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बुधवार, 26 मई 2021

सन्तमत सिद्धान्त | SANTMAT PRINCIPLE (Theory) | जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर सर्वाधार मानना चाहिए

सन्तमत सिद्धान्त

1. जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर सर्वाधार मानना चाहिए तथा अपरा (जड़) और परा (चेतन); दोनों प्रकृतियों के पार में, अगुण और सगुण पर, अनादि-अनन्त-स्वरूपी, अपरम्पार शक्तियुक्त, देशकालातीत, शब्दातीत, नाम-रूपातीत, अद्वितीय, मन-बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति-मण्डल एक महान यन्त्र की नाई परिचालित होता रहता है, जो न व्यक्ति है और न व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, सन्तमत में उसे ही परम अध्यात्मपद व परम अध्यायत्म स्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं।

2. जीवात्मा सर्वेश्वर का अभिन्न अंश है।

3. प्रकृति आदि-अन्त सहित है और सृजित है।

4. मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है। इस प्रकार रहना जीव के सब दुःखों का कारण है। इससे छुटकारा पाने के लिए सर्वेश्वर की भक्ति ही एकमात्र उपाय है।

5. मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और सुरत-शब्द-योग द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अन्धकार, प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदो से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य मात्र अधिकारी है।

6. झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिंसा करनी अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी; इन पाँचों महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिए।

7. एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानभ्यास; इन पाँचों को मोक्ष का कारण समझना चाहिए।


सन्तमत की परिभाषा | SANTMAT DEFINITION | शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं।

 

सन्तमत की परिभाषा

1. शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं।

2. शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं।

3. सन्तों के मत वा धर्म को सन्तमत कहते हैं।

4. शान्ति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है। प्राचीन काल में ऋषियों ने इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया। इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचार को कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्वसाधारण के उपकारार्थ वर्णन किया। इन विचारों को ही सन्तमत कहते हैं; परन्तु सन्तमत की मूल भित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं; क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन नादानुसन्धान अर्थात् सुरत-शब्द-योग का गौरव सन्तमत को है, वे तो अति प्राचीन काल की इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं। भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण सन्तों के मत में पृथकत्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पन्थाई भावों को हटाकर विचारा जाय और संतों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय तो, यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है।

रविवार, 23 मई 2021

कभी झूठ मत बोलिए | -महर्षि मेँहीँ | Kabhi jhooth mat boliye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

कभी झूठ मत बोलिये। 
झूठ सदाचारिक जीवन में प्रधान दूषण है। इस दूषण को हटाइये। मान-अपमान में सम रहिये, संतमत यही बतलाता है। गरीब-अमीर कोई रहो, दु:ख से रहित कोई नहीं है। दु:ख है जनमना और मरना। यह दु:ख भजन करने से, सदाचार का पालन करने से छूट जाता है।
विद्वान् होते हुए सदाचारी बनें, इन्द्रियों को वश में करके रखें, यह विशेष ऊँची बात है। विद्वान् होने से संसार में प्रतिष्ठित होते हैं और सदाचारी होकर रहने से ईश्वर के यहाँ प्रतिष्ठित होते हैं। हमारे यहाँ के ऋषियों ने इसी को विशेष प्रतिष्ठा दी है।

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

गुरु पूर्णिमा | GURU PURNIMA | गुरु का महत्व | GURU | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

।।श्री सद्गुरवे नमः।।
।।गुरु का महत्व।।
गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है :–
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।

भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं :–

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।

अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है?  अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू  की आवश्यकता होती है।
सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।

तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।

मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त  क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेना अज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरु ही होते हैं।
किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि :-

यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान।

शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।

गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।
गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।
सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।
आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन  को यही संदेश दिया था :–

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच:।।
(गीता 18/66)

अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए। जय गुरु। 

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

परम स्नेही संत | सत्संग की जगह पर जाने से, एक-एक कदम रखने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है | Santmat-Satsang | SANTMEHI | SADGURUMEHI

परम स्नेही संत
सत्संग से हमें वह रास्ता मिलता है, जिससे हमारा तो उद्धार हो जाता है, हमारे इक्कीस कुलक भी तर जाते हैं।

बिनु सत्संग न हरिकथा ते बिन मोह न भाग।
मोह गये बिनु राम पद, होवहिं न दृढ़ अनुराग।।

सत्संग की जगह पर जाने से, एक-एक कदम रखने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है। देवर्षि नारद दासी के पुत्र थे…. विद्याहीन, जातिहीन, धनहीन, कुलहीन और व्यवसायहीन दासी के पुत्र। चतुर्मास में वह दासी साधुओं की सेवा में लगायी गयी थी। साधारण दासी थी। वह साधुओं की सेवा में आती थी तो अपने छोटे बच्चे को भी साथ में ले आती थी। वह बच्चा कीर्तन करता, सत्संग सुनता। साधुओं के प्रति उसकी श्रद्धा हो गयी। उसको कीर्तन, सत्संग, ध्यान का रंग लग गया। उसको आनंद आने लगा। संतों ने नाम रख दिया हरिदास। सत्संग, ध्यान और कीर्तन में उसका चित्त द्रवित होने लगा। जब साधु जा रहे थे तो वह बोलाः “गुरुजी ! मुझे साथ ले चलो।”
संतः “बेटा ! अभी तुझे हम साथ नहीं ले जा सकते। जन्मों-जन्मों का साथी जो हृदय में बैठा है, उसकी भक्ति कर, प्रार्थना कर।”
संतों ने ध्यान-भजन का तरीका सिखा दिया और वही हरिदास आगे चलकर देवर्षि नारद बना। जातिहीन, विद्याहीन, कुलहीन और धनहीन बालक था, वह देवर्षि नारद बन गया। नारदजी को तो देवता भी मानते हैं, मनुष्य भी उनकी बात मानते हैं और राक्षस भी उनकी बात मानते हैं।
कहाँ तो दासी पुत्र ! जातिहीन, विद्याहीन, कुलहीन और कहाँ भगवान को सलाह देने की योग्यता !
ऐसे महान बनने के पीछे नारदजी के जीवन के तीन सोपान थेः
1. सोपान था-सत्संग, साधु समागम।
2. सोपान था-उत्साह।
3. सोपान था-श्रद्धा।
सत्संग, उत्साह और श्रद्धा अगर छोटे से छोटे आदमी में भी हों तो वह बड़े से बड़े कार्य कर सकता है। यहाँ तक कि भगवान भी उसे मान देते हैं। वे लोग धनभागी हैं जिनको सत्संग मिलता है ! वे लोग विशेष धनभागी हैं जो सत्संग दूसरों को दिलाने की सेवा करके संत और समाज के बीच की कड़ी बनने का अवसर खोज लेते हैं, पा लेते हैं और अपना जीवन धन्य कर लेते हैं!
।। जय गुरु ।।

सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार। संत न होते जगत में तो जल मरता संसार।। MAHARSHI=MEHI | SANTMAT-SATSANG | SANTMEHI | SADGURUMEHI

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार।

संत न होते जगत में तो  जल मरता संसार।।

इस जगत की स्थिरता  का मुख्य कारण  संत महापुरुष ही हैं यह तो ठीक ही है कि स्वांस चलने का हमें एहसास नहीं होता। परन्तु जब सर्दी जुकाम हो जाता है। छाती में कफ जम जाता है, तभी हमें स्वांस की कीमत का पता चलता है और हम डाक्टर के पास इलाज के लिए भागते हैं। ऐसा नहीं है कि संसार में आज सतगुरु नहीं है। नकली नोट बाजार में तभी चल सकते हैं यदि असली नोट है। अगर सरकार  असली नोट बंद कर  दे तो नकली नोट कैसे चल सकते हैं। आज मार्किट में नकली वस्तुए बहुत आसानी से सस्ते दामों में प्राप्त हो सकती है। परन्तु असली वस्तु की पहचान हो जाने पर नकली की कोई  कीमत नहीं रह जाती। इस प्रकार हमें जरूरत है सच्चे  सतगुरु की शरण में जाने की। जब तक सतगुरु की प्राप्ति नहीं होती, तब तक जीवन का कल्याण असंभव है। उससे पहले हम आध्यात्मिक क्षेत्र  में प्रगति नहीं कर सकते।

जानना तो यह जरूरी है कि हमें किस प्रकार गुरु की प्राप्ति हो सकती है। आज का मानव यह तो सरलता से कह देता है कि गुरु किये बिना कल्याण नहीं है, इस लिए हम ने तो गुरु धारण कर लिया। हम ने गुरु मन्त्र  लिया और खूब भजन सुमरिन करते हैं। परन्तु जब यह पूछा जाता है कि मन को शांति मिली ?  क्या जीवन का रहस्य को जाना ?  तब जबाब मिलता है कि यह तो बहुत मुश्किल है, मन अभी कहाँ टिका। ज्ञान तो ले लिया, परन्तु न तो मन को स्थिरता मिल पाई और न ही मन को स्थिर करने का स्थान ही पता चल पाया और न ही जीवन के कल्याण  के मार्ग को जाना। विचार करना है कि गुरु क्यों धारण किया ?  गुरु का कार्य हमें जीवन के रहस्य को समझाना है। जब कि आज मनुष्य ने गुरु मन्त्र  को एक खिलौना बना लिया। बहुत गर्व से कहते हैं कि हम ने तो गुरु किया है।  परन्तु यह पता नहीं है कि गुरु किसे कहते हैं ?  केवल रटने के लिए कुछ शब्दों का अभ्यास करवा देने वाले को गुरु नहीं कहा जा सकता। यदि शास्त्रों में लिखित मन्त्रों को ही गुरु प्रदान करता है तो गुरु की क्या जरूरत है। वह तो स्वयं भी पढ़ सकते हैं। इस लिए कहा  है: -

कोटि नाम संसार में तातें मुकित न होए।
आदि नाम जो गुप्त जपें बुझे बिरला  कोई।।

कबीर साहब कहते हैं कि संसार में परमात्मा के करोड़ों नाम है परन्तु उनको जपने से मुकित (मुक्ति) नहीं हो सकती। जानना है तो उस नाम को जो आदि कल से चला आ रहा है। अत्यंत  गोपनीय है, मनुष्य  के अंतर में  ही चल रहा है। कण-कण में विधमान है। इस लिए हमें भी चाहिए ऐसे पूर्ण संत की खोज करें, जब आप खोज करेंगे तो आप को ऐसा संत मिल जायेगें। उस के बाद ही हमारी भक्ति  की यात्रा की शुरुआत होगी।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

संतमत का संक्षिप्त परिचय | संत और संतमत | संतमत का छोटा-सा सिधांत | संतमत की परम्परा | संत बाबा देवी साहब | संत तुलसी साहब | संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ | SANTMAT-SATSANG

संतमत का संक्षिप्त परिचय

संत और संतमत :- शांति स्वरुप परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त करनेवाले महापुरुष ही संत होते हैं। सभी संतो की मौलिक बातें समान ही हैं। संतों की इसी मौलिक विचारधारा को संतमत कहते हैं।

संतमत का छोटा-सा सिधांत :- गुरु, ध्यान और सत्संग है। संत्संग के द्वारा सुबुधि प्राप्त करना, गुरु के द्वारा साधना का गुप्त रहस्य जानना एवं ध्यान के द्वारा अन्तः प्रकाश तथा अंतर्नाद प्राप्त कर आत्म नियंत्रण की पूर्णता प्राप्त करना, फिर सदाचारी, सांसारिक जीवन बिताना है।

संतमत की परम्परा :-
1.संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज  (१८८५-१९८६) :- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज  संतमत के आधुनिक काल में मुख्य आधार स्तम्भ हैं। इनका अवतरण मधेपुरा जिले के ग्राम-खोख्शी श्याम मझुआ, बिहार (भारत) में १८८५ इसवी में वैशाखी पूर्णिमा के एक दिन पहले हुआ था। पैत्रिक गाँव सिकलीगढ़ धरहरा जिला पूर्णिया बिहार है। पूर्व संस्कारवश मैट्रिक की परीक्षा में वैराग्य का संवेग हुआ। वैरागी बन लम्बी खोज के बाद सद्गुरु बाबा देवी साहब से संतमत को ठीक से जाना। कुप्पाघाट, भागलपुर बिहार की प्राचीन गुफा में १८ महीने की लगातार उपासना में आत्मानुभूति प्राप्त किया। फिर संतमत का व्यापक प्रचार किया एवं सत्संग-योग चारो भाग जैसे कई सैद्धांतिक  पुस्तकों की रचना कर संतमत को मजबूत आधार प्रदान किया। नियमित साधना तथा सत्संग के बीच १०१ वर्षों की आयु पूरी कर ८ जून १९८६ इसवी में इस स्थूल शरीर का परित्याग किया।

2. संत बाबा देवी साहब [१८४१--१९१९] :- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के गुरु संत बाबा देवी साहब मुरादाबाद उत्तरप्रदेश भारत के निवासी थे। मुंशी महेश्वरी लाल ने इन्हे संत तुलसी साहब से आशीर्वाद के द्वारा प्राप्त किया था। इनका जन्म १८४१ ई में हुआ था। इन्हें गुरु संत तुलसी साहब का दर्शन मात्र ४ वर्ष की उम्र में हुआ था। उसी समय गुरु ने इनके सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया था। तब से ही ये ध्यान में संलग्न रहे। अविवाहित रहकर पोस्ट ऑफिस की नौकरी कर आत्मनिर्भर जीवन की स्थिति बनायीं। संतमत का सुन्दर प्रचार घूम-घूम कर किया। जनवरी १९१९ में अपने  स्थूल शरीर का त्याग मुरादाबाद में किया।

3. संत तुलसी साहब  [१७६३--१८४८] :- संत बाबा देवी साहब के गुरु संत तुलसी साहब के जन्म तथा वंश की ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है, अनुमान से इनका जन्म १७६३ ई० में राजसी परिवार में पुणे में हुआ था। ये प्रखर संत अधिकतर ध्यान-साधना में तल्लीन रहते थे। मौका निकाल कर  संतमत का प्रचार भी करते थे। गुरु की स्तुति इन्होने की है, किन्तु उनके गुरु के नाम का पता नहीं चलता है। भोजन के लिए ये भीख मांग लेते थे, गुदरी पहन कर गुजर कर लेते थे। इनकी कई रचनायें हैं। ये संतमत के ज्ञान से भरे हुए हैं। १८४८ई में इन्होंने हाथरस में चोला त्याग किया। यहाँ इनकी समाधि भी है।

4. महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज (१९२०-२००७) :- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के पट्ट शिष्य एवं अगले आचार्य महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज का जन्म 20.12.1920  इसवी में ग्राम-गम्हरिया, जिला-सुपौल, बिहार (भारत) में हुआ था। १९३९ इसवी में ये गुरु की शरण में आये। लगभग ४० वर्षों तक लगातार गुरु की खास सेवा में रहे। यह एक ऐतिहासिक सेवा है। इनके द्वारा ही गुरुदेव के प्रवचनों एवं कई पुस्तकों की रचना हुई। गुरुदेव के ज्ञान को इन्होंने ही पुस्तक के पन्ने पर लाया। गुरुदेव के बाद १९८६ इसवी से ये 'वर्तमान आचार्य' का कार्य जीवन के अंतिम क्षण यानि ४ जून, २००७ तक करते रहे। इनके द्वारा संतमत सत्संग एवं कुप्पाघाट आश्रम का भरपूर विकास हुआ। इनकी समाधि आश्रम परिसर की भव्यता को बढ़ा रहा है।

5. महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज (१९३४ इसवी से लगातार) :- महान संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के प्रमुख शिष्य एवं खास शारीरिक सेवा में रहे। महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज का जन्म ग्राम-मचहा, जिला-सुपौल, बिहार (भारत) में १९३४ इसवी के चैत्र मास में रामनवमी के एक दिन पूर्व हुआ था। १९५७ से गुरुदेव की सेवा में ये लगभग २९ वर्षों तक उनके जीवन के अंतिम क्षण तक रहे। २००७ इसवी में महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज के शरीर त्यागने के बाद ये वर्तमान आचार्य का कार्य कर रहें हैं, इनके निर्देशन में संतमत का प्रचार और बढ़ता जा रहा है। आप बुढ़ापे की अवस्था में भी लगातार भ्रमण कर ध्यान एवं सत्संग का सम्यक प्रचार कर रहें हैं। जिला वार्षिक अधिवेशन एवं अखिल भारतीय महाधिवेशन आदि में प्रायः जाते रहतें हैं। बहुत कम कीमत पर पुस्तकें एवं शांति सन्देश पत्रिका उपलब्ध करवातें हैं। संतमत की समझ का विकास कर निःशुल्क दीक्षा (संतों का गुप्त भेद) बताने की व्यवस्था करतें हैं। आपके कार्यकाल में महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट भागलपुर का भरपूर विकास हुआ है। आपको अपने भक्तों से मिले हुए रूपये पैसों से आश्रम में ढेरों विकास कार्य हुआ है और हो रहा है। आपने गुरु महाराज की सेवा भक्ति बड़ी ही तन्मयता एवं लगन से की। आपने लोगों द्वारा दिये गये एक-एक रुपये-पैसों का हिसाब इस कदर रखा कि आपके हिसाब की बही-खाता देखकर गुरु महाराज बहुत प्रसन्न हुए और ऐन वक्त पर वह रूपया गुरु महाराज के काम भी आया इससे गुरु महाराज ने अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में खुश होकर आपको आशिर्वाद प्रदान किये कि "आपको रुपयों-पैसों  की कभी कमी नहीं होगी।" इस तरह आपका जीवन गुरुमय हो गया, संतमय हो गया, संतमतमय हो गया है। आपके दर्शन पाकर प्राणी अपने को धन्य मानते हैं, प्रफुल्लित हो उठते हैं, कृत कृत्य हो जाते हैं। आपके श्री चरणों में कोटि-कोटि नमन्!!! --जय गुरु!!!


गुरुवार, 20 सितंबर 2018

महर्षि और परमहंस की उपाधियों का इतिहास ... | History of the titles of Maharishi and Paramhansa | Santmat-Satsang | SantMehi | SadguruMehi

"सद्गुरू मेँहीँ के साथ 'महर्षि' और 'परमहंस' की उपाधियों का इतिहास"

'शान्ति-सन्देश' पत्रिका के प्रथम सम्पादक परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी के परम भक्तोपासक प्रो0 श्रीविश्वानंदजी थे| पत्रिका में और विविध साहित्यों में भी सम्पादक महोदय के द्वारा परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी का नाम केवल "स्वामी मेँहीँ दास" ही छपता था| कुछ समय पीछे सत्संगी श्रद्धालुओं और सेवक-शिष्यों के आपसी आग्रह एवं सम्पादक महोदय के हठ-प्रभुत्व के कारण नाम के अंत में 'जी महाराज' जोड़ा जाने लगा और तब सभी कोई आदर एवं पूज्य भाव से "स्वामी मेँहीँ दासजी महाराज" करके संबोधन एवं पत्रिका एवं साहित्यों में प्रकाशित करने लगे|
बाद में प्रो0 विश्वानन्दजी की जगह चंद्रधर प्रसाद नन्दकुलियारजी सम्पादक बने|इस प्रकार कई सम्पादक समयानुकूल बने और हटे| फिर टीकापट्टी निवासी श्री आनन्दजी सम्पादक बने|
काफी समय तक परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का उपर्युक्त नाम ही प्रकाशित होता रहा| एक बार श्री आनन्दजी ने अग्यात प्रेरणावश सोचा कि जब महर्षि अरविन्द,महर्षि रमण और महर्षि वेदव्यास आदि नाम महर्षि की उपाधि से विभूषित होकर जगतविख्यात हो सकता है,तो हमारे परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का नाम महर्षि से विभूषित क्यों नहीं हो सकता है|
उन्होंने बिना किसी की सलाह और समर्थन लिए ही पत्रिका में परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी का नाम "महर्षि" और "परमहंस" से संयुक्त कर "महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज" छपवा दिया|
संयोगवश वह पत्रिका किसी के द्वारा परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी के हाथ लग गई| उलट-पलटकर देखने के क्रम में जैसे ही उनकी निगाह उक्त उपाधियों से विभूषित अपने नाम पर पड़ी,वैसे ही इनका भयंकर रौद्री रोष प्रकट हो गया|सामने जाने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही थी| श्रीआनंदजी तो आश्रम छोडकर ही पलायन कर गये|

परिणाम यह हुआ कि पत्रिका-प्रकाशन का कार्य दीर्घ समय तक स्थगित हो गया| फिर उस समय के 'अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा' के महामंत्री श्री लक्ष्मी प्रसाद चौधरी 'विशारद' जी ने तमाम संतमत-सत्संगियों का प्रतिनिधि बनकर एवं स्वयं भी श्रद्धापूरित होकर डरे हुए से परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी के पास जाकर प्रार्थना की- "हुजूर! पत्रिका प्रकाशन का कार्य बंद हो चूका है| सत्संगियों को इस अभाव की हार्दिक पीड़ा है| दूसरी बात यह है कि हुजूर का जो नाम पत्रिका में छप चूका है,उसको बदलने से सत्संगियों की आस्था पर ठेस पहुँचेगी और सब के सब दुखी हो जाएँगे|
अत: हुजूर से प्रार्थना है कि जो हो गया,उसके लिए हम भक्तों को क्षमा-दान कर पत्रिका-प्रकाशन के लिए स्वीकृति देने की कृपा की जाय|"
उपर्युक्त प्रार्थना के समय परमाराध्य श्री सद्गुरू महाराजजी अपने युगल कमल नेत्रों को बंद कर मौन बने रहे| तभी से इनके नाम में "महर्षि" और "परमहंस" की उपाधियाँ लगने लगी|
इन्हें बड़े-बड़े विद्वान लोग महान-से महान और अति पावन उपाधि देकर भी तृप्त नहीं होते थे| इनके महिमामय व्यक्तित्व और कृतित्व के सामने सभी उपाधियाँ निरा पंगु ही लगती थी|
इनमें इतनी अहंकार-शून्यता थी की एक बार गैदुहा सत्संग में एक महिला इन्हें प्रणाम निवेदित करती हुई बोली- 'स्वामीजी! मुझको आशीर्वाद दीजिए!' यह सुनकर गुरू महाराज ने उस महिला पर खूब गुस्साये, और कहा- "मैं तुम्हारा स्वामीजी हूँ,मैं तो दास का भी दास नहीं हूँ|" और कहकर रोने लगे|
वास्तव में जो पुरूष तीनों अवस्थाओं को पारकर तुरियातीत-अवस्था को प्राप्त किये होते हैं,अर्थात् नि:शब्द-परम-पद को प्राप्त किये होते हैं,वे किसी उपाधि या पद-प्रतिष्ठा के बंधन में नहीं होते हैं| इससे तो उन्हें तकलीफ ही होतीे है|


किसी संत ने बड़ा अच्छा कहा है-
"मान-बड़ाई जबसे आइ,तबसे किस्मत फूटी|"

परम-पद को प्राप्त किये हुए भी हमारे गुरू महाराज अपने को हमेशा "मोरी मति अति नीच अनाड़ी" तथा "मोको सम कौन कुटिल खल कामी|" कहा करते थे| ये उनकी अहंकार-शून्यता नहीं थी तो क्या थी?

परन्तु, आजकल तीन अवस्थाओं में पड़े रहनेवाले महात्माओं में भी अपने आप को "स्वामी", "महर्षि" "परमहंस" इत्यादि उपाधि पाने के लिए होड़ सी लगी हुई है| वे अपने आप को इन उपाधियों से महिमामंडित होने पर फूले नहीं समाते हैं|
जबकि परमाराध्य श्रीसद्गुरू महाराजजी 5.4.1977 ई0 को महेश योगी के आश्रम  ऋषिकेश में कहने की कृपा की थी-
..."महर्षि मेँहीँ हम कभी नहीं| महर्षि नाम से हम बहुत डरते हैं| अगर कोई मुझे महर्षि कह देते हैं,तो मैं अपने को बहुत लज्जा मानता हूँ|"
एक बार संत की उपाधि के लिए भी कहने की कृपा की थी-
..."मैं अपने को संत नहीं मानता; क्योंकि पूरे संत से एक चींटी को भी कष्ट नहीं होता| मेरे नहीं चाहने पर भी बहुतों को कष्ट हो जाता है|"
ऐसे महान विभूति थे हमारे परमाराध्य "श्रीसद्गुरू महाराज"|
(बोलिए प्रेम से श्री सद्गुरू महाराज की जय)
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शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

संत की पहचान दुर्लभ है | Sant ki pahchan durlabh hai | जब हम सच्चाई को खुद जान लेंगे तब उस परम शक्ति की सत्ता पर स्वत: प्रतीति हो जाएगी।

संत की पहचान दुर्लभ है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी को लिखना पड़ा; -

जाने बिनु न होई परतीती।
बिनु परतीति होई नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहीं भगति दृढ़ाई।
जिमि खगेश जल की चिकनाई॥
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सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर ही उन पर प्रतीति यानी विश्वास किया जा सकता है। इसके लिए स्वयं अपने भीतर निरीक्षण करके देखना है कि क्या सचमुच मुझमें शांति है। विश्व के सभी संतों, सत्पुरुषों और मुनियों ने यही सलाह दी है कि ‘अपने आपको जानो’। स्पष्ट है कि उनकी सलाह बिना जाने ही मान लेने की नहीं है। उन्होंने साफ तौर पर यह सलाह दी है कि पहले जानो तब मानो। यहां यह बात भी छिपे रूप से कही गयी है कि जब मनुष्य अपने आपको जान लेगा तब उसे उस परम शक्ति का भी ज्ञान हो जाएगा जिसका वह खुद अंश है। लेकिन इस बात को भी हमारे मनीषियों ने केवल बुद्धि के स्तर पर स्वीकार करने के लिए नहीं कहा है, भावावेश में आकर या श्रद्धा के मारे स्वीकार करने की सलाह नहीं दी है, बल्कि अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने बारे में सचाई को जानने का ईशारा किया है। क्योंकि जब हम सच्चाई को खुद जान लेंगे तब उस परम शक्ति की सत्ता पर स्वत: प्रतीति हो जाएगी।
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

पूर्ण संत | सतगुरु | Purna Sant | Sadguru | SantMehi | Sanatan-Mehi | Santmat-Satsang | पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै। एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।

पूर्ण संत : सतगुरु!

परमेश्वर स्वयं आकर या अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करता है। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है।

“सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद।
चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“

सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा।

पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।
एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।

जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा।
परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा।

वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।।
एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।।

गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है।

जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै, वाके संग सभि राड़ बढ़ावै।
या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।

कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी नकली संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।

कबीर, सतगुरु  शरण  में  आने से, आई टले बलाय।
जै मस्तिक में सूली हो वह कांटे में टल जाय।।

भावार्थ:- सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से उपदेश लेकर मर्यादा में रहकर भक्ति करने से प्रारब्ध कर्म के पाप अनुसार यदि भाग्य में सजाए मौत हो तो वह पाप कर्म हल्का होकर सामने आएगा। उस साधक को कांटा लगकर मौत की सजा टल जाएगी।

संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै।
ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेश दृढ़ावै।।

आंख ना मूंदै कान ना रूदैं ना अनहद उरझावै।
प्राण पूंज क्रियाओं से न्यारा, सहज समाधी बतावै।।

संत तो जैसे नदी और वृक्ष का जन्म परोपकार के लिए है, वैसे ही संतों का जन्म केवल परोपकार के लिए है। स्वार्थ का तो संतों में लेशमात्र भी नहीं हो सकता। संत बच्चों जैसे निष्पाप होते हैं। हमेशा मन में सागर सी शांति होती है, सभी के लिए असीम दया होती है। सदैव क्षमाशील बर्ताव होता है तथा सात्विक गुणों से परिपूर्ण होते हैं। समर्पण ही संतों का नाम है और कार्य है। करुणा के सिवा जीवन का दूसरा कोई अर्थ होता है, यह संत नहीं जानते। संत भी देहधारी होते हैं क्योंकि हर देह का प्रारब्ध है किंतु वे देह में रहते हैं क्या और अगर देह में रहते हैं तो कहां?  संतों के बारे में कल्पना करना भी सामान्य जनों के लिए संभव नहीं है। उन्हें जानने में संत ही समर्थ होते हैं और कोई नहीं। आम जन संत के साथ भी रहकर संत को पहचानने में असमर्थ होते हैं। 
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

गुरु सेवा गुरु के प्रति की गयी सेवा है। जब एक शिष्य अपने गुरु से प्रेम करता है वह गुरु की सेवा करता है.. | Guru Sewa |

गुरु सेवा गुरु के प्रति की गयी सेवा है। जब एक शिष्य अपने गुरु से प्रेम करता है वह गुरु की सेवा करता है। "गुरु सेवा जो सभी शिष्यों के लिए सामान्य है"  गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण होती है और अध्यात्मिक तकनीकों का नियमित एवं अनुशासित ढंग से अभ्यास करना होता है। सभी शिष्य गुरु के प्रति भौतिक या भौगोलिक सामीप्य नहीं रखते हैं। इसलिए वे गुरु के प्रति व्यक्तिगत सेवा नहीं कर सकते हैं।

इसलिए जहाँ कहीं भी शिष्य रहता हो जीवन के किसी भी पड़ाव में निम्नवत शिक्षाओं एवं दिशानिर्देशों द्वारा सेवा कर सकता है।
                                                   
गुरु के प्रति सच्ची गुरु भक्ति या प्रेम निसंदेह गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण करना होता है। एक शिष्य जो गुरु की शिक्षाओं का अभ्यास करता है, वह क्रोध, नुकसान, घमंड, आसक्ति एवं तामसिकता के आंतिरिक लघु परिपथों से ऊपर उठ जाएगा। वह आशीर्वाद के बारे में जो गुरु से प्रवाहित होता है दूसरों के लिए एक उदाहरण होता है। वह अध्यात्मिक रूप से फलता फूलता है एवं उसकी प्रेम एवं सेवा की सुगंध उसके गुरु को प्रदर्शित करती है तथा गौरवान्वित करती है।
               
कुछ शिष्य होते हैं जो गुरु से सामीप्य या सम्बन्ध रखते हैं। गुरु उनसे अपने लिए कुछ कार्य करने के लिए कह सकते हैं। यह भी गुरु सेवा होती है। यह कोई भी कार्य हो सकता है। यह आश्रम में झाड़ू लगाना, कपड़ों को साफ करना, पौधों की सिंचाई करना, किराने का सामान खरीदना, भोजन पकाना, गुरु के चरणों को दबाना या आगंतुकों का स्वागत करना हो सकता है। शिष्य को इमानदारी एवं समर्पण से वही कार्य करना चाहिए जो उससे कहा जाये। उसे दूसरे को दिए गए कार्य पर ध्यान नहीं देना चाहिए ना ही उसे दूसरों के  द्वारा करने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। शिष्य के मस्तिष्क में गुरु के प्रति स्वयं या पक्षपात की हीनता की भावना या अन्य नकारात्मक विचार नहीं होने चाहिए। गुरु द्वारा दिया गया कोई भी कार्य पवित्र होता है एवं उसका निष्पादन सर्वोच्च प्रतिभा के साथ होना चाहिए। प्रत्येक शिष्य को वही कार्य या सेवा दी जाती है जो गुरु द्वारा शिष्य की कार्मिक आवश्यकताओं तथा उनकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर  भी निर्धारित किया  जाता है। किसी भी शिष्य को दूसरों को दिए गए कार्य को करने की  या ईर्ष्या की भावना नहीं रखनी चाहिए। हम लोगों द्वारा प्रेम एवं निष्ठा के साथ गुरु द्वारा तय  किये गए कार्य को करना सर्वश्रेष्ठ सेवा होती है जो हम कर सकते हैं।


 गुरु सेवा का आशीर्वाद उन क्षेत्रों को भरता तथा पूर्ण करता है जिसका शिष्य के जीवन में अभाव होता है। गुरु सेवा शिष्य के ऊपर स्वास्थ्य, अच्छे जीवन साथी, संतान, कार्य, धन, ज्ञान, बुद्धिमत्ता, आलौकिक क्ष्रमताओं, ईश्वर का आशीर्वाद  एवं निरपेक्ष से एकाकार के रूप में आशीर्वाद का प्रवाह होता है।
                                          
राम ने वशिष्ठ ऋषि के प्रति गुरु सेवा को किया तथा उन्हें प्रसन्न किया।
               
कृष्ण ने भी अपने गुरु सान्दिपनी के आश्रम में गुरु सेवा की। उन्होंने भूमि को धोया एवं स्वच्छ किया, पूजन सामग्री, अलाव एवं पानी एकत्रित किया। यद्यपि वे भगवान विष्णु के अवतार थे, वे विनीत, आज्ञाकारी तथा समर्पित थे। उन्होंने अन्य दूसरे साधारण विद्यार्थियों की तरह अपने गुरु द्वारा दिए गए समस्त कार्य को सम्पादित किया। परिणाम के रूप में वे चौंसठ दिनों में चौंसठ कलाओं में माहिर हो गए। यह सही दृष्टिकोण से संपादित की गयी गुरु सेवा का आशीर्वाद है।
                   
जो लोग गुरु सेवा करते हैं उन्हें सेवा उचित इच्छा, तत्परता एवं आज्ञा से तथा दूसरों के प्रति बिना किसी ईर्ष्या की भावना से करना चाहिए जो गुरु से निरन्तर सम्पर्क  में रहते हैं। जो लोग दूर हैं और गुरु से सीधे सम्पर्क नहीं रख सकते हैं, उन्हें नियमित रूप से मंत्र जाप एवं ध्यान करना चाहिए और सिखाये गए अध्यात्मिक अभ्यासों के दूसरे नियमों का अनुसरण करना चाहिए। गुरु सेवा सर्वोच्च सम्भावित पुरस्कारों को प्रदान करती है।
                   
गुरु सेवा स्वयं में एक पुरस्कार है। सदैव गुरु की सेवा तन, मन, धन, एवं आत्मा से करें।
जय गुरु महाराज
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

गुरु सेवा ते भगति कमाई, तब यह मानस देही पाई | Guru Sewa te bhakti kamai tab yah manush dehi pai | Santmat-Satsang

गुरु सेवा ते भगति कमाई, तब यह मानस देही पाई!

हे जीव! यह मनुष्य देह तुझे गुरु की सेवा तथा भक्ति की कमाई करने के लिए मिली है। इस देह के लिए देवी-देवता भी तरसते हैं। वह भी चाहते हैं कि हम मनुष्य शरीर को धारण करके गुरु की भक्ति कर सकें। हे जीव तू इस मूल्यवान शरीर को पाकर भजन के काम में आलस्य करता है तथा भजन के कार्य को कल पर छोड़ता है, सो यह तेरी उस व्यक्ति वाली मिसाल है जिसे एक साधु की सेवा करने से एक सप्ताह के लिए पारस मिला था परंतु उसने उससे कोई भी लाभ न लिया। एक व्यक्ति साधु-संतों की सेवा किया करता था। एक बार एक साधु उस के घर आया जिसके पास पारसमणि थी। उस व्यक्ति ने अपने नम्र स्वभावानुसार उस साधु की सेवा की। साधु ने प्रसन्न होकर कहा, 'यह पारसमणि मैं तुझे एक सप्ताह के लिए दे जा रहा हूँ इसमें यह गुण छिपा हुआ है कि यदि लोहा इससे छू जाए तो वह लोहा स्वर्ण में बदल जाता है। एक सप्ताह के भीतर तुम जितना चाहे सोना बना लेना परन्तु सात दिन व्यतीत होने पर यह वस्तु तुम से वापस ले ली जायेगी। यह कह कर साधु चला गया। तत्पश्चात वह व्यक्ति पारस को घर रख कर बाजार चला गया। लोहे का भाव पूछने लगा। मालूम हुआ कि लोहा दो रुपये सेर है। सोचने लगा शायद कल कुछ सस्ता हो जाए, आज महंगा है। यह सोचकर वापस आ गया। दूसरे दिन जब बाजार में गया तो पता चला आज भाव कल से अधिक है। वह पुन: लौट आया उसका विचार था कि लोहा सस्ता होने पर खरीदूंगा। अर्थात रोजाना बाजार में आता-जाता और लोहे का भाव पूछ कर वापस घर चला आता। सात दिन व्यतीत हो गए। साधु अपने वचनों के अनुसार आ गया उस व्यक्ति को उसी प्रकार कंगाल देखकर चकित हुए तथा कहा,' अरे मैंने तो तुझे पारस दिया था कि तू जितना चाहे सोना बना ले ताकि तेरी निर्धनता दूर हो जाए, क्या तुमने उससे कोई लाभ नहीं उठाया? वह व्यक्ति बोला महाराज! क्या करता कई बार बाजार गया परन्तु लोहे का भाव ही बहुत तेज रहा। इसलिए यह कार्य न हो सका। यह सुनकर साधु उस व्यक्ति की नादानी पर हंसा और कहने लगा, तुमने व्यर्थ ही लोहे का भाव पूछने में सात दिन गंवा दिए तथा अनमोल समय खो दिया। साधु पारस ले गया। इसलिए संत कहते हैं कि हे जीव! करोड़ों वर्षों से आवागमन के चक्कर में ठोकरें खाते हुए देख कर मालिक ने दया करके तुझे हीरे जैसा जन्म दिया था ताकि तू निम्न जन्म के कंगालपन से छूट जाए परंतु तूने यह अनमोल समय माया की गिनतियां करते हुए खो दिया तथा जो लाभ इस मानव जन्म से उठाना था वह न उठा सका।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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बुधवार, 4 जुलाई 2018

भारत भर में गुरु पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है | Guru Purnima | इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है | Santmat-Satsang | SADGURUMEHI | SANTMEHI

।।श्री सदगुरुवे नम :।।
भारत भर में गुरुपूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूम धाम से मनाया जाता है।
यह जानकर अपार हर्ष होगा कि परम पावन पर्व "गुरु पूर्णिमा" इस महीने के 27 जुलाई 2018, शुक्रवार को है। समस्त स्नेही और विद्द्वतजन को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनायें देते हुए, मैं निवेदन करता हूँ कि जहां भी गुरुदेव का आश्रम मंदिर है वहाँ आकर लाभ उठाएँ।

'गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥'

गुरु को अपनी महत्ता के कारण ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में ही गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी।  जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

गुरु पूर्णिमा का यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।

'राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥'

गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका है। गुरु की महत्ता को सभी धर्मों और सम्प्रदायों ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी है। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

'हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।
सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय॥'

आप कितने ही कर्म करो, कितनी ही उपासनाएँ करो, कितने ही व्रत और अनुष्ठान करो, कितना ही धन इकट्ठा कर लो और कितना ही दुनिया का राज्य भोग लो लेकिन जब तक सदगुरु के दिल का राज्य तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचता, सदगुरुओं के दिल के खजाने तुम्हारे दिल तक नही उँडेले जाते, जब तक तुम्हारा दिल सदगुरुओं के दिल को झेलने के काबिल नहीं बनता, तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं। देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती।
एक सदगुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकटाते हैं। गुरु मेघ की तरह ज्ञानवर्षा करके शिष्य को ज्ञानवृष्टि में नहलाते रहते हैं। गुरु ऐसे वैद्य हैं जो भवरोग को दूर करते हैं। गुरु वे माली हैं जो जीवनरूपी वाटिका को सुरभित करते हैं। गुरु अभेद का रहस्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं। इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है।
।।श्री सद्गुरु महाराज की जय।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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शनिवार, 30 जून 2018

संतमत के वर्तमान आचार्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस महराज की जीवनी | Santmat AAcharya | Jeevni | Maharshi Harinandan Paramhans | Santmat-Satsang

संतमत के वर्तमान आचार्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस महराज की जीवनी। 

भारत-भूमि का बिहार राज्य अपनी विशिष्टताओं के कारण अत्यन्त गौरवशाली है। बिहार के मिथिलांचल को इसका श्रेय जाता है। पूर्वकाल से ही मिथिलांचल सन्त-महात्माओं एवं बड़े-बड़े विद्वानों की तपस्या-भूमि तथा उनका कार्य-क्षेत्र रहा है। इसी मिथिलांचल के कोशी प्रक्षेत्र में सुपौल जिले के त्रिवेणीगंज प्रखण्डान्तर्गत 'मनहाद्ध नाम की एक सघन आबादीवाली बस्ती है। सद्गुरू महर्षि मेंहीँ परमहंसजी महाराज के सेवक शिष्य स्वामी श्री हरिनन्दन दासजी महाराज का जन्म इसी ग्राम में चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को सन् 1934 ई0 को हुआ था। (पूज्य आचार्यश्री का जन्म 23 मार्च 1934 को हुआ था। आज 25 मार्च 2018 को उनकी 85वीं जयन्ती (84वीं वर्षगाँठ अथवा सालगिरह) है भारतीय तिथि के अनुसार)। यदुकुलभूषण स्व0 कैलू प्रसाद यादवजी इनके सौभाग्यशाली पिता थे। स्वर्गीय सुखिया देवी इनकी पूजनीया माताजी थीं। आपके पिताजी बहुत ही सात्त्विक विचार, सरल स्वभाव एवं शान्त प्रकृति के धर्मात्मा व्यक्ति थे। आपकी पूजनीया माताजी भी बहुत ही षुद्ध, सरल एवं कोमल स्वभाव की परम साध्वी भक्तिमती महिला थीं। माता-पिता की छाया में उनके सदाचरण का सुप्रभाव आपके मन पर पड़ा, जिसने आपको अन्य बालकों से भिन्न तथा भगवद्भक्तिपरायण बना दिया। बालपन में पड़ोस के बच्चों के साथ खेलते हुए रामानन्दी सम्प्रदाय के महात्माओं को देखकर आप भी उन्हीं की तरह वेष बनाकर पूजन किया करते थे। घर पर बहुत ही पवित्रता तथा श्रद्धा के साथ खेलते हुए रामानन्दी सम्प्रदाय के महात्माओं को देखकर आप भी उन्हीं की तरह वेष बनाकर पूजन किया करते थे। घर पर बहुत ही पवित्रता तथा आप देवी-देवताओं की पूजा देर तक किया करते थे। आप दो भाई तथा आपकी तीन बहनें हैं। बडे़ भाई स्व0 दरोगीप्रसाद यादव थे।

शिक्षा एवं आध्यात्मिक जीवन: उस समय आपके गाँव में पढे़-लिखे लोगों की संख्या बहुत कम थी। माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ने-लिखने को विशेष रूप से प्रेरित नहीं करते थे। आपके पिताजी ने भी आपको विद्यालय जाने और पढ़ने के लिए नहीं कहा। लेकिन दूसरे बच्चों को स्कूल जाता देख आपने स्वयं ही विद्यालय जाने की इच्छा प्रकट की और पिताजी की आज्ञा लेकर स्कूल जाने लगे। पढने में आपका बहुत मन लगता था पाठय-पुस्तकों के अतिरिक्त आपने अन्यान्य विषयों की पुस्तकों पुस्तकालय से लाकर पढ़नी शुरू कर दी। आपकी परिश्कृत अभिरूचि तथा संस्कारों ने आपकी क्रमशः आध्यात्मिक पुस्तकों के अध्ययन-मनन की ओर प्रवृत्त किया। आपकी प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण स्कूल से आरम्भ हुई और माध्यमिक शिक्षा के लिए आप त्रिवेणीगंज पढ़ने जाते थे। वहाँ से आपने दसवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। आप अपने वर्ग में प्रथम स्थान पाते हुए सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते थे। स्वयं तथा ग्रामवासियों के लिए कीमती पुस्तकें खरीदकर पढ़ना सम्भव नहीं है, यह सोचकर आपने गाँव में एक पुस्तकालय की स्थापना करने का निश्चय किया। आपने अपने मित्रों के साथ मिलकर इस योजन को कार्यरूप में परिणत करने के लिए प्रयत्न शुरू कर दिया। गाँववालों ने भी सर्वहित के इस कार्य में सहयोग दिया। स्थानीय सत्संग मन्दिर में पूज्य मोती बाबा ने इस पुस्तकालय के लिए एक कक्ष प्रदान करने की कृपा की। पामाराध्य गुरूदेव महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज के नाम इस पुस्तकालय की स्थापना हो गई। गुरूदेव के शुभाषीर्वाद के फलस्वरूप थोडे़ ही समय में पुस्तकालय की बहुत उन्नति हो गई। पुस्तकालय के संचालन का पूरा भार आपने ही स्वेच्छा से उठा लिया और इसी क्रम में अपना वासा भी सत्संग मन्दिर मं ही रख लिया। वहाँ होनवाली स्तुति-प्रार्थना में आप नियमित रूप से सम्मिलित होते तथा सत्संग-प्रवचन सुनने का सौभाग्य आपको अनायास ही प्राप्त होने लगा। फलतः, आपका झुकाव सत्संग की ओर विषेश रूप से होने लगा। अतः आपने आध्यात्मिक ज्ञान की पिपासा के कारण पढाई स्थगित कर दी। आपकी प्रवृत्ति और सत्संग के प्रति आपके आकर्षण को देखकर पिताजी ने आपका विवाह कर देना ही श्रेयस्कर समझा। किन्तु आपने विवाह करना अस्वीकार कर दिया। इस दिशा  में आपके पिताजी के सारे प्रयत्न आपके दृढ़ निष्चय के समक्ष निष्फल हुए।

    धीरे-धीरे आपका अधिकांश समय सत्संग मन्दिर में ही व्यतीत होने लगा, जहाँ आप सत्संग की पुस्तकें तथा अन्य आध्यात्मिक ग्रन्थों का अध्ययन-अनुशीलन करते रहते थे। भोजन के लिए भी जब आपने घर जाना बन्द कर दिया तो आपकी माताजी स्नेहवश स्वयं भोजन लेकर सत्संग मन्दिर आ जाती थीं। सन् 1954 ई0 के अक्टूबर माह की बात है। उस समय गुरूदेव सिकलीगढ़ धरहरा में विराज रहे थे। आपने वहाँ जाकर उनसे भजन-भेद की दीक्षा ले ली और घर से विरक्त होकर अधिकांश समय सत्संग मन्दिर में साधना -भजन और अध्ययन-चिन्तन में व्यतीत करने लगे।
    जब स्कूली शिक्षा का त्याग कर आप मचहा सत्संग मन्दिर में पुस्तकालय का संचालन करते हुए वैरागी साधु की तरह रहने लगे, तब करीब दो वर्षो के बाद अप्रैल, 1957 ई0 में महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज सत्संग-प्रचार के सिलसिले में मचहा ग्राम पधारे। वहाँ तीन दिनों तक सत्संग का आयोजन हुआ। उस सत्संग में आप भी सम्मिलित हुए और महर्षि जी के दर्शन-प्रवचन से बहुत प्रभावित हुए। सत्संग में आपको विचि़त्र शान्ति का अनुभव हुआ, अशांत मन को शान्त करने का संबल मिला। सत्संग के दौरान अपने प्रवचन में गुरू महाराज ने आपको लक्ष्य करके कहा था- ’’जिन्होंने माता-पिता और घर का त्याग कर दिया है, उनका किसी छोटे कार्य में उलझे रहना ठीक नहीं है। जिस ध्येय की प्राप्ति के लिए माता-पिता के स्नेह-बंधन को तोड़ा है, उसके लिए यत्न नहीं किया जाय तो उनका गृह-त्याग देना महत्त्वहीन है। उनका छोटे-मोटे व बाहरी कार्यों में उलझे रहने से कल्याण नहीं होगा।’’ गुरू महाराज की अमृत वाणी आपके अन्तर में बद्धमूल हो गयी और आपके मन में वैराग्य की भावना प्रबलतर हो उठी। आपका मन गुरूसेवा के लिए विचलित हो उठा। गुरू महाराज के कल्याणकारी सांकेतिक वचनों से पुस्तकालय-प्रभारी के दायित्वों से विचलित होकर उसी समय आपने गुरू महाराज से विनीत प्रार्थना की कि ’मुझे भी अपनी सेवा में रख लेने की कृपा करें।’

    उस समय गुरूदेव की सेवा में पहले से ही दो सेवक पूज्य श्री सन्तसेवी जी महाराज तथा पूज्य श्री भूपलाल बाबा मौजूद थे। किसी अन्य सेवक की उस समय गुरू महाराज को आवष्यकता नहीं थी, किन्तु आपकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए उन्होंने आपको अपने साथ रख लेने की कृपा की। तब से आप गुरू महाराज के साथ ही रहने लगे। उस समय गुरू महाराज द्वारा सम्पादित ’सत्संग-योग’ का प्रथम संस्करण प्रकाषित हुआ था, जिसमें बहुत सारी अषुद्धियाँ रह गई थीं। इन अशुद्धियों को आप मनिहारी आश्रम में रहकर शुद्ध किया करते थे। यह काम 1961 ई0 तक चलता रहा। इसके बाद से आप गुरूदेव के भण्डारी का काम करने लगे, जो 1973 ई0 तक लगातार चलता रहा। 1974 ई0 से 1975 ई0 तक ’शांति -सन्देश’-प्रेस के कार्य-भार का दायित्व आपने अपने ऊपर ले लिया। सन् 1964 ई0 में गुरू महाराज ने आपको संन्यासी वस्त्र का अधिकारी मानकर गैरिक वस्त्र प्रदान किया था, साथ ही शब्दयोग की क्रिया भी बतायी थी।
    एक बार की घटना है कि गुरू महाराज किसी का कोई चढ़ाव नहीं लेते थे, चाहे वह अन्न, वस्त्र, रूपये-पैसे कुछ भी हो। गुरूदेव की सेवा करने से वंचित हो जाने के कारण श्रद्धालु भक्त जन व्याकुल थे। तब पूज्य श्री हरिनन्दन जी महाराज लोगों के बहुत अनुनय-विनय पर उनके द्वारा दी गई वस्तुओं और रूपयों को अपने पास रख लेते थे, ताकि उनकी भक्ति-भावना आहत न हो और गुरू महाराज को इसकी जानकारी नहीं देते। सन् 1971 ई0 में जब गुरू महाराज अस्वस्थ हुए तो पूज्य श्री हरिनन्दन जी महाराज ने भक्तों द्वारा दिये हुए रूपयों से पटना में चिकित्सा करवाई और शेष रूपयों को पास में ही रहने दिया। गुरूदेव तो अन्तर्यामी थे। स्वस्थ होने पर उन्होंने पूछा कि मेरी चिकित्सा के लिए रूपये कहाँ से खर्च हुए? तब गुरूदेव को सारी बातों से अवगत कराया गया और बताया गया कि इतने रूपये शेष हैं। उन रूपयों को वर्तमान आचार्य महर्षि हरिनन्दन जी महाराज ने लाकर गुरूदेव के सम्मुख रख दिया। इसपर गुरू महाराज ने कहा, ’’तुम्हारा हाथ कभी पैसे से खाली नहीं रहेगा।’’


    विद्यार्थी जीवन से ही अध्ययन और पठन-पाठन का जो क्रम पूज्य हरनिन्दन जी महाराज के साथ चला, वह आज भी अनवरत रूप से जारी है। आध्यात्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त आपने विभिन्न विषयों की अनेकानेक पुस्तकें पढ़ीं और उनसे ज्ञान का संचय किया। इसी अध्ययन से आपको प्राकृतिक चिकित्सा का विस्तृत ज्ञान प्राप्त हुआ और इस चिकित्सा पद्धत्ति पर आपका विशवास दृढ़ हुआ। सन् 1972 ई0 मे अस्वस्थ होने पर आपने प्राकृतिक चिकित्सा करवायी थी। गुरू महाराज के भोजन बनाने के लिए आपने गुरूप्रसाद दासजी को प्रषिक्षित किया और एक दिन परमाराध्य गुरूदेव से प्रार्थना की, ’’हुजूर! मेरी इच्छा हो रही है कि मैं एक बार अपनी प्राकृतिक चिकित्सा करवाऊँ। गुरू प्रसादजी आपके लिए भोजन बनाना सीख गये हैं। जबतक मैं उपचार में रहूँगा, ये आपका भोजन बनाते रहेंगे।’’ गुरू महाराज ने सहर्श आपको आज्ञा प्रदान करने की कृपा की। आप उपचार के लिए रानीपतरा गये, किन्तु गरू महाराज के सान्निध्य का लाभ छोड़ कर रहने में आपका चित्त विचलित रहने लगा। अतः इलाज बीच मेें ही छोड़कर आप वापस कुप्पाघाट आश्रम आ गये और फिर इलाज भी वहीं करवाया। आपके स्वास्थ्य-लाभ के बाद गुरू महराज गुरूप्रसादजी को वहीं भेजना चाहते थे, जहाँ से वह आये थे, किन्तु आपकी विनती पर गुरू महाराज ने उनको भी हमेशा के लिए अपने पास ही रख लिया।
    इस तरह महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज गुरू महाराज की सेवा में सदा तत्पर रहा करते थे। पूज्य श्री शाही स्वामीजी महाराज के बाद स्वामी श्रीचतुरानन्द बाबा महर्षि मेंहीं आश्रम, कुप्पाघाट के व्यवस्थापन का कार्य करते थे। तत्पश्चात् यह दायित्व आपके ऊपर आ गया। अ0 भा0 सन्तमत-सत्संग-महासभा के निर्णयानुसार सन् 1987 ई0 से आपने भजन-भेद देना प्रारम्भ किया। अभी तक आपने कई हजारों लाखों की संख्या में सत्संगी श्रद्धालुओं को दीक्षित किया है।
     परम पूज्य आचार्य श्री हरिनन्दन परमहंस जी महाराज बहुत ही ध्यानी संत हैं। इनका जीवन सादगी और सात्त्विकता का प्रतीक है। जय गुरु।
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गुरुवार, 7 जून 2018

एक विद्या मिलती है पण्डितों-अध्यापकों के पास | दूसरी विद्या होती है, जो साधु-संतों के संग में मिलती है | महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi | Santmat-Satsang

“एक विद्या है कि पण्डितों-अध्यापकों के पास मिलती है | दूसरी विद्या होती है, जो साधु-संतों के संग में मिलती है | स्कूल-कॉलेज की विद्या में संसार के प्रबन्ध का ख्याल ज्यादे होता है | और साधु-संतों के पास जाने से जो विद्या आती है, उसमें संसार का प्रबन्ध तो रहता ही है, लेकिन यह भी रहता है कि शरीर छोड़ने के बाद तुम्हारी क्या हालत होगी, यह भी सोचो | संसार में रहने के लिए बहुत अच्छा प्रबन्ध किया | कुछ दिन वा कुछ वर्ष रहे, चले गए | कहाँ चले गए, इसका कोई ठिकाना नहीं | शरीर छोड़ने पर तुम दु:ख में नहीं जाओ, इसका प्रबन्ध कर लिया तब तो ठीक है | लेकिन नहीं किया तो, अभी तुमको कुछ करना चाहिए | जाना ज़रूर है, लेकिन शरीर के बाद का जीवन बहुत लम्बा है, इसका प्रबन्ध करो | संसार का प्रबन्ध करना ही है और शरीर छूटने के बाद का भी प्रबन्ध सोचो, नहीं तो अपनी बहुत बड़ी हानि करते हो | बड़ी हानि से बचो और दूसरों को भी बचाओ |

ईश्वर के भजन से जीवन सुखमय होगा | अपने को भला बनाना ईश्वर-भजन से होगा | बहुत पढ़-लिख लिए; इससे अपनी पूरी भलाई हो, ऐसी बात नहीं | संसार में तुम अपने को सँभाल कर रखो कि तुम्हारी कोई निन्दा न करे | यदि तुम्हारा आचरण ठीक है और लोग तुम्हारी निन्दा करें, तो परवाह मत करो | और यदि तुमसे किसी तरह का काम हो गया है, तब जो तुमको कोई कुछ कहे, तो उसको अपना मित्र मानो | ईश्वर की ओर चलने के लिए पवित्र भाव से रहना होगा | संसार की कमाई में पाप-पुण्य का विचार नहीं होता, लेकिन ईश्वर-भजन में पाप-पुण्य का विचार करके चलना होगा | कोई चाहे कि ईश्वर भजन भी करेंगे और पाप भी करेंगे, तो उससे ईश्वर का भजन नहीं होगा | ईश्वर का भजन आजकल-आजकल कहकर मत टालो |” - महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज

बुधवार, 30 मई 2018

संतों की पहचान | SANT | Santon ki pahchan | Santmat | Santmat Satsang |

|| संत ||

☘संतों की पहचान कोई अध्यात्म ज्ञान को जानने वाला सेवक ही कर सकता है। इनका सम्पूर्ण जीवन व सभी कर्म दूसरों के लिए हैं। जैसे स्वाति बूंद अम्बर से गिरकर सीप के मुख में गिरती है तभी सीप मोती बनाता है। जिस प्रकार चन्दन की खुशबू हवा के द्वारा वन के अन्य वृक्षों की दुर्गन्ध को बदलकर उसको भी सुगनिधत कर देती है तथा सम्पूर्ण वन चन्दनमय हो जाता हैं उसी प्रकार संत भी परमात्मा की अमृत रूपी खुशबू को श्रद्धावान मानव के जीवन में प्रकट करके उसे सुगंधित कर देते हैं। सच्चे संत मधुमक्खी की तरह होते हैं जैसे मक्खी तो कर्इ प्रकार की होती हैं किन्तु मधुमक्खी के अलावा अन्य मकिखयाँ फूल से शहद एकत्र नहीं कर सकती बलिक उसे गंदा कर देती हैं तथा भोजन पर बैठने से उसे भी गंदा कर देती हैं जिससे कर्इ प्रकार की बीमारियां हो जाती हैं। जबकि मधुमक्खी फूल से शहद उठाती है। मधुमक्खी अपने मल-मूत्र, बच्चों एवं शहद को एक ही छत्ते में रखती है फिर भी उसके शहद को औषधि के रूप में कर्इ प्रकार के रोगों के निवारण हेतु प्रयोग किया जाता है इसी प्रकार संत योग साधन करके अपने जीवन रूपी फूल में शहद रूपी अमृत की खुशबू को प्रकट करते हैं तथा सदा परमानन्द में रमण करते हैं तथा उनके सानिध्य में जो भी श्रद्धावान मानव पहुंचता है। वह उनसे ''अध्यात्म सत्संग सुनकर जिज्ञासु बनकर विनम्र प्रार्थना करके एवं तन-मन-धन से सेवा करके ''अध्यात्म ज्ञान को प्राप्त करता है तथा वे उस जिज्ञासु को भी उसी ''सुमिरण साधन का अभ्यास बताते हैं जिसके द्वारा उन्होंने अपने जीवन में अमृत खुशबू को प्राप्त किया। जिससे वह अपने जन्म-जन्मान्तरों के कर्म संस्कारों के मृत्यु रोग को जीते जी में मिटाकर अपने आप को जीवन मुक्त कर लेता है। रेशम का कीड़ा अपनी लार थूक के रेशम का धागा तैयार करता है इस रेशम के धागे से बने वस्त्रों से अन्य मनुष्यों की शोभा एवं सुन्दरता बढ़ती है। रेशम को कीड़ा स्वयं अपने प्रयोग में नहीं लेता है उसी प्रकार संत का सम्पूर्ण जीवन व सभी कर्म दूसरों के लिए होते हैं क्योंकि इनके पूर्व जन्मों के संस्कार ज्ञानमय रहे होते हैं। सबका जन्म गृहस्थ में ही हेाता है तथा ''अध्यात्म ज्ञान सम्बन्धी पूर्व जन्मों के कर्म संस्कार सभी में रहते हैं किन्तु मानव को अध्यात्म ज्ञान प्राप्त हेाते ही पूर्व जन्म के कर्म संस्कार तथा सेवा, सत्संग व साधन के कर्म संस्कार भी जुड़ जाते हैं तब पूर्ण साधक की प्रबल धारणा बनकर संसार से विमुख होकर परमात्मा की ओर बहने लगती है। जैसे एक नदी की तीव्र धारा मिटटी को कटान करके अपनी पुरानी धारा से विमुख होकर अन्य दिशा में बहने लगती है तथा पुरानी दिशा में एक बूंद भी नहीं बहती है। इसी प्रकार संतों के ज्ञान सम्बन्धी योग साधन किये हुए पूर्व कर्म संस्कार बहुत मजबूत एवं शकितशाली होते हैं तथा उनकी परमात्मा में धारणा, ध्यान व समाधि स्वत: हो जाती है। ऐसे संत का जीवन कांच के गिलास की तरह होता है जिसके बाहर भीतर स्पष्ट दिखायी देता है। जैसे वृक्ष अपने फल दूसरों को ही प्रदान करता है स्वयं ग्रहण नहीं करता। इसी प्रकार संत भी समदर्शी सेवक बनकर समाज के अशान्त मानव को शान्ति पहुंचाते हैं। सांसारिक गृह को त्यागकर ब्रह्राचरित्र का पालनकर मानव के अन्दर इस पवित्र ''अध्यात्म ज्ञान का प्रत्यक्ष बोध कराते हैं। इस प्रकार इनके द्वारा दिया हुआ ज्ञान ही सेवक में फलीभूत होता है। ''अध्यात्म ज्ञान” के अभाव में आज के मानव में अशान्ति एवं आतंक का वातावरण छाया हुआ है। संत ही मानव के जीवन में स्थायी शान्ति का वातावरण स्थापित कर सकते हैं। जैसे एक सूर्य सम्पूर्ण सौर मंडल को प्रकाशित करता है उसी प्रकार महात्मा की आत्मा परमात्मा के योग से 'अध्यात्म’ सूर्य बनकर अन्य भटकी हुर्इ जीवात्माओं के अंधकारमय जीवन को प्रकाशित कर देती है। जैसे तीन नदियों के संगम होने पर उनके पानी को अलग-अलग नहीं किया जा सकता है उसी प्रकार परमात्मा, महात्मा की आत्मा तथा जीवात्मा का ज्ञान से संयोग हो जाने पर उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। यही अमर ज्ञान है। जय गुरु।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता
गुरुग्राम, हरियाणा

शनिवार, 26 मई 2018

Speech of Baba Devi | Baba Devi Sahab ki Vaani | Sant Sadguru Maharishi Mehi | Santmat-Satsang

Speech Of Baba Devi on Devotion --

हरि सेती हरिजन बरे, समझ देख मन माहिं ।
कहे कबीर जग हरि विषै, सो हरि हरिजन माहिं ।।

मुल्तान से चल कर बाबा देवी साहब क्वेटा होकर बीच के स्थानों पर उपदेश करते हुए कराँची पहुँचे और वहाँ उनका 'भक्ति' विषय पर व्याख्यान हुआ --

मित्रो ! इस समय मैं आपके सामने एक ऐसे विषय पर कुछ कहना चाहता हूँ कि जिसका वार्तालाप समस्त भूमण्डल के लोगों की जिह्वा पर प्राय: सब समय रहता है; परन्तु वे उस पर तनिक भी ध्यान नहीं देते और उसको एक साधारण वस्तु समझते हैं । मेरी समझ में तो यह एक बहुत ही मूल्यवान् वस्तु है, जिसको सब मतों के साधु पुरुष अपने-अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने के लिए एक अत्यावश्यक वस्तु समझते हैं और इसी को वे सिद्धान्तसार जान-मान कर अन्य सिद्धान्तों को इसका दास और सेवक समझते हैं । वे यह भी मानते हैं कि इसकी सहायता के बिना कोई सिद्धान्त नहीं चल सकता और न किसी ऐहिक वा पारलौकिक कार्य में साफल्य प्राप्त हो सकता है । यदि हम इसको एक 'रहस्य' का नाम दें, तो नि:संदेह यह इसका पात्र है; क्योंकि समस्त रहस्यों क रहस्य वह परमेश्वर है, परन्तु यह भी अपने पद में उससे कम नहीं है, किन्तु परमेश्वर और इसमें समानता का सम्बन्ध है और उसमें भी यह अपना प्रथम पद रखता है और परमेश्वर द्वितीय । यदि परमेश्वर ताला है, तो यह उसके खोलने की कुञ्जी है; क्योंकि इसकी सहायता के बिना न तो अब तक किसी को परमेश्वर का रहस्य खुला और न स्रिष्टि-रचना के कारणों का रहस्य किसी के सामने आया । जिस किसी के पास इस सम्पत्ति की थोरी बहुत मात्रा भी होती है, वह उक्त दोनों रहस्यों का ज्ञाता हो जाता है, अन्यथा लाखों मनुष्य परमेश्वर और स्रिष्टि के रहस्यों को बिना जाने ही इस संसार से उठ जाते हैं ।
अब प्रश्न यह है कि इसका क्या नाम है और यह कहाँ है ? इसका नाम भक्ति, इश्क और लव (Love) है । देखने में ये तीनों शब्द अलग हैं; परन्तु इन सबका अर्थ एक ही है । भक्ति कहो, चाहे इश्क अथवा 'लव' । इसमें मेल करा देने का स्वभाव है कि जिसके प्रभाव से दो अलग पदार्थ मिल जाया करते हैं और एक नूतन आक्रिति का निर्माण होकर उसका स्वयं प्रादुर्भाव हो जाता है । आक्रितियाँ छोटी और बरी, इस प्रकार कई भाँति की होती हैं । कुछ आक्रितियाँ इस समय ऐसी विशाल हैं कि जिनको देखते ही हमको उनका ज्ञान हो जाता है कि यह अमुक पदार्थ है । और, कुछ आक्रितियाँ ऐसी छोटी हैं कि उनका ज्ञान हमको सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से भी नहीं हो सकता कि यह क्या है । ऐसी दशा में यह गहन विषय किस प्रकार सर्वसाधारण के समझने योग्य हो सकता है ।
इस प्रत्यक्षीकरण से स्पष्ट है कि इन परमाणुऔं पर अवश्य कोई ऐसी वस्तु काम करती है कि जिसका स्वभाव मिलान का है । यदि कोई ऐसी वस्तु काम करने वाली न होती, तो ये कुल शरीर और पिण्ड आदि प्रादुर्भाव में न आते, और न यह इतना विशाल संसार द्रिष्टिगोचर होता । परमाणु से लेकर समस्त संसार तक, सब भक्ति के एक तार में बँधे हुए हैं, किसी प्रकार वे डावाँडोल नहीं हो सकते । यदि इनमें से भक्ति का अंश निकल जावे तो समस्त संसार और इसके परमाणु खुलकर अलग-अलग हो जावें । इससे यह समझ लेना चाहिए कि भक्ति ही समस्त संसार के जीवन का प्राण है, जिससे कि परमाणु से लेकर समस्त शरीर और पिण्ड आदि की स्थिति है ।
यह कुल पिण्ड अर्थात् तारे और नक्षत्र जो आकाश में भरे हुए हैं, भक्तिपूर्ण होकर पूर्व से पश्चिम को चले जा रहे हैं, और अपनी शक्ति अर्थात् प्रकाश और जीवन को किरणों के द्वारा सीधे धरती पर प्रविष्ट कर रहे हैं कि जो उसके जीवन का हेतु है । इस प्रकार भक्ति-भाव से प्रेरित होकर यह प्र्‍थ्वी (धरती) भी सर्वदा नाचती रहती है और अपनी असंख्य शक्ति-धाराओं को रस के रुप में वनस्पतियों में प्रविष्ट कर रही है कि जो उसके जीवन का हेतु है । भक्ति भाव में आकर ही वनस्पति उमर-उमर कर अपनी शक्ति को धाराओं के द्वारा अन्नादि रुप मे पशुओं के अन्दर प्रविष्ट करती है कि जो उसके जीवन का हेतु है और इसी भक्ति में तन्मय होकर पशु अपनी शक्ति को दुग्ध-धाराओं के द्वारा अपने बच्चों मे प्रविष्ट किया करते हैं ।
अब हम इस आश्चर्य में हैं कि यह स्रिष्टि है या कि सर्वव्यापी प्रेमालय है कि जहाँ स्रिष्टि का प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने इष्ट को सामने रखकर प्रेम की धूम मचा रहा है और अपने-अपने प्रेमपात्र में विलीन हो रहा है । यह कुल अन्तकाल तक इतना काम करते हैं कि अपने-अपने प्रेमपात्रों में विलीन हो जाते हैं । देखो, ज्योतिष्मान पदार्थ तारे नक्षत्रादि तो खनिज पदार्थों के आकार को बढाते-बढाते लुप्त होते हैं और खनिज पदार्थ आदि वनस्पतियों के लिये काम करते-करते चल बसते हैं । इसी प्रकार, वनस्पतियाँ पशुओं के काम में आते-आते नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं ।
भक्ति को हम मद्य कहें या क्लोरोफोर्म, क्या कहें और क्या न कहें कि जिसके मद में समस्त संसार डूबा हुआ है । देखो, भक्ति न तो कोई फल है और न कोई मिष्टान्न है तथापि यह ऐसी स्वादयुक्त वस्तु है कि यदि इसका नाम भी कोई जिह्वा पर ले आवे और कहे कि प्रेम ! भक्ति ! तो इसका नाम सुनते ही मनुष्य-ह्र्‍दय में, चाहे वह बालक हो या बुढा और चाहे हो वह युवा, एक तरंग उठती है और संपूर्ण शरीर की नस-नस में प्रविष्ट होकर एक उन्माद (मस्ती) उत्पन्न कर देती है । भक्ति का यह एक विचित्र स्वभाव है कि यह जिसकी ओर अपना थोडा भी मुँह फेरती है कि उसको अपना कर लेती है और वह इसी का पक्षपाती हो जाता है । सेवक की तरह वह हर समय इसके सामने करबद्ध खडा रहता है कि जो आज्ञा हो, उसका पालन करूँ ।
भक्ति ने अपने चमत्कार संसार में डिण्डिम घोष से जता रखा है कि बडे-बडे हिंसक जंतुओं को अपने वश में करके सरकस के खेल में स्त्री और बालकों के समान नचाती, कुदाती और खेल दिखाती है । भक्ति से एक छोटे पद का लेखक (मुहरिर) अथवा चपरासी अपने अधिकारी को ऐसा अनुकूल और अनुग्राहक बना लेता है कि अपनी इच्छा के अनुसार उनसे काम बनवा सके, और सब सरकारी नियम व आज्ञाएँ बसा खडी-खडी देखा करें । भक्ति से ही एक मुनीम या कारिन्दा स्वामी को अपने ऊपर आक्रिष्ट कर लेता है कि उससे यथेष्ट पदार्थ प्राप्त कर सके, और उसके सब भाई-बंधु-संबंधी उस समय सिर पटकते ही रह जाते हैं । यही नहीं, भक्ति से संपूर्ण शक्तियाँ और समस्त देव अपने वश में हो जाते हैं और भक्ति के संकेत व प्रेरणा से वे ऐसे-ऐसे काम करते हैं कि वहाँ मनुष्य की बुद्धि चकरा जाती है और वह उसको चमत्कार, सिद्धि अथ्वा दूसरी भाषा में मौजजा, सहर या जादू का नाम देता है ।
भक्ति के द्वारा परमेश्वर और मनुष्य में एक मेल, स्नेह और संबंध हो जाता है; इस लोक और परलोक के संबंध में आदेश और उपदेश प्रादुर्भाव में आते हैं कि जिनको लोग इलहाम के नाम से पुकारते हैं । भक्ति के द्वारा लोग आगे की होनेवाली बातों को बताते हैं और इसी के द्वारा असंभव संभव और संभव असंभव हो जाते हैं । भक्ति द्वारा जादू के सब आक्रमण और प्रभाव और विविध रोग नष्ट हो जाते हैं । भक्तिमान् पुरुष की ही स्तुति और प्रार्थना स्वीक्रित होती है । भक्ति के द्वारा मनुष्य अत्यन्त समझदार और निर्मल-बुद्धि हो जाता है । भक्तिमान् पुरुष के सामने अर्थशुद्धि (ईमानदारी) और सच्चाई हाथ बाँधे खडी रहती है । भक्ति समस्त संसार का धर्म है और कोई मत, सम्प्रदाय वा पंथ इसकी सहायता के बिना स्थिर नहीं रह सकता । भक्ति में मुख्य विशेषता यह है कि मनुष्य के भीतर परमेश्वर तक का सरल मार्ग खोल देती है, जिससे मनुष्य अपने केन्द्र या लक्ष्य पर पहुँच जाता है और फिर वह कभी नहीं लौटता । सारांश यह कि भक्ति एक ऐसी वस्तु है कि जिसके बिना सांसारिक अथवा पारलौकिक कोई भी कार्य पूर्ण नहीं हो सकता । जो भक्ति-रहस्य से जानकारी रखता है, वही मनुष्य है और जिसका हर्‍दय (heart) भक्ति भावों से रिक्त है, वह पशु ही नहीं; किन्तु उससे भी निक्रिष्ट है ।
अब प्रश्न यह है कि वह भक्ति कि जिसके गुणों का इतने विस्तार से वर्णन किया गया, क्या पदार्थ है? यह स्वयं कोई पुरातन पदार्थ है अथवा किसी से उत्पन्न हुआ है, वह क्या पदार्थ है? स्रिष्टि की उत्पत्ति के प्रारम्भ से अब तक तीन प्रकार के महापुरुष हो चुके हैं, जो बडे बुद्धिमान् और पवित्रात्मा माने जाते हैं, उन्हीं की समझ के ऊपर समस्त संसार में मत, दर्शन, और विज्ञान की आधारशिला रही है । कुछ महापुरुषों का कथन है कि भक्ति मध्य-वस्तु है, जिसमें प्राचीनता या नूतनता का प्रश्न ही नहीं । दूसरे यह विचार रखते हैं कि भक्ति ही स्वयं (परमेश्वर) है, वह किसी से उत्पन्न नहीं हुई है । परमेश्वर और उसमे केवल नाम का भेद है, अन्यथा एक ही वस्तु है । तीसरे अपनी सम्मति यह रखते हैं कि भक्ति एक उत्पत्तिमान् पदार्थ है और वह जीवात्मा से उत्क्रिष्ट परन्तु परमेश्वर से निक्रिष्ट है ।
जब विचार किया जाता है तो यद्यपि देखने में भक्ति की उक्त तीन आक्रितियाँ हैं; परन्तु वास्तव में एक ही पदार्थ हैं; क्योंकि प्रथम सम्मति के अनुसार यदि यह कोई मध्य-वस्तु है तो भी कुछ-कुछ परमेश्वर के समान आदरणीय है कि जो भक्ति का भण्डार है । यदि दूसरे विचारानुसार, भक्ति स्वयं परमेश्वर है तो परमेश्वर ही उसका भण्डार है । यदि तीसरी सम्मति के अनुकूल भक्ति जीवात्मा से ऊपर और परमेश्वर से नीचे है तो भी परमेश्वर उसक केन्द्र है । अन्त मे मुझे यह कहना पडता है कि चाहे भक्ति वस्तु है अथवा स्वयं परमेश्वर और या यह जीवात्मा से कोई उत्क्रिष्ट पद रखती है, इन तीनों अवस्थाओं में गुण समान ही हैं, इससे सिद्ध होता है कि इसका कारण भी एक ही है, अनेक नहीं ।
भक्ति समस्त संसार की जान है और अभी कहीं चली नहीं गई है, अपितु स्रिष्टि के आवरण वस्त्र में छिपकर अपने प्रभावों का रंग दिखा रही है । इस बात को जाँचने के लिए समीपस्थ से समीपस्थ मनुष्य को ही देख लीजिये कि यदि इसमें भक्ति का अंश न होता तो यह संसार में कंकड-पत्थर के समान एक ही स्थान पर पडा रहता । यह भक्ति की ही शक्ति है कि जिससे मनुष्य चल-फिर रहा है और उसके कुल काम हो रहे हैं; क्योंकि प्रत्येक चेष्टा तथा प्रेरणा कि जिससे मनुष्य प्रेरित हो रहा है या उसके कुल कार्य हो रहे हैं, उन सबका एकमात्र हेतु भक्ति ही है । भक्ति वह आवश्यक पदार्थ है कि कोई कार्य चाहे वह लौकिक हो अथवा पारलौकिक; इसके बिना पूर्ण नहीं हो सकता; क्योंकि मनुष्य जिन कामों को करने में पूरे चाव से लगा हुआ है, वे पूर्ण हो जाते हैं और जिन कामों में चाव की कमी है, वह काम पूरे नहीं होते या अधूरे रह जाते हैं ।
तात्पर्य यह कि भक्ति अथवा प्रेम हर एक बात और हर एक काम को पूरा करने के लिए एक अत्यावश्यक वस्तु है और इसी को हर एक काम में सफलता प्राप्त करने के लिए एक विशेष अंग समझा गया है । अत: बुद्धिमान् मनुष्य को किसी काम को आरंभ करने से पूर्व यह देखना चाहिये कि उस कार्य को पूरा करने के योग्य अपने में भक्ति की मात्रा पर्याप्त है या नहीं । यदि है तो उस कार्य को प्रारम्भ करे अन्यथा मौन साध ले और भक्ति की मात्रा प्राप्त करने का प्रयत्न करे । जब भक्ति प्राप्त हो जावेगी तो इसके निर्धारित कार्य स्वत: होते चले जाएंगे ।
अब प्रश्न है कि भक्ति ही लोक और परलोक की प्राप्ति के लिए एक अचूक साधन है तो वह कहाँ है और कैसे प्राप्त हो सकती है ? इस विषय में प्राचीन अथवा अर्वाचीन महात्माओं का यह विचार है कि भक्ति तो सबमें विद्यमान है; परन्तु उसके आगे कुछ ऐसे आवरण लटके हुए हैं कि उसका प्रादुर्भाव नहीं होने देते, अत: ऐसे स्थान पर जाना चाहिए कि जहाँ आवरण को हटाने की विधि बताई जाती है । सन्तों और साधुओं की परिभाषा में ऐसे स्थान को सत्संग कहते हैं और वहाँ भक्ति उत्पन्न करने तथा उसके आगे से आवरण हटाने के लिए क्रियाएँ बताई जाती हैं । वे क्रियाएँ बहुत सरल और साधारण हैं कि जिन पर प्रत्येक मनुष्य आचरण कर सकता है -- प्रथम शरीर-स्वास्थ्य, द्वितीय इन्द्रिय-स्वास्थ्य और त्रितीय आत्म-स्वास्थ्य ।
शरीर-स्वास्थ्य की विधि है कि उसको उचित और पवित्र भोजन से बनाना कि जो भोजन भले लोगों के व्यवहार करने से प्राप्त होता है; क्योंकि शरीर का प्रभाव इन्द्रियों पर पडता है और इन्द्रियों का प्रभाव आत्मा पर कि जिससे परमेश्वर के भजन में अन्तर पड जाता है । यदि शरीर स्वस्थ और सबल ना हो तो उसमें पूर्ण रीति से आन्तरिक शक्तियों और तेज का विकास नहीं होता, और वह समय कि जो ईश्वर-प्रार्थना में लगाया जाता है, कुछ विशेष सफल नहीं होता और जब सफलता नहीं, तो अभ्यासी का उद्येश्य नष्ट हो जाता है ।
अपनी इन्द्रियों और मनोव्रित्तियों को सांसारिक यश, धन के अहंकार, विद्या और कुल के गर्व से सुरक्षित रखना चाहिये; क्योंकि यह सब भक्ति के शत्रु हैं, जहाँ ये रहते हैं, वहाँ से भक्ति दूर भाग जाती है । यदि भक्ति प्रकाश है तो ये सब अन्धकार हैं । जो कोई भक्ति के शत्रुओं को अपने हर्‍दय मे बैठाता है, भक्ति उससे रूठ जाती है । भक्ति के इच्छुकों को यह आवश्यक है कि वे ऐसे लोगों की संगति से दूर रहें जो अपनी वासनाओं के वशीभूत हैं; क्योंकि उनकी संगति हलाहल विष से भी अधिक घातक है । ये लोग ऐसी बातें सुनाते हैं कि जिनसे मनुष्य के उत्तम गुण नष्ट हो जाते हैं और उनमें ईर्ष्या तथा लोभ की अग्नि धधकने लगती है कि जिससे उनका चित्त सर्वदा चिन्तित और व्याकुल रहता है ।
आत्म-स्वास्थ्य इन तीनों इन्द्रियों वाणी, नेत्र और कर्ण के बाहरी तथा भीतरी सदुपयोग से होता है । (१) प्रथम, वाणी को मिथ्याभाषण से बचाकर परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना मे लगाना चाहिये; क्योंकि जो कोई किसी के गुण गाता है तो वह गुण गानेवाले पर प्रसन्न होता है और उससे स्वयमेव प्रेम करने लगता है । अत: जो कोई परमेश्वर के गुण गाता है, परमेश्वर उससे प्रेम करने लगते हैं । जैसे इस समय हम यह कहते हैं -- अमुक पुरुष आपकी बडी प्रशंसा करता है, तो आपका चित्त उस पर प्रसन्न हो जाता है और उसके लिए प्रेम-भाव उमड आते हैं । परमेश्वर को प्रसन्न करने और मनाने के लिये इससे उत्तम मार्ग या प्रयत्न कोई दूसरा नहीं है । संसार को उपदेश या शिक्षा देना और सन्मार्ग पर चलाना भी ईश्वर-गुणगान के अन्तर्गत है, यह तो रहा वाणी का बाहरी सदुपयोग, और भीतरी सदुपयोग यह कि कम बोलना चाहिये, बकवाद से बचकर चुप रहना चाहिये जिससे इसकी कोई चेष्टा न हो ।
(२) द्वितीय, नेत्रेन्द्रिय को संसार के विभिन्न पदार्थों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने में उपयुक्त करना चाहिये कि जिससे परमेश्वर की शक्ति का ज्ञान होता है और फिलास्फरों (Philosophers) के मस्तिष्कों का पता लगता है, धार्मिक विश्वास में ढ्र्‍ढता (determination) होती है कि हम सीधे मार्ग पर चल रहे हैं कि जिस पर पहले भी लोग चल चुके हैं । यह तो नेत्रेन्द्रियों को बाह्य स्रिष्टि में प्रयुक्त करने की विधि है । नेत्र को आन्तरिक संसार में उपयुक्त करने कि विधि दूसरी है, उसको 'इल्म-वसीरत' के नाम से पुकारते हैं, अर्थात् वह ज्ञान कि जो अन्त:करण में आन्तरिक द्रिष्टि से प्राप्त हो, यही ज्ञान एक ऐसा ज्ञान है कि जिसको सीखने के लिए अफलातून 13 वर्ष तक मिस्र देश के मन्दिरों में पडा रहा ।
एकान्त में अपनी द्रिष्टि को सामने अन्तरिक्ष मे स्थिर करने में नबी, अवतार, देवता और महात्माओं के ठीक-ठीक दर्शन होते हैं और ईश्वरीय तेज व प्रकाश का साक्षात्कार होता है । दोनों प्रकार के साक्षात्कार भिन्न स्वभाव रखते हैं । अवतार-देवतादि के दर्शनों से तो गुप्त भेदों का बोध होता है तथा वाणी या संकेतों द्वारा जो कुछ समय-समय पर बोला जाता है, वह यथार्थ होता है । तेज और प्रकाश के दर्शन से विविध विद्याओं का कि जो कभी न पढी और कभी न सुनी हो, प्रादुर्भाव होता है और यही विद्या और विज्ञान के प्रकट करने का मुख्य द्वार है । द्रिष्टि के इस अभ्यास को द्रिष्टि-योग साधन या विन्दु-ध्यान कहते हैं । द्रिष्टि को स्थूल पदार्थों पर स्थिर करने से बचाना चाहिये; क्योंकि उनसे पागलपन, विस्मरण, मूर्खता, छल और कपट तथा अन्य दुर्गुण तथा दुष्ट स्वभाव उत्पन्न होते हैं ।
(3) त्रितीय, कर्णेन्द्रिय से उपदेष्टाओं, गुरुओं और व्याख्यानदाताओं के कथनों को बहुत ध्यानपूर्वक सुनना और समझना चाहिये और अपने ध्यान को उस ध्वनि पर जो गाने में प्रयुक्त होती है, लगाना चाहिये । उससे भक्ति उत्पन्न होती है और आत्मा को अचूक आत्मिक भोजन प्राप्त होता है तथा उसमें एक विलक्षण आनन्द प्रतीत होता है, जो कि वर्णनातीत है । गान का प्रभाव बडे-बडे बुद्धिमानों और विद्वानों पर, जिनके हर्‍दय विविध विद्याओं तथा सभ्यता के अंगों से परिपूर्ण होते हैं, पडता है, और वह प्रकट रूप मे उन गानमण्डलियों में मग्न हो जाते हैं तथा उनके सिर उस आनन्द में झूमने लगते हैं और मुख से वाह-वाह की ध्वनि निकल पडती है, उस समय वे ऐसे बेसुध हो जाते हैं कि उनको सभा के नियमों का भी ध्यान नहीं रहता । ईश्वर के ध्यान में मग्न रहनेवाले लोग गान-ध्वनि से उस दशा में पहुँच जाते हैं कि जिसको 'वज्द' कहते हैं । इसमें उनके सिर स्वयमेव उस आनन्द में झूमा करते हैं और वे उन आनन्दों का अनुभव करते हैं कि जिनका वर्णन करना अशक्य है । पशु भी इस गान-ध्वनि के प्रभाव से बच नहीं सके, वे भी इसमें मग्न होकर नाचने लगते हैं । गान का ही यह प्रभाव है कि सैनिक रण-स्थल में अपने जीवन की चिन्ता न कर प्राणों की आहुति दे देते हैं । गान का प्रभाव शरीर, इन्द्रियों और आत्मा पर साक्षात् पडता है और उससे शारीरिक, इन्द्रिय-संबंधी तथा आत्मिक रोग नष्ट होते हैं । यह तो प्रकट गान का प्रभाव है जो कर्ण के बाहरी उपयोग से संबंध रखता है ।
दूसरा गान या ध्वनि आन्तरिक है और उसके सुनने की विधि यह है कि अपने ध्यान को उस भीतरी शब्द पर लगाना चाहिये कि जो प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में हो रहा है । शब्द मानव-जीवन की एक बहुत बडी सम्पत्ति है । जबतक मनुष्य के भीतर शब्द विद्यमान है, तबतक वह जीवित रहता है और शब्द निकलते ही उसकी इतिश्री है । अत: मुर्दे और जीवित मे यही अन्तर है कि जब मनुष्य जीवित है तो चलता-फिरता है और बोल सकता है और जब शब्द निकल जाता है तो न वह चलता-फिरता है, न कुछ बातचीत करता है । जीवन-चक्र शब्द की प्रेरणा का ही फल है और उन सब पुस्तकों का यह शब्द ही केन्द्र है कि जो इल्हामी या आस्मानी कही जाती हैं और इसके द्वारा प्राचीन काल में लोगों ने बडी-बडी आयु प्राप्त की कि जिसका आजकल के लोग विश्वास नहीं करते ।
मनुष्य के मस्तिष्क में प्राक्रितिक भाग के अतिरिक्त तीन भाग दूसरे भी हैं -- शब्द, प्रकाश और अन्धकार । शब्द की तरंग प्रकाश पर और प्रकाश से अन्धकार पर और अन्धकार से मस्तिष्क पर तथा मस्तिष्क से बारीक-बारीक नसों में प्रविष्ट होकर समस्त शरीर में फैल गई है । शरीर में इसका रूप जान है और मस्तिष्काकाश में इसका रूप प्रकाश है, सुन्न में उसका रूप शब्द है । यह शब्द एक अत्यन्त मूल्यवान पदार्थ है और प्राचीन काल में यूनानियों, मिस्रियों, रोमियों, और हिन्दुओं ने शब्द के विषय मे बहुत पुस्तकें लिखी हैं, इसलिये मैं कहता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि शब्द की अनुभूत जानकारी करे कि इसका स्रोत उसमें कहाँ से प्रवाहित है ।
मित्रो ! मेरा भक्ति-विषयक कथन समाप्त हुआ । मैं फिर विनयपूर्वक निवेदन करता हूँ कि यदि कोई बात आपको असह्य हो तो क्षमा करना ।

बुधवार, 16 मई 2018

संतमत का इतिहास | Santmat ka etihas | History of Santmat | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

संतमत का इतिहास




विश्व के प्राय : हर देश के इतिहास में ऐसे महापुरूषों का उल्लेख मिलता है जिनका प्रादुर्भाव विश्व - उपकार - हित हुआ। सृष्टि में जब से मानव का आविर्भाव हुआ, तबसे उनके कल्याण का मार्ग-दर्शन करानेवाले कोर्इ-न-कोर्इ ऐसे महापुरूष होते ही रहे है।

सभी प्राणी सदा शान्ति की कामना रखते है। शान्ति की खोज प्राचीन काल में सर्वप्रथम ऋषियों ने की । इस शान्ति को प्राप्त करने वाले आधुनिक युग में सन्त कहलाये । इन सन्तो के मत को ही असल में सन्तमत कहते हैं। इसकी पूर्णरूप से व्याख्या ‘सन्तमत की परिभाषा’ में बहुत ही उत्तम ढंग से आ रही है, जो इस प्रकार हैं-

1 शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते है
2 शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं।
3 सन्तों के मत वा धर्म को सन्तमत कहते हैं।

4 शान्ति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है। प्राचीन काल मे ऋषियों ने इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उप-निषदों में वर्णन किया। इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरूनानक साहब आदि सन्तों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्वसाधारण के उपकारार्थ वर्णन किया। इन विचारों को ही सन्तमत कहते है; परन्तु संतमत की मूल भित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं; क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन नादानुसन्धान अर्थात् सुरत-शब्द-योग का गौरव सन्तमत को है, वे तो अति प्राचीन काल की इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं। भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा सन्तमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण सन्तों के मत में पृथकत्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातो को तथा पन्थार्इ भावों को हटा कर विचारा जाय और सन्तों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत हैं।

इस परिभाषा के अनुसार यह कहा जा सकता है कि सन्तमत का प्रचार प्राचीन काल से ही होता चला आ रहा है। लेकिन सब सन्तों का एक ही मत है, इस विचार के प्रथम प्रचारक हुए हाथरस के सन्त तुलसी साहब। ऐसे तो गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी ‘‘यहाँ न पच्छपात कछु राखों। वेद पुरान सन्तमत भाखो ।।’’ कह कर सन्तमत को प्रश्रय दिया है, परन्तु तुलसी साहब ने किसी सम्प्रदाय का पक्ष नहीं लेकर सन्तों के विचार और मार्ग को ही श्रेष्ठता दी। उन्होंने स्पष्ट कहा-

“सन्त गुरू और पंथ न जाना। यही सन्त पन्थ हित माना।।’’

संत तुलसी साहब का इस धरती-तल पर कब आविभार्व हुआ, अज्ञात है। वे हाथरस के किले की खार्इ में रहकर साधना किया करते थे। इनके साथ में इनके शिष्य श्री गिरिधारी दास रहते थे। श्री गिरिधारी दास जी शहर से रोटियों माँग लाते और गुरू-शिष्य दोनों भोजन करते । उनकी मधुकरी वृति भी विचित्र थी। सप्ताह में छ: दिनों तक रोटियाँ माँगते और इन छ: दिनों की बची रोटियों को सातवें दिन मट्ठा माँग कर उसमें मिलाकर खा लिया करते थे। तुलसी साहब का कोर्इ विशेष जन-सम्पर्क नहीं था। संयोगवश हाथरस शहर के एक मुन्शी जी जिनका नाम श्री नवनीत राय था, को उनके दर्शन हुए। वर्षा के कारण किले की खार्इ में पानी हो गया था। इसलिये मुन्शी जी अनुनय-विनय करके उन्हें अपने घर पर ले गये। मुन्शी जी ने यथायोग्य सेवा की। वर्षा समाप्त होने पर तुलसी साहब पुन: किले की खार्इ में वापस आ गये। मुन्शी जी के पुत्र का नाम था मुन्शी महेश्वरी लाल जी। वे नि:सन्तान थे। सन्त तुलसी साहब के आशीर्वाद से मुन्शी महेश्वरी लाल जी के एक पुत्र हुआ, जिनका नाम पड़ा देवी प्रसाद। जब इनकी उम्र चार वर्ष की हुर्इ तो तुलसी साहब ने इनके माथे पर अपना कर-कमल रखकर शुभाशीष दिया। तुलसी साहब के इस शुभाशीष से आगे चलकर ये देवी साहब के नाम से प्रसिद्ध महात्मा हुए ।

बाबा देवी साहब सन्तमत-सत्संग का प्रचार जीवन-भर करते रहे। यों सन्त तुलसी साहब के बाद सन्तमत के प्रचारक सन्त राधास्वामी साहब भी थे, जिनका पूर्वनाम श्री शिवदयाल सिंह था, लेकिन इनके शरीरान्त होने पर इनके शिष्य राय बहादुर श्री शालिग्राम साहब ने सन्तमत के बदले राधास्वामी के नाम पर ही राधास्वामी मत का प्रचार करना आरम्भ किया। परिणाम स्वरूप यहाँ सन्तमत गौण हो गया और राधास्वामी मत की प्रसिद्धि हुर्इ। परन्तु बाबा देवी साहब सन्तमत के प्रचार को ही प्रश्रय देते रहे । बाबा ने भारत के प्राय: अधिकांश राज्यों (पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, कश्मीर, सिन्ध, हैदराबाद) आदि में घूम-घूम कर प्रचार के सिलसिले में आप बिहार भी आये। बिहार में भगलपुर, कटिहार, पुरैनियाँ, मुगेर, पटना, छपरा, संताल परगना आदि स्थानों मे सन्तमत का प्रचार करते रहे।

बिहार के भागलपुर के मायागंज निवासी श्री बाबू राजेन्द्र नाथ सिंह जी, बी.ए.बी.एल, जोतराम राय (पुरैनियाँ) के श्री बाबू धीरज लाल जी गुप्त, श्री रामदास जी उर्फ ध्यानानन्द परमहंस जी आदि महाशय बाबा साहब के आज्ञानुसार सन्तमत का प्रचार करते थे। 1909 र्इ. में श्री बाबू राजेन्द्र सिंह जी ने पूज्यपाद महषिर्ं मेंही परमहंस जी महाराज ने दृष्टि - योग का भेद प्राप्त किया। 1909 र्इ. में ही जब बाबा देवी साहब का शुभागमन मायागंज महल्ले में हुआ तो बाबू राजेन्द्र नाथ सिंह जी ने बाबा साहब से निवेदन किया और पूज्य महषिर्ं जी से कहा-लीजिये, मैंने आप का गुरु से हाथ पकड़वा दिया।’’ पीछे बाबा साहब से महर्षि जी को सुरत-शब्द-योग का भेद भी प्राप्त हुआ। बाबा साहब के उपदेशानुसार महर्षिं जी महाराज ने अपने जीवन के प्रथम चरण में घोर साधना की। सिकलीगढ़ धरहरा में जहाँ आप का पितृगृह है, एक आम के बगीचे में कुआँ खोद कर कर्इ महीने तक आपने साधना की। उसके बाद जब भागलपुर की कुप्पाधाट-स्थित गुफा का पता चला तो इस गुफा में 1933-34 र्इ. में भी साधना की, साधना के साथ - साथ आप सन्तमत सत्संग और साधना प्रचार भी करते रहे। आप के प्रचार का काम घोर-से घोर देहातों में रहा है। जहाँ आवागमन के लिये बैलगाड़ी के अलावा और कोर्इ दूसरा साधन नहीं, वैसे स्थानों में घूम-घूम कर आप सत्संग का प्रचार करते रहे। समाज के साधारण स्तर के लोग, जिनके पास कोर्इ नहीं जाते, जो विद्या-विहीन थे, जो हल कुदाल और खुरपी चलाने का काम करते थे, ऐसे लोगों के बीच भी आपने सन्तमत की सरल साधना का ज्ञान सत्संग के द्वारा काराया। नेपाल की तरार्इ मोरंग के बीहड़ और अति दुर्गम स्थानो में, जहाँ के लोग ठीक से वस्त्र भी पहनना नहीं जानते थे, वैसे लोगों में भी आपने संतमत के ज्ञान और साधना का प्रचार और प्रसार किया। आपका कहना है-’’जिसे कोर्इ नहीं पूछता, मै उसके पास जाता हूँ । क्या ये लोग अध्यात्म-ज्ञान के अधिकारी नहीं है ?’’ आपने सन्तमत-सिद्धान्त में यह स्पष्ट कर दिया है कि-

‘जितने मनुष तनधारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी।’

यही कारण है जहाँ पहले सन्तमत - सत्संग में हजार दो हजार की भी उपस्थिति नहीं हो पाती थी, आज वहाँ लाखों की भीड़ होती हैं। आपके सदुपदेशों से प्रेरित होकर क्या देहात, क्या शहर ; क्या विद्वान, क्या अनपढ़ सभी स्थानों और सभी वर्गों के लोग सन्तमत की और आकृष्ट हो रहे है। साधारण से साधारण स्थानों में जब आपका पदार्पण होता है, तो उस क्षेत्र के लोग आपके दर्शन और सदुपदेश से लाभान्वित होने उमड़ पड़ते है। भारत ही नहीं विदेश-रूस, जापान, और स्वीडेन के भी कुछ लोग आपसे दीक्षित हुए है। आपने वेद, उपनिषद् और सिद्धान्त’ में निरूपित कर दिया है कि र्इश्वर का स्वरूप क्या है ? मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र मे पड़कर दु:ख क्यों भोग रहा है और माया से निवृत्ति का उपाय क्या है? र्इश्वर-प्राप्ति के साधन क्या है? और अन्त में सदाचार का पालन करते हुए एक सर्वेश्वर पर अचल विश्वास और पूर्ण भरोसा रखना, अपने अन्तर में उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सत्संग, दृढ़ ध्यानभ्यास, सदगुरू-सेवा करना; इन पाँचों को आवश्यक और अनिवार्य बतलाया है।

आप स्वावलम्बी जीवन-यापन करने का उपदेश देते है। आपका कहना है कि किसी भी वेश में रहो, र्इश्वर का भजन अर्थात् भक्ति करो और जहाँ रहो सत्संग करो। घर-वार में रहकर भी भजन हो सकता है और वैरागी भी भजन कर सकता है। देश में शान्ति के लिये आप अपने गुरू बाबा देवी साहब के इस वचन पर बहुत जोर देते है, ‘‘जब किसी देश में आध्यात्मिकता आयगी तो समाज के लोग सदाचारी होंगे। समाज के लोग जब सदाचारी हो जायेगे तो सामाजिक नीति भी उत्तम होगी। उत्तम सामाजिक नीति होने के कारण राजनीति भी पवित्र हो जायगी और देश में शान्ति विराजती रहेगी।’’ प्रात:स्मरणीय अनन्त श्री विभूषित सन्त सद्गुरू महर्षिं मेंहीं परमहंस जी महाराज संतमत के इस ज्ञान गंगा को 101 वर्ष तक प्रवाहित करते हुए 8 जून 1986 र्इ. के रात्रि साढे आठ बजे संसार से महाप्रयाण कर गये। 
उनकी इहलीला सम्वरण के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी एवं पट्ठ शिष्य संतमत के 'वर्त्तमान आचार्य’ के पद पर महर्षिं संतसेवी परमहंस जी महाराज संतमत के ज्ञान का अलख जगाते रहे।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज ने 4 जून, 2007 ई0 की रात्रि लौकिक लीला का परित्याग कर स्थूल जगत से विदाई ले ली।
6 जून, 2007 ई0 के स्वर्णिम दिवस पर अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा, साधु-समाज एवं प्रबुद्ध सत्संगियों द्वारा संतमत-सत्संग के गौरवमय ‘वर्तमान आचार्य’ के पद पर
पूज्यपाद महर्षि हरिनन्दन परमहंसजी महाराज को आसीन किया गया। तब से संतमत का उन्नयन नई ऊँचाई ले रहा है। गुरुदेव के ज्ञान की पताका आपके निर्देशन में अपनी अद्भुत चमक के साथ लहरा रही है।

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...