यह ब्लॉग खोजें

आलेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आलेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 23 जून 2021

दुविधा में दोनों गये माया मिली ना राम | Duvidha me dono gaye maya mili na ram | Santmat Satsang

दुविधा में दोनों गये माया मिली ना राम!
क्या आपको लगता है कि हम वास्तव में प्रभु को चाहते हैं, उनका दर्शन करना चाहते हैं और इस आनन्द से बड़ा कोई भी आनन्द संसार में नहीं है। प्रभु सर्वत्र हैं, प्रभु सब समय हमें देख रहे हैं, वे हमारे ढोंग-पाखन्ड को भी देख रहे हैं, हममें दूसरों के कल्याण की कैसी भावना है, वह, यह भी देख रहे हैं। हम इतने बुद्धिमान हैं कि प्रभु को भी पल-पल धोखा देना चाहते हैं और देते भी रहते हैं परन्तु वह परम दयालु और अकारणकरूणावरूणालय हमारी नादानी पर मुस्कराते हुए हमें निज स्वभाववश क्षमा करते रहते हैं और हमें लगता है कि हम इतने बुद्धिमान हैं कि प्रभु हमारे छ्ल को समझ नहीं पाये। हम दो नावों की सवारी करते रहना चाहते हैं। हमें भरपूर माया भी चाहिये और पूर्ण ब्रह्म भी, वह भी बिना किसी उद्योग या परिश्रम के। अंधकार और सूर्य का प्रकाश दोनों एक साथ हो ही नहीं सकते। हमने अपने घर के सभी द्वार और झरोखे बंद कर लिये हैं और घर के अंदर से जोर-जोर से आवाज लगाते रहते हैं कि हमें प्रकाश चाहिये, हम प्रकाश के प्रेमी हैं। कल्पना कीजिये या विश्वास कीजिये कि आज ब्रह्म-मूहूर्त से लेकर रात्रि पर्यन्त प्रभु मेरे साथ रहेंगे और इस बात को पूरे दिन याद रखिये, कोई भी कार्य करते समय, किसी के भी साथ वार्तालाप करते समय, रास्ते में चलते समय, किसी को देखकर ह्र्दय में उमड़्ती भावनाओं के बारे में विचार करने पर, और आप पायेंगे कि पूरे दिन में कई बार आप चाहेंगे कि काश प्रभु कुछ देर के लिये आपके साथ न रहें ताकि हम कुछ कार्य अपने मन का भी कर सकें। यही कसौटी है जिससे हम मालूम कर सकते हैं कि क्या हम वास्तव में प्रभु को चाहते हैं या संसार को दिखाने के लिये, पुजने के लिये, सम्मान पाने के लिये ही हम नाटक कर रहे है । 
यदि हम वास्तव में अपना कल्याण चाहते हैं तो कल्याण के लिये विशेष बात है - लगन । जैसे अन्न की भूख लगे, जल की प्यास लगे, इसी प्रकार भगवान की लगन ऐसी लगे कि उससे मिले बिना जीवन भार हो जाये तो भगवान का मिलन हो जायेगा!
दुविधा  मैं  दोनों  गये  माया  मिली  ना  राम
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 
🙏🌼🌿|| जय गुरु महाराज ||🌿🌼🙏
🌼🌿🌸🌿🌼🌿🌸🌿🌼🌿🌸🌿🌼

शुक्रवार, 28 मई 2021

खरी कसौटी राम की काँचा टिकै न कोय | Khari kasauti Ram ki Kancha tikai na koi | Santmat-Satsang

खरी कसौटी राम की काँचा टिकै न कोय!
गुरु खरी कसौटी के आधार पर शिष्य को परखते हैं, कहीं मेरे शिष्य का शिष्यत्व कच्चा तो नहीं है। ठीक एक कुम्हार की तरह! जब कुम्हार कोई घड़ा बनाता है, तो उसे बार-बार बजाकर भी देखता है - 'टन!टन!' वह परखता है कि कहीं मेरा घड़ा कच्चा तो नहीं रह गया। इस में कोई खोट तो नहीं है।

ठीक इसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को परीक्षाओं के द्वारा ठोक-बजाकर देखते हैं। शिष्य के विश्वास, प्रेम, धेर्य, समर्पण, त्याग को परखते हैं। वे देखते हैं कि शिष्य कि इन भूषनों में कहीं कोई दूषण तो नहीं! कहीं आंह की हलकी सी भी कालिमा तो इसके चित पर नहीं छाई हुई ? यह अपनी मन-मति को बिसारकर, पूर्णत: समर्पित हो चूका है क्या ?

क्योंकि जब तक स्वर्ण में  मिटटी का अंश मात्र भी है, उससे आभूषण नहीं गढ़े जा सकते। मैले दागदार वस्त्रों पर कभी रंग नहीं चढ़ता। उसी तरह, जब तक शिष्य में जरा सा भी अहम्, स्वार्थ, अविश्वास या और कोई दुर्गुण है, तब तक वह अध्यात्म के  शिखरों को नहीं छू सकता। उसकी जीवन - सरिता परमात्म रुपी सागर में नहीं समा सकती।

यही कारण है कि गुरु समय समय पर शिष्यों की  परीक्षाएं लेते हैं। कठोर न होते हुए भी कठोर दिखने की लीला करते हैं। कभी हमें कठिन आज्ञाएं देते हैं, तो कभी हमारे आसपास प्रतिकूल परिस्थियाँ पैदा करते हैं। क्योंकि अनुकूल परिस्थियाँ में हर कोई शिष्य होने का दावा करता है। जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है, तो हर कोई  गुरु-चरणों  में श्रद्धा-विश्वास के फूल आर्पित करता है।

🌿कौन सच्चा प्रेमी है ? इस की पहचान तो विकट परिस्थियाँ में  ही होती है। क्योंकि जरा-सी विरोधी व् प्रतिकूल परिस्थियां आई नहीं कि हमारा सारा स्नेह, श्रद्धा और विश्वास बिखरने लगता है। शिष्त्यव डगमगाने लगता है।

जब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने शिष्यों को कसौटी पर कसा, तो हजारों के झुण्ड में से सिर्फ पांच  पियारे ही निकले। इस  लिए सच्चा शिष्य तो वही है, जो गुरु की कठिन आज्ञा को भी शिरोधार्य करने का दम रखता है। चाहे कोई भी परिस्थिति  हो, उसका विश्वास, उसकी प्रीत गुरु -चरणों में अडिग रहती है। सच! शिष्य का विश्वास चट्टान की तरह मजबूत होना चाहिए। वह विश्वास नहीं जो जरा-सी विरोध की आँधियों में डगमगा जाए !!
गुरु की परीक्षाओं के साथ  एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जुड़ा है। वह यह कि परीक्षाएं शिष्य  को केवल परखने के लिए ही नहीं, निखारने के लिए भी होती है। गुरु की परीक्षा एक ऐसी कसौटी है, जो शिष्य के सभी दोष-दुर्गुणों को दूर कर देती है। परीक्षाओं की अग्नि में तपकर जो एक शिष्य कुंदन बन पाता है। कहने का आशय कि गुरु की परीक्षाएं शिष्यों के हित के लिए ही होती है। परीक्षायों के कठिन दौर बहुत कुछ सिखा जाते हैं। याद रखें, सबसे तेज आंच में तपने वाला लोहा ही, सबसे से बड़ा इस्पात बनता है।

इस लिए एक शिष्य के हृदय  में सदैव यही प्रार्थना के स्वर गूंजने चाहिए - 'हे गुरुवर,मुझ में वह सामर्थ्य नहीं कि आपकी कसौटियां पर खरा उतर सकूं। आपकी परीक्षाओं में उतीर्ण हो सकूं। पर आप अपनी कृपा का हाथ सदा मेरे मस्तक पर रखना। मुझे इतनी शक्ति देना कि मैं हर परिस्थिति में इस मार्ग पर अडिग  होकर चल पाऊँ। मुझे ऐसी भक्ति देना कि आपकी कठिन से कठिन आज्ञा को भी पूर्ण समर्पण के साथ शिरोधार्य कर सकूँ। 
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)
🙏जय गुरु महाराज🙏



गुरुवार, 20 मई 2021

एक पौराणिक कथा : "नचिकेता" | Nachiketa | Nachiketa-Ek pauranik katha

 एक पौराणिक कथा : "नचिकेता"

बाजश्रवा ऋषि नचिकेता के पिता थे| उन्होंने अपनी सुख-समृद्धि हेतु यज्ञ किया तथा दान में उन बूढ़ी गायों को दिया जो दूध भी नहीं देती थी| नचिकेता को पिता का अपनी सम्पति के प्रति यह मोह तथा दान के नाम पर आडम्बर कतई पसंद नहीं आया| उन्होंने पिता से प्रश्न किए तथा सबसे प्रिय वस्तु को दान में देने की बात कही| 

बाजश्रवा ने क्रोधित होकर नचिकेता को यमराज को दान में दे दिया|नचिकेता पितृ आज्ञा का पालन करते हुए यम के द्वार पर आ पँहुचा| तीन दिनों तक यम की प्रतीक्षा के बाद उसकी भेंट यमराज से हुई| यमराज ने उसकी पितृ भक्ति से प्रसन्न होकर उसे तीन वरदान मांगने को कहा| पहले वरदान में उसने पिता की सुख-समृद्धि तथा क्रोध की शांति मांगी| दूसरे वरदान में नचिकेता ने स्वर्ग प्राप्ति का रहस्य को जानने की इच्छा व्यक्त की| यमराज ने नचिकेता को इन रहस्यों को जानने का मार्ग सुझाया और उसे वापिस भेज दिया|इस पौराणिक कथा को वर्तमान संदर्भों के प्रासंगिकता को निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:-

1. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं असहमति की स्वीकार्यता - नचिकेता अपने पिता को समझाते हुए कहता है कि यदि कोई व्यक्ति पूर्ण विवेक साथ आपके विचारों से भिन्न बात कर रहा हो तो उसकी बातों को सुनना ही सहिष्णुता की निशानी होती है| प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तथा यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक के विचार आपके विचारों से मेल खाए| हो सकता है कि कोई आपके प्रति अपनी असहमति प्रकट करे | अतः उसकी असहमति को भी सहनशीलता के साथ स्वीकार करना ही विकसित विवेक का सूचक होता है| 

2. सत्य की खोज:-सत्य को प्राप्त करना सर्वाधिक कठिन कार्य है| नचिकेता सत्य की महत्ता प्रतिपादित करते हुए अपने पिता से कहता है कि जीवन सत्य को प्राप्त करने हेतु न जाने कितनी महान आत्माओं ने युगों तक संघर्ष किया है, तब जाके उन्हें सत्य का साक्षात्कार हुआ है| सच सदैव विद्रोही की तरह मनुष्य के विवेक को चुनौती देता रहा है| उसे पाने के लिए विवेक और साहस से काम लेना पड़ता है| मनुष्य का विवेक और साहस ही सबसे बड़ी पूंजी है जो उसे सत्य का साक्षात्कार करवाती है|

3. नई और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष"-बाजश्रवा और नचिकेता का संघर्ष दो पीढ़ियों का संघर्ष है| बाजश्रवा की पीढ़ी पुरानी मान्यताओं पर आधारित है जो दैहिक सुखभोग की जीवन शैली को अंतिम सत्य मानती है और ऐसे ही सुखों की प्राप्ति हेतु स्वर्ग प्राप्ति की कामना करती है| नचिकेता नई पीढ़ी का प्रतिनिधि है जो वैचारिक स्वतंत्रता, आत्मशुद्धि और विवेकशीलता द्वारा हर चीज को जानने-परखने के बाद ही उसे जीवन में अपनाना चाहता है| वह खोखली मान्यताओं का विरोध करता है|

4. आस्था और तर्क का संघर्ष:-नचिकेता ऐसी आस्था को मानने से पूर्णतः इन्कार करता है जो विवेकहीन, रूढ़िवादी परंपराओं तथा स्वार्थ से प्रेरित हो| यह कैसी आस्था है जहाँ एक ओर उच्चतर जीवन मूल्यों की दुहाई दी जाती है दूसरी ओर अंधआस्था के सहारे लोग अपना स्वार्थ पूरा करने में लगे रहते है| नचिकेता स्वयं को नास्तिक सिद्ध करते हुए कहता है वह अपनी अनास्था में अधिक धार्मिक है क्योंकि वह तर्क के सहारे जीवन यापन करना चाहता है न कि धर्म का व्यापार करके| वह नहीं चाहता कि किसी प्रकार की अंध परंपराएं और कर्मकांड उसकी विवेकशीलता और तर्कशीलता की आवाज को दबा दे|

5. रूढ़िवादिता एवं धार्मिक आडंबरों का विरोध:-नचिकेता को रूढ़ियों का अंधानुकरण स्वीकार नहीं है| उसे लगता है कि धार्मिक अनुष्ठानों में जो भी सामग्री लाई जाती है, वे सब दिखावा मात्र के लिए है| अन्न, घी, पशु बलि और पुरोहित सभी दिखावा है, धर्म नहीं है| देवताओं को प्रसन्न कर स्वर्ग पाने की इच्छा मात्र धर्म का व्यापार है|“यह सब धर्म नहीं- धर्म सामग्रीका प्रदर्शन है|अन्न, घृत, पशु, पुरोहित,मैं”

6. पशु बलि का विरोध:-नचिकेता उस धार्मिक रूढ़ि को निरर्थक मानता है जहाँ किसी निरीह जीव की हत्या द्वारा मनोकामनाएँ पूरी की जाती है| वह अपने पिता से कहता है कि यदि स्वर्ग प्राप्ति का विश्वास पशु बलि पर टिका है तो उसे स्वर्ग नहीं चाहिए| जिस विश्वास का परिणाम हत्या है, उसे ऐसी आस्था, ऐसा विश्वास स्वीकार्य नहीं है| पशु बलि से प्रसन्न होने वाले देवता न जाने कब क्या मांग ले, यह सोचकर भी उसी से भय लगता है|“जो केवल हिंसा से अपने कोसिद्ध कर सकता है|नहीं चाहिए वह विश्वास,जिसकी चरम परिणतिहत्या हो|”

7. जीवन का एकमात्र सत्य मृत्यु :-नचिकेता इस परम सत्य को भली-भांति समझता है कि मनुष्य मरणशील है, मृत्यु उसके जीवन का अनिवार्य, अभिन्न सत्य है| मृत्यु का सामना मनुष्य को बिल्कुल अकेले रहकर करना होता है, उसके सामने वह निपट अकेला होता है| मृत्यु जीवन का अंतिम और एकमात्र सत्य है| इसके सामने कोई भी आडम्बर, कोई वरदान, कोई मोह नहीं ठहर सकता है:-“व्यक्ति मरता है और अपनी मृत्यु में वह बिल्कुल अकेला है, विवश असांतवनीय”अन्ततः कहा जा सकता है कि नचिकेता आधुनिक जिज्ञासु, तार्किक और सत्यानवेक्षी मनुष्य का प्रतीक है| आज मनुष्य पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, जीवन-मृत्यु के प्रश्नों पर तर्क पूर्ण चिंतन करता है| वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को महत्त्व देता है तथा हर स्थिति- परिस्थिति को तर्क के आधार पर परखता है| वह चाहता है कि सच्चाई का निर्णय बल से नहीं तार्किक विश्लेषण एवं विवेक के आधार पर किया जाना चाहिए|

(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)

🙏🌼🌿जय गुरु🌿🌼🙏

रविवार, 16 मई 2021

मूर्ख | Murkh | जो व्यक्ति अपना काम छोड़कर दूसरों के काम में हाथ डालता है, वह वाकई में बुद्धिहीन कहलाता है। Santmat Satsang

🌼🌻मूर्ख🌻🌼

भगवान एक मूर्ख को उसके परिणाम भुगतने देता है। मूर्ख अपनी मूर्खता को प्रकट करता है। मूर्ख लोग अभिमानी होते हैं। मूर्खों ने हमेशा ज्ञान का तिरस्कार किया। 
मूर्ख लोग मूर्ख बनने में लगे रहते हैं। मूर्ख कभी संतुष्ट नहीं होता है वह दुष्ट और धोखेबाज होता है। 

बिना पढ़े ही स्वयं को ज्ञानी समझकर अंहकार करने वाले व्यक्ति, दरिद्र होकर भी बड़ी- बड़ी योजनाएं बनाने वाला व्यक्ति अज्ञानी और कम अक्ल वाला ही माना जाता है। जो व्यक्ति बिना पढ़े-लिखे, ज्ञान अर्जित किए घमंड रखने वाला, दरिद्र होकर भी जो व्यक्ति उसको दूर करने की बजाए बस बड़ी-बड़ी बातें करता है सिर्फ और सिर्फ मूर्ख व्यक्तियों की श्रेणी में आता है।

बिना मेहनत के धन की लालसा रखने वाला बैठे-बिठाए धन पाने की कामना करने वाला व्यक्ति मूर्ख कहलाता है। 


स्वमर्थ य: परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढ: स उच्यते।।

जो व्यक्ति अपना काम छोड़कर दूसरों के काम में हाथ डालता है, वह वाकई में बुद्धिहीन कहलाता है। यह संसार का नियम है कि मनुष्य को पहले खुद में समझदार और सक्षम होना चाहिए तब ही दूसरों के मामले में पड़ना चाहिए। हालांकि संसार में ऐसे लोग भी हैं जो अपना काम तो ठीक से पूरा कर नहीं पाते हैं बल्कि दूसरों के मामले में भी पड़ जाते हैं, अब ऐसे लोग मूर्ख के अलावा और क्या कहे जाएंगे।

मित्रता संसार में बहुत ही अनमोल रिश्ता होता है इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन सही और गलत की पहचान होना अति आवश्यक है। एक अच्छे दोस्त की यही पहचान होती है कि अपने दोस्त को गलत मार्ग पर जाने से रोके, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मित्रता के चलते गलत काम में साथ देते हैं। ऐसे लोगों को भी मूर्ख कह सकते हैं। महाभारत में कर्ण समझदार होते हुए भी दुर्योधन के गलत कार्यों में भागी बने रहे परिणाम यह हुआ कि मित्र का पूरा विनाश हो गया और खुद भी मारे गए।

वालाअकामान् कामयति य: कामयानान् परित्यजेत्।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम्।।

जो व्यक्ति अपने हितैषियों को त्याग देता है तथा अपने शत्रुओं को गले लगाता है, उसके जितना मूर्ख तो कोई और हो ही नहीं सकता है। व्यक्ति अपने शुभचिंतक और दुश्मन में भेद करना नहीं जानता। यदि कोई व्यक्ति अपना भला सोचने वाले को छोड़ दे और उसकी जगह अपने दुश्मन का दामन थाम ले तो वह परममूर्ख माना जाएगा।
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार, गुरुग्राम)
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏

रविवार, 24 नवंबर 2019

यूकिको फ्यूजिता- जापानी महिला सत्संगी | Yukiko Fujita (Japanies Lady}


बात 1966-67 की है। जापान के टोकियो शहर में 'यूकिको फ्यूजिता' ऩामक महिला ने स्वप्न देखा कि समुद्र की गहराई में एक विशाल मंदिर के द्वार पर एक साधु खड़े हैं जिनके शरीर से दिव्य प्रकाश निकल रहा है। नींद टूटने पर उस रुप को प्रत्यक्ष देखने के लिए उनके मन में एक बेचैनी जगी। भारत को साधु-संतों का देश जानते हुए वह भारत आयी तथा उस स्वप्न-दर्शित रुप की एक झलक हेतु हिमालय से कन्याकुमारी तक भटकी। पर असफल रही व अपने देश लौट गई। 
पर दर्शन की व्याकुलतावश पुनः दूसरे वर्ष आई। इस बार कुप्पाघाट आश्रम व पूज्य गुरुदेव के बारे में सुनकर कुप्पाघाट आश्रम आई। संयोग से उस समय गुरुदेव आश्रम में नहीं थे। पर दीवार पर गुरुदेव की एक तस्वीर को देख कर वह हर्ष से उछल पड़ी और कहने लगी-" ये वही बाबा हैं, जिनके दर्शन स्वप्न में हुए थे।" तत्पश्चात पत्र द्वारा समय लेकर कुछ ही दिनों के बाद हरिद्वार में उन्होने परमाराध्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के पवित्र दर्शन किये। दीक्षा देने के निवेदन करने पर गुरुदेव ने उनको कुप्पाघाट आश्रम आन कोे कहा। नियत समय पर वह आश्रम आई व गुरुदेव से दीक्षा ली। 

दीक्षा के बाद गुरुदेव ने उनको वहीं ध्यान करने कहा। गुरुदेव की असीम दया से वह ध्यान में घंटों तक अंतर्जगत् के अद्भुत् दृश्यों को देखती रही जिसे उन्होने गुरुदेव के आदेशानुसार चित्रित भी किया। किसी ने जब उनसे संतमत की साधना-पद्धति के बारे में पूछा तो उन्होने उत्तर दिया-" Very easy and very high."
ऐसे थे हमारे गुरुदेव जो आंतरिक प्रेरणा देकर अपने भक्तों को स्वप्न द्वारा जापान से भी बुला लेते थे। वस्तुतः थे कहना गलत होगा, वे आज भी हैं हम भक्तों के हृदय में। ऐसे महान् संत पूज्य गुरुदेव के पावन चरण कमलों में कोटि-कोटि प्रणाम । जय गुरु ।💐👏🌹🙏🌹

सुचिता और पुण्य संचय जरूरी | SAINTLY ACCUMULATION | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🌸शुचिता और पुण्य संचय जरूरी🌸
🌿खूब सारे लोग रोजाना घण्टों तक अपनी-अपनी पूजा पद्धतियों के अनुरूप भजन-पूजन और साधना करते रहते हैं। इनमें से अधिकांश लोग इस कामना से साधना और पूजा करते हैं कि उनके कामों में कोई बाधाएं सामने न आएं, जो समस्याएं और अभाव हैं वे दूर हो जाएं तथा उन्हें अपनी कल्पना के अनुरूप सब कुछ प्राप्त होता रहे।
बहुसंख्य लोगों द्वारा इसी उद्देश्य को लेकर सकाम भक्ति की जाती है। गिनती के कुछेक ही ऎसे लोग होते हैें जो लौकिक कामनाओं की बजाय पारलौकिक सुख के लिए पूजा-पाठ करते रहे हैं। नगण्य लोग ही ऎसे हो सकते हैं जो लौकिक एवं पारलौकिक कामनाओं की बजाय आत्म आनंद, आत्म साक्षात्कार या ईश्वर को पाने की तितिक्षा जगाए रखते हैं।

इन सभी प्रकार के भक्तों और साधकों या मुमुक्षुजनों केअपने लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में सर्वाधिक उत्प्रेरक की भूमिका में यदि कोई है तो वह है व्यक्तिगत शुचिता एवं दिव्यता। जो जितना अधिक शुद्ध चित्त और निर्मल मन वाला होता है वह दूसरों के मुकाबले काफी पहले अपने लक्ष्य को पा लेता है। लेकिन वे लोग पूरी जिन्दगी लक्ष्य से दूर ही रहते हैं जो अपने जीवन में सभी प्रकार की शुचिता नहीं रख पाते हैं।
चाहे ये लोग कितने ही घण्टे पूजा-पाठ करते रहें, माईक पर गला फाड़-फाड़ कर वैदिक ऋचाओं और पौराणिक मंत्रों व स्तुतियों का गान करते रहें, आरती पर आरती उतारते रहें, यज्ञ-अनुष्ठान में मनों और टनों घी एवं हवन सामग्री होम दें, दुनिया भर के नगीनों, अंगुठियों, मालाओं से लक-दक रहें, पूरे शरीर को तिलक-छापों और भस्म से सराबोर करते रहें या फिर दिन-रात मंत्र जाप और संकीर्तन करते रहकर आसमाँ गूंजा दें, इसका कोई चमत्कारिक प्रभाव न वे महसूस कर सकते हैं, न ये जमाना।
ईश्वर को पाने, आत्म साक्षात्कार और अपने सभी प्रकार के संकल्पों की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा हमारे मन-मस्तिष्क और शरीर की मलीनता ही होती है और यह मलीनता हमें लक्ष्य से हमेशा दूर रखती है।

जो लोग मन से साफ व मस्तिष्क से पवित्र होते हैं उनके लिए हर प्रकार की साधना का सौ फीसदी परिणाम शीघ्र ही सामने आ जाता है जबकि जो लोग मन-मस्तिष्क में गंदे विचार लिए होते हैं, जिन्हें शरीर की स्वच्छता और स्वास्थ्य का भान नहीं होता, ऎसे लोग हमेशा अपने सभी प्रकार के लक्ष्यों से दूर ही रहा करते हैं, चाहे ये जमाने भर में अपने आपको कितना ही बड़ा और सच्चा साधक, सिद्ध, पण्डित, आचार्य, संत-महात्मा, महंत, योगी, ध्यानयोगी, बाबाजी या महामण्डलेश्वर अथवा स्वयंभू भगवान ही क्यों न सिद्ध करते रहें।
हर प्रकार की साधना अपने लक्ष्य को पूरा करने से पूर्व चित्त की भावभूमि को शुद्ध करती है और हृदय को शुचिता के मंच के रूप में तैयार करती है। इसके बाद ही व्यक्ति के संकल्पों को साकार होने के लायक ऊर्जा प्राप्त हो सकती है।
हममें से कई सारे लोग रोजाना काफी समय पूजा-पाठ में लगाते हैं, जप और संकीर्तन, सत्संग में रमे रहते हैं और साल भर नित्य पूजा के साथ ही किसी न किसी प्रकार  की नैमित्तिक और काम्य साधना के उपक्रमों में जुटे रहते हैं।

इसके बावजूद हमारे संकल्पों को पूरा होने में या तो बरसों लग जाया करते हैं या फिर ये पूरी जिन्दगी बीत जाने के बावजूद सिद्ध नहीं होते। निरन्तर परिश्रम और समय लगाने के बावजूद इस प्रकार की विषमता और अभाव का क्या कारण है? इस बारे में यदि गंभीरता से सोचा जाए तो यही सामने आएगा कि हमने पूजा-पाठ, साधन भजन और धार्मिक गतिविधियों में जिन्दगी भर का बहुत बड़ा हिस्सा गँवा दिया, बावजूद इसके जहाँ थे वहीं हैं, कुछ भी बदलाव न आया, न देखने को मिला।
इसका मूल कारण यही है कि साधना के साथ-साथ अपने कत्र्तव्य कर्म और रोजमर्रा की जीवनचर्या में शुचिता भी जरूरी है, और अपनी मामूली ऎषणाओं पर नियंत्रण भी। हम रोजाना जितने मंत्र-स्तोत्र पाठ, स्तुतियाँ और भजन-पूजन आदि करते हैं उनसे कई गुना इच्छाएं हमारी रोजाना बनी रहती हैं, ऎसे में जो पुण्य प्राप्त होता है, जो ऊर्जा हमें मिलती है, उसका उन्हीं रोजमर्रा की कामनाओं को पूरी करने में क्षरण हो जाता है और कोई पुण्य या दैवीय ऊर्जा बचती ही नहीं है। ऎसे में हमारी संकल्पसिद्धि हमेशा संदिग्ध ही बनी रहती है, पुण्य के प्रभाव से छोटे-मोटे काम हो जाएं, वह अलग बात है किन्तु कोई बड़ा लक्ष्य प्राप्त कर पाने में हम सदैव विफल रहते हैं।

इसके साथ ही बाहरी एवं हराम का खान-पान, पतितों के साथ रहने और उनकी सेवा-चाकरी करने, दान-दक्षिणा और मिथ्या संभाषण, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, व्यभिचार, कामचोरी, षड़यंत्रों में रमे रहने, बुरे लोगों के साथ काम करने और रहने आदि कारणों से भी रोजाना पुण्यों का क्षय होता रहता है।
इन्हीं वजहों से हमारे खाते में उतने पुण्य अपेक्षित मात्रा में संचित नहीं हो पाते हैं जितने कि हमारे संकल्प की सिद्धि के लिए जरूरी हुआ करते हैं। हम रोज कुआ खोदकर रोज पानी पीने की विवशता भरी स्थिति में आ जाते हैं।
 यही सब हमारी विफलता के बुनियादी तत्व हैं। जीवन में इच्छित कामनाओं की प्राप्ति और संकल्प सिद्धि के लिए यह जरूरी है कि साधना और भजन-पूजन के साथ-साथ समानान्तर रूप से शुचिता और दिव्यता को बनाए रखने के प्रयत्न भी होते रहने चाहिए ताकि पुण्यों की कमी पर लगाम लग सके और अपने पुण्यों के संचय, सत्कर्मों, साधनाओं का ग्राफ अपेक्षित स्तर को प्राप्त कर पाए। ऎसा जब तक नहीं होगा, तब तक घण्टों, माहों और बरसों तक की जाने वाली पुण्य कर्म, साधना का कोई विशेष प्रभाव अनुभव नहीं हो सकता, इस सत्य को समझने की जरूरत है।
हमारे आस-पास ऎसे खूब सारे लोग हैं जो घण्टों मन्दिरों में भगवान की मूर्तियों के पास बने रहते हैं, घण्टियां हिलाते रहते हैं, गला फाड़कर और माईक पर चिल्ला-चिल्ला कर आरतियां, अभिषेक, कथा, सत्संग आदि करते रहते हैं फिर भी बरसों से वैसे ही हैं, न साधक बन पाए न सिद्ध। और ऎसे ही खूब सारे लोगों को हम बरसों से श्मशान तक छोड़ते आ रहे हैं। सभी प्रकार की शुचिता और पुण्य संचय के बिना न हम साधक हो सकते हैं न सिद्धावस्था प्राप्त कर सकते हैं। भगवत्कृपा या साक्षात्कार की बात तो बहुत दूर है।
🙏🌹जय गुरु महाराज🌹🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸

ईश्वरीय प्रवाह अपनाएं | ESVRIYA PRAVAH APNAYE | SANTMAT-SATSANG | ANAND | जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये।

🌸ईश्वरीय प्रवाह अपनाएं🌸
🍁हर इंसान की अपनी कई ऎषणाएं, इच्छाएं और कल्पनाएं हुआ करती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए वह जिन्दगी भर जाने कितने रास्तों, चौराहों और गलियारों की खोजबीन करता रहता है, कितने ही मार्गों को अपनाता और छोड़ता है।
कई सारे छोड़े हुए रास्तों को फिर पकड़ता और छोड़ता रहता है, कई बार भूलभुलैया में भटकता, अटकता हुआ जानें कहाँ-कहाँ परिभ्रमण करता है और जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को लेकर आगे बढ़ता हुआ अन्ततोगत्वा सब कुछ यहीं छोड़कर अचानक ऊपर चला जाता है।

इस सारी यात्रा में ऊपर जाने से पहले जो आनंद प्राप्त होना चाहिए वह बिरले लोग ही ले पाते हैं। लेकिन जिन लोगों को जीवन और मृत्यु दोनों का ही आनंद पाने की इच्छा होती है वे लोग भाग्यवादी भी हो सकते हैं और पुरुषार्थी भी। अन्तर सिर्फ इतना होता है कि भाग्यवादी लोग नैराश्य से वैराग्य की ओर बढ़ते नज़र आते हैं और पुरुषार्थी लोग जीवन के आनंदों की प्राप्ति करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं मगर उद्विग्नता, असंतोष और अशांति इनके लिए मरते दम तक साथ नहीं छोड़ती। यह समानान्तर चलती रहती है। 
इनसे भी ऊपर बिरले इंसानों की एक और किस्म है जो जीने का आनंद भी जानती है और मृत्यु का भी।  जीवन में कर्मयोग के प्रति सर्वोच्च समर्पण भाव रखते हुए जो लोग अपने आपको पूरी तरह  ईश्वरीय प्रवाह के हवाले कर दिया करते हैं उन लोगों के लिए समस्या, शिकायत, दुःख, उद्विग्नता, अशांति और असंतोष अपने आप समाप्त हो जाया करते हैं।
एक बार सच्चे मन से यह स्वीकार कर लें –  जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये।
ऎसा हो जाने पर कर्म का आनंद भी आएगा और कर्मफल के लिए सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों से हमेशा बनी रहने वाली आशाएं-अपेक्षाएं भी नहीं रहेंगी। यह वह आदर्श स्थिति है जहाँ कत्र्तव्य कर्म का समर्पित निर्वाह पूरे यौवन पर रहा करता है वहीं जो कुछ भी प्राप्त होता रहता है उसे ईश्वरीय प्रसाद मानकर जीवन अपने आप आनंदित होता रहता है।

जीवन के हर कर्म में दाता, साक्षी और निर्णायक के रूप में ईश्वर को ही सर्वोच्च सत्ता मान लेने के बाद न जीवन में कोई दुःख रहता है, न कोई विषाद, भ्रम, शंका या आशंका। ऎसे लोगों को हर क्षण यह भान रहता है ईश्वर उनके साथ रहकर उनका सहायक बना हुआ संरक्षक और पालक दोनों दायित्वों का निर्वाह कर रहा है।
इस उदार तथा आध्यात्मिक सोच को प्राप्त कर लेने के बाद इंसान को न मृत्यु का भय होता है, न जीवन का कोई विषाद। इस स्थिति में हमेशा जीवन और मृत्यु से परे आनंददायी माहौल का अहसास बना रहता है। स्वयं को ईश्वरीय प्रवाह के हवाले छोड़ देना ठीक उसी तरह है जिस प्रकार बिंदु का सिंधु में मिलन होने के बाद बिंदु को किसी भी प्रकार की कोई चिंता नहीं हुआ करती।
जीवन का असली आनंद इसी में है कि हम अपने अहं को पूर्ण विगलित करते हुए खुद को ईश्वरीय प्रवाह का हिस्सा बना लें। इससे पुरुषार्थ चतुष्टय की पूर्ति, जीवनानंद की प्राप्ति और जीवनमुक्ति के सारे सुकून अपने आप हमारी जिन्दगी को दिव्यत्व एवं दैवत्व देते हुए सँवारते रहते हैं। इस अहसास के बिना न जीवन का आनंद है, न मृत्यु के भय से मुक्ति। ईश्वरीय प्रवाह के बिना हमारा जीना भी व्यर्थ है, और मरना भी अभिशप्त।
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸

बुधवार, 20 नवंबर 2019

जिसका मन निश्छल वही बड़ा | Jiska man nischhal hai vahi bara | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🌸जिसका मन निश्छल वही बड़ा🌸
जो मनुष्य दूसरों की भलाई करता है, वह फरिश्ते से कम नहीं। जो व्यक्ति दूसरों की मदद करता हो, किसी का बुरा नहीं करता हो, जो शील स्वभाव का हो, सभी को प्यार से बोलता हो और समय पर कार्य करता हो वह फरिश्ता ही तो है। 
हर पल जो नवीन दिखाई दे, वही सुंदरता का नमूना है। अपने दिमाग के द्वार बंद करने से न जाने किस समय क्या अनोखा तत्व समझ में आ जाए। बुरी बातों को भूल जाना ही बेहतर है वरना अच्छे विचार मन में प्रवेश करना बंद कर देंगे। बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट से नहीं होता है। जिसका मन निश्छल है, वही बड़ा है। व्यस्त रहना ठीक है किंतु  अस्त-व्यस्त नहीं। एक पाप दूसरे पाप का दरवाजा खोल देता है। आदमी आराम के साधन जुटाने में आराम खो देता है। धनी व्यक्ति जहां रुपयों के सहारे जीता है वहीं निर्धन व्यक्ति परिश्रम, प्रभु के सहारे जीता है। 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
प्रस्तुति: एस.के. मेहता

सोमवार, 29 जुलाई 2019

भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुईं है | पर हम कभी-कभी इसकी कीमत नहीं समझते हैं और... | Khoobsurat Jindgi

भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुई है !

भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुई है ! पर हम कभी-कभी इसकी कीमत नहीं समझते हैं और आधी जिंदगी यूँ ही बर्बाद कर देते हैं, जब होश आता है तो बहुत देर हो चुकी होती है!

हमें हमेशा अपने साथ-साथ दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए, दुसरों के लिए कुछ करने के बाद जो सुकून और चैन जीवन में मिलता है वो  कही नहीं मिलता है! सदा अच्छे विचार के साथ दिन की शुरुआत करनी चाहिए! सब कुछ तो भगवान ने पहले से निर्धारित कर के रखा है हमें तो बस कर्म करना है! कर्म करते जाओ फल तो भगवान देगा ही, कर्म से कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए! जीवन में घबराकर परेशान नहीं होना चाहिए! सुख और दुःख तो जीवन के दो हिस्से हैं एक आएगा तो दूसरा जायेगा दोनों सिक्के के दो पहलु है कभी भी एक साथ नहीं रह सकते! अगर हमने सुख को भोगा है तो दुःख को भी झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए! एक सुखी और शांत जीवन हमें तभी मिलेगा जब हम हर पल तैयार रहेंगे जीवन को जीने के लिए, कभी भी हिम्मत हार कर जिंदगी से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए डट कर सामना करना चाहिए जीवन अपने आप खूबसूरत बन जायेगा! ।। जय गुरु ।।

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

अहंकार से ज्ञान का नाश | Ahankar se gyan ka naash | कभी किसी को नहीं सताओ | गुप्तदान महादान | मृत्यु से कोई नहीं बच पाया | Santmat Satsang

अहंकार से ज्ञान का नाश;
अहंकार से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है। अहंकार से ज्ञान का नाश हो जाता है। अहंकार होने से मनुष्य के सब काम बिगड़ जाते हैं। भगवान कण-कण में व्याप्त है। जहाँ उसे प्रेम से पुकारो वहीं प्रकट हो जाते हैं। भगवान को पाने का उपाय केवल प्रेम ही है। भगवान किसी को सुख-दुख नहीं देता। जो जीव जैसा कर्म करेगा, वैसा उसे फल मिलता है। मनुष्य को हमेशा शुभ कार्य करते रहना चाहिए।

कभी किसी को नहीं सताओ :

धर्मशास्त्रों के श्रवण, अध्ययन एवं मनन करने से मानव मात्र के मन में एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सद्भावना एवं मर्यादा का उदय होता है। हमारे धर्मग्रंथों में जीवमात्र के प्रति दुर्विचारों को पाप कहा है और जो दूसरे का हित करता है, वही सबसे बड़ा धर्म है। हमें कभी किसी को नहीं सताना चाहिए। और सर्व सुख के लिए कार्य करते रहना चाहिए।

गुप्तदान महादान :
मनुष्य को दान देने के लिए प्रचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि दान में जो भी वस्तु दी जाए, उसको गुप्त रूप से देना चाहिए। हर मनुष्य को भक्त प्रहलाद जैसी भक्ति करना चाहिए। जीवन में किसी से कुछ भी माँगो तो छोटा बनकर ही माँगो। जब तक मनुष्य जीवन में शुभ कर्म नहीं करेगा, भगवान का स्मरण नहीं करेगा, तब तक उसे सद्‍बुद्धि नहीं मिलेगी।

मृत्यु से कोई नहीं बच पाया :

धन, मित्र, स्त्री तथा पृथ्वी के समस्त भोग आदि तो बार-बार मिलते हैं, किन्तु मनुष्य शरीर बार-बार जीव को नहीं मिलता। अतः मनुष्य को कुछ न कुछ सत्कर्म करते रहना चाहिए। मनुष्य वही है, जिसमें विवेक, संयम, दान-शीलता, शील, दया और धर्म में प्रीति हो। संसार में सर्वमान्य यदि कोई है तो वह है मृत्यु। दुनिया में जो जन्मा है, वह एक न एक दिन अवश्य मरेगा। सृष्टि के आदिकाल से लेकर आज तक मृत्यु से कोई भी नहीं बच पाया।
   ।। जय गुरू महाराज ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 17 जुलाई 2019

ब्रह्मज्ञान से परिवर्तन | BRAHAMAGYAN SE PARIVARTAN | CHANGE FROM THEOLOGY | Santmat Satsang | Maharshi Mehi

ब्रह्मज्ञान से परिवर्तन
'मानव में क्रांति' और 'विश्व में शांति' केवल 'ब्रह्मज्ञान' द्वारा संभव है |

अन्तरात्मा हर व्यक्ति की पवित्र होती है, दिव्य होती है | यहाँ तक कि दुष्ट से दुष्ट मनुष्य की भी | आवश्यकता केवल इस बात की है कि उसके विकार ग्रस्त मन का परिचय उसके सच्चे, विशुद्ध आत्मस्वरूप  से कराया जाये |

यह परिचय बाहरी साधनों से सम्भव नहीं है | केवल 'ब्रह्मज्ञान' की प्रदीप्त  अग्नि ही व्यक्ति के हर पहलू को प्रकाशित कर सकती है | यही नहीं, आदमी के नीचे गिरने की प्रवृति को 'ब्रह्मज्ञान' की सहायता से उर्ध्वोमुखी या ऊँचे उठने की दिशा में मोड़ा जा सकता है | इससे वह एक योग्य व्यक्ति और सच्चा नागरिक बन सकता है |

             'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करने के बाद साधना करने से आपकी सांसारिक जिम्मेदारियां दिव्य कर्मों में बदल जाती हैं | आपके व्यक्तत्व का अंधकारमय पक्ष दूर होने लगता  है | विचारों में सकारात्मक परिवर्तन आने लगता है और नकारात्मक प्रविर्तियाँ दूर होती जाती हैं | अच्छे और सकारात्मक गुणों का प्रभाव आपके अन्दर बढने लगता है | वासनाओं,भ्रांतियों और नकारात्मकताओं में उलझा मन आत्मा में स्थित होने लगता है | वह अपने उन्नत स्वभाव यानि समत्व, संतुलन और शांति की दिशा में उत्तरोत्तर बढता जाता है | यही 'ब्रह्मज्ञान' की सुधारवादी प्रक्रिया है |
           अगर हम जीवन का यह वास्तविक तत्व यही 'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें सच्चे सद्गुरु की शरण में जाना होगा | वे आपके 'दिव्यनेत्र' को खोलने की युक्ति बताकर, आप को ब्रह्मधाम तक ले जा सकते हैं, जहाँ मुक्ति और आनन्द का साम्राज्य है | सच्चा सुख हमारे अन्दर ही विराजमान है, लेकिन उसका अनुभव हमें केवल एक युक्ति द्वारा ही हो सकता है, जो पूर्ण गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है | इस लिए ऐसा कहना अतिशयोक्ति न होगा कि सद्गुरु  संसार और शाश्वत के बीच सेतु का काम करते हैं | वे क्षनभंगुरता से स्थायित्व की ओर ले जाते हैं | हमें चाहिए कि हम उनकी कृपा का लाभ उठाकर जीवन सफल बना लें |
।।जय गुरुदेव।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


मंगलवार, 9 जुलाई 2019

मेरे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है | Mere pass Parmatma ke liye samay nahi hai | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

मेरे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है!

आज जब हम लोगों से आत्मा परमात्मा के बारे में बात करते हैं, तो बहुत से लोगों का यही प्रशन होता है कि हमारे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है | व्यस्त जीवन है, एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है | यही प्रशन एक वार एक व्यक्ति ने एक महात्मा जी के समक्ष्य रखा |

प्रशन - मैं एक व्यापारी हूँ | मेरा लाखों का बिजनेस है | मैंने दो-तीन बार आपके सत्संग- प्रवचन सुने हैं |मुझे बहुत अच्छे लगे | सुनकर मन को शांति भी मिली | पर फिर भी मैं ज्ञान लेने मैं असमर्थ हूँ | क्यों कि मेरे पास एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है | मैं सुमिरन - भजन के लिए समय नहीं निकाल सकता | अब आप ही कोई उपाय बताएँ |
उत्तर ) समय नहीं है! यह तो केवल एक बहाना है | वास्तव में आपने परमात्मा व उसके ज्ञान के महत्व को अभी तक समझा ही नहीं | इस लिए आप संसार को ही सब कुछ मान बैठे हैं | सांसारिक कार्यों व विषयों में अपना एक - एक क्षण एवं एक - एक श्वास गवाए चले जा रहे हैं | जब कि संत महापुरषों के अनुसार यह जीवन तो मिला ही ईश्वर - भक्ति एंव उसकी प्राप्ति के लिए है | मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल  नौकरी, बिजनेस या धन - संग्रह करना नहीं | इसका परम लक्ष्य ईश्वर को पाना है | उसका बनना एंव उसे अपना बनाना है - 'बड़े भाग मनुष्य तन पावा ......साधन धाम मोच्छ कर द्वारा' | यदि समय रहते हम इस तथ्य को नहीं समझते, तो आगे की पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास जी हमें एक चेतावनी भी देते हैं -
सो परत्र दुख  पावइ  सिर धुनि -धुनि पछताइ |
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ||

फिर हमें सिर धुन - धुन कर पछताना पड़ेगा | चाहे हम 'कालहि' - समय नहीं था; 'कर्महि' - मेरे कर्मों में ही नहीं था; 'ईस्वरहि ' शायद ईश्वर को ही मंजूर नहीं था आदि कितने ही बहाने बनाएँ, कोई सुनवाई नहीं होगी | इस लिए जीवन के इस परम लक्ष्य  के विषय में विचार करें | ब्रह्मज्ञान की महत्ता को समझें | एक बार महत्व समझ आ गया, तो समय तो खुद-व-खुद निकल आएगा |
साथ ही, आपकी जानकारी के लिए यह भी बता दें कि ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त सुमिरन - भजन के लिए कोई अलग से समय निकालने की आवश्कयता नहीं है | यह तो वह ज्ञान है जिसके द्वारा आप चलते फिरते, खाते - पीते, उठते - बैठते हुए भी प्रभु सुमिरन कर सकते हैं | याद कीजिए प्रभु श्री कृष्ण का उदघोष -'माम स्मृत तात.....अर्थात (हे अर्जुन) तू युद्ध भी कर और सुमिरन भी कर | आपका बिजनेस युद्ध से अधिक एकाग्रता नहीं माँगता | इसलिए आप आगे बढें और अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करें |
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram


सोमवार, 1 जुलाई 2019

समस्त संसार ही हमारा परिवार है। The whole world is our family | SANTMAT-SATSANG |

|| समस्त संसार ही हमारा परिवार है ||

वास्तव में समस्त संसार एक परिवार है। जो मनुष्य जितना बड़ा है उसका परिवार भी उतना ही बड़ा होगा और जो मनुष्य जितना छोटा है उसका परिवार भी उतना ही छोटा होता है। जिसके जीवन का जितना अधिक विकास होता है उसका परिवार उतना ही विशाल होता चला जाता है। इस परिवार की कोई सीमा नहीं है। किसी का परिवार दस-बीस व्यक्ति यों का होता है, किसी का परिवार सौ, दो सौ से बनता है और किसी के परिवार की संख्या लाखों-करोड़ों तक पहुँच जाती है। इसीलिए परिवार की कोई सीमा नहीं हो सकती। संसार में छोटे-से-छोटे परिवार भी हैं और बड़े-से-बड़े परिवार भी हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जो मनुष्य जितना ही बड़ा है उसका उतना ही बड़ा परिवार है। ईसा, बुद्ध और गाँधी के परिवार की सीमा विस्तृत होकर सम्पूर्ण संसार तक पहुँच गई थी। ठीक इसी तरह अभी के समय में महर्षि मेँहिँ संतमत परिवार भी पूरे भारत वर्ष के अन्दर उफान पर है साथ ही बाहर के देशों में भी हिलोरे ले रही है।

जिसके निकट सारा संसार एक परिवार बन जाता है। उसके निकट अपने और पराये में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं रह जाता। वह सभी को अपना समझता है, सभी के साथ स्नेह को संसार के महान पुरुषों ने अधिक-से-अधिक महत्व दिया है। इनका महत्व बढ़ाने के लिए ही उन महापुरुषों ने इन्हें विश्वबन्धुत्व का नाम दिया है। इस नाम में बहुत अधिक मधुरता और स्नेह है। हम समस्त संसार के मनुष्यों के साथ भ्रातृ-स्नेह का अनुभव करें और उनके दुःख को अपना दुःख एवं उनके सुख को अपना सुख समझें, यह एक बहुत ऊँची भावना है। संसार के सभी स्त्री-पुरुष एक ही परिवार के सदस्य हैं। संसार के किसी भी बच्चे को हम अपने परिवार का एक बच्चा समझें और संसार के किसी भी मनुष्य के साथ हम वही स्नेह करें जो अपने किसी निजी सम्बन्धी से किया करते हैं, तो यह एक बहुत बड़े कर्त्तव्य-धर्म का पालन करना समझा जायगा।
।। जय गुरु ।।

मनुष्यों का हित अन्योन्याश्रित है | Manushyo ka hit anyoyashrit hai | Santmat-Satsang | एक मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाने के साथ-साथ स्वयं भी हानि उठाता है तो यह भी निश्चय है कि एक मनुष्य दूसरे को उन्नत बनाकर स्वयं भी उन्नति करता है।

मनुष्यों का हित अन्योन्याश्रित है।

जीवन की सबसे बड़ी श्रेष्ठता इसी में है कि एक मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपना समझे और उनके काम आवे। इस प्रकार दूसरों को प्रसन्न बनाने की भावना में वह स्वयं अधिक प्रसन्न और सुखी हो सकेगा। यही भावना प्रकृति का आदेश है। इस प्रकृति के द्वारा न जाने कितने पुरुष दूसरों की सेवा और सहायता करके महापुरुष बन गये। परन्तु जिन लोगों ने दूसरों के साथ घृणा करना सीखा उनका भयानक पतन हुआ। मालूम नहीं कि मनुष्य जाति में परस्पर द्वेष की भावना किस आधार पर उत्पन्न की गई? विश्व की सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक शरीर के रूप में है और अगणित व्यक्ति उसके संख्यातीत अंग-प्रत्यंग हैं। ये छोटे भी हैं और बड़े भी परन्तु उनमें किसी की आवश्यकता कम और किसी की अधिक नहीं है। सम्पूर्ण शरीर की रक्षा के लिए सब की आवश्यकता समान रूप से है। इस सत्य को अनुभव करके किसी महात्मा ने कहा है—

“आँखें हाथों से नहीं कह सकती कि हमको तुम्हारी आवश्यकता नहीं और न मस्तक पैरों से कह सकता है कि हमको तुम्हारी जरूरत नहीं है। यदि शरीर का एक अंग पीड़ित होता है तो सम्पूर्ण शरीर पीड़ित और अस्त-व्यस्त हो जाता है। यही मानव प्रकृति है और यदि उसका कोई एक अंग स्वास्थ्य प्राप्त करता है तो उसका लाभ सम्पूर्ण शरीर को मिलता है। ” महात्मात्मन के कथनानुसार “एक मनुष्य दूसरे को उसी दशा में हानि और पीड़ा पहुँचा सकता है जब वह स्वयं पीड़ित होता है और हानि उठाता है; और कोई एक देश अथवा राष्ट्र किसी दूसरे देश अथवा राष्ट्र को उसी दशा में क्षति पहुँचा सकता है, जब वह स्वयं क्षति उठाता है।” जब यह सत्य है कि एक मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाने के साथ-साथ स्वयं भी हानि उठाता है तो यह भी निश्चय है कि एक मनुष्य दूसरे को उन्नत बनाकर स्वयं भी उन्नति करता है। अब यह समझना हमारा काम है कि हम उन्नत होना चाहते हैं अथवा पतित, लाभ उठाना चाहते हैं या हानि?

—”सादगी से श्रेष्ठता”
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


गुरुवार, 24 जनवरी 2019

जीवन का मूल्य क्या है? | Jeevan ka mulya kya hai | Santmat-Satsang

एक आदमी ने भगवान बुद्ध से पुछा : जीवन का मूल्य क्या है ?
बुद्ध ने उसे एक Stone दिया और कहा : जा और इस stone का मूल्य पता करके आ, लेकिन ध्यान रखना stone को बेचना नही है।

वह आदमी stone को बाजार मे एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला : इसकी कीमत क्या है ?
संतरे वाला चमकीले stone को देखकर बोला, "12 संतरे
लेजा और इसे मुझे दे जा"
आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले stone को देखा और कहा "एक बोरी आलू ले जा और इस stone को मेरे पास छोड़ जा"
आगे एक सोना बेचने वाले के पास गया उसे stone दिखाया सुनार उस चमकीले stone को देखकर बोला, "50 लाख में बेच दे"।
उसने मना कर दिया तो सुनार बोला "2 करोड़ में दे दे
या बता इसकी कीमत जो माँगेगा वह दूँगा तुझे..
उस आदमी ने सुनार से कहा मेरे गुरू ने इसे बेचने से मना किया है l
आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया उसे stone दिखाया।
जौहरी ने जब उस बेसकीमती रुबी को देखा, तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपडा बिछाया, फिर उस
बेसकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई माथा टेका, फिर जौहरी बोला, "कहा से लाया है ये बेसकीमती रुबी ? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी
इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, ये तो बेसकीमती है।"
वह आदमी हैरान परेशान होकर सीधे बुद्ध के पास आया।
अपनी आप बिती बताई और बोला "अब बताओ भगवन, मानवीय जीवन का मूल्य क्या है ?
बुद्ध बोले :
संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत "12 संतरे" की बताई।
सब्जी वाले के पास गया उसने इसकी कीमत "1 बोरी आलू" बताई।
आगे सुनार ने "2 करोड़" बताई, और जौहरी ने इसे "बेसकीमती" बताया।
अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है।
तू बेशक हीरा है..!! लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत, अपनी औकात - अपनी जानकारी - अपनी हैसियत से
लगाएगा।
घबराओ मत दुनिया में.. तुझे पहचानने वाले भी मिल जायेंगे।

Respect Yourself,
You are very Unique..

कभी न करें इन चार का अपमान, माना जाता है महापाप; | Apmaan | गुरु या शिक्षक | ज्ञानी या पंडित | माता | पिता | GURU | TEACHER | MOTHER | FATHER

कभी न करें इन 4 का अपमान, माना जाता है महापाप;

वाल्मीकि रामायण में 4 ऐसे लोगों के बारे में बताया गया है, जिनका अपमान करना महापाप है।

मनुष्य चाहे कितनी ही पूजा-पाठ या दान-धर्म कर ले, लेकिन उसका पाप नहीं मिटता और उसे इसकी सजा भुगतनी ही पड़ती है। इसलिए, ध्यान रखें कि भूलकर भी आपसे इन 4 लोगों का अपमान न हो जाए।

1. गुरु या शिक्षक

गुरु या शिक्षक हमें शिक्षा और ज्ञान देने वाले को गुरु कहा जाता हैं। गुरु का दर्जा बहुत ऊंचा माना जाता है। सभी धर्म ग्रंथों में गुरु का सम्मान करने की बात कही गई है। जो छात्र अपने गुरु का सम्मान नहीं करता, उनकी दी गई शिक्षा का अनादर करता है, वह कभी भी सफलता हासिल नहीं कर पाता। गुरु का अपमान करने वालों को कभी भी सम्मान नहीं मिलता। ये एक ऐसा पाप कहा गया है, जिसका प्रायश्चित किसी भी तरह नहीं किया जा सकता। इसलिए कभी भी अपने गुरुओं का अपमान नहीं करना चाहिए।

2. ज्ञानी या पंडित
ज्ञानी और पंडित देवतुल्य माने जाते हैं। वे भी देवताओं के समान पूजनीय होते हैं। ज्ञानी लोगों की संगति से हमें कई लाभ होते हैं, हमारी किसी भी मुश्किल परिस्थिति का हल ज्ञानी मनुष्य अपनी सूझ-बूझ और अनुभव से निकाल सकता है। ऐसे लोगों का कभी भी अपमान नहीं करना चाहिए। ऐसे लोगों का अपमान करना महापाप कहा जाता है और इसके कई दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते है।

3. माता

मां को भगवान का दर्जा दिया जाता है। कई धर्म ग्रंथों में मां का सम्मान करने और भूलकर भी उनका अपमान न करने के बारे में बताया गया है। माता की सेवा करने वाला मनुष्य जीवन में सभी सफलताएं पाता है। इसके विपरीत उनका अपमान करने वाला मनुष्य कभी खुश नहीं रह पाता। ऐसे मनुष्य पर भगवान भी रूठे हुए रहते हैं और उसे अपने किसी भी पुण्य कर्म का फल नहीं मिलता। इसलिए, ध्यान रखें किसी भी परिस्थिति में अपनी माता का अपमान न करें।

4. पिता
हर मनुष्य को अपने माता-पिता में ही अपना पूरा विश्व जानना चाहिए। जो व्यक्ति अपने पिता का सम्मान नहीं करता, उनकी आज्ञा का पालन नहीं करता, वह पशु के समान माना जाता है। माता-पिता का अपमान करना मनुष्य का सबसे बड़ा अवगुण माना जाता है। ऐसा करने वाला मनुष्य चाहे कितनी ही तरक्की कर ले, लेकिन वह समाज में मान-सम्मान नहीं पाता। इसलिए किसी को भी अपने पिता का अपमान बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। जय गुरु।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


बुधवार, 16 जनवरी 2019

हमारे जीवनका प्रत्येक पल पल मूल्यवान .... | Hamare Jeevan ka pratyek pal mulyavaan | Santmat-Satsang

हमारे जीवन का प्रत्येक पल मूल्यवान व अंतहीन संभावनाअों से भरा है, प्रत्येक पल के प्रति अादर अौर विश्वास रखें व उस का सदुपयोग करें। 

सगुण भक्तिधारा के संत तुलसीदास ने रामचरितमानस में संतों के दिव्य स्वरूप का वर्णन किया है। संतों की उनकी इस व्याख्या में एक ओर स्फटिक की सुँदरता है, तो दूसरी और मोती के आब की तरलता। तुलसी का संत स्वरूप उदात्त, निर्मल और पावन है। उनके अनुसार जिसके अंतःकरण में ‘स्व’ की भावना का विसर्जन हो गया वही संत में राग उस समय गलता है, जब वह स्वयं को परमार्थ के लिए उत्सर्ग कर देता है। उसके उत्सर्ग में प्रतिदान नहीं, बलिदान की भावना रहती है। प्रतिग्रह न होकर आत्मसमर्पण होता है, लेने का नहीं लुटा देने का भाव प्रधान होता है। संत औरों के लिए स्वयं को लुटा देता है। अपने को निःशेष भाव से लुटाकर ही मेघ जलधि कहलाता है। संत भी मेघ की भाँति अवघड़दानी होता है।

तुलसीदास जी कहते हैं संतों के अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह रूपी मनोविकार नहीं होता। उनका जीवन जप, तप, व्रत और संयम से संयमित होता है। श्रद्धा, मैत्री, मुदिता, दया आदि श्रेष्ठ गुण उनके हृदय में सदैव वास करते हैं। संतों का हृदय मोम के समान होता है। उनकी करुणा हिमालय सदृश्य होती है, जो पिघल−पिघलकर अगणित धाराओं के रूप में प्रवाहित होती है। यही धाराएँ आगे चलकर संत परंपरा बनी हैं। संतों के उपदेशों ने ही संत परंपरा की नींव डाली। 

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै। गुरवाणी | GURVANI | श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि पशु, प्रेत, मूर्ख और पत्थर का भी सत्संग के माध्यम से कल्याण हो जाता है | SANTMAT-SATSANG

|| ॐ श्री सद्गुरवे नमः ||
पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै। (गुरवाणी)

श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि पशु, प्रेत, मूर्ख और पत्थर का भी सत्संग के माध्यम से कल्याण हो जाता है | श्री मदभागवत पुराण में एक कथा आती है गोकर्ण  के भाई धुन्धकारी को बुरे कर्मों के कारण प्रेत योनि की प्राप्ति हुई | जब गोकर्ण ने उसको प्रभु की कथा सुनाई तो वह प्रेत योनि से मुक्त हो गया | इस लिए गोस्वामी तुलसी दास जी ने कहा कि संत महापुरषों की संगत आनंद देने वाली है और कल्याण करती है | सत्संग की प्राप्ति होना फल है, बाकी सभी कर्म फूल की भांति है | जैसे एक पेड़ पर लगा हुआ फूल देखने में तो सुन्दर लगता है किन्तु वास्तव में रस तो फूल के फल में परिवर्तित हो जाने के बाद ही मिलता है | सत्संग को आनंद और कल्याण का मूल कहा गया | जिस के जीवन में सत्संग नहीं, उस के जीवन में सुख सदैव नहीं रह सकता | आत्मिक रस तो महापुरषों की संगति से ही प्राप्त हो सकता है | इस लिए कबीर जी कहते हैं -

कबीर साकत संगु न कीजीऐ दूरहि जाईऐ भागि ॥
बासनु कारो परसीऐ तउ कछु लागै दागु।।

दुष्टों का संग कभी भूल कर भी न करो | यह मानव के पतन का कारण बनता है | जैसे कोयले की खान में जाने पर कालिख लग ही जाती है | दुष्ट और सज्जन देखने में एक ही जैसे लगते हैं परन्तु फल से पता चल जाता है कि दुष्टों का संग अशांति देता है और सज्जनों का संग शांति |

जो दुष्ट हैं, वो भी जब संत महापुरषों जैसे वस्त्र धारण कर लेते हैं सब  लोग उन को को संत समझकर उन का सम्मान करते है | संत की पहचान उसके भगवे वस्त्र नहीं है,भगवे वस्त्र में तो रावण भी आया था जो सीता माता को चुरा कर ले गया | संत की पहचान उस का ज्ञान है, जो संत हमें परमात्मा का ज्ञान करवा दे, वह पूर्ण है, अगर वो हमें किसी बाहरी कर्म कांड में लगाता है, इस का मतलब है वह अधूरा है, ऐसे संतों से हमें सावधान रहना चाहिए। ये बात हमारे सभी धार्मिक शास्त्र कहते हैं | इसलिए हमें ऐसे पूर्ण संत सद्गुरु की खोज करनी चाहिए, जो हमें परमात्मा तक कैसे पहुंचा जा सकता है, का सत्य मार्ग बतावे, ज्ञान करावे। तभी हमारे जीवन का कल्याण संभव है।

।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

गलती करना मानव का स्वभाव है; | Galti karna manav ka swabhaw | Santmat-Satsang

गलती करना मानव का स्वभाव है!
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और गलतियां करना उसका स्वभाव है।


जीवन के हर मोड़ पर जाने-अनजाने गलतियां होती ही रहती है और गलती का होना एक सामन्य घटना है। लेकिन अपने द्वारा हुई गलतियों के बाद अलग-अलग व्यक्ति का अलग नजरिया होता है एक व्यक्ति अपनी गलती को सबक के रूप में लेता है और भविष्य में वैसी गलती दुबारा न हो ऐसा प्रयास करता है जबकि दूसरा अपने द्वारा की गई गलती को अपने ऊपर हावी कर लेता है और उसको लेकर एक अफ़सोस जाहिर करता है की काश! मैंने ऐसा नहीं किया होता तो मेरे साथ ऐसा नहीं होता। दिन रात बस ऐसे ही सोचता रहता है और आत्म ग्लानि से ग्रसित हो जाता है। एक अन्य व्यक्ति गलती को गलती मानने के लिए ही तैयार नहीं होता और अपने आपको हर जगह सही सिद्ध करने की कोशिश में ही लगा रहता है। इन तीनो स्थितियों में पहली स्थिति सर्वश्रेष्ठ है और भविष्य के लिए उन्नतिकारक है।क्योंकि ऐसा व्यक्ति वास्तविकता में जी रहा है। वह मानता है की गलती हर इंसान से होती है और मैं भी एक इंसान हूँ। अगर मुझसे गलती हो गई और उससे कोई बुरा परिणाम मुझे देखने को मिला तो चलो अच्छा हुआ आगे से में ऐसी गलती की पुनरावृति नहीं होने दूंगा। उसकी यह सोच उसको निरन्तर उन्नति की ओर ले जाती है और अपराधबोध से दूर रखती है। दूसरी तरह का व्यक्ति गलती के बारे में बार-बार सोचकर अपने आपको एक अपराधी के रूप में देखता रहता है, और अपनी मानसिक स्थिति को ख़राब कर लेता है। जिससे भविष्य में भी कदम-कदम पर उससे गलतियां होना जारी रहता है और यह स्थिति सदैव उसकी उन्नति को बाधित करती है। तीसरी स्थिति व्यक्ति को विवेक शून्य बना देती है और भावी जीवन में वह अपराधी बन जाता है क्योंकि उसे कुछ गलत नजर आता ही नहीं और अपने को ही सही मानने की हठधर्मिता के चलते वह सही गलत की पहचान खो देता है।इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण हमें आम जिंदगी में देखने को मिलता है और हम आये दिन इस पर चर्चा भी करते रहते हैं की देखो कैसा कलियुग आ गया है। आजकल तो जो व्यक्ति धर्म कर्म करता है और सज्जन होता है उसके जीवन में विपदाएँ आती है और पापी लोग मजे मारते हैं। बात भी सही है और ऐसा ही होता भी है। ऐसी चर्चा का आध्यात्मिक गुरु जबाब देते हैं की यह सब तो जन्म जन्मान्तरों के पुण्य पाप काखेल है जो आज मजे मार रहा है उसने पिछले जन्म में कोई पुण्य किया होगा उसका फल भोग रहा है अभी जो कर रहा है उसका आगे भुगतना पड़ेगा। और जो अभी सत्कर्म करते हुए दुखी है इसका मतलब उसके पुर्व जन्म के पाप का उदय चल रहा है। यह सब उपरोक्त वर्णित तीन प्रकार की मानसिकताओं का अलग-अलग परिणाम है की एक धार्मिक प्रवृति का व्यक्ति इसलिए ज्यादा परेशान दिखाई देता है कीवह अपने द्वारा की गई या हुई गलती को अपने ऊपर हावी कर लेता है। इसी सोच के कारण वो अपराधबोध से ग्रसित हो जाता है और बार-बार अपने से हुई गलती के लिए पश्चाताप की अग्नि में जलता रहता है और निरन्तर उसी में खोया रहकर आगे से आगे गलती करता चला जाता है और दुःखी होता रहता है। जबकि दूसरी प्रकृति का व्यक्ति गलती करता है लेकिन अपने विवेक से उस पर चिंतन करता है व भविष्य के लिए उसे सबक के रूप में लेता है जिससे वह विपरीत परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना लेता है और जीवन की यात्रा का आनन्द लेता है।
अब हमें अपने विशेष तर्कसंगत विवेकपूर्ण बुद्धि से सोचना है कि कौन-सी स्थिति में जीवन जीना है।
🙏🌷🌿।। जय गुरु ।।🌿🌷🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 9 जनवरी 2019

आए जगत् में क्या किया तन पाला के पेट | AAYE JAGAT ME TAN PALA KI PET | जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है |

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।
सहजो दिन धंधे गया रैन गई सुख लेट।।

संत सहजो बाई जी कहती हैं कि जगत में जन्म तो ले लिया परन्तु किया क्या ? तन को पाला या खा-खा कर पेट को बढाया | दिन तो संसार के कार्यों में गँवा दिया और रात सो कर गँवा  दी |

रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥
हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि रात सो कर गँवा  दी और दिन खा कर गँवा  दिया | हीरे जैसे जन्म को अर्थात्त तन को कौड़ी  के भाव गँवा दिया | इस जगत में मनुष्य  की यह स्थिति है कि उसने शरीर को तो जान लिया परन्तु जीवन को भूल गया | यह अहसास नहीं है कि जीवन क्या है ? आज हम जिसे जीवन कहते हैं, वह तो पल प्रतिपल मृत्यु की  और बढ रहा है | परन्तु यह 30-40  वर्ष का जीवन, जीवन नहीं है | हम अपना जन्म दिन मनाते है, हम इतने बड़े हो गए | हमारी आयु बढ़ी नहीं, यह तो हमारे जीवन में से 30-40 वर्ष कम हो गए है, हम मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं | हमें विचार करना चाहिए के हम ने इतने वर्षों में क्या किया, क्या हम ने अपने जीवन के  लक्ष्य को जाना |

एक बार ईसा नदी के किनारे जा रहे थे, रस्ते में देखा कि  एक मछुआरा मछलियाँ पकड़ रहा था | उसके निकट गये उस से पूछते हैं, तुमारा नाम क्या है ? उसने कहा पीटर ! ईसा ने पूछा के पीटर, क्या तुमने जीवन को जाना ? क्या तुम जीवन को पहचानते हो ? उसने कहा हाँ मैं जीवन को जानता हूँ | मछलियाँ पकड़ता हूँ और बाजार में बेचकर अपने जीवन का निर्वाह करता हूँ |

ईसा ने कहा -पीटर ! यह जीवन, जीवन नहीं, जिसे तुम जीवन समझ रहे हो वह जीवन तो मृत्यु की तरफ बढ रहा है | आओ मैं तुम्हे उस जीवन से मिला दूं , जो  मृत्यु के बाद  भी रहता है | पीटर आश्चर्य से  कहता है कि  क्या मृत्यु के बाद भी जीवन है | ईसा कहते हैं - हाँ पीटर ! मृत्यु के बाद  भी जीवन है, इस जीवन का उदेश ही उस शश्वत जीवन को जानना है | अब  ईसा मसीह पीटर को जीवन से अवगत करने के लिए उसे अपने साथ लेकर चलते हैं | तभी कुछ  लोग आते हैं और पीटर से कहते हैं, पीटर! तुम कहाँ जा रहे हो? तुम्हारे  पिता का देहांत हो गया है |

ईसा ने पूछा, पीटर कहाँ चले? पीटर ने कहा -"पिता को दफ़नाने, उन का देहांत हो गया है, दफनाना जरूरी है |" तब ईसा ने कहा - Let the dead burry their deads. "मुर्दे को मुर्दे दफ़नाने दो" तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हे जिन्दगी से मिलाता हूँ  | ईसा के कहने के भाव से स्पष्ट होता है कि  जिन के ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम नहीं, जिन्हों ने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को नहीं जाना वह जिन्दा नहीं, वरन  मरे हुए के सामान ही है | राम चरित मानस में भी कहा है -

जिन्ह हरि भगति ह्रदय नाहि आनी |
जीवत सव समान तई प्रानी ||

संत गोस्वामी तुलसी दास जी कहते है कि जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है | इस लिए हमें भी चाहिए कि हम ऐसे  पूर्ण संत सद्गुरु की खोज कर, उस परम प्रभु परमात्मा को जानें और आवागमन के महा दुःख से छुटकारा पायें। तभी हमारा जीवन सफल हो सकता है |
जय गुरु महाराज

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...