Sant Sadguru Maharshi Mehi Paramahansa Ji Maharaj is a great Sant of 20th century. He did not establish any new creed other than Santmat. He became a legendary Spiritual Master in the most ancient tradition of SANTMAT. Naturally a question arises, "What is Santmat ?" Is this a new creed? Who was the founder of Santmat? In His words, the definition of Santmat is as following:- "Stablemindedness or unfickleness of mind is the name of Shanti (peace or tranquility).
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बुधवार, 23 जून 2021
दुविधा में दोनों गये माया मिली ना राम | Duvidha me dono gaye maya mili na ram | Santmat Satsang
शुक्रवार, 28 मई 2021
खरी कसौटी राम की काँचा टिकै न कोय | Khari kasauti Ram ki Kancha tikai na koi | Santmat-Satsang
गुरुवार, 20 मई 2021
एक पौराणिक कथा : "नचिकेता" | Nachiketa | Nachiketa-Ek pauranik katha
एक पौराणिक कथा : "नचिकेता"
बाजश्रवा ऋषि नचिकेता के पिता थे| उन्होंने अपनी सुख-समृद्धि हेतु यज्ञ किया तथा दान में उन बूढ़ी गायों को दिया जो दूध भी नहीं देती थी| नचिकेता को पिता का अपनी सम्पति के प्रति यह मोह तथा दान के नाम पर आडम्बर कतई पसंद नहीं आया| उन्होंने पिता से प्रश्न किए तथा सबसे प्रिय वस्तु को दान में देने की बात कही|
बाजश्रवा ने क्रोधित होकर नचिकेता को यमराज को दान में दे दिया|नचिकेता पितृ आज्ञा का पालन करते हुए यम के द्वार पर आ पँहुचा| तीन दिनों तक यम की प्रतीक्षा के बाद उसकी भेंट यमराज से हुई| यमराज ने उसकी पितृ भक्ति से प्रसन्न होकर उसे तीन वरदान मांगने को कहा| पहले वरदान में उसने पिता की सुख-समृद्धि तथा क्रोध की शांति मांगी| दूसरे वरदान में नचिकेता ने स्वर्ग प्राप्ति का रहस्य को जानने की इच्छा व्यक्त की| यमराज ने नचिकेता को इन रहस्यों को जानने का मार्ग सुझाया और उसे वापिस भेज दिया|इस पौराणिक कथा को वर्तमान संदर्भों के प्रासंगिकता को निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:-
1. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं असहमति की स्वीकार्यता - नचिकेता अपने पिता को समझाते हुए कहता है कि यदि कोई व्यक्ति पूर्ण विवेक साथ आपके विचारों से भिन्न बात कर रहा हो तो उसकी बातों को सुनना ही सहिष्णुता की निशानी होती है| प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तथा यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक के विचार आपके विचारों से मेल खाए| हो सकता है कि कोई आपके प्रति अपनी असहमति प्रकट करे | अतः उसकी असहमति को भी सहनशीलता के साथ स्वीकार करना ही विकसित विवेक का सूचक होता है|
2. सत्य की खोज:-सत्य को प्राप्त करना सर्वाधिक कठिन कार्य है| नचिकेता सत्य की महत्ता प्रतिपादित करते हुए अपने पिता से कहता है कि जीवन सत्य को प्राप्त करने हेतु न जाने कितनी महान आत्माओं ने युगों तक संघर्ष किया है, तब जाके उन्हें सत्य का साक्षात्कार हुआ है| सच सदैव विद्रोही की तरह मनुष्य के विवेक को चुनौती देता रहा है| उसे पाने के लिए विवेक और साहस से काम लेना पड़ता है| मनुष्य का विवेक और साहस ही सबसे बड़ी पूंजी है जो उसे सत्य का साक्षात्कार करवाती है|
3. नई और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष"-बाजश्रवा और नचिकेता का संघर्ष दो पीढ़ियों का संघर्ष है| बाजश्रवा की पीढ़ी पुरानी मान्यताओं पर आधारित है जो दैहिक सुखभोग की जीवन शैली को अंतिम सत्य मानती है और ऐसे ही सुखों की प्राप्ति हेतु स्वर्ग प्राप्ति की कामना करती है| नचिकेता नई पीढ़ी का प्रतिनिधि है जो वैचारिक स्वतंत्रता, आत्मशुद्धि और विवेकशीलता द्वारा हर चीज को जानने-परखने के बाद ही उसे जीवन में अपनाना चाहता है| वह खोखली मान्यताओं का विरोध करता है|
4. आस्था और तर्क का संघर्ष:-नचिकेता ऐसी आस्था को मानने से पूर्णतः इन्कार करता है जो विवेकहीन, रूढ़िवादी परंपराओं तथा स्वार्थ से प्रेरित हो| यह कैसी आस्था है जहाँ एक ओर उच्चतर जीवन मूल्यों की दुहाई दी जाती है दूसरी ओर अंधआस्था के सहारे लोग अपना स्वार्थ पूरा करने में लगे रहते है| नचिकेता स्वयं को नास्तिक सिद्ध करते हुए कहता है वह अपनी अनास्था में अधिक धार्मिक है क्योंकि वह तर्क के सहारे जीवन यापन करना चाहता है न कि धर्म का व्यापार करके| वह नहीं चाहता कि किसी प्रकार की अंध परंपराएं और कर्मकांड उसकी विवेकशीलता और तर्कशीलता की आवाज को दबा दे|
5. रूढ़िवादिता एवं धार्मिक आडंबरों का विरोध:-नचिकेता को रूढ़ियों का अंधानुकरण स्वीकार नहीं है| उसे लगता है कि धार्मिक अनुष्ठानों में जो भी सामग्री लाई जाती है, वे सब दिखावा मात्र के लिए है| अन्न, घी, पशु बलि और पुरोहित सभी दिखावा है, धर्म नहीं है| देवताओं को प्रसन्न कर स्वर्ग पाने की इच्छा मात्र धर्म का व्यापार है|“यह सब धर्म नहीं- धर्म सामग्रीका प्रदर्शन है|अन्न, घृत, पशु, पुरोहित,मैं”
6. पशु बलि का विरोध:-नचिकेता उस धार्मिक रूढ़ि को निरर्थक मानता है जहाँ किसी निरीह जीव की हत्या द्वारा मनोकामनाएँ पूरी की जाती है| वह अपने पिता से कहता है कि यदि स्वर्ग प्राप्ति का विश्वास पशु बलि पर टिका है तो उसे स्वर्ग नहीं चाहिए| जिस विश्वास का परिणाम हत्या है, उसे ऐसी आस्था, ऐसा विश्वास स्वीकार्य नहीं है| पशु बलि से प्रसन्न होने वाले देवता न जाने कब क्या मांग ले, यह सोचकर भी उसी से भय लगता है|“जो केवल हिंसा से अपने कोसिद्ध कर सकता है|नहीं चाहिए वह विश्वास,जिसकी चरम परिणतिहत्या हो|”
7. जीवन का एकमात्र सत्य मृत्यु :-नचिकेता इस परम सत्य को भली-भांति समझता है कि मनुष्य मरणशील है, मृत्यु उसके जीवन का अनिवार्य, अभिन्न सत्य है| मृत्यु का सामना मनुष्य को बिल्कुल अकेले रहकर करना होता है, उसके सामने वह निपट अकेला होता है| मृत्यु जीवन का अंतिम और एकमात्र सत्य है| इसके सामने कोई भी आडम्बर, कोई वरदान, कोई मोह नहीं ठहर सकता है:-“व्यक्ति मरता है और अपनी मृत्यु में वह बिल्कुल अकेला है, विवश असांतवनीय”अन्ततः कहा जा सकता है कि नचिकेता आधुनिक जिज्ञासु, तार्किक और सत्यानवेक्षी मनुष्य का प्रतीक है| आज मनुष्य पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, जीवन-मृत्यु के प्रश्नों पर तर्क पूर्ण चिंतन करता है| वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को महत्त्व देता है तथा हर स्थिति- परिस्थिति को तर्क के आधार पर परखता है| वह चाहता है कि सच्चाई का निर्णय बल से नहीं तार्किक विश्लेषण एवं विवेक के आधार पर किया जाना चाहिए|
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)
🙏🌼🌿जय गुरु🌿🌼🙏
रविवार, 16 मई 2021
मूर्ख | Murkh | जो व्यक्ति अपना काम छोड़कर दूसरों के काम में हाथ डालता है, वह वाकई में बुद्धिहीन कहलाता है। Santmat Satsang
रविवार, 24 नवंबर 2019
यूकिको फ्यूजिता- जापानी महिला सत्संगी | Yukiko Fujita (Japanies Lady}
सुचिता और पुण्य संचय जरूरी | SAINTLY ACCUMULATION | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust
ईश्वरीय प्रवाह अपनाएं | ESVRIYA PRAVAH APNAYE | SANTMAT-SATSANG | ANAND | जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये।
बुधवार, 20 नवंबर 2019
जिसका मन निश्छल वही बड़ा | Jiska man nischhal hai vahi bara | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust
सोमवार, 29 जुलाई 2019
भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुईं है | पर हम कभी-कभी इसकी कीमत नहीं समझते हैं और... | Khoobsurat Jindgi
भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुई है !
भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुई है ! पर हम कभी-कभी इसकी कीमत नहीं समझते हैं और आधी जिंदगी यूँ ही बर्बाद कर देते हैं, जब होश आता है तो बहुत देर हो चुकी होती है!
हमें हमेशा अपने साथ-साथ दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए, दुसरों के लिए कुछ करने के बाद जो सुकून और चैन जीवन में मिलता है वो कही नहीं मिलता है! सदा अच्छे विचार के साथ दिन की शुरुआत करनी चाहिए! सब कुछ तो भगवान ने पहले से निर्धारित कर के रखा है हमें तो बस कर्म करना है! कर्म करते जाओ फल तो भगवान देगा ही, कर्म से कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए! जीवन में घबराकर परेशान नहीं होना चाहिए! सुख और दुःख तो जीवन के दो हिस्से हैं एक आएगा तो दूसरा जायेगा दोनों सिक्के के दो पहलु है कभी भी एक साथ नहीं रह सकते! अगर हमने सुख को भोगा है तो दुःख को भी झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए! एक सुखी और शांत जीवन हमें तभी मिलेगा जब हम हर पल तैयार रहेंगे जीवन को जीने के लिए, कभी भी हिम्मत हार कर जिंदगी से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए डट कर सामना करना चाहिए जीवन अपने आप खूबसूरत बन जायेगा! ।। जय गुरु ।।
शुक्रवार, 26 जुलाई 2019
अहंकार से ज्ञान का नाश | Ahankar se gyan ka naash | कभी किसी को नहीं सताओ | गुप्तदान महादान | मृत्यु से कोई नहीं बच पाया | Santmat Satsang
अहंकार से ज्ञान का नाश;
अहंकार से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है। अहंकार से ज्ञान का नाश हो जाता है। अहंकार होने से मनुष्य के सब काम बिगड़ जाते हैं। भगवान कण-कण में व्याप्त है। जहाँ उसे प्रेम से पुकारो वहीं प्रकट हो जाते हैं। भगवान को पाने का उपाय केवल प्रेम ही है। भगवान किसी को सुख-दुख नहीं देता। जो जीव जैसा कर्म करेगा, वैसा उसे फल मिलता है। मनुष्य को हमेशा शुभ कार्य करते रहना चाहिए।
कभी किसी को नहीं सताओ :
धर्मशास्त्रों के श्रवण, अध्ययन एवं मनन करने से मानव मात्र के मन में एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सद्भावना एवं मर्यादा का उदय होता है। हमारे धर्मग्रंथों में जीवमात्र के प्रति दुर्विचारों को पाप कहा है और जो दूसरे का हित करता है, वही सबसे बड़ा धर्म है। हमें कभी किसी को नहीं सताना चाहिए। और सर्व सुख के लिए कार्य करते रहना चाहिए।
गुप्तदान महादान :
मनुष्य को दान देने के लिए प्रचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि दान में जो भी वस्तु दी जाए, उसको गुप्त रूप से देना चाहिए। हर मनुष्य को भक्त प्रहलाद जैसी भक्ति करना चाहिए। जीवन में किसी से कुछ भी माँगो तो छोटा बनकर ही माँगो। जब तक मनुष्य जीवन में शुभ कर्म नहीं करेगा, भगवान का स्मरण नहीं करेगा, तब तक उसे सद्बुद्धि नहीं मिलेगी।
मृत्यु से कोई नहीं बच पाया :
धन, मित्र, स्त्री तथा पृथ्वी के समस्त भोग आदि तो बार-बार मिलते हैं, किन्तु मनुष्य शरीर बार-बार जीव को नहीं मिलता। अतः मनुष्य को कुछ न कुछ सत्कर्म करते रहना चाहिए। मनुष्य वही है, जिसमें विवेक, संयम, दान-शीलता, शील, दया और धर्म में प्रीति हो। संसार में सर्वमान्य यदि कोई है तो वह है मृत्यु। दुनिया में जो जन्मा है, वह एक न एक दिन अवश्य मरेगा। सृष्टि के आदिकाल से लेकर आज तक मृत्यु से कोई भी नहीं बच पाया।
।। जय गुरू महाराज ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
बुधवार, 17 जुलाई 2019
ब्रह्मज्ञान से परिवर्तन | BRAHAMAGYAN SE PARIVARTAN | CHANGE FROM THEOLOGY | Santmat Satsang | Maharshi Mehi
ब्रह्मज्ञान से परिवर्तन
'मानव में क्रांति' और 'विश्व में शांति' केवल 'ब्रह्मज्ञान' द्वारा संभव है |
अन्तरात्मा हर व्यक्ति की पवित्र होती है, दिव्य होती है | यहाँ तक कि दुष्ट से दुष्ट मनुष्य की भी | आवश्यकता केवल इस बात की है कि उसके विकार ग्रस्त मन का परिचय उसके सच्चे, विशुद्ध आत्मस्वरूप से कराया जाये |
यह परिचय बाहरी साधनों से सम्भव नहीं है | केवल 'ब्रह्मज्ञान' की प्रदीप्त अग्नि ही व्यक्ति के हर पहलू को प्रकाशित कर सकती है | यही नहीं, आदमी के नीचे गिरने की प्रवृति को 'ब्रह्मज्ञान' की सहायता से उर्ध्वोमुखी या ऊँचे उठने की दिशा में मोड़ा जा सकता है | इससे वह एक योग्य व्यक्ति और सच्चा नागरिक बन सकता है |
'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करने के बाद साधना करने से आपकी सांसारिक जिम्मेदारियां दिव्य कर्मों में बदल जाती हैं | आपके व्यक्तत्व का अंधकारमय पक्ष दूर होने लगता है | विचारों में सकारात्मक परिवर्तन आने लगता है और नकारात्मक प्रविर्तियाँ दूर होती जाती हैं | अच्छे और सकारात्मक गुणों का प्रभाव आपके अन्दर बढने लगता है | वासनाओं,भ्रांतियों और नकारात्मकताओं में उलझा मन आत्मा में स्थित होने लगता है | वह अपने उन्नत स्वभाव यानि समत्व, संतुलन और शांति की दिशा में उत्तरोत्तर बढता जाता है | यही 'ब्रह्मज्ञान' की सुधारवादी प्रक्रिया है |
अगर हम जीवन का यह वास्तविक तत्व यही 'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें सच्चे सद्गुरु की शरण में जाना होगा | वे आपके 'दिव्यनेत्र' को खोलने की युक्ति बताकर, आप को ब्रह्मधाम तक ले जा सकते हैं, जहाँ मुक्ति और आनन्द का साम्राज्य है | सच्चा सुख हमारे अन्दर ही विराजमान है, लेकिन उसका अनुभव हमें केवल एक युक्ति द्वारा ही हो सकता है, जो पूर्ण गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है | इस लिए ऐसा कहना अतिशयोक्ति न होगा कि सद्गुरु संसार और शाश्वत के बीच सेतु का काम करते हैं | वे क्षनभंगुरता से स्थायित्व की ओर ले जाते हैं | हमें चाहिए कि हम उनकी कृपा का लाभ उठाकर जीवन सफल बना लें |
।।जय गुरुदेव।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
मंगलवार, 9 जुलाई 2019
मेरे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है | Mere pass Parmatma ke liye samay nahi hai | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust
मेरे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है!
आज जब हम लोगों से आत्मा परमात्मा के बारे में बात करते हैं, तो बहुत से लोगों का यही प्रशन होता है कि हमारे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है | व्यस्त जीवन है, एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है | यही प्रशन एक वार एक व्यक्ति ने एक महात्मा जी के समक्ष्य रखा |
प्रशन - मैं एक व्यापारी हूँ | मेरा लाखों का बिजनेस है | मैंने दो-तीन बार आपके सत्संग- प्रवचन सुने हैं |मुझे बहुत अच्छे लगे | सुनकर मन को शांति भी मिली | पर फिर भी मैं ज्ञान लेने मैं असमर्थ हूँ | क्यों कि मेरे पास एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है | मैं सुमिरन - भजन के लिए समय नहीं निकाल सकता | अब आप ही कोई उपाय बताएँ |
उत्तर ) समय नहीं है! यह तो केवल एक बहाना है | वास्तव में आपने परमात्मा व उसके ज्ञान के महत्व को अभी तक समझा ही नहीं | इस लिए आप संसार को ही सब कुछ मान बैठे हैं | सांसारिक कार्यों व विषयों में अपना एक - एक क्षण एवं एक - एक श्वास गवाए चले जा रहे हैं | जब कि संत महापुरषों के अनुसार यह जीवन तो मिला ही ईश्वर - भक्ति एंव उसकी प्राप्ति के लिए है | मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल नौकरी, बिजनेस या धन - संग्रह करना नहीं | इसका परम लक्ष्य ईश्वर को पाना है | उसका बनना एंव उसे अपना बनाना है - 'बड़े भाग मनुष्य तन पावा ......साधन धाम मोच्छ कर द्वारा' | यदि समय रहते हम इस तथ्य को नहीं समझते, तो आगे की पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास जी हमें एक चेतावनी भी देते हैं -
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि -धुनि पछताइ |
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ||
फिर हमें सिर धुन - धुन कर पछताना पड़ेगा | चाहे हम 'कालहि' - समय नहीं था; 'कर्महि' - मेरे कर्मों में ही नहीं था; 'ईस्वरहि ' शायद ईश्वर को ही मंजूर नहीं था आदि कितने ही बहाने बनाएँ, कोई सुनवाई नहीं होगी | इस लिए जीवन के इस परम लक्ष्य के विषय में विचार करें | ब्रह्मज्ञान की महत्ता को समझें | एक बार महत्व समझ आ गया, तो समय तो खुद-व-खुद निकल आएगा |
साथ ही, आपकी जानकारी के लिए यह भी बता दें कि ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त सुमिरन - भजन के लिए कोई अलग से समय निकालने की आवश्कयता नहीं है | यह तो वह ज्ञान है जिसके द्वारा आप चलते फिरते, खाते - पीते, उठते - बैठते हुए भी प्रभु सुमिरन कर सकते हैं | याद कीजिए प्रभु श्री कृष्ण का उदघोष -'माम स्मृत तात.....अर्थात (हे अर्जुन) तू युद्ध भी कर और सुमिरन भी कर | आपका बिजनेस युद्ध से अधिक एकाग्रता नहीं माँगता | इसलिए आप आगे बढें और अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करें |
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
सोमवार, 1 जुलाई 2019
समस्त संसार ही हमारा परिवार है। The whole world is our family | SANTMAT-SATSANG |
|| समस्त संसार ही हमारा परिवार है ||
वास्तव में समस्त संसार एक परिवार है। जो मनुष्य जितना बड़ा है उसका परिवार भी उतना ही बड़ा होगा और जो मनुष्य जितना छोटा है उसका परिवार भी उतना ही छोटा होता है। जिसके जीवन का जितना अधिक विकास होता है उसका परिवार उतना ही विशाल होता चला जाता है। इस परिवार की कोई सीमा नहीं है। किसी का परिवार दस-बीस व्यक्ति यों का होता है, किसी का परिवार सौ, दो सौ से बनता है और किसी के परिवार की संख्या लाखों-करोड़ों तक पहुँच जाती है। इसीलिए परिवार की कोई सीमा नहीं हो सकती। संसार में छोटे-से-छोटे परिवार भी हैं और बड़े-से-बड़े परिवार भी हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जो मनुष्य जितना ही बड़ा है उसका उतना ही बड़ा परिवार है। ईसा, बुद्ध और गाँधी के परिवार की सीमा विस्तृत होकर सम्पूर्ण संसार तक पहुँच गई थी। ठीक इसी तरह अभी के समय में महर्षि मेँहिँ संतमत परिवार भी पूरे भारत वर्ष के अन्दर उफान पर है साथ ही बाहर के देशों में भी हिलोरे ले रही है।
जिसके निकट सारा संसार एक परिवार बन जाता है। उसके निकट अपने और पराये में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं रह जाता। वह सभी को अपना समझता है, सभी के साथ स्नेह को संसार के महान पुरुषों ने अधिक-से-अधिक महत्व दिया है। इनका महत्व बढ़ाने के लिए ही उन महापुरुषों ने इन्हें विश्वबन्धुत्व का नाम दिया है। इस नाम में बहुत अधिक मधुरता और स्नेह है। हम समस्त संसार के मनुष्यों के साथ भ्रातृ-स्नेह का अनुभव करें और उनके दुःख को अपना दुःख एवं उनके सुख को अपना सुख समझें, यह एक बहुत ऊँची भावना है। संसार के सभी स्त्री-पुरुष एक ही परिवार के सदस्य हैं। संसार के किसी भी बच्चे को हम अपने परिवार का एक बच्चा समझें और संसार के किसी भी मनुष्य के साथ हम वही स्नेह करें जो अपने किसी निजी सम्बन्धी से किया करते हैं, तो यह एक बहुत बड़े कर्त्तव्य-धर्म का पालन करना समझा जायगा।
।। जय गुरु ।।
मनुष्यों का हित अन्योन्याश्रित है | Manushyo ka hit anyoyashrit hai | Santmat-Satsang | एक मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाने के साथ-साथ स्वयं भी हानि उठाता है तो यह भी निश्चय है कि एक मनुष्य दूसरे को उन्नत बनाकर स्वयं भी उन्नति करता है।
मनुष्यों का हित अन्योन्याश्रित है।
जीवन की सबसे बड़ी श्रेष्ठता इसी में है कि एक मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपना समझे और उनके काम आवे। इस प्रकार दूसरों को प्रसन्न बनाने की भावना में वह स्वयं अधिक प्रसन्न और सुखी हो सकेगा। यही भावना प्रकृति का आदेश है। इस प्रकृति के द्वारा न जाने कितने पुरुष दूसरों की सेवा और सहायता करके महापुरुष बन गये। परन्तु जिन लोगों ने दूसरों के साथ घृणा करना सीखा उनका भयानक पतन हुआ। मालूम नहीं कि मनुष्य जाति में परस्पर द्वेष की भावना किस आधार पर उत्पन्न की गई? विश्व की सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक शरीर के रूप में है और अगणित व्यक्ति उसके संख्यातीत अंग-प्रत्यंग हैं। ये छोटे भी हैं और बड़े भी परन्तु उनमें किसी की आवश्यकता कम और किसी की अधिक नहीं है। सम्पूर्ण शरीर की रक्षा के लिए सब की आवश्यकता समान रूप से है। इस सत्य को अनुभव करके किसी महात्मा ने कहा है—
“आँखें हाथों से नहीं कह सकती कि हमको तुम्हारी आवश्यकता नहीं और न मस्तक पैरों से कह सकता है कि हमको तुम्हारी जरूरत नहीं है। यदि शरीर का एक अंग पीड़ित होता है तो सम्पूर्ण शरीर पीड़ित और अस्त-व्यस्त हो जाता है। यही मानव प्रकृति है और यदि उसका कोई एक अंग स्वास्थ्य प्राप्त करता है तो उसका लाभ सम्पूर्ण शरीर को मिलता है। ” महात्मात्मन के कथनानुसार “एक मनुष्य दूसरे को उसी दशा में हानि और पीड़ा पहुँचा सकता है जब वह स्वयं पीड़ित होता है और हानि उठाता है; और कोई एक देश अथवा राष्ट्र किसी दूसरे देश अथवा राष्ट्र को उसी दशा में क्षति पहुँचा सकता है, जब वह स्वयं क्षति उठाता है।” जब यह सत्य है कि एक मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाने के साथ-साथ स्वयं भी हानि उठाता है तो यह भी निश्चय है कि एक मनुष्य दूसरे को उन्नत बनाकर स्वयं भी उन्नति करता है। अब यह समझना हमारा काम है कि हम उन्नत होना चाहते हैं अथवा पतित, लाभ उठाना चाहते हैं या हानि?
—”सादगी से श्रेष्ठता”
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
गुरुवार, 24 जनवरी 2019
जीवन का मूल्य क्या है? | Jeevan ka mulya kya hai | Santmat-Satsang
एक आदमी ने भगवान बुद्ध से पुछा : जीवन का मूल्य क्या है ?
बुद्ध ने उसे एक Stone दिया और कहा : जा और इस stone का मूल्य पता करके आ, लेकिन ध्यान रखना stone को बेचना नही है।
वह आदमी stone को बाजार मे एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला : इसकी कीमत क्या है ?
संतरे वाला चमकीले stone को देखकर बोला, "12 संतरे
लेजा और इसे मुझे दे जा"
आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले stone को देखा और कहा "एक बोरी आलू ले जा और इस stone को मेरे पास छोड़ जा"
आगे एक सोना बेचने वाले के पास गया उसे stone दिखाया सुनार उस चमकीले stone को देखकर बोला, "50 लाख में बेच दे"।
उसने मना कर दिया तो सुनार बोला "2 करोड़ में दे दे
या बता इसकी कीमत जो माँगेगा वह दूँगा तुझे..
उस आदमी ने सुनार से कहा मेरे गुरू ने इसे बेचने से मना किया है l
आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया उसे stone दिखाया।
जौहरी ने जब उस बेसकीमती रुबी को देखा, तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपडा बिछाया, फिर उस
बेसकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई माथा टेका, फिर जौहरी बोला, "कहा से लाया है ये बेसकीमती रुबी ? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी
इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, ये तो बेसकीमती है।"
वह आदमी हैरान परेशान होकर सीधे बुद्ध के पास आया।
अपनी आप बिती बताई और बोला "अब बताओ भगवन, मानवीय जीवन का मूल्य क्या है ?
बुद्ध बोले :
संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत "12 संतरे" की बताई।
सब्जी वाले के पास गया उसने इसकी कीमत "1 बोरी आलू" बताई।
आगे सुनार ने "2 करोड़" बताई, और जौहरी ने इसे "बेसकीमती" बताया।
अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है।
तू बेशक हीरा है..!! लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत, अपनी औकात - अपनी जानकारी - अपनी हैसियत से
लगाएगा।
घबराओ मत दुनिया में.. तुझे पहचानने वाले भी मिल जायेंगे।
Respect Yourself,
You are very Unique..
कभी न करें इन चार का अपमान, माना जाता है महापाप; | Apmaan | गुरु या शिक्षक | ज्ञानी या पंडित | माता | पिता | GURU | TEACHER | MOTHER | FATHER
कभी न करें इन 4 का अपमान, माना जाता है महापाप;
वाल्मीकि रामायण में 4 ऐसे लोगों के बारे में बताया गया है, जिनका अपमान करना महापाप है।
मनुष्य चाहे कितनी ही पूजा-पाठ या दान-धर्म कर ले, लेकिन उसका पाप नहीं मिटता और उसे इसकी सजा भुगतनी ही पड़ती है। इसलिए, ध्यान रखें कि भूलकर भी आपसे इन 4 लोगों का अपमान न हो जाए।
1. गुरु या शिक्षक
गुरु या शिक्षक हमें शिक्षा और ज्ञान देने वाले को गुरु कहा जाता हैं। गुरु का दर्जा बहुत ऊंचा माना जाता है। सभी धर्म ग्रंथों में गुरु का सम्मान करने की बात कही गई है। जो छात्र अपने गुरु का सम्मान नहीं करता, उनकी दी गई शिक्षा का अनादर करता है, वह कभी भी सफलता हासिल नहीं कर पाता। गुरु का अपमान करने वालों को कभी भी सम्मान नहीं मिलता। ये एक ऐसा पाप कहा गया है, जिसका प्रायश्चित किसी भी तरह नहीं किया जा सकता। इसलिए कभी भी अपने गुरुओं का अपमान नहीं करना चाहिए।
2. ज्ञानी या पंडित
ज्ञानी और पंडित देवतुल्य माने जाते हैं। वे भी देवताओं के समान पूजनीय होते हैं। ज्ञानी लोगों की संगति से हमें कई लाभ होते हैं, हमारी किसी भी मुश्किल परिस्थिति का हल ज्ञानी मनुष्य अपनी सूझ-बूझ और अनुभव से निकाल सकता है। ऐसे लोगों का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए। ऐसे लोगों का अपमान करना महापाप कहा जाता है और इसके कई दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते है।
3. माता
मां को भगवान का दर्जा दिया जाता है। कई धर्म ग्रंथों में मां का सम्मान करने और भूलकर भी उनका अपमान न करने के बारे में बताया गया है। माता की सेवा करने वाला मनुष्य जीवन में सभी सफलताएं पाता है। इसके विपरीत उनका अपमान करने वाला मनुष्य कभी खुश नहीं रह पाता। ऐसे मनुष्य पर भगवान भी रूठे हुए रहते हैं और उसे अपने किसी भी पुण्य कर्म का फल नहीं मिलता। इसलिए, ध्यान रखें किसी भी परिस्थिति में अपनी माता का अपमान न करें।
4. पिता
हर मनुष्य को अपने माता-पिता में ही अपना पूरा विश्व जानना चाहिए। जो व्यक्ति अपने पिता का सम्मान नहीं करता, उनकी आज्ञा का पालन नहीं करता, वह पशु के समान माना जाता है। माता-पिता का अपमान करना मनुष्य का सबसे बड़ा अवगुण माना जाता है। ऐसा करने वाला मनुष्य चाहे कितनी ही तरक्की कर ले, लेकिन वह समाज में मान-सम्मान नहीं पाता। इसलिए किसी को भी अपने पिता का अपमान बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। जय गुरु।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
बुधवार, 16 जनवरी 2019
हमारे जीवनका प्रत्येक पल पल मूल्यवान .... | Hamare Jeevan ka pratyek pal mulyavaan | Santmat-Satsang
हमारे जीवन का प्रत्येक पल मूल्यवान व अंतहीन संभावनाअों से भरा है, प्रत्येक पल के प्रति अादर अौर विश्वास रखें व उस का सदुपयोग करें।
सगुण भक्तिधारा के संत तुलसीदास ने रामचरितमानस में संतों के दिव्य स्वरूप का वर्णन किया है। संतों की उनकी इस व्याख्या में एक ओर स्फटिक की सुँदरता है, तो दूसरी और मोती के आब की तरलता। तुलसी का संत स्वरूप उदात्त, निर्मल और पावन है। उनके अनुसार जिसके अंतःकरण में ‘स्व’ की भावना का विसर्जन हो गया वही संत में राग उस समय गलता है, जब वह स्वयं को परमार्थ के लिए उत्सर्ग कर देता है। उसके उत्सर्ग में प्रतिदान नहीं, बलिदान की भावना रहती है। प्रतिग्रह न होकर आत्मसमर्पण होता है, लेने का नहीं लुटा देने का भाव प्रधान होता है। संत औरों के लिए स्वयं को लुटा देता है। अपने को निःशेष भाव से लुटाकर ही मेघ जलधि कहलाता है। संत भी मेघ की भाँति अवघड़दानी होता है।
तुलसीदास जी कहते हैं संतों के अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह रूपी मनोविकार नहीं होता। उनका जीवन जप, तप, व्रत और संयम से संयमित होता है। श्रद्धा, मैत्री, मुदिता, दया आदि श्रेष्ठ गुण उनके हृदय में सदैव वास करते हैं। संतों का हृदय मोम के समान होता है। उनकी करुणा हिमालय सदृश्य होती है, जो पिघल−पिघलकर अगणित धाराओं के रूप में प्रवाहित होती है। यही धाराएँ आगे चलकर संत परंपरा बनी हैं। संतों के उपदेशों ने ही संत परंपरा की नींव डाली।
शुक्रवार, 11 जनवरी 2019
पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै। गुरवाणी | GURVANI | श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि पशु, प्रेत, मूर्ख और पत्थर का भी सत्संग के माध्यम से कल्याण हो जाता है | SANTMAT-SATSANG
|| ॐ श्री सद्गुरवे नमः ||
पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै। (गुरवाणी)
श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि पशु, प्रेत, मूर्ख और पत्थर का भी सत्संग के माध्यम से कल्याण हो जाता है | श्री मदभागवत पुराण में एक कथा आती है गोकर्ण के भाई धुन्धकारी को बुरे कर्मों के कारण प्रेत योनि की प्राप्ति हुई | जब गोकर्ण ने उसको प्रभु की कथा सुनाई तो वह प्रेत योनि से मुक्त हो गया | इस लिए गोस्वामी तुलसी दास जी ने कहा कि संत महापुरषों की संगत आनंद देने वाली है और कल्याण करती है | सत्संग की प्राप्ति होना फल है, बाकी सभी कर्म फूल की भांति है | जैसे एक पेड़ पर लगा हुआ फूल देखने में तो सुन्दर लगता है किन्तु वास्तव में रस तो फूल के फल में परिवर्तित हो जाने के बाद ही मिलता है | सत्संग को आनंद और कल्याण का मूल कहा गया | जिस के जीवन में सत्संग नहीं, उस के जीवन में सुख सदैव नहीं रह सकता | आत्मिक रस तो महापुरषों की संगति से ही प्राप्त हो सकता है | इस लिए कबीर जी कहते हैं -
कबीर साकत संगु न कीजीऐ दूरहि जाईऐ भागि ॥
बासनु कारो परसीऐ तउ कछु लागै दागु।।
दुष्टों का संग कभी भूल कर भी न करो | यह मानव के पतन का कारण बनता है | जैसे कोयले की खान में जाने पर कालिख लग ही जाती है | दुष्ट और सज्जन देखने में एक ही जैसे लगते हैं परन्तु फल से पता चल जाता है कि दुष्टों का संग अशांति देता है और सज्जनों का संग शांति |
जो दुष्ट हैं, वो भी जब संत महापुरषों जैसे वस्त्र धारण कर लेते हैं सब लोग उन को को संत समझकर उन का सम्मान करते है | संत की पहचान उसके भगवे वस्त्र नहीं है,भगवे वस्त्र में तो रावण भी आया था जो सीता माता को चुरा कर ले गया | संत की पहचान उस का ज्ञान है, जो संत हमें परमात्मा का ज्ञान करवा दे, वह पूर्ण है, अगर वो हमें किसी बाहरी कर्म कांड में लगाता है, इस का मतलब है वह अधूरा है, ऐसे संतों से हमें सावधान रहना चाहिए। ये बात हमारे सभी धार्मिक शास्त्र कहते हैं | इसलिए हमें ऐसे पूर्ण संत सद्गुरु की खोज करनी चाहिए, जो हमें परमात्मा तक कैसे पहुंचा जा सकता है, का सत्य मार्ग बतावे, ज्ञान करावे। तभी हमारे जीवन का कल्याण संभव है।
।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
गलती करना मानव का स्वभाव है; | Galti karna manav ka swabhaw | Santmat-Satsang
गलती करना मानव का स्वभाव है!
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और गलतियां करना उसका स्वभाव है।
जीवन के हर मोड़ पर जाने-अनजाने गलतियां होती ही रहती है और गलती का होना एक सामन्य घटना है। लेकिन अपने द्वारा हुई गलतियों के बाद अलग-अलग व्यक्ति का अलग नजरिया होता है एक व्यक्ति अपनी गलती को सबक के रूप में लेता है और भविष्य में वैसी गलती दुबारा न हो ऐसा प्रयास करता है जबकि दूसरा अपने द्वारा की गई गलती को अपने ऊपर हावी कर लेता है और उसको लेकर एक अफ़सोस जाहिर करता है की काश! मैंने ऐसा नहीं किया होता तो मेरे साथ ऐसा नहीं होता। दिन रात बस ऐसे ही सोचता रहता है और आत्म ग्लानि से ग्रसित हो जाता है। एक अन्य व्यक्ति गलती को गलती मानने के लिए ही तैयार नहीं होता और अपने आपको हर जगह सही सिद्ध करने की कोशिश में ही लगा रहता है। इन तीनो स्थितियों में पहली स्थिति सर्वश्रेष्ठ है और भविष्य के लिए उन्नतिकारक है।क्योंकि ऐसा व्यक्ति वास्तविकता में जी रहा है। वह मानता है की गलती हर इंसान से होती है और मैं भी एक इंसान हूँ। अगर मुझसे गलती हो गई और उससे कोई बुरा परिणाम मुझे देखने को मिला तो चलो अच्छा हुआ आगे से में ऐसी गलती की पुनरावृति नहीं होने दूंगा। उसकी यह सोच उसको निरन्तर उन्नति की ओर ले जाती है और अपराधबोध से दूर रखती है। दूसरी तरह का व्यक्ति गलती के बारे में बार-बार सोचकर अपने आपको एक अपराधी के रूप में देखता रहता है, और अपनी मानसिक स्थिति को ख़राब कर लेता है। जिससे भविष्य में भी कदम-कदम पर उससे गलतियां होना जारी रहता है और यह स्थिति सदैव उसकी उन्नति को बाधित करती है। तीसरी स्थिति व्यक्ति को विवेक शून्य बना देती है और भावी जीवन में वह अपराधी बन जाता है क्योंकि उसे कुछ गलत नजर आता ही नहीं और अपने को ही सही मानने की हठधर्मिता के चलते वह सही गलत की पहचान खो देता है।इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण हमें आम जिंदगी में देखने को मिलता है और हम आये दिन इस पर चर्चा भी करते रहते हैं की देखो कैसा कलियुग आ गया है। आजकल तो जो व्यक्ति धर्म कर्म करता है और सज्जन होता है उसके जीवन में विपदाएँ आती है और पापी लोग मजे मारते हैं। बात भी सही है और ऐसा ही होता भी है। ऐसी चर्चा का आध्यात्मिक गुरु जबाब देते हैं की यह सब तो जन्म जन्मान्तरों के पुण्य पाप काखेल है जो आज मजे मार रहा है उसने पिछले जन्म में कोई पुण्य किया होगा उसका फल भोग रहा है अभी जो कर रहा है उसका आगे भुगतना पड़ेगा। और जो अभी सत्कर्म करते हुए दुखी है इसका मतलब उसके पुर्व जन्म के पाप का उदय चल रहा है। यह सब उपरोक्त वर्णित तीन प्रकार की मानसिकताओं का अलग-अलग परिणाम है की एक धार्मिक प्रवृति का व्यक्ति इसलिए ज्यादा परेशान दिखाई देता है कीवह अपने द्वारा की गई या हुई गलती को अपने ऊपर हावी कर लेता है। इसी सोच के कारण वो अपराधबोध से ग्रसित हो जाता है और बार-बार अपने से हुई गलती के लिए पश्चाताप की अग्नि में जलता रहता है और निरन्तर उसी में खोया रहकर आगे से आगे गलती करता चला जाता है और दुःखी होता रहता है। जबकि दूसरी प्रकृति का व्यक्ति गलती करता है लेकिन अपने विवेक से उस पर चिंतन करता है व भविष्य के लिए उसे सबक के रूप में लेता है जिससे वह विपरीत परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना लेता है और जीवन की यात्रा का आनन्द लेता है।
अब हमें अपने विशेष तर्कसंगत विवेकपूर्ण बुद्धि से सोचना है कि कौन-सी स्थिति में जीवन जीना है।
🙏🌷🌿।। जय गुरु ।।🌿🌷🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
बुधवार, 9 जनवरी 2019
आए जगत् में क्या किया तन पाला के पेट | AAYE JAGAT ME TAN PALA KI PET | जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है |
आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।
आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।
सहजो दिन धंधे गया रैन गई सुख लेट।।
संत सहजो बाई जी कहती हैं कि जगत में जन्म तो ले लिया परन्तु किया क्या ? तन को पाला या खा-खा कर पेट को बढाया | दिन तो संसार के कार्यों में गँवा दिया और रात सो कर गँवा दी |
रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥
हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥
श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि रात सो कर गँवा दी और दिन खा कर गँवा दिया | हीरे जैसे जन्म को अर्थात्त तन को कौड़ी के भाव गँवा दिया | इस जगत में मनुष्य की यह स्थिति है कि उसने शरीर को तो जान लिया परन्तु जीवन को भूल गया | यह अहसास नहीं है कि जीवन क्या है ? आज हम जिसे जीवन कहते हैं, वह तो पल प्रतिपल मृत्यु की और बढ रहा है | परन्तु यह 30-40 वर्ष का जीवन, जीवन नहीं है | हम अपना जन्म दिन मनाते है, हम इतने बड़े हो गए | हमारी आयु बढ़ी नहीं, यह तो हमारे जीवन में से 30-40 वर्ष कम हो गए है, हम मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं | हमें विचार करना चाहिए के हम ने इतने वर्षों में क्या किया, क्या हम ने अपने जीवन के लक्ष्य को जाना |
एक बार ईसा नदी के किनारे जा रहे थे, रस्ते में देखा कि एक मछुआरा मछलियाँ पकड़ रहा था | उसके निकट गये उस से पूछते हैं, तुमारा नाम क्या है ? उसने कहा पीटर ! ईसा ने पूछा के पीटर, क्या तुमने जीवन को जाना ? क्या तुम जीवन को पहचानते हो ? उसने कहा हाँ मैं जीवन को जानता हूँ | मछलियाँ पकड़ता हूँ और बाजार में बेचकर अपने जीवन का निर्वाह करता हूँ |
ईसा ने कहा -पीटर ! यह जीवन, जीवन नहीं, जिसे तुम जीवन समझ रहे हो वह जीवन तो मृत्यु की तरफ बढ रहा है | आओ मैं तुम्हे उस जीवन से मिला दूं , जो मृत्यु के बाद भी रहता है | पीटर आश्चर्य से कहता है कि क्या मृत्यु के बाद भी जीवन है | ईसा कहते हैं - हाँ पीटर ! मृत्यु के बाद भी जीवन है, इस जीवन का उदेश ही उस शश्वत जीवन को जानना है | अब ईसा मसीह पीटर को जीवन से अवगत करने के लिए उसे अपने साथ लेकर चलते हैं | तभी कुछ लोग आते हैं और पीटर से कहते हैं, पीटर! तुम कहाँ जा रहे हो? तुम्हारे पिता का देहांत हो गया है |
ईसा ने पूछा, पीटर कहाँ चले? पीटर ने कहा -"पिता को दफ़नाने, उन का देहांत हो गया है, दफनाना जरूरी है |" तब ईसा ने कहा - Let the dead burry their deads. "मुर्दे को मुर्दे दफ़नाने दो" तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हे जिन्दगी से मिलाता हूँ | ईसा के कहने के भाव से स्पष्ट होता है कि जिन के ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम नहीं, जिन्हों ने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को नहीं जाना वह जिन्दा नहीं, वरन मरे हुए के सामान ही है | राम चरित मानस में भी कहा है -
जिन्ह हरि भगति ह्रदय नाहि आनी |
जीवत सव समान तई प्रानी ||
संत गोस्वामी तुलसी दास जी कहते है कि जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है | इस लिए हमें भी चाहिए कि हम ऐसे पूर्ण संत सद्गुरु की खोज कर, उस परम प्रभु परमात्मा को जानें और आवागमन के महा दुःख से छुटकारा पायें। तभी हमारा जीवन सफल हो सकता है |
जय गुरु महाराज
सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang
सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...
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।। श्री सद्गुरुवे नमः ।। पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।। एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।। जै पंडित तु पढ़िया, ...
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संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस की 137वीं जयन्ती पर विशेष मानव कल्याण के लिए अवतरित महर्षि मेँहीँ विश्व के प्राय: हर देश के इतिहास में ऐसे ...
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सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...