ईश्वर का साकार दर्शन करने के बाद मोह हो सकता है, काम, क्रोध, कपट, बेईमानी रह सकती है। कैकेयी, मंथरा, शूर्पणखा, दुर्योधन, शकुनि आदि ईश्वर का दर्शन करते थे फिर भी उनमें दुर्गुण मौजूद थे क्योंकि भगवान का दर्शन आत्मरूप से कराने वाले सदगुरूओं का संग उन्होंने नहीं किया।
शरीर की आँखों से भले ही कितना भी दर्शन करें, लेकिन जब तक ज्ञान की आँख नहीं खुलती तब तक आदमी थपेड़े खाता ही रहता है। दर्शन तो अर्जुन ने भी किये थे श्री कृष्ण के, परंतु जब श्रीकृष्ण ने उपदेश देकर कृष्ण तत्त्व का दर्शन कराया तब अर्जुन कहता है:
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितिऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।
'हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गई है। मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।' (गीताः18.73)
शिवजी का दर्शन हो जाय, राम जी का हो जाय या श्री कृष्ण का हो जाय लेकिन जब तक सदगुरू आत्मा-परमात्मा का दर्शन नहीं कराते तब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह, पाखंड और अहंकार रह सकता है। सदगुरू के तत्त्वज्ञान को पाये बिना इस जीव की, बेचारे की साधना अधूरी ही रह जाती है। तब तक वह मन के ही जगत् में ही रहता है और मन कभी खुश तो कभी नाराज। कभी मन में मजा आया तो कभी नहीं आया।
इसलिये कबीर साहब ने कहा है;
भटक मूँआ भेदू बिना पावे कौन उपाय।
खोजत-खोजत जुग गये, पाव कोस घर आय।।
यह जीव चाहता है तो शांति, मुक्ति और अपने नाथ से मिलना। मृत्यु आकर शरीर छीन ले और जीव अनाथ होकर मर जाय उसके पहले अपने नाथ से मिलना चाहिए, परंतु मन भटका देता है बाहर की, संसार की वासनाओं में। कोई-कोई भाग्यशाली होते हैं वे ही दान-पुण्य करना समझ पाते होंगे। उनसे कोई ऊँचा होता होगा वह सत्संग में आता है और उनसे भी ऊँचाई पर जब कोई बढ़ता है तब वह सत्यस्वरूप आत्मा परमात्मा में पहुँचता, उसे परम शांति मिलती है, जिस परम शांति के आगे, इन्द्र का वैभव भी कुछ नहीं।
आपूर्यमाणचलं प्रतिष्ठं, समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।
'जैसे जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में सम्पूर्ण नदियों का जल चारों ओर से आकर मिलता है पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परम शांति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं।' (गीताः 2.70)
जैसे समुद्र में सारी नदियाँ चली जाती हैं फिर भी समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता, सबको समा लेता है, ऐसे ही उस निर्वासनिक पुरूष के पास सब कुछ आ जाय फिर भी वह परम शांति में निमग्न पुरूष ज्यों का त्यों रहता है। ऐसी अवस्था का ध्यान कर अगर साधन-भजन किया जाय तो मनुष्य शीघ्र ही अपनी उस मंजिल पर पहुँच ही जाता है।
।।जय गुरु महाराज।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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