।* 
*सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै सूखे खेह उड़ाई।।* 
*द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढे़े घटत घटत घटि जाई।* 
*सूरदास सम्पदा आपदा जिनि कोऊ पतिआई।।* 
सम्पदा व आपदा, किसी का विश्वास नहीं करो कि यह सदा रहेगी। यह तो प्रत्यक्ष अपने देश में हुआ। अंग्रेज बात-की-बात में भाग गया। जमींदारों की जमींदारी चली गई। बहुत-बहुत जमीन भी अब किसी के पास नहीं रहने को। कभी भारत बड़ा धनी था और अब भारत ऋणी है; लेकिन सदा ऋणी रहेगा, ऐसा नहीं।
इस शरीर में कभी सुख, कभी दुःख होता है। सम्पत्ति में बाहर में तो अच्छा लगता है; लेकिन अंतर जलता रहता है। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है- 
*द्रव्यहीन दुख लहइ दुसह अति, सुख सपनेहु नहिं पाये।*
*उभय प्रकार प्रेत पावक ज्यों, धन दुख प्रद स्रुति गाये।।* 
धन होने और नहीं होने, दोनों तरहों में दुःख है। धन नहीं है, तो जलते हैं और धन हो गया, तो जैसे भूत चढ़ गया, चैन नहीं लेने देता। जो सब राष्ट्र वा एक ही राष्ट्र बड़ा धनवान है, तो चुपचाप रहे। लेकिन चुपचाप रहता कहाँ है? उसको भूत लगा है, अपने ऐश्वर्य को बढ़ाने के लिए। भारत कहता है कि हमारे पास धन नहीं है, इससे दुःखी हैं और अमेरिका कहता है-‘हमारे पास अमित धन है, धन के भोगों से बचाओ।’ वह भोग के मारे पागल हो रहा है। इस तरह धन सुख देनेवाला नहीं है। सुख कहने मात्र का है, यथार्थ में नहीं।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 

रविवार, 24 नवंबर 2019

सत्संग जीवन पर्यन्त करो- सद्गुरु मेँहीँ | SANT SADGURU MAHARSHI MEHI PARAMHANS JI MAHARAJ

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🌸सत्संग जीवन पर्यन्त करो🌸
प्यारे लोगो!
संत कबीर साहब का वचन है-
निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार।
यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार।।
हे लोगो! तुम बिना डर के बैठे हुए हो, चेतते नहीं हो। इस शरीर के रहते हुए तुम नाम-भजन कर लो। जल के बुलबुले के समान यह शरीर कभी भी नष्ट हो सकता है।
शरीर छूट जाने पर हम दुःख में न पड़ जाएँ, यह डर रहता है।
*नहिं बालक नहिं यौवने, नहिं बिरधी कछु बंध।* 
*वह अवसर नहिं जानिये, जब आय पड़े जम फंद।।*  
       -गुरु नानकदेव
प्रत्यक्ष देखते हैं कि प्रत्येक अवस्था के लोग मर जाते हैं। नाम-भजन करके आवागमन के दुःख से बच सकते हो। नाम (शब्द) सुनने में आता है, देखने में नहीं आता। सुर लय को लोग कैसे लिख सकता है? ईश्वर का नाम वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक दोनों है। 
*दादू सिरजनहार के, केते नावँ अनन्त।* 
*चित आवै सो लीजिए, यों सुमरै साधू संत।।* 
अपने अंदर में अजपा-जाप की ध्वनि स्वाभाविक हो रही है। सुरत को उसमें लगाकर रखना भजन है। सुरत की डोरी इन्द्रियों की घाटों पर लगी हुई है। तिल के द्वार पर मजबूती से देखना, दोनों आँखों की दृष्टि को मजबूती से जोड़ना, यही सुरत को खींचना है।
*सुखमन कै घरि राग सुनि, सुन मण्डल लिवलाइ।* 
शून्य मण्डल में लौ लगाना दृष्टियोग से होता है। पहले सुरत को स्थूल से सूक्ष्म मण्डल में ले जाओ। वैष्णवी मुद्रा  करते हुए नादानुसन्धान करो। उत्तम आचरण से नहीं रहनेवाला यह नाम-भजन नहीं कर सकता है। निकृष्ट आचरणवाले विषयों में लगे रहते हैं। इन्द्रियों को विषयों में लोलुप रखना निकृष्ट आचरण है और विषयों में लोलुप नहीं रखना उत्तम आचरण है। बिना उत्तम आचरण रखे कोई भी नाम-भजन नहीं कर सकता है। जो फँसाव को कम करता जाता है, तब भजन ठीक है और यही भजन की तैयारी है। पहले मानस जप और मानस ध्यान है। ध्यान में भी स्थूल और सूक्ष्म है। उत्तम आचरण रखते हुए जप और ध्यान की डोर को पकड़े रहना नाम-भजन में रत हो जाना है। यही है मरने के बाद दुःख में नहीं जाना। सदा का सुख भजन में ही है। हमारी मौत बहुत नजदीक है। इसका प्रबन्ध ठीक नहीं होने से बराबर मौत से डरते रहेंगे।
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।
डरत रहै सो ऊबरै, गाफिल खावै मार।।
हमलोगों का शरीर मंदिर है। नियमित रूप से प्रतिदिन इसमें भजन करना चाहिए। मृत्यु के समय भी भजन करने का अभ्यास हो जाए तो बहुत ठीक है। भजन में विलम्ब मत करो।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 

सदाचार- महर्षि संतसेवी परमहंस | Virtue | MORALITY | GOOD BEHAVIOR | DECORUM | Maharshi Santsevi Paramhans

यह सुनिश्चित है कि जो ईश्वर-भक्ति करके सदाचार का पालन करेंगे, उनका अन्तःकरण शुद्ध और शान्त होगा। फलतः, सदाचारी का निर्विकारी और परोपकारी होना स्वाभाविक है। ऐसे जन जीवनकाल में मंगलमय प्रभु को पाकर अपने मानव जीवन को मंगलमय बना सकेंगे, यह भी स्वाभाविक ही है। स्मरण रहे कि बूँद का ही समष्टिरूप सिंधु  होता है और व्यक्ति का समूह समाज, देश और विश्व होता है, अतएव प्रथम हम स्वयं को सन्मार्ग पर चला उस शान्ति का अनुभव करें। पश्चात वही शान्ति-किरण विकीर्णित होकर समाज, देश और विश्व में शान्ति प्रस्थापित करेगी, अन्यथा 'पानी मिलै न आपको, औरन बकसत क्षीर’ के चरितार्थकर्त्ता का घोर प्रयास भी सपफलता प्राप्त करने में कदापि सक्षम नहीं हो सकता। 
-महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*

बुधवार, 20 नवंबर 2019

ज्ञान मार्ग पर चलने वाला और भक्त | Gyan ke marg par chalne wala bhakt | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌹जय गुरु महाराज🌹🙏
🍁ज्ञानमार्ग पर चलने वाला तो अपने साधन का बल मानता है, पर भक्त की यह विलक्षणता होती है कि वह अपने साधन का बल मानता ही नहीं। कारण कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना तप करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना सत्संग करता हूँ‒इस तरह भीतर में अभिमान रहने से भक्ति प्राप्त नहीं होती। जिनका सीधा-सरल स्वभाव है, जो भगवान्‌ की कृपा पर निर्भर रहते हैं और हरेक परिस्थिति में मस्त, आनन्दित रहते हैं, उन्हीं को भक्ति प्राप्त होती है‒

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा॥
सरल सुभाव  न  मन कुटिलाई।
जथा   लाभ    संतोष    सदाई ।।
         (मानस, उत्तर॰ ४६ । १)

जब तक अपने साधन का अभिमान रहता है, तब तक असली भक्ति प्राप्त नहीं होती। भक्ति प्राप्त होने पर भक्त के मन में यह बात आती ही नहीं कि मैं भजन करता हूँ । जैसे, हनुमान्‌जी महाराज कहते हैं‒ ‘जानउँ नहिं कछु भजन उपाई’ (मानस, किष्किन्धा॰ ३ । २)

हनुमान्‌जी भक्ति के खास आचार्य होते हुए भी कहते हैं कि मैं भजन का उपाय नहीं जानता कि भजन क्या होता है ? कैसे होता है? शबरी को पता ही नहीं था कि भक्ति नौ प्रकार की होती है और वह मेरे में पूर्णरूप से विद्यमान है ! वह कहती है‒


अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह  महँ  मैं  मतिमंद  अघारी।।
        (मानस, अरण्य॰ ३५ । २)

परन्तु भगवान् उसको कहते हैं‒

नवधा  भगति  कहउँ  तोहि पाहीं।
सावधान  सुनु   धरु   मन   माहीं॥......

नव महुँ एकउ   जिन्ह   कें   होई।
नारि पुरुष   सचराचर      कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
सकल प्रकार  भगति  दृढ़   तोरें ॥
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

मानस जप कैसे करें! Manas Jaap kaise karen | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।

मानस जप कैसे करें?

मानस जप को सभी जपों का सम्राट कहा गया है। इसकी विशेषता है कि इसमें मन्त्र-जापक स्वयं मन ही होता है। मन ही मन, मन से ही गुरु प्रदत्त मन्त्र की मंत्रावृत्ति करनी होती है।


मन इधर-उधर न भटके, इसे निद्रा वा गुणावन (निर्धारित लक्ष्य से भटक कर मन का अन्य विचारों में खो जाना) न घेर ले, इसके लिए, संतों का उपदेश है, मन को समक्ष रखकर, सात्त्विकी वृत्ति में रखकर जप किया जाय (तामसी वृत्ति में नींद तथा रजोगुणी वृत्ति में मन में, विचारों में चंचलता आती है)। इसके लिए अपनी दृष्टि पर निगरानी रखनी भी अत्यावश्यक है।

उदाहरणार्थ, गुरु महाराज के एक प्रवचन में मानस जप से सम्बंधित एक महत्त्वपूर्ण बात आयी है जो ध्यातव्य है-

"... समझो कि तुम्हारे शरीर में दो भाग हैं। दाईं-बाईं ओर का मिलाप जहाँ है, वह मध्य है। दाईं  ओर की वृत्ति पिंगला और बाईं ओर की वृत्ति इड़ा, और बीच में सुषुम्ना है। कोशिश करो कि मध्य-वृत्ति में रखकर जप करने के लिए..."

मध्यवृत्ति में रहकर जप करना चाहिए। यदा-कदा कहीं-कहीं ऐसा कहा जाता है कि जप का दृष्टि से कोई संबंध नहीं है। गुरु महाराज का यह कथन इस स्थिति के  स्पष्टीकरण के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है - *मध्य अर्थात् समक्ष रहते हुए (अर्थात् सामने वृत्ति रखते हुए) जप करना चाहिए*। अपने ही एक अन्य प्रवचन में भी परामराध्य गुरु महाराज पुनः कहते हैं, "मानस जप करो। सुषुम्ना में वृत्ति रखकर नाम जपो।"

गुरु महाराज के प्रवचन में अन्यान्य स्थलों पर भी इसके संकेत मिलते हैं। एक बार पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज ने भी, मेरी जिज्ञासा के उत्तर में, मुझसे कहने की कृपा की थी, *जप करते समय दृष्टि ठीक सामने रखा करो।* एक स्थल पर उन्होंने कहा भी है-

_"जहाँ तक बन पड़े , भजन में मन लगाना चाहिये । कुछ भी दिखे अथवा नहीं दिखे , *अन्धकार को देखते* रहना चाहिये । *मानस-जप* , मानस ध्यान और दृष्टि -साधन, इन तीनों को अन्धकार पट पर ही *करना चाहिये*।"_

इससे भी स्पष्ट होता है कि मानस जप को भी दृष्टि से सम्बन्ध है - ठीक सामने देखते हुए (सिमटी दृष्टि से नहीं, और बिना किसी आकृति अथवा रूप को देखने का भाव रखते हुए सिर्फ सामने देखते हुए) मानस जप करना चाहिये।

सन्तमत के वर्तमान आचार्यश्री पूज्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज की भी यही शिक्षा है। यही बात ध्यान-विषयक जिज्ञासाओं के दौरान अक्सर अत्यन्त वरिष्ठ महात्मा पूज्य अच्युतानन्द बाबा भी कहा करते हैं।  तथा, पूज्य निर्मलानंद बाबा, पूज्य स्वरूपानन्द बाबा, पूज्य सत्यप्रकाश बाबा इत्यादि गण्यमान्य महात्मागण भी इस सिद्धान्त से सहमत हैं।

दरअसल, मन को दृष्टि की सहायता से नियंत्रित रखना सरल और सहज है। दृष्टि भी सूक्ष्म और मन भी सूक्ष्म। _अतः दृष्टि का कार्य ध्यानाभ्यास के प्रथम पग से ही प्रारंभ हो जाता है।_ परमाराध्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज कहा भी करते थे, *"मन का संबंध दृष्टि से है। जहाँ दृष्टि रहती है, वहीं मन रहता है।"* और फिर, मानस जप में मन ही ने तो जपना है मन्त्र! इसलिए यदि हम अपनी दृष्टि को समक्ष, सद्गुरु से ऐसा करने की सद्युक्ति सीखकर, रखते हुए जप करें तो जप में सफलता अपेक्षाकृत सरलतर हो जायेगी।

वस्तुतः, यदि हम ध्यानपूर्वक विचार करेंगे तो पाएँगे कि हम जब कभी मानस जप से भटक जाते हैं और थोड़ी देर बाद जब पुनः चेतते हैं तो पाते हैं कि ठीक उस क्षण में दृष्टि या तो ऊपर, नीचे, बाएँ, दाएँ, अर्थात् सामने की ओर से हटकर कहीं-न-कहीं खिसकी हुई मिलेगी। दृष्टि के खिसकने से जप की एकाग्रता, एकचित्तता जाती रहती है। इसलिए, दृष्टि को ठीक सामने रखते हुए (इसमें कुछ, कोई आकृति विशेष, देखने का भाव न हो, फैली दृष्टि से) जप करना ही सही है। 

इसको एक उदाहरण से समझने की चेष्टा करें। एक बच्चा जो अपने पिता के साथ बाजार या मेला घूमने जाता है और पिता का हाथ छूट जाता है, वह मेले में खो जाता है। पिताश्री को कहीं न पाकर वह बच्चा निराश, हताश हो घर लौट आता है। घर पहुँचकर देखता है कि वहाँ भी ताला लगा हुआ है। वह गृह द्वार, दहलीज पर बैठ जाता है और सामने सड़क की ओर एकटक से निहारता हुआ रोता जाता है, और पूरी कातरता से, विह्वलता से, "ओ पापा, हे पिताजी, हे पिताजी, हे ..., पुकारते हुए मन में भाव कैसा है - हे पिताश्री, आइये न, आजाइये न प्लीज!" पुकारता जाता है, पुकारता जाता है, पुकारता ही जाता है।

कुछ ऐसे ही विह्वल भाव हृदय में लिए सामने देखते हुए यदि हम भी पुकारते जाएँ, पुकारते जाएँ, पुकारते जाएँ - "सिर्फ दृष्टि सामने हो तथा मन में पुकार का भाव हो - "हे गुरु, आप तो उस सामने के अंधकार में ही छिपे हुए हैं न, दर्शन क्यों नहीं देते? हे गुरु! कहाँ छिप गए हैं आप? हे गुरु! कृपाकर प्रकट होइए न!" इस भाव के साथ लगातार टेर लगाते रहेंगे तो सच्चे दिल की कातर पुकार सुन सद्गुरु क्यों नहीं प्रकट होंगे! _"पिउ पिउ पिउ करि कूकिये, ना पड़ि रहिए असरार। बार-बार के कूकते, कबहुँक लगे पुकार।"_

"है ये जप नहीं, फ़रियाद है,
ये पुकार है गुरुदेव की।
मुर्शिदफ़नाफिल ना हुए,
फिर जप किया भी तो क्या किया।।
अरे ओ रे मन रटते रहो, है मन्त्र जो गुरु ने दिया।
कल्याण की गर आश है, बुझने न दो जप का दिया।।"

जप का स्वरूप पुकार का, आह्वान का होना चाहिए; ऐसी व्यग्रता होनी चाहिए पुकार में कि प्रेमपूर्ण जप रुपी पुकार को सुन गुरु प्रगट होने को विवश हो जायें।

गुरु महाराज का हमसब पर करम बरसे, हम जप में ऐसी विह्वल, तीव्र पुकार लगा सकें कि हमारी फ़रियाद सुन गुरु महाराज, हमारे कामिल मुर्शिद हमारे नयनाकाश में सामने प्रकट जाएँ और हम उनको अपलक निहारते हुए उनमें ही खो जायें, फ़ना हो जाएँ, पूरे का पूरा मन उन्हीं में अटक जाए और ऐसा करते वक़्त उसे ये भी इल्म न रहे कि वह उनके अक्स में अटक गया है। अहा! कैसा होगा वो दिन, कैसी होगी वो घडी........

मानस जप की स्वाभाविक परिणति मानस ध्यान में होनी ही चाहिए।

🙏🙏 जय गुरु! 🙏🙏

सोमवार, 5 अगस्त 2019

पाप पुण्य कर्म फल अलग-अलग | Santmat Satsang | Paap Punya Karma

🙏🌹 श्री सद्गुरवे नमः 🌹🙏
🍁ईश्वर-भक्ति का ज्ञान सबको देना चाहिए। एक ईश्वर की उपासना ठीक है। बहुदेव उपासना ठीक नहीं। बहुदेव उपासी ईश्वर को भूल जाता है। वही नास्तिक है। फिर ऐसा भ्रम कि अमुक जगह मरने से स्वर्ग और अमुक जगह मरने से नरक होगा, यह बात नहीं हो सकती। गंगा-स्नान करने से, आपके मृतक शरीर को गंगा के किनारे जलाने से अथवा आपकी हड्डियाँ या भस्म को गंगाजी में देने से स्वर्ग हरगिज नहीं हो सकता।

 
पाप करके पुण्य करें, इससे पाप नहीं कट सकता। पुण्य का फल अलग और पाप का फल अलग मिलेगा। आपने किसी से दो रुपया कर्ज लिया और किसी को दो रुपया दान दिया, इसलिए वह महाजन आपसे रुपया नहीं माँगे, यह कहाँ की बात है? वह तो कहेगा कि आपने दान अपने लिए किया, मुझे उससे क्या? मेरा रुपया दो।
युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष झूठ बोले, बल्कि उनकी प्रेरणा से झूठ बोले, फिर भी दो मुहूर्त तक नरक में रहना पड़ा। उसके लिए खातिरदारी नहीं हुई। जो कर्म कीजिएगा, उसका फल भोगना ही पड़ेगा। तब आप कहेंगे कि क्या कर्म-फल से कोई छूट नहीं सकता? सौर-जगत में रहने से सूर्य का प्रभाव पड़ेगा ही। यदि सौर जगत से कोई पार हो जाए तो उस पर सूर्य का प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार कर्म मंडल में रहने से कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा। कर्ममण्डल पार कर जाने से कर्मफल छूट जाएगा। इसीलिए मैंने पहले ही कहा कि अपने को इन्द्रियों से छुड़ाओ।

*चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित अहंकार।*
*विमल विचार परमपद, निज सुख सहज उदार।।*
      -विनय-पत्रिका

विचार में अपने का ज्ञान होता है, किंतु पहचान नहीं। अपने को चतुष्ट्य अंतःकरण से छुड़ाओ, कर्ममण्डल से पार हो जाओगे। अपनी पहचान होगी और मोक्ष मिलेगा। फिर कर्मबंधन से छूटोगे। ‘कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चिन्हें।’ लोक- लोकान्तर में जाने से मुक्ति नहीं मिलती। कभी न कभी फिर यहाँ आना ही पड़ेगा। इसलिए अपने को सब आवरणों से छुड़ाकर कैवल्यता प्राप्त करो और मोक्ष प्राप्त कर लो। फिर आवागमन से रहित हो जाओगे।

(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)

🙏🌸🌿 जय गुरु महाराज 🌿🌸🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट

सोमवार, 29 जुलाई 2019

अपराध रहित होकर भगवान का भजन करें! SANTMAT SATSANG

अपराध रहित होकर भगवान् का भजन करें;

अशेषसंक्लेशशमं विधत्ते गुणानुवादश्रवणं मुरारेः ।
कुतः पुनस्तच्चरणारविन्द परागसेवारतिरात्मलब्धा ॥

                    (भा. ३/७/१४)



जितने प्रकार के क्लेश होते हैं, वे सब केवल भगवान् का गुणानुवाद श्रवण करने मात्र से शान्त हो जाते हैं । ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो कथा सुन लें और अगर भक्ति आ गयी तो फिर कहना ही क्या? संसार का ऐसा कोई कष्ट नहीं है जो भगवान् की भक्ति से दूर न हो जाए। कहीं भगवान के चरणों में रति हो गयी फिर तो क्या कहना? निश्चित रूप से समस्त कष्ट केवल कथा सुनने मात्र से चले जाते हैं ।

शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषाः ।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधन्ते हरिसंश्रयम् ॥
                     (भा. ३/२२/३७)

शरीर की जितनी बीमारियाँ हैं, मन के रोग, दैवी-कोप, भौतिक-पंचभूतों के क्लेश, सर्दी-गर्मी या सांसारिक-प्राणियों द्वारा प्राप्त कष्ट, सर्प, सिंह आदि का भय; ये सब भगवान् के आश्रय में रहने वाले पर बाधा नहीं करते ।
लेकिन ध्यान रहे कि कथा एवं हरिनाम निरपराध हो एवं गलती से भी कभी किसी वैष्णव का अपराध ना हो, वैष्णव का अपराध तो सपने में भी नहीं सोचना चाहिए।
नहीं तो सब बेकार है।

न भजति कुमनीषिणां स इज्यां हरिरधनात्मधनप्रियो रसज्ञः।
श्रुतधनकुलकर्मणां मदैर्ये विदधति पापमकिञ्चनेषु सत्सु॥
                  (भा. ४/३१/२१)
कोई कितनी भी आराधना कर रहा है, भजन कर रहा है लेकिन अगर अकिञ्चन भक्तों का अपराध करता है तो भगवान् उसके भजन को स्वीकार नहीं करते हैं। एक छोटे-से साधक-भक्त से भी चिढ़ते हों तो आपका सारा भजन नष्ट; फिर चाहे जप-तप कुछ भी करते रहो, उससे कुछ नहीं होगा क्योंकि भगवान् निर्धनों के धन हैं, गरीबों से प्यार करते हैं।

मनुष्य भक्तों का वैष्णवों का अपराध क्यों करता है?

मद के कारण। विद्या का मद (ज्यादा पढ़ गया तो छोटे लोगों को मूर्ख समझने लगता है); धन का मद (धन-सम्पत्ति ज्यादा बढ़ गयी तो दीनों का तिरस्कार करता है); अच्छे कुल में जन्म का मद (ऊँचे कुल में जन्म हो गया तो अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है और दीन-हीनों की उपेक्षा करता है); इसी तरह से कोई अच्छा कर्म कर लिया तो उसका मद, त्याग-वैराग्य कर लिया तो उससे मद हो जाता है, सांसारिक वस्तुओं में अहंता-ममता के कारण लोग ज्यादा अपराध करते हैं ।
इसलिए अपराध रहित होकर भगवान् का भजन करें, फिर देखें चमत्कार; किसी भी तरह का संकट, क्लेश आपको बाधा नहीं पहुँचा सकेगा।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


मंगलवार, 9 जुलाई 2019

गुरु पूर्णिमा | GURU PURNIMA | गुरु का महत्व | GURU | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

।।श्री सद्गुरवे नमः।।
।।गुरु का महत्व।।
गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है :–
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।

भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं :–

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।

अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है?  अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू  की आवश्यकता होती है।
सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।

तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।

मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त  क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेना अज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरु ही होते हैं।
किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि :-

यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान।

शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।

गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।
गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।
सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।
आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन  को यही संदेश दिया था :–

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच:।।
(गीता 18/66)

अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए। जय गुरु। 

बुधवार, 16 जनवरी 2019

सद्गुरु की लीला (स्वामी लच्छन दास जी) | Sadguru ki Leela | Santmat-Satsang

सद्गुरु अराध्यदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज) की लीला;

स्वामी लच्छन दासजी, सत्संग आश्रम, सैदाबाद (पुरैनियाँ)

पूज्य गुरुदेव की मनिहारी में 1949 ईo को आज्ञा हुई कि तुम सैदाबाद में खेती करो। मैं उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए उसी समय से बराबर हर साल खेती का कार्य करता आ रहा हूँ और उसकी फसल पूज्य गुरुदेव के चौके में भेज दिया करता हूँ। 1942 ईo में सैदाबाद में यह जमीन खरीदी गयी थी। पूज्य गुरुदेव महाराज हर साल धान काटने के समय दिसम्बर माह में आया करते थे। असह्य कठिन ठंढ को सहन करते हुए, हिमालय की बर्फीली हवाओं का झकोरा खाते हुए, खेती का काम देखना और फिर मोरंग में सत्संग करना, प्रवचन करना और लोगों को चेताना पूज्य गुरुदेव की महान् कृपा थी। देश एवं मोरंग के अनेकों सत्संगी गुरु महाराज के दर्शनाभिलाषी बनकर आते थे और इनकी अमृतमयी वाणी एवं प्रवचनों से लाभान्वित होते थे। पूज्य गुरुदेव महाराज का चमत्कार-रंगेली बाजार के निकट ग्राम टकुआ के निवासी रेशम लाल दास जी एक गणमान्य एवं धनी  व्यक्ति थे, ने अपने घर के निकट एक विष्णु-मंदिर का निर्माण किया और मुझे एक रात उसमें ठहराया। मंदिर में सत्संग हुआ और सत्संग में उपदेशपूर्ण प्रवचन से प्रभावित होकर उन्होंने मुझ से भजन-भेद लिया।

    भजन-भेद लेने के कई वर्षों के पश्चात् वह अचानक रोगग्रस्त हो गये। बीमारी काफी बढ़ गयी और वे मर गये। परिवार के सभी लोग तथा अन्य सम्बन्ध्ति व्यक्ति रोने-पीटने लगे। कई घंटों के बाद वे जीवित हो गये और कहने लगे कि मुझे लेने यमदूत आये थे, उसी समय पूज्य गुरु-महाराज जी आ गये और यमदूत से कहने लगे कि अभी यह नहीं जायगा; क्योंकि इसके द्वारा सत्संग का कार्य कराना अभी बाकी है।य् यह सुनते ही यमदूत ने उन्हें छोड़ दिया। वे कहने लगे कि धन्य! गुरु महाराज ने मुझे बचा लिया।
    इसके बाद उन्होंने आस-पास के सभी सत्संगियों को बुलवाया और सारी बातें कह सुनायी और विराट नगर ;नेपालद्ध से रजिस्ट्रार को बुलाकर सत्संग के नाम से जमीन एवं एक खपड़ा मकान, जो उस जमीन पर अवस्थित था, निबंधित  (रजिस्ट्री) कर दिया। साथ ही ईट मँगवाकर मुझे बुलाया और उस जगह पर सत्संग-भवन की नींव डलवायी-जिसकी दीवार बनकर पूरी हो चुकी है।
जय गुरु महाराज
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि; | गुरु नानक देव जी कहते हैं कि सब से पहले इस जीव आत्मा का माता के दूध से प्रेम हो गया | GURU-NANAK | SANTMAT-SATSANG

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि।।

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि।।
दूजै माइ बाप की सुधि॥
तीजै भया भाभी बेब।।
चउथै पिआरि उपंनी खेड॥
पंजवै खाण पीअण की धातु।।
छिवै कामु न पुछै जाति॥
सतवै संजि कीआ घर वासु॥
अठवै क्रोधु होआ तन नासु॥
नावै धउले उभे साह॥
दसवै दधा होआ सुआह॥
गए सिगीत पुकारी धाह॥
उडिआ हंसु दसाए राह॥
आइआ गइआ मुइआ नाउ॥
पिछै पतलि सदिहु काव॥
नानक मनमुखि अंधु पिआरु॥
बाझु गुरू डुबा संसारु॥ (गुरवाणी)

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि सब से पहले इस जीव आत्मा का माता के दूध से प्रेम हो गया और जब कुछ  होश आया तो माँ-बाप की पहचान हो गई | बहन भाई  की जानकारी मिल गई | उस के बाद खेलने कूदने में मस्त हो गया | कुछ बड़ा हुआ तो खाने पीने की इच्छाएँ  पैदा होने लगी | उस के बाद तरह-तरह की कामनाओं का शिकार हुआ | फिर घर गृहस्ती में उलझ गया | आठवें स्थान पर कहतें हैं कि क्रोश द्वारा तन का नाश करने पर तुल गया | बाल सफेद हो गये, बूढा हो गया, शवांस भी आने मुश्किल हो गये | उस के बाद शरीर जल कर राख बन जाता है | हंस रुपी जीव आत्मा शरीर छोड़ देती है | सगे सम्बन्धी सभी रोते हैं | मानव शरीर में जन्म लिया और शरीर के ही कार्य व्वहार में लगे रहे | एक दिन ऐसा आया जब शरीर छोड़कर चले गये | जाने के बाद  घर वाले श्राद्ध इत्यादि में लग जाते हैं | श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि मनमुख व्यक्ति, मन के विचारों के अनुसार चलने वाले, अंधों के समान व्यवहार करते हुए नजर आते हैं | क्योंकि जीवन को पहचानने की आँख गुरु द्वारा मिलती है | परन्तु गुरु को जाने बिना यह संसार अज्ञानता के अंधकार में डूब रहा है | इसलिए हमें चाहिए कि पूर्ण संत सद्गुरु की शरण में जाएँ जहाँ हमारी अज्ञानता का अंधकार समाप्त हो सकता है और मानव जीवन सफल हो सकता है |

रविवार, 9 दिसंबर 2018

सत्संग-महिमा | SATSANG-MAHIMA | SANTMAT-SATSANG

सत्संग-महिमा
☘शास्त्रों में सत्संग की महिमा खूब गाई गई है। 'श्रीरामचरितमानस' के सुंदरकांड में आता हैः

तात स्वर्ग आपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।

तुल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।

हे तात ! 'स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये तो भी वे सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव माने क्षण मात्र के सत्संग से होता है।'

एक क्षण के सत्संग से जो वास्तविक आनंद मिलता है, वास्तविक सत्य स्वरूप का जो ज्ञान मिलता है, जो सुख मिलता है वैसा सुख स्वर्ग में भी नहीं मिलता। इस प्रकार, सत्संग से मिलने वाला सुख ही वास्तविक सुख है।

'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में ब्रह्मर्षि वशिष्ठजी महाराज मोक्ष के द्वारपालों का विवेचन करते हुए भगवान श्रीराम से कहते हैं-

"शम, संतोष, विचार एवं सत्संग – ये संसाररूपी समुद्र से तरने के उपाय हैं। संतोष परम लाभ है। विचार परम ज्ञान है। शम परम सुख है। सत्संग परम गति है।"

सत्संग का महत्त्व बताते हुए उन्होंने कहा हैः

विशेषेण महाबुद्धे संसारोत्तरणे नृणाम्।
सर्वत्रोपकरोतीह साधुः साधुसमागमः।।

'हे महाबुद्धिमान् ! विशेष करके मनुष्यों के लिए इस संसार से तरने में साधुओं का समागम ही सर्वत्र खूब उपकारक है।'

सत्संग बुद्धि को अत्यंत सात्त्विक बनाने वाला, अज्ञानरूपी वृक्ष को काटने वाला एवं मानसिक व्याधियों को दूर करने वाला है। जो मनुष्य सत्संगतिरूप शीतल एवं स्वच्छ गंगा में स्नान करता है उसे दान, तीर्थ-सेवन, तप या यज्ञ करने की क्या जरूरत है ?"

कलियुग में सत्संग जैसा सरल साधन दूसरा कोई नहीं है। भगवान शंकर भी पार्वतीजी को सत्संग की महिमा बताते हुए कहते हैं-

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।

सभी ब्रह्मवेत्ता संत स्वप्न समान जगत में सत्संग एवं आत्म-विचार से सराबोर रहने का बोध देते हैं। मेरे गुरुदेव के उपदेश एवं आचरण में कभी-भी भिन्नता देखने को नहीं मिलती थी। वे सदैव आत्मचिंतन में निमग्न रहने का आदेश देते थे।
जय गुरु महाराज
सौजन्य : *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


बुधवार, 21 नवंबर 2018

संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज के वचन | SANTMAT-SATSANG | MAHARSHI HARINANDAN

संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। 

संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। हमारे गुरुदेव ने कहा कि संतों के विचार को जानने के लिए सत्संग करो। अगर अपना उद्धार चाहते हो, मुक्ति चाहते हो, दुखों से छुटकारा चाहते हो तो संत का संतान बनो। संतो के बतलाए मार्ग पर चलें तभी संत के संतान बनने के अधिकारी हैं। संत उस ओर जाने के लिए कहता है जिस ओर जीव बंधन मुक्त हो जाता है। कोई बंधन नहीं रहता। उन्होंने कहा कि इस शरीर में नौ द्वार है। फिर भी हम नहीं निकल पाते। कारण यह कष्ट का मार्ग है। जब शरीर की अवधि समाप्त हो जाती है तब यम की मार खाकर इस नौ द्वार में से एक से निकलता है। मनुष्य के शरीर में एक गुप्त मार्ग है। यह मार्ग केवल मनुष्य के शरीर में ही है। इस मार्ग से निकलने में कोई कष्ट नहीं होता। 

-- महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
  जय गुरु
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सोमवार, 12 नवंबर 2018

अन्तःकरण की शुद्धि; | संसार में भले कुछ प्रतिष्ठा हो, किन्तु उसे मोक्ष नहीं मिलता | संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस | SANT SADGURU MAHARSHI MEHI | SANTMAT-SATSANG

श्री सद्गुरवे नमः

अपने शरीर को शौच से पवित्र करो।

अपने शरीर को शौच से पवित्र करो। लेकिन यह इतने से ही पवित्र नहीं होता है। हृदय की पवित्रता असली पवित्रता है। हृदय में पाप विचार न आने पाये। हृदय में पाप विचार आने से भी पाप होता है। जिसे कोई नहीं देखता परमात्मा देखते हैं। अन्तःकरण की शुद्धि पवित्र कर्म करने से होती है। तुम्हारा शरीर शिवालय है, विष्णु मन्दिर है। इसके लिए पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं। अपना अन्तःकरण शुद्ध करना होता है। बाहर में लोग शिवालय, देवालय बनाते हैं। इससे संसार में भले कुछ प्रतिष्ठा हो, किन्तु उसे मोक्ष नहीं मिलता। यदि अपने अन्तःकरण को शुद्ध करता तो उसे मोक्ष हो जाता। जैसे शिवालय को पवित्रता से रखते हैं, उसी तरह अपने शरीर को भी पवित्र रखो। जिस किसी ने संसार में बड़ा-बड़ा काम किया है, उसका नाम आज है; किन्तु उसको मोक्ष नहीं मिला। यदि अपने शरीर को, अपने अन्तःकरण को पवित्र रखो, ध्यान करो तो मोक्ष मिलेगा। सारे दुःखों से छूट जाओगे।
    -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस
।।जय गुरु महाराज।।
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

अनादि काल से ही मानव परम शांति, सुख व अमृतत्व की खोज में लगा हुआ है ... | कबीर, तीन लोक पिंजरा भया, पाप पुण्य दो जाल। सभी जीव भोजन भये, एक खाने वाला काल।। | Santmat-Satsang | SANTMEHI

।।श्री सद्गुरवे नमः।।

अनादि काल से ही मानव परम शांति, सुख व अमृत्व की खोज में लगा हुआ है। वह अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रयत्न करता आ रहा है लेकिन उसकी यह चाहत कभी पूर्ण नहीं हो पा रही है। ऐसा इसलिए है कि उसे इस चाहत को प्राप्त करने के मार्ग का पूर्ण ज्ञान नहीं है। सभी प्राणी चाहते हैं कि कोई कार्य न करना पड़े, खाने को स्वादिष्ट भोजन मिले, पहनने को सुन्दर वस्त्र मिलें, रहने को आलीशान भवन हों, घूमने के लिए सुन्दर पार्क हों, मनोरंजन करने के लिए मधुर-2 संगीत हों, नांचे-गांए, खेलें-कूदें, मौज-मस्ती मनांए और कभी बीमार न हों, कभी बूढ़े न हों और कभी मृत्यु न होवे आदि-2, परंतु जिस संसार में हम रह रहे हैं यहां न तो ऐसा कहीं पर नजर आता है और न ही ऐसा संभव है। क्योंकि यह लोक नाशवान है, इस लोक की हर वस्तु भी नाशवान है और इस लोक का राजा ब्रह्म काल है। उसने सब प्राणियों को कर्म-भर्म व पाप-पुण्य रूपी जाल में उलझा कर तीन लोक के पिंजरे में कैद किए हुए है। 

कबीर साहेब कहते हैं कि:--

कबीर, तीन लोक पिंजरा भया, पाप पुण्य दो जाल।
सभी जीव भोजन भये, एक खाने वाला काल।।

गरीब, एक पापी एक पुन्यी आया, एक है सूम दलेल रे।
बिना भजन कोई काम नहीं आवै, सब है जम की जेल रे।।

यहां हम सबने मरना है, सब दुःखी व अशांत हैं। हम सब काल ब्रह्म के लोक में आकर फंस गए और अपने निज घर का रास्ता भूल गए। कबीर साहेब कहते हैं कि :--

इच्छा रूपी खेलन आया, तातैं सुख सागर नहीं पाया।

इस काल ब्रह्म के लोक में शांति व सुख का नामोनिशान भी नहीं है। त्रिगुणी माया से उत्पन्न काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, लाभ-हानि, मान-बड़ाई रूपी अवगुण हर जीव को परेशान किए हुए हैं। यहां एक जीव दूसरे जीव को मार कर खा जाता है, शोषण करता है, ईज्जत लूट लेता है, धन लूट लेता है, शांति छीन लेता है। यहां पर चारों तरफ आग लगी है। यदि आप शांति से रहना चाहोगे तो दूसरे आपको नहीं रहने देंगे। आपके न चाहते हुए भी चोर चोरी कर ले जाता है, डाकू डाका डाल ले जाता है, दुर्घटना घट जाती है, किसान की फसल खराब हो जाती है, व्यापारी का व्यापार ठप्प हो जाता है, राजा का राज छीन लिया जाता है, स्वस्थ शरीर में बीमारी लग जाती है अर्थात् यहां पर कोई भी वस्तु सुरक्षित नहीं। राजाओं के राज, ईज्जतदार की ईज्जत, धनवान का धन, ताकतवर की ताकत और यहां तक की हम सभी के शरीर भी अचानक छीन लिए जाते हैं। माता-पिता के सामने जवान बेटा-बेटी मर जाते हैं, दूध पीते बच्चों को रोते-बिलखते छोड़ कर मात-पिता मर जाते हैं, जवान बहनें विधवा हो जाती हैं और पहाड़ से दुःखों को भोगने को मजबूर होते हैं। विचार करें कि क्या यह स्थान रहने के लायक है? लेकिन हम मजबूरी वश यहां रह रहे हैं क्योंकि इस काल के पिंजरे से बाहर निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं आता और हमें दूसरों को दुःखी करने की व दुःख सहने की आदत सी बन गई। यदि हम अपने-आप को इस लोक में होने वाले दुःखों से बचाना चाहते हैं तो परम शक्ति से युक्त संत सद्गुरु की शरण लेनी पड़ेगी। वही हमे भवसागर से पार कर सकते हैं। हम सब बड़े भाग्यवान हैं कि हमलोगों को ऐसे संत सद्गुरु की शरण मिली हुई है, जरूरत है मनोयोग पूर्वक उनके आज्ञापालन करने की। 


"गुरु को सिर पर राखिए, चलिए आज्ञा माहिं।
कहै कबीर ता दास को, तीन लोक डर नाहिं॥’’
।।जय गुरु।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

सतसंगति सदा सेवनीय | संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता फिरता तीर्थराज है | Santmat-Satsang | Maharshi-Mehi | SANTMEHI |

सत्संगति सदा सेवनीय;
गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है:-
"मति कीरति गति भूति भलाई, जो जेहि जतन जहाँ लगि पाई।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ, लोक न बेद न आन ऊपाऊ।।"

जिसने जिस समय, जहाँ कहीं भी, जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सदगति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नही है।
सत्संग सिद्धि का प्रथम सोपान है। सत्संगति बुद्धि की जड़ता नष्ट करती है, वाणी को सत्य से सींचती है। पुण्य बढ़ाती है, पाप मिटाती है, चित्त को प्रसन्नता से भर देती है, परम सुख के द्वार खोल देती है।
एक दासी पुत्र संतों की संगति पाकर देवर्षि नारद बन गये। एक तुच्छ कीड़ा महर्षि वेदव्यासजी की कृपा से मैत्रेय ऋषि बने। शबरी भीलन मतंग ऋषि की कृपा पाकर महान हो गयी। सत्संगति से महान बनने के ऐसे अनेकों उदाहरण शास्त्रों एवं इतिहास में भरे पड़े हैं।
प्रार्थना और पुकार से भावनाओं का विकास होता है, भावबल बढ़ता है। प्राणायाम से प्राणबल बढ़ता है, सेवा से क्रिया बल बढ़ता है और सत्संग से समझ बढ़ती है।
मनुष्य अपनी बुद्धि से ही प्रत्येक बात का निश्चय नहीं कर सकता। बहुत सी बातों के लिए उसे श्रेष्ठ मतिसम्पन्न मार्गदर्शक एवं समर्थ आश्रयदाता चाहिए। यह सत्संगति से ही सुलभ है।

संत कबीर साहब के शब्दों में:-

बहे बहाये जात थे, लोक वेद के साथ।
रस्ता में सदगुरु मिले, दीपक दीन्हा हाथ।।

सदगुरु भवसागर के प्रकाश-स्तम्भ होते हैं। उनके सान्निध्य से हमें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान होता है। कहा भी गया है;

"सतां संगो हि भेषजम्।"
'संतजनों की संगति ही औषधि है।'

अनेक मनोव्याधियाँ सत्संग से नष्ट हो जाती हैं। संतजनों के प्रति मन में स्वाभाविक अनुराग-भक्ति होने से मनुष्य में उनके सदगुण स्वाभाविक रूप से आने लगते हैं। साधुपुरुषों की संगति से मानस-मल धुल जाता है, इसलिए संतजनों को चलता फिरता तीर्थ भी कहते हैं; तीर्थभूता हि साधवः।

मुदमंगलमय संत समाजू। जिमि जग जंगम तीरथराजू।।

'संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता फिरता तीर्थराज है।'
सत्संगति कल्याण का मूल है और कुसंगति पतन का। कुसंगति पहले तो मीठी लगती है पर इसका फल बहुत ही कड़वा होता है।
पवन के संग से धूल आकाश में ऊँची चढ़ जाती है और वही नीचे की ओर बहने वाले जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है यह संग का ही प्रभाव है। दुर्जनों के प्रति आकर्षित होने से मनुष्य को अंत में धोखा ही खाना पड़ता है। कुसंगति से आत्मनाश, बुद्धि-विनाश होना अनिवार्य है। दुर्जनों के बीच में मनुष्य की विवेकशक्ति उसी प्रकार मंद हो जाती है, जैसे अंधकार में दृष्टि।
बहुत से अयोग्य व्यक्ति मिलकर भी आत्मोद्धार का मार्ग उसी प्रकार नहीं ढूँढ सकते, जैसे सौ अंधे मिलकर देखने में समर्थ नहीं हो सकते। कुसंगति से व्यक्ति परमार्थ के मार्ग से पतित हो जाता है।

अंधे को अंधा मिले, छूटै कौन उपाय।

कुसंगति के कारण मनुष्य को समाज में अप्रतिष्ठा और अपकीर्ति मिलती है।
दुर्जनों की संगति से सज्जन भी अप्रशंसनीय हो जाते है। अतः कुसंगति का शीघ्रातिशीघ्र परित्याग करके सदा सत्संगति करनी चाहिए।
।। जय गुरु ।।
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

परम स्नेही संत | सत्संग की जगह पर जाने से, एक-एक कदम रखने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है | Santmat-Satsang | SANTMEHI | SADGURUMEHI

परम स्नेही संत
सत्संग से हमें वह रास्ता मिलता है, जिससे हमारा तो उद्धार हो जाता है, हमारे इक्कीस कुलक भी तर जाते हैं।

बिनु सत्संग न हरिकथा ते बिन मोह न भाग।
मोह गये बिनु राम पद, होवहिं न दृढ़ अनुराग।।

सत्संग की जगह पर जाने से, एक-एक कदम रखने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है। देवर्षि नारद दासी के पुत्र थे…. विद्याहीन, जातिहीन, धनहीन, कुलहीन और व्यवसायहीन दासी के पुत्र। चतुर्मास में वह दासी साधुओं की सेवा में लगायी गयी थी। साधारण दासी थी। वह साधुओं की सेवा में आती थी तो अपने छोटे बच्चे को भी साथ में ले आती थी। वह बच्चा कीर्तन करता, सत्संग सुनता। साधुओं के प्रति उसकी श्रद्धा हो गयी। उसको कीर्तन, सत्संग, ध्यान का रंग लग गया। उसको आनंद आने लगा। संतों ने नाम रख दिया हरिदास। सत्संग, ध्यान और कीर्तन में उसका चित्त द्रवित होने लगा। जब साधु जा रहे थे तो वह बोलाः “गुरुजी ! मुझे साथ ले चलो।”
संतः “बेटा ! अभी तुझे हम साथ नहीं ले जा सकते। जन्मों-जन्मों का साथी जो हृदय में बैठा है, उसकी भक्ति कर, प्रार्थना कर।”
संतों ने ध्यान-भजन का तरीका सिखा दिया और वही हरिदास आगे चलकर देवर्षि नारद बना। जातिहीन, विद्याहीन, कुलहीन और धनहीन बालक था, वह देवर्षि नारद बन गया। नारदजी को तो देवता भी मानते हैं, मनुष्य भी उनकी बात मानते हैं और राक्षस भी उनकी बात मानते हैं।
कहाँ तो दासी पुत्र ! जातिहीन, विद्याहीन, कुलहीन और कहाँ भगवान को सलाह देने की योग्यता !
ऐसे महान बनने के पीछे नारदजी के जीवन के तीन सोपान थेः
1. सोपान था-सत्संग, साधु समागम।
2. सोपान था-उत्साह।
3. सोपान था-श्रद्धा।
सत्संग, उत्साह और श्रद्धा अगर छोटे से छोटे आदमी में भी हों तो वह बड़े से बड़े कार्य कर सकता है। यहाँ तक कि भगवान भी उसे मान देते हैं। वे लोग धनभागी हैं जिनको सत्संग मिलता है ! वे लोग विशेष धनभागी हैं जो सत्संग दूसरों को दिलाने की सेवा करके संत और समाज के बीच की कड़ी बनने का अवसर खोज लेते हैं, पा लेते हैं और अपना जीवन धन्य कर लेते हैं!
।। जय गुरु ।।

सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार। संत न होते जगत में तो जल मरता संसार।। MAHARSHI=MEHI | SANTMAT-SATSANG | SANTMEHI | SADGURUMEHI

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार।

संत न होते जगत में तो  जल मरता संसार।।

इस जगत की स्थिरता  का मुख्य कारण  संत महापुरुष ही हैं यह तो ठीक ही है कि स्वांस चलने का हमें एहसास नहीं होता। परन्तु जब सर्दी जुकाम हो जाता है। छाती में कफ जम जाता है, तभी हमें स्वांस की कीमत का पता चलता है और हम डाक्टर के पास इलाज के लिए भागते हैं। ऐसा नहीं है कि संसार में आज सतगुरु नहीं है। नकली नोट बाजार में तभी चल सकते हैं यदि असली नोट है। अगर सरकार  असली नोट बंद कर  दे तो नकली नोट कैसे चल सकते हैं। आज मार्किट में नकली वस्तुए बहुत आसानी से सस्ते दामों में प्राप्त हो सकती है। परन्तु असली वस्तु की पहचान हो जाने पर नकली की कोई  कीमत नहीं रह जाती। इस प्रकार हमें जरूरत है सच्चे  सतगुरु की शरण में जाने की। जब तक सतगुरु की प्राप्ति नहीं होती, तब तक जीवन का कल्याण असंभव है। उससे पहले हम आध्यात्मिक क्षेत्र  में प्रगति नहीं कर सकते।

जानना तो यह जरूरी है कि हमें किस प्रकार गुरु की प्राप्ति हो सकती है। आज का मानव यह तो सरलता से कह देता है कि गुरु किये बिना कल्याण नहीं है, इस लिए हम ने तो गुरु धारण कर लिया। हम ने गुरु मन्त्र  लिया और खूब भजन सुमरिन करते हैं। परन्तु जब यह पूछा जाता है कि मन को शांति मिली ?  क्या जीवन का रहस्य को जाना ?  तब जबाब मिलता है कि यह तो बहुत मुश्किल है, मन अभी कहाँ टिका। ज्ञान तो ले लिया, परन्तु न तो मन को स्थिरता मिल पाई और न ही मन को स्थिर करने का स्थान ही पता चल पाया और न ही जीवन के कल्याण  के मार्ग को जाना। विचार करना है कि गुरु क्यों धारण किया ?  गुरु का कार्य हमें जीवन के रहस्य को समझाना है। जब कि आज मनुष्य ने गुरु मन्त्र  को एक खिलौना बना लिया। बहुत गर्व से कहते हैं कि हम ने तो गुरु किया है।  परन्तु यह पता नहीं है कि गुरु किसे कहते हैं ?  केवल रटने के लिए कुछ शब्दों का अभ्यास करवा देने वाले को गुरु नहीं कहा जा सकता। यदि शास्त्रों में लिखित मन्त्रों को ही गुरु प्रदान करता है तो गुरु की क्या जरूरत है। वह तो स्वयं भी पढ़ सकते हैं। इस लिए कहा  है: -

कोटि नाम संसार में तातें मुकित न होए।
आदि नाम जो गुप्त जपें बुझे बिरला  कोई।।

कबीर साहब कहते हैं कि संसार में परमात्मा के करोड़ों नाम है परन्तु उनको जपने से मुकित (मुक्ति) नहीं हो सकती। जानना है तो उस नाम को जो आदि कल से चला आ रहा है। अत्यंत  गोपनीय है, मनुष्य  के अंतर में  ही चल रहा है। कण-कण में विधमान है। इस लिए हमें भी चाहिए ऐसे पूर्ण संत की खोज करें, जब आप खोज करेंगे तो आप को ऐसा संत मिल जायेगें। उस के बाद ही हमारी भक्ति  की यात्रा की शुरुआत होगी।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...