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बुधवार, 17 जुलाई 2019

ब्रह्मज्ञान से परिवर्तन | BRAHAMAGYAN SE PARIVARTAN | CHANGE FROM THEOLOGY | Santmat Satsang | Maharshi Mehi

ब्रह्मज्ञान से परिवर्तन
'मानव में क्रांति' और 'विश्व में शांति' केवल 'ब्रह्मज्ञान' द्वारा संभव है |

अन्तरात्मा हर व्यक्ति की पवित्र होती है, दिव्य होती है | यहाँ तक कि दुष्ट से दुष्ट मनुष्य की भी | आवश्यकता केवल इस बात की है कि उसके विकार ग्रस्त मन का परिचय उसके सच्चे, विशुद्ध आत्मस्वरूप  से कराया जाये |

यह परिचय बाहरी साधनों से सम्भव नहीं है | केवल 'ब्रह्मज्ञान' की प्रदीप्त  अग्नि ही व्यक्ति के हर पहलू को प्रकाशित कर सकती है | यही नहीं, आदमी के नीचे गिरने की प्रवृति को 'ब्रह्मज्ञान' की सहायता से उर्ध्वोमुखी या ऊँचे उठने की दिशा में मोड़ा जा सकता है | इससे वह एक योग्य व्यक्ति और सच्चा नागरिक बन सकता है |

             'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करने के बाद साधना करने से आपकी सांसारिक जिम्मेदारियां दिव्य कर्मों में बदल जाती हैं | आपके व्यक्तत्व का अंधकारमय पक्ष दूर होने लगता  है | विचारों में सकारात्मक परिवर्तन आने लगता है और नकारात्मक प्रविर्तियाँ दूर होती जाती हैं | अच्छे और सकारात्मक गुणों का प्रभाव आपके अन्दर बढने लगता है | वासनाओं,भ्रांतियों और नकारात्मकताओं में उलझा मन आत्मा में स्थित होने लगता है | वह अपने उन्नत स्वभाव यानि समत्व, संतुलन और शांति की दिशा में उत्तरोत्तर बढता जाता है | यही 'ब्रह्मज्ञान' की सुधारवादी प्रक्रिया है |
           अगर हम जीवन का यह वास्तविक तत्व यही 'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें सच्चे सद्गुरु की शरण में जाना होगा | वे आपके 'दिव्यनेत्र' को खोलने की युक्ति बताकर, आप को ब्रह्मधाम तक ले जा सकते हैं, जहाँ मुक्ति और आनन्द का साम्राज्य है | सच्चा सुख हमारे अन्दर ही विराजमान है, लेकिन उसका अनुभव हमें केवल एक युक्ति द्वारा ही हो सकता है, जो पूर्ण गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है | इस लिए ऐसा कहना अतिशयोक्ति न होगा कि सद्गुरु  संसार और शाश्वत के बीच सेतु का काम करते हैं | वे क्षनभंगुरता से स्थायित्व की ओर ले जाते हैं | हमें चाहिए कि हम उनकी कृपा का लाभ उठाकर जीवन सफल बना लें |
।।जय गुरुदेव।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


बुधवार, 21 नवंबर 2018

एक बहुत बड़े दानवीर हुए रहीम | DAANVEER RAHIM | देंन हार कोई और है, भेजत जो दिन रैन।

एक बहुत बड़े दानवीर हुए रहीम;
उनकी ये एक खास बात थी कि जब वो दान देने के लिए हाथ आगे बढ़ाते तो अपनी नज़रें नीचे झुका लेते थे।
ये बात सभी को अजीब लगती थी..कि ये रहीम कैसे दानवीर है, ये दान भी देते हैं और इन्हें शर्म भी आती है।

ये बात जब एक संत तक पहुँची तो उन्होंने रहीम को चार पंक्तियाँ लिख कर भेजी जिसमें लिखा था :-

ऐसी  देनी  देन  जु, कित  सीखे  हो  सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊंचो करें, त्यों त्यों नीचे नैन।।

इसका मतलब था कि, रहीम तुम ऐसा दान देना कहाँ से सीखे हो। जैसे जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते है वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें तुम्हारे नैन नीचे क्यूँ झुक जाते है।

रहीम ने इसके बदले में जो जवाब दिया वो जवाब इतना गजब का था कि जिसने भी सुना वो रहीम का भक्त हो गया इतना प्यारा जवाब आज तक किसी ने किसी को नहीं दिया। रहीम ने जवाब में लिखा:-

देंन हार कोई और है, भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, तासो नीचे नैन।।

मतलब देने वाला तो कोई और है वो मालिक है वो परमात्मा है वो दिन रात भेज रहा है। परन्तु लोग ये समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ रहीम दे रहा है, ये विचार कर मुझे शर्म आ जाती है और मेरी आँखे नीचे झुक जाती है।

सच में मित्रो ये ना समझी ये मेरे पन का भाव यदि इंसान के अंदर से मिट जाये तो वो जीवन को और बेहतर जी सकता है। 
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट | MAHARSHI MEHI SEWA TRUST |

ॐ श्री सद्गुरवे नमः
परम आदरणीय सभी साधु-महात्मागण, वरिष्ठ साधकों, सत्संगी प्रेमीगण - गुरु भक्तों एवं अन्य सभी!

जैसा कि आप सबों  को मालूम है कि २०वीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के ज्ञान को  जन-जन तक पहुँचाने एवं ईश्वर-भक्ति, देश भक्ति, समाज सेवा एवं संगत सेवा की ओतप्रोत भावना से सेवा कार्य के लिए *"महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट"* का निर्माण किया गया है,  जो सामाजिक सेवा, आध्यात्मिक सेवा, शैक्षणिक सेवा, चिकित्सकीय सेवायें एवं समस्त सामाजिक उत्थान हेतु समर्पित होकर काम करेगा। (खासकर के गुरु महाराज के लिए, संतमत-सत्संग के लिए एवं गुरु महाराज में आस्था रखने वाले दीन-हीन भक्तो के लिए विशेषकर काम करेगी।) महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट के लिए गुरु महाराज के बाद उनके जितने भी परम प्रिय शिष्य हुए जो अब शरीर में नहीं हैं, वे सभी परम पूजनीय है, सम्माननीय हैं, और जो वर्तमान में  सशरीर हैं वे भी अति पूजनीय, सम्माननीय हैं। यह ट्रस्ट किसी की  अवहेलना या किसी के प्रति बैर या द्वेष भाव नहीं रखती है, सबके लिए समान भाव है। महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट किसी भी बाबा विशेष पर आधारित नहीं है और न ही इस पर आधारित होकर बनाया गया है। ट्रस्ट का उद्देश्य सेवा देना, सेवा के द्वारा सामाज में परिवर्तन लाना, विशेष कर गरीबों के लिए काम करना उनके सामाजिक एवं आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाना है और भी बहुत कुछ। किन्तु आपके बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। परिवर्तन लाने, इन कामों को करने में महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट को आप सब की सहायता एवं सहयोग की जरूरत है और हमेशा रहेगी। महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट में आप सभी का स्वागत है! आप ट्रस्ट से जुड़ कर तन-मन-धन से सेवा दें।

बहुत से सत्संगी प्रेमियों की  शुरुआती समय से ही महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट का खाता संख्या एवं खाता विवरण की मांग हो रही थी, जो उस समय अनुपलब्ध था, अब उपलब्ध हो गया है। महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट की ओर से सभी के साथ साझा किया जा रहा है। इसमें जिस भी सत्संगी महानुभावों, माताओं-बहनों, गुरु भक्तों को महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट में सेवा करने, दान देने की इच्छा हो वे निम्नलिखित खाता में रूपया डाल सकते हैं, ऑनलाइन फंड ट्रांसफर कर सकते हैं। उतना रूपया डाल सकते हैं जितना आपकी इच्छा हो।

Bank Account details:-
Name of account: Maharshi Mehi Sewa Trust
Current A/c No. 2113244029
IFSC Code: KKBK0000291
Branch: Kotak Mahindra Bank, DLF Galleria Complex, DLF City, Phase-IV, Gurgaon

उदारता के साथ सहयोग करें।

निवेदक:- *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
सम्पर्क नं० : 9899777447/9991944155/ 8700828044

बहुत-बहुत धन्यवाद।
जय गुरु महाराज। 

सोमवार, 5 नवंबर 2018

गुस्से पर काबू | Gusse par kabu | जीवन में हर चीज हमारे हिसाब से नहीं ढाली जा सकती | Santmat-Satsang | SANTMEHI | SADGURUMEHI

गुस्से पर काबू
क्रोधित होने वाला हर कोई यह तर्क देता है कि उसका क्रोध न्यायसंगत है। उसने गुस्सा करके कोई गलत नहीं किया। हम सभी अपने जीवन में कभी न कभी गुस्सा करते हैं और जब भी पीछे मुड़कर देखते हैं तो समझ जाते हैं कि उस वक्त हमारी प्रतिक्रिया बहुत अधिक थी, साथ ही न्यायसंगत भी नहीं थी। उस क्रोध पर काबू पाया जा सकता था। क्रोधित होना एक आम क्रिया है, लेकिन समस्या तब खड़ी होती है, जब इसका ठीक से प्रबंधन नहीं किया जाता।

लोग चेतन और अवचेतन दोनों ही तरीकों से क्रोध की भावनाओं का प्रबंधन करते हैं। पहला तरीका है क्रोध का इजहार कर देना, दूसरा है इसे दबा देना, जबकि तीसरा तरीका है क्रोध की भावनाएँ ही उत्पन्न न होने देना अर्थात शांत रहना। अपने क्रोध को बिना आक्रामक हुए निकाल बाहर करना सबसे अच्छा और कारगर तरीका माना गया है। इसके लिए जरूरी है कि हम यह पहचानें कि हम खुद क्या चाहते हैं।

जीवन में हर चीज हमारे हिसाब से नहीं ढाली जा सकती। दूसरों के प्रति आदर भाव रखते हुए भी आप उनसे अपनी बात मनवा सकते हैं। दूसरा तरीका है गुस्से को दबा देने का तथा उसे किसी और चैनल से निकालने का। ऐसा तभी हो सकता है जब क्रोध की स्थिति बने तब आप किसी तरह उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने से बचें।
।। जय गुरु ।।
शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


रविवार, 14 अक्तूबर 2018

सेवा की भावना-अनेक सद्गुणों के कारण मनुष्य जीवन की महत्ता मानी गई है | SANTMAT-SATSANG | SEWA | MAHARSHI MEHI SWA TRUST

सेवा की भावना
अनेक सद्गुणों के कारण मनुष्य जीवन की महत्ता मानी गई है। उनमें से एक महत्वपूर्ण गुण है-सेवा। एक-दूसरे के प्रति सद्भाव, एक दूसरे के व्यक्तित्व का आदर, समस्याओं को सुलझाने में सहयोग और समर्पण-ये सब सेवा के रूप हैं। ये अहिंसा और दया के ही विभिन्न पथ हैं। भगवान महावीर स्वामी का यह कथन महत्वपूर्ण है कि मेरी उपासना से भी अधिक महान है-किसी वृद्ध, रुग्ण और असहाय की सेवा करना। सेवा से व्यक्ति साधना के उच्चतम पद को भी प्राप्त कर सकता है। मानव में यदि परस्पर सहयोग की आकांक्षा नहीं है तो एक पत्थर और उसमें कोई अंतर नहीं रह जाता। एक पत्थर के टुकड़े को यदि हम तोड़ते हैं तो क्या पास में पड़े दूसरे पत्थर की कोई दया और संवेदना की प्रतिक्रिया होती है? परंतु यदि मानव के समक्ष ऐसा हो और यदि उसकी चेतनता विकसित है तो संवेदना अवश्य होगी। अगर ऐसी परिस्थितियों में मानव की चेतना में कोई अनुकंपन नहीं है तो उसमें प्राणों का स्पंदन भले ही हो, पर मानवीय चेतना का स्पंदन अभी नहीं हुआ है। आज समाज में मानवीय चेतना का स्पंदन भौतिकता के भार तले दमित होता जा रहा है। परिणामत: विश्व में आज आतंकवाद का बोलबाला हो रहा है। मनुष्य की चेतना आज पाशविक चेतना में परिवर्तित हो गई है। किसी संस्कृति में जीवन के संकल्प जितने विराट होंगे उतने ही उदात्त आदर्श होंगे। हमारी मानवीय चेतना भी उतनी ही विकसित होगी।

भारतीय संस्कृति में सेवा, समर्पण और सद्भाव के विराट आदर्श प्रस्तुत किए गए हैं। यहां व्यक्ति का मूल्यांकन धन-ऐश्वर्य और सत्ता के आधार पर नहीं, सेवा व सद्गुणों के आधार पर किया गया है। हमारा तत्वचिंतन यह नहीं पूछता है कि तुम्हारे पास सोने-चांदी का कितना ढेर है? बल्कि वह पूछता है कि तुमने अपने ऐश्वर्य को जन-जीवन के लिए कितना अर्पित किया है? पद एवं सेवा का उपयोग जनसेवा के लिए कितना किया है? हाथ का महत्व हीरे और पन्ने की अगूंठियां पहनने में नहीं, बल्कि हाथ से दान करने में है। सेवा से आत्मा में परमात्मा का दर्शन होता है। सेवा के लिए अपनी सुख-वृत्ति को तिलांजलि देनी पड़ती है। इस कारण सेवा एक बड़ा तप है। अपनी इच्छाओं का संयमन किए बगैर कोई कैसे किसी की सेवा कर सकता है? सेवा के लिए वैयक्तिक सुखों का त्याग करना पड़ता है। सेवा के समान कोई धर्म नहीं है। वास्तव में सेवा मानवता का सर्वोच्च लक्षण है।

।। जय गुरु ।।

मंगलवार, 11 सितंबर 2018

ऐतिहासिक उद्बोधन | विश्व धर्म सम्मेलन भाषण! -स्वामी विवेकानंद। विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व | Swami Vivekanand

ऐतिहासिक उद्बोधन 

विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व 
स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है।
पढ़ें विवेकानंद का यह भाषण...

अमेरिका के बहनों और भाइयों!

आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है, जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है, जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।

सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।

अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा। -स्वामी विवेकानन्द

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

संत की पहचान दुर्लभ है | Sant ki pahchan durlabh hai | जब हम सच्चाई को खुद जान लेंगे तब उस परम शक्ति की सत्ता पर स्वत: प्रतीति हो जाएगी।

संत की पहचान दुर्लभ है। इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी को लिखना पड़ा; -

जाने बिनु न होई परतीती।
बिनु परतीति होई नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहीं भगति दृढ़ाई।
जिमि खगेश जल की चिकनाई॥
==========================
सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर ही उन पर प्रतीति यानी विश्वास किया जा सकता है। इसके लिए स्वयं अपने भीतर निरीक्षण करके देखना है कि क्या सचमुच मुझमें शांति है। विश्व के सभी संतों, सत्पुरुषों और मुनियों ने यही सलाह दी है कि ‘अपने आपको जानो’। स्पष्ट है कि उनकी सलाह बिना जाने ही मान लेने की नहीं है। उन्होंने साफ तौर पर यह सलाह दी है कि पहले जानो तब मानो। यहां यह बात भी छिपे रूप से कही गयी है कि जब मनुष्य अपने आपको जान लेगा तब उसे उस परम शक्ति का भी ज्ञान हो जाएगा जिसका वह खुद अंश है। लेकिन इस बात को भी हमारे मनीषियों ने केवल बुद्धि के स्तर पर स्वीकार करने के लिए नहीं कहा है, भावावेश में आकर या श्रद्धा के मारे स्वीकार करने की सलाह नहीं दी है, बल्कि अपनी अनुभूति के स्तर पर अपने बारे में सचाई को जानने का ईशारा किया है। क्योंकि जब हम सच्चाई को खुद जान लेंगे तब उस परम शक्ति की सत्ता पर स्वत: प्रतीति हो जाएगी।
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

शनिवार, 18 अगस्त 2018

राखी महज कच्चा धागा नहीं | Rakhi mahaj kachcha dhaga nahi | Rakshabandhan | जब हम बदलेंगे, फिर दुनिया बदलेगी | SANTMAT | SADGURU |

राखी महज कच्चा धागा नहीं !

राखी मात्र धागा नहीं, बल्कि भावनाओं का पुलिंदा है | इसका रेशा - रेशा उच्च व् पवित्र भावनाओं में गुंथा है | यह इन भावनाओं में समाई महान शक्ति ही है, जो राखी इतना क्रन्तिकारी इतिहास रच सकी है |

राखी को 'रक्षा - बंधन' भी कहा जाता है अर्थात एक ऐसा बंधन जिसमें दोनों ओर की रक्षा की कामना निहित है! बंधने वाले की रक्षा की कामना तो है ही, बंधवाने वाले के लिए भी यह सूत्र एक अमोघ रक्षा कवच है | यही कारण है कि वैदिक काल में जब लोग ऋषियों के पास आशीष लेने जाया करते थे, तो ऋषिगण उनकी कलाईयों पर रक्षा - बंध बांधते थे | वैदिक मन्त्रों से अभिमंत्रित मोली या सूत का धागा बंधकर उनकी रक्षा की मंगलकामना करते थे |

और सच कहूं तो, सिर्फ बंधने और बंधवाने वाले की रक्षा ही क्यों! बल्कि मेरी, समूचे भारत की संस्कृति की रक्षा इसमें छिपी हुए है | आज भारत की संताने एक ऐसे चौराहे पर जा खड़ी है, जहाँ से भटकने की संभावनाएं भरपूर है | यह पर्व उन चौराहों पर खड़ा होकर, पहरेदार की तरह, उन्हें भटकने से रोकता है | उनकी इच्छाओं और वृत्यों अंकुश लगाता है | आज यहाँ नारी को केवल रूप सौन्दर्ये के आधार पर ही तोला जाता है, उसे कुदृष्टि से ही देखा जाता है, जहाँ बलात्कार और छेड़ - छाड़ के किस्से आए दिन अख़बारों की सुर्ख़ियों में छाए रहते हैं - वहां रक्षा बंधन का यह पर्व एक बुलंद और क्रन्तिकारी सन्देश समाज को देता है | वह यह की एक नारी केवल नवयौवना या युवती ही नहीं, कहीं न कहीं एक बहन भी है! एक समय था जब एक घर की बहन, बेटी को पूरे गाँव की बहन और बेटी समझा जाता था | पर आज के समाज में तो एक बहन, बेटी अपने खुद के घर में सुरक्षित नहीं है | इस तरह यह त्यौहार पवित्रता की परत हमारी दृष्टि पर चढ़ाता है | नारी को बहन रूप में देखना सिखाता है! इस लिए अगर यह पर्व अपनी वास्तविक गरिमा में हो जाए, तो समाज की बहुत सी भीषण समस्याओं का उन्मूलन सहज ही हो जाएगा !रक्षा बंधन का यह पर्व मनाना तब ही सही अर्थों में सार्थक हो सकता है, जब हम अपनी सोच के साथ - साथ, अपने कर्म में भी बदलाव लायें, वो केवल ब्रह्मज्ञान की ध्यान साधना से ही संभव हो पाएगा | जब हम बदलेंगे, फिर दुनिया बदलेगी | अंत में मेरी और से सभी को रक्षा - बंधन के इस पर्व की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनायें |

जय गुरु महाराज

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला ... | Ek Sadhu desh me yatra ke liye paidal nikla | Adhyam gyan ki baate.. |

एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला, रात हो जाने पर एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका आनंद ने साधु की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर फिर उसे विदा किया।
साधु ने आनंद के लिए प्रार्थना की  -
"भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।"
साधु की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला
अरे भाई, जो है, यह भी नहीं रहने वाला
साधु आनंद की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया।

दो वर्ष बाद साधु फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है।

साधु आनंद से मिलने गया। आनंद ने अभाव में भी साधु का स्वागत किया। झोंपड़ी में जो फटी चटाई थी उस पर बिठाया। खाने के लिए सूखी रोटी दी। दूसरे दिन जाते समय साधु की आँखों में आँसू थे। साधु कहने लगा - "हे भगवान् ! ये तूने क्या किया ?"
आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - "आप क्यों दु:खी हो रहे हो ? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान्  मनुष्य को जिस हाल में रखे, मनुष्य को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो !
यह भी नहीं रहने वाला ।"

साधु ने मन में सोचा कि
सच्चा साधु तो तू ही है, आनंद।

कुछ वर्ष बाद साधु फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है। मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद  नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया। साधु ने आनंद  से कहा - "अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया । भगवान् करे अब तू ऐसा ही बना रहे।
यह सुनकर आनंद  फिर हँस पड़ा और कहने लगा - "साधु ! अभी भी तेरी नादानी बनी हुई है"
साधु ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला ?"
आनंद उत्तर दिया - "हाँ, यह भी चला जाएगा जो इसको अपना मानता है वो ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा का अंश आत्मा।"
आनंद की बात को साधु ने गौर से सुना और चला गया।

साधु कुछ साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद  का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है।

साधु कहता है - "अरे मनुष्य ! तू किस बात का अभिमान करता है ? क्यों इतराता है ? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता । तू सोचता है, पडोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ । लेकिन सुन, न तो तेरी मौज रहेगी और न ही तेरी मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे मनुष्य वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते है और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।"

साधु कहने लगा - "धन्य है, आनंद ! तेरा सत्संग और धन्य है तुम्हारे सद्गुरु !
मैं तो झूठा साधु हूँ, असली साधु तो तेरी जिन्दगी है। अब तेरी तस्वीर पर कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं ।"

साधु दुसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद ने अपनी तस्वीर पर लिखवा रखा है - "आखिर में यह भी नहीं रहेगा"

मंगलवार, 12 जून 2018

गुरु नानक के बालपन की एक घटना | Guru Nanak ke baalpan ki ghatna | Guru Nanak | Baba-Nanak | Santmat-Satsang

गुरु नानक के बालपन की एक घटना।

बालक नानक छोटे ही थे। छोटे छोटे पैरों से चलते हुए किसी अन्य मोहल्ले में पहुँच गये एक घर के बरामदे में बैठी एक औरत विलाप कर रही थी। विलाप बहुत बुरी तरह से हो रहा था। नानक के बाल मन पर गहरा असर हुआ ।नानक बरामदे में भीतर चले गये ।तो देखा कि महिला की गोद में एक नवजात शिशु था ।
बालक नानक ने महिला से बुरी तरह विलाप करने का कारण पुछा ।
महिला ने उत्तर दिया , " पुत्र हुआ है, मेरा अपना लाल है ये,
इसके और अपने दोनों के नसीबों को रो रही हूँ । कहीं और जन्म ले लेता , कुछ दिन जिन्दगी जी लेता । पर अब ये मर जायेगा । इसी लिए रो रही हूँ कि ये बिना दुनिया देखे ही मर जायेगा ।"  नानक ने पुछा , " आपको किसने कहा कि ये मर जायेगा " ? महिला ने जवाब दिया , " इस से पहले जितने हुए , कोई नही बचा ।"
नानक आलती पालती मार कर जमीन पर बैठ गये और बोले, "ला इसे मेरी गोद में दे दो।"
महिला ने नवजात को नानक की गोद में दे दिया।
नानक बोले, "इसने तो मर जाना है न" ?
महिला ने हाँ में जवाब दिया तो नानक बोले , "आप इस बालक को मेरे हवाले कर  दो, इसे मुझे दे दो"।
महिला ने हामी भर दी।
नानक ने पुछा "आपने इसका नाम क्या रखा है ? "
महिला से जवाब मिला "नाम क्या रखना था, इसने तो मर जाना है इस लिए इसे मरजाना कह कर ही बुलाती हूँ । "
"पर अब तो ये मेरा  हो गया है न" ? नानक ने कहा।
महिला ने हाँ में सिर हिला कर जवाब दिया ।
"आपने इसका नाम रखा मरजाना, अब ये मेरा हो गया है, इसलिये मै इसका नाम रखता हूँ मरदाना (हिंदी में मरता न)।"
नानक आगे बोले, "अब ये है मेरा, मै इसे आपके हवाले करता हूँ । जब मुझे इसकी जरूरत होगी, मै इसे ले जाऊँगा"।
नानक ने बालक को महिला को वापिस दिया और बाहर निकल गये । बालक की मृत्यु नही हुई ।
छोटा सा शहर था, शहर के सभी मोहल्लों में बात आग की तरह फ़ैल गयी।
यही बालक गुरु नानक का परम मित्र तथा शिष्य था । सारी उम्र उसने बाबा नानक की सेवा में ही गुजारी । गुरु नानक के साथ मरदाना का नाम आज तक जुड़ा है तथा जुड़ा रहेगा।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...