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बुधवार, 14 जुलाई 2021

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए!
प्यारे लोगो !
पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मानस-ध्यान में कोई स्थूल-रूप मन में बनाकर देखा जाता है। अपने-अपने इष्टदेव के रूप को मन में बनाकर देखना, मानस-ध्यान कहलाता है। यदि विचार करेंगे तो मूल में गुरु आ जाते हैं; क्योंकि शिक्षा देनेवाले को गुरु कहते हैं। इसलिए हमने तो गुरु का रूप रख लिया है और आपलोगों को भी सलाह देता हूँ कि गुरु-रूप का ध्यान कीजिए। यदि गुरु में श्रद्धा नहीं है, किसी दूसरे इष्टदेव में श्रद्धा है तो जो कुछ करना है, सो कीजिए। लेकिन तब आपकी गुरु में श्रद्धा नहीं। मानस-ध्यान के बाद होता है, सूक्ष्म-ध्यान यानी विन्दु-ध्यान। विन्दु-ध्यान के आगे भी ध्यान है, वह है नादानुसंधान। नादानुसंधान के बाद कुछ नहीं बचता है। नादानुसंधान में बारीकी में ध्यान ले जाने से वह मिलता है, जो बारीक से बारीक शब्द है। उस बारीक शब्द को जानना चाहिए, जो परमात्मा से ही निकलता है-स्फुटित होता है। जो स्फोट-शब्द को जानेगा, वह परमात्मा-परमेश्वर को पाकर कृतकृत्य हो जाएगा। खाने-पीने का बन्धन रखना उत्तम है इसलिए सात्विक भोजन होना चाहिये। राजसी भोजन मन को चंचल करता है। तामसी भोजन मन को नीचे गिराता है। सात्विक भोजन में भी जैसे गाय का दूध है, गाय के दूध को बेसी औटने से राजस हो जाता है। मांस-मछली-अण्डाआदि तामस-भोजन है। साधक को राजस और तामस भोजन छोड़कर सात्विक भोजन करना चाहिए।
पहले के लोग हवा पीकर रहते थे। आजकल हवा पीकर नहीं रह सकते। ध्यान कीजिए, ध्यान में प्रणव-ध्वनि को ग्रहण कीजिए और मोक्ष प्राप्त कीजिए। मनुष्य जीवन का जो परम-लक्ष्य है मोक्ष, उसको प्राप्त कर लीजिए। सन्तमत का सार सिद्धान्त है- गुरु, ध्यान, सत्संग। सच्चे गुरु मिल जाये तो उनका सत्संग करो। कहीं रहो, उनके बताए कायदे पर चलो तो उनका संग होता रहेगा, सत्संग होता रहेगा। बिना संत्सग के बात ठीक-ठीक समझ में नहीं आएगी। गप्प-शप्प सत्संग नहीं है, ईश्वर-चर्चा सत्संग है। *‘धर्म कथा बाहर सत्संगा। अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा।।’*  सप्ताह में एक बार मैं यहाँ (सत्संग-मंदिर में) आता हूँ। आपलोगों को देखता हूँ तो बड़ी प्रसन्नता होती है। जिनको श्रद्धा होती है, वे बड़े से भी बड़े लोग होते हैं, तो आ जाते हैं। ऐसे जो बड़े लोग हैं, उनको मैं धन्यवाद देता हूँ। जो प्रणाम करने योग्य हैं उनको प्रणाम करता हूँ। जो आशीर्वाद देने योग्य हैं, उनको मैं आशीर्वाद करता हूँ। जो सात दिन में यहाँ आते हैं, घर में सद्व्यवहार नहीं करते, तो वे सत्संग नहीं करते हैं। घर में रहना, पवित्रता से रहना, सद्व्यवहार से  रहना है। स्त्रियाँ बच्चों की सेवा करें, पति की सेवा करें, आपस में मेल रखें, झंझट नहीं करें। जहाँ तक हो सके अपने को सत्य पर रखना। अपने को सत्य पर रखे बिना सत्संग नहीं। सत्य पर अपने को रखिए तो अकेले में भी सत्संग होता है। सामूहिक सत्संग आप के घर में रोज हो सो नहीं हो सकता। जो कोई निजी उद्देश्य से सत्संग करते हैं यानी अपने उद्यम के लिए  सत्संग करते हैं तो वह सत्संग सत्संग नहीं है। स्त्रियाँ सत्संग करें, पुरुष सत्संग करें। किसी भी मजहब के लोगों को यहाँ मनाही नहीं है। सब कोई सत्संग में आइए। एक-न-एक दिन संसार छोड़ना है। शरीर छोड़ने के पहले संसार में कोई उत्तम  चिह्न-लकीर दे जाना अच्छा है। दूसरे संसार में भी आपकी उत्तमता का लोग गुण गावें और आप के मार्ग पर अपने को चलाकर बहुत पवित्र होते हुए शरीर छोड़ें। जो अपने खराब रास्ते पर रहते हैं, दूसरे को उस खराब रास्ते पर वे ले जाते हैं, इससे संसार में बहुत खराबी होती है। संसार को खराब मत करो, अपने खराब मत होओ। मेरे यहाँ आने के पूर्व जो आपलोग श्रीसंतसेवी जी से सत्संग-वचन सुन चुके हैं, उनसे सन्तमत का ही प्रचार हुआ है। सन्तमत के अनुकूल ही बातें होंगी। सब लोग उनकी उत्तम बातों पर चलिए। सब बातें उत्तम कही गई होंगी, ऐसा मेरा विश्वास है। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ
प्रस्तुति : शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

गुरुवार, 10 जून 2021

सावित्री के सतीत्व की महिमा |Savitri ke satitva ki mahima | सावित्री की कथा | Savitri ki katha | Sant-Sadguru-Maharshi-Mehi | Santmat-Santmat

🌸सावित्री के सतीत्व की महिमा🌸
महाभारत में एक कथा है सत्यवान और सावित्री की। सत्यवान अपने माता - पिता के साथ जंगल में रहते थे उनकी धर्मपत्नी सावित्री थी सावित्री को नारद मुनि के द्वारा यह पता लग चुका था कि अमुक तिथि को सत्यवान की मृत्यु होगी। जब वह तिथि आई, तो उस दिन सावित्री ने सत्यवान से कहा कि आज आपके साथ मैं भी जंगल देखने जाऊँगी। सत्यवान ने कहा कि माताजी और पिताजी से आज्ञा ले लो, तब तुम मेरे साथ चल सकती हो। सावित्री जब अपने सास - ससुर से अनुमति माँगने गई, तो सास - ससुर ने भी जंगल देखने की अनुमति दे दी। सावित्री अपने पति सत्यवान के साथ जंगल गई।
जब सत्यवान लकड़ी काटने के लिए वृक्ष पर चढ़े, तो उनके सिर में दर्द होने लगा। सत्यवान ने वहीं से कहा - ' मेरे सिर में बहुत जोर का दर्द हो रहा है। ' सावित्री ने कहा - 'आप अविलम्ब नीचे आ जाइए। 'सत्यवान वृक्ष पर से उतरते ही मूर्च्छित हो गए। सावित्री उनके माथे को अपनी जंघा पर रखकर बैठी रही। जब यमदूत आया, तो सावित्री के तेज के सामने निकट नहीं पहुँच सका। यमदूत के लौटने पर यमराज स्वयं आए और सत्यवान के लिंग शरीर को लेकर चलने लगे। सावित्री उनके पीछे - पीछे चलने लगी। पूछा - ' तुम क्यों आ रही हो ? कुछ वरदान माँगना हो तो माँग लो। 'सावित्री ने कहा -' मेरे सास - ससुर अंधे हैं, उन दोनों को आँखें हो जाएँ। ' यमराज ने कहा एवमस्तु ! यह कह यमराज जब आगे बढ़े, तो सावित्री फिर पीछे पीछे चलने लगी। यमराज ने पुनः पूछा कि और कोई वरदान माँगना हो, तो माँग लो। 'सावित्री ने कहा -' मेरे सास- ससुर का राज्य खो गया है, वह वापस हो जाए।
यमराज ने पुनःवरदान दिया। जब यमराज आगे बढ़ने लगे, तो सावित्री फिर पीछे - पीछे चलने लगी। यमराज ने पूछा - 'तुम्हें दो वरदान दे चुका, तब फिर मेरे पीछे क्यों आ रही हो ?' सावित्री ने कहा कि एक वरदान और दिया जाय, वह यह कि मुझे सौ पुत्र हों। यमराज सावित्री को यह वरदान भी प्रदान किया। जब यमराज आगे बढ़े, तो सावित्री उनके पीछे - पीछे फिर भी चलने लगी। यमराज ने जब देखा तो कहा कि तुम्हें तीन वरदान दे चुका। अब मेरे पीछे क्यों आ रही हो? सावित्री ने कहा जबकि आपने सौ पुत्र होने का वरदान दिया है, तब आप मेरे पति को ले जा रहे हैं ? मुझे सौ पुत्र कैसे होंगे ? सावित्री का प्रश्न सुनकर यमराज निरुत्तर हो गए और सत्यवान के लिंग शरीर को वापस कर दिया। यह है पातिव्रत्य धर्म की महिमा।
इन आँखों से लिंग शरीर को कोई नहीं देख सकता। लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर - दोनों एक ही बात है। शरीर से केवल चेतन आत्मा ही नहीं निकलती है, स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर के साथ चेतन आत्मा निकलती है। दूसरी बात यह कि स्थूल शरीर मरता है, सूक्ष्म शरीर नहीं मरता। सूक्ष्म शरीर के भीतर कारण शरीर और उसके भीतर महाकारण शरीर है। तब उसके अंदर चेतन आत्मा है। स्त्रियों को पातिव्रत्य धर्म का पालन करना चाहिए और पति को चाहिए कि वे बहुत अच्छे बनें। अपने बहुत बुरे हों और वे चाहे कि पत्नी पतिव्रता मिलें, ईश्वर की सृष्टि में ऐसा होना तो असंभव नहीं है, लेकिन साधारणतया यह असम्भव है। भगवान श्रीराम की तरह एकपत्नीव्रत धारण करो और स्त्रियाँ पातिव्रत्य धर्म का पालन करें, तो संतान अच्छी होगी। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ 
     🙏🏻🌹श्री सद्गुरु महाराज की जय🌹🙏🏻

मनुष्य के शरीर से ही मुक्ति मिलती है | महर्षि मेँहीँ | Manushya ke sharir se hi mukti milti hai | Maharshi Mehi | Santmat-Satsang | कैसा भी सुंदर और पवित्र शरीर क्यों ना हो...

|| मनुष्य के शरीर से ही मुक्ति मिलती है ||
कैसा भी सुंदर और पवित्र शरीर क्यों ना हो, जिसको हम प्रणाम करते हैं; किंतु यह शरीर परमात्मा या ब्रह्म नहीं है; चाहे वह शरीर इष्ट या गुरु आदि का ही क्यों न हो। कोई भी इंद्रिय-गोचर पदार्थ ब्रह्म नहीं हो सकता है। कोई भी शरीर पवित्र-अपवित्र, सुंदर- असुंदर, जिस शरीर से अद्भुत् कार्य ही क्यों न होता हो, चमकीला हो, दिव्य हो, फिर भी वह परमात्मा नहीं; वह परमात्मा की माया है। पानी का फोंका (बुदबुदा) कुछ काल ठहरता है, फिर फूट जाता है। उसी तरह शरीर थोड़ी देर रहेगा, फिर नाश हो जाएगा। इसलिए भजन करो और डरो कि कब शरीर छूट जाएगा। हम लोग आत्मरत होकर आत्म- चिंतन करके परमात्मा की प्राप्ति करें और उसके सुख को भोगें, यह मनुष्य शरीर का काम है। विषयों का ग्रहण का इंद्रियों से होता है। इनसे जो सुख होता है, वह मनुष्य शरीर पाने का फल नहीं। विषयों से परे जो सुख है, उसे प्राप्त करना, मनुष्य-शरीर का काम है। शरीर को शरीरी इस तरह पहने हैं, जैसे कपड़ा और शरीर। कपड़े शीघ्र बदलते हैं, शरीर बहुत काल तक रहता है। जीवनकाल में बहुत बार कपड़ा पहना जाता है, उसी तरह शरीर पर शरीर बहुत बार हुए। *जिस तरह एक कोई भंडार हो, उससे जो लेना चाहो, ले लो। उसी तरह यह शरीर साधनों का भंडार है, इससे जो कीजिए, सो होगा। मनुष्य का शरीर ही है जिससे मुक्ति मिलती है और ईश्वर मिलते हैं, अन्य किसी शरीर में नहीं। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ 

बुधवार, 9 जून 2021

बहुत-से शास्त्रों की कथाओं को मथने से क्या फल? -महर्षि मेँहीँ | संतमत-सत्संग | SANT SADGURU MAHARSHI MEHI | SANTMAT-SATSANG


🌼।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।🌼
शार्स्त्रों को मथने से क्या फल?
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
 महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥

संत कबीर साहब का वचन है –
अस संगति जरि जाय, न चर्चा राम की। 
दुलह बिना बारात, कहो किस काम की।।
जिस संगति में रामनाम की चर्चा न हो, वह संगति बेकार है, जैसे बिना दुल्हे की बारात। हमलोगों का सत्संग ईश्वर-भक्ति का वर्णन करता है। इस सत्संग में जो कुछ कहा जाता है, वह परमात्मा राम को प्राप्त करने के यत्न के संबंध में ही। किस यत्न से हम उन्हें पावें, यह हम जानें। स्वरूप से वे कैसे हैं? उनके स्वरूप का निर्णय करके ही हम यत्न जान सकेंगे कि इस यत्न से ईश्वर को प्राप्त करेंगे। इसलिए पहले स्वरूप-ज्ञान अवश्य होना चाहिए।
 
श्रीराम हनुमानजी से कहते हैं -
बहुशास्त्र कथा कन्थारो मन्थेन वृथैव किम्।
अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम्।। -मुक्तिकोपनिषद्  2
बहुत-से शास्त्रों की कथाओं को मथने से क्या फल? हे हनुमान! अत्यंत यत्नवान होकर केवल अंतर की ज्योति की खोज करो। जैसे अंधकार-घर में बिना प्रकाश के किसी चीज को ढूँढ़ने के लिए कोई जाता है तो उसे वह चीज मिले या नहीं मिले, कोई निश्चित नहीं। किंतु प्रकाश लेकर जाने से वह चीज मिले, संभव है। आँख बंद करने से सब कोई अंधकार देखते हैं। यह मत सोचो कि तुम्हारे अंदर प्रकाश नहीं है। तुम्हारे अंदर प्रकाश नहीं रहने से तुम देख नहीं सकते। साधु, संत और ज्ञानी, ध्यानी, योगी कहते हैं - हमारे अंदर प्रकाश है। इसके लिए किसी जाँच से जाँचते हैं तो जानने में आता है कि यदि हमारे अंदर प्रकाश नहीं होता, तो हम देख नहीं सकते। दो सजातीय वस्तु आपस में सहायक होते हैं, किंतु विजातीय वस्तु को सहायता मिले संभव नहीं। यह दर्शन ज्ञान है। आपकी दृष्टि को प्रकाश से सहायता मिलती है। तब जानना चाहिए कि यह दृष्टि भी प्रकाशस्वरूप है। साधनशील को समझाने की जरूरत नहीं। किंतु जो नहीं जानते हैं, तर्कबुद्धि से जानना चाहते हैं, तो उन्हें जानना चाहिए कि प्रकाश से जब दृष्टि को सहायता मिलती है तो यह दृष्टि भी प्रकाशस्वरूप है। इन दोनों दृष्टियों से जो प्रकाश निकलता है, इसके मूल में ज्योति नहीं हो, तो दोनों दृष्टि में प्रकाश नहीं आ सकता। इसलिए जानना चाहिए कि इसके केंद्र में प्रकाश का पुंज है, वह प्रकाश का पुंज बाहर में नहीं है, अपने अंदर में है। इसलिए हनुमानजी को श्रीराम अंतर की ज्योति की खोज करने कहते हैं। जैसे अंधकार-घर की वस्तु को लोग नहीं पाते, प्रकाश होने से पाते हैं, उसी प्रकार अपने अंदर में ईश्वर है। उसे ढूँढ़ने के लिए प्रकाश की जरूरत है। अंधकार हो तो ठाकुरबाड़ी में ठाकुरजी के रहने पर भी दर्शन नहीं हो सकता। प्रकाश हो जाने से ठाकुरजी का दर्शन होगा। उसी प्रकार आपका शरीर भी ठाकुरबाड़ी है। इसमें प्रकाश कीजिए, तभी ठाकुरजी का दर्शन होगा। अभी सुना, दृश्य और अदृश्य को छोड़कर पुरुष कैवल्यस्वरूप हो जाता है। वह ब्रह्मज्ञानी नहीं, स्वयं ब्रह्मवत् हो जाता है।
केवल विचार से दृश्यमण्डल को पार नहीं कर सकता। इसीलिए दृश्यमण्डल से पार होकर जहाँ तक सीमा है, वहाँ तक आप जाइएगा। पहले ज्योति होकर गुजरना होगा, तब अदृश्य में जाइएगा। यह पहला पाठ है कि ज्योति की खोज करो। जो ज्योति की खोज नहीं करता, वह अदृश्य में नहीं जा सकता। अपने अंदर की ज्योति कोई कैसे खोज करे - अंतर में प्रवेशकर या बाहर फैलकर? अंतर्मुखी होने से ही उस प्रकाश को देख सकेंगे। आप जागते हैं, स्वप्न में जाते हैं, गहरी नींद में जाते हैं। बाहर के सब ख्यालों को छोड़कर आप स्वप्न में जाते हैं। इसलिए जानना चाहिए, अंदर में जाने के लिए। कामों की चिन्ता को छोड़कर प्रवेश कीजिए। सब चिन्ताओं को, काम को साथ में लेकर कोई अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता। इसलिए जितने समय भजन करते हो, उतनी देर के लिए भी केवल काम-धंधा, घर की चिन्ताओं को छोड़ो, तभी अपने अंदर में प्रवेश कर सकोगे। बाहरी काम और ख्यालों को छोड़ने के लिए कोई काम चाहिए। जैसे शरीर को साबुन से धोने पर भी मैल उगता रहता है, उसी प्रकार मन में कुछ न कुछ उगता रहता है, यह स्वाभाविक है। विद्यार्थी अपने पाठ को ठीक-ठीक पढ़ेगा, तभी उसको पाठ याद होगा। मन को कुछ करने नहीं दो, ऐसा होगा ही नहीं। जबतक मन की स्थिति है, तबतक मन का काम छूट नहीं सकता। इसलिए संतों ने जप बतलाया। जप भी ऐसा हो कि एकाग्र मन से जप को जपो। चाहे माला, चाहे हाथ पर जपे तो भी अंतर में प्रवेश नहीं कर सकते। जप - वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप; तीन प्रकार के होते हैं। वाचिक जप बोलकर किया जाता है, उपांशु जप में होठ हिलते हैं, पर दूसरे उसे नहीं सुनते हैं और मानस जप मन-ही-मन होता है। इसमें होंठ-जीभ आदि नहीं हिलते। अन्तर में प्रवेश करने के लिए पहले मानस जप कीजिए। वैसा नाम जिसका अर्थ ईश्वर संबंधी है, उस नाम को जपिए, मानस जप के बाद मानस ध्यान कीजिए। अंतर्मुख होकर अंतर में जाना और अंतर में ठहरना मुश्किल है। बड़े अक्षरों को लिखकर ही छोटा अक्षर लिखा जाता है। अंतर की ज्योति ठीक-ठीक ग्रहण करने के लिए पहले जप करें, फिर ध्यान। जप अन्धकार में करता है, ठहरना भी अन्धकार में है। मानस-जप और मानस-ध्यान के बाद विन्दु-ध्यान कीजिए। इसके लिए ऐसा साधन चाहिए कि एकविन्दुता प्राप्त किया जाए।
 एकविन्दुता प्राप्ति के कारण पूर्ण सिमटाव का गुण ऊर्ध्वगति है। तो क्या होता है? मानस-जप, मानस-ध्यान और दृष्टियोग करने से अंधकार से प्रकाश में पहुँच जाएगा। इस प्रकार साधक स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। जिस द्वार से स्थूल से सूक्ष्म, अंधकार से प्रकाश में जाना होता है, वह बता दिया। अब केवल करने मात्र की देरी है। अगर शब्द छूट जाय तो सब छूट जाता है। शब्द अदृश्य है। दृश्य के अवलंब से दृश्य को पार किया जाता है। जैसे पानी के अवलंब से पानी को पार करता है, ज्योति से ज्योति को पार करता है; उसी प्रकार शब्द को पकड़कर शब्द को पार करता है। और उसके परे जो परमात्मा है, उसको प्राप्त कर लेता है। श्रीराम ने कहा –
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्चयत्। 
अनाम गोत्रं मम रूपमीदृशं भजस्व नित्यं पवनात्मजार्त्तिहन्।। 
     - मुक्तिकोपनिषद्, अध्याय 2
हे हनुमान! अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अविनाशी, अस्वाद, अगंध, अनाम और गोत्रहीन, दुःखहरण करनेवाले मेरे इस तरह के रूप का तुम नित्य ध्यान करो। अभी आपलोगों ने संत कबीर साहब का वचन सुना -
नाद विन्दु ते अगम अगोचर, पाँच तत्त्व ते न्यार। तीन गुनन ते भिन्न है, पुरुष अलख अपार।।
विन्दुनाद में रहकर ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते, नाद को पार करने पर ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। अपार - जिसकी सीमा नहीं है। वह कभी उत्पन्न हो, पीछे बने, संभव नहीं। वह सदा से है। ईश्वरवादी तो मानेंगे ही, किंतु जो अनीश्वरवादी हैं, उनको भी एक अपार तत्त्व को मानना ही पड़ेगा। चाहे उसको ईश्वर नहीं कहकर दूसरा ही नाम कहे। सबको ससीम मानने पर प्रश्न रहेगा ही कि उसके बाद क्या है? जबतक ऐसा नहीं कहो कि असीम है, तबतक प्रश्न हल नहीं होगा। ईश्वर को अपने से पहचानना पड़ेगा। इन्द्रियाँ उसको पहचान नहीं सकतीं।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। 
सो सब माया जानहु भाई।।
रामस्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।

उपनिषदवाक्य है –
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। 
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
उस परे से परे (ब्रह्म) को देख लेने पर हृदय की ग्रन्थि (गाँठ-गिरह) टूट जाती है, सभी संशय छिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।
लाल लाल जो सब कोई कहे, सबकी गाँठी लाल।
गाँठी खोलि के परखे नाहीं, तासो भयो कंगाल।। 
        -कबीर साहब
कितने आदमी कहते हैं कि, वहाँ आँख नहीं है, देखेंगे कैसे? उन्हें जानना चाहिए कि आपकी सत्ता पर सब इन्द्रियाँ आश्रित हैं। इन्द्रियाँ आपके नौकर-चाकर हैं, इनको शक्ति कहाँ? आपके रहने से ही इन्द्रियाँ देखती-सुनती हैं। आप अकेले होकर रहिए, तब देखिए कि आपमें कितनी शक्ति है। अकेले रहकर ही उसकी पहचान कर सकते हैं।
कैसे पहचान करो? इसके लिए कहा -
सर्गुण की सेवा करौ, निर्गुण का करु ज्ञान। 
निर्गुण सर्गुण के परे, तहैं हमारा ध्यान।। - कबीर साहब
निर्गुण-सगुण के परे क्या है? जो कुछ देखते सुनते हैं, ये पंच विषय सगुण हैं। जड़ के सब रूप सगुण हैं। जड़ के परे चेतन, निर्गुण-सगुण के परे परमात्मा है। कोई कहते हैं - निर्गुण तो हो ही नहीं सकता। तो जिद्द करने पर कहते हैं हाँ, ठीक है। दिव्य-गुण-सहित त्रयगुण-रहित, यह भी तो एक गुण है। इसलिए यह भी सगुण ही है। इसके लिए बड़ी पवित्रता की आवश्यकता है। अंतर हृदय को पवित्र रखो, पंच पापों से बचो, एक ईश्वर पर पूरा भरोसा रखो।
मोर दास कहाइ नर आसा। 
करइ तो कहहूँ कहा विश्वासा।।
लोग यह भी कहते हैं कि सगुण ईश्वर तो प्रत्यक्ष मदद करते हैं, अर्जुन का रथ भी हाँका था। निर्गुण से तो कुछ नहीं हो सकता है। तो देखो - कबीर साहब को पानी में डुबाया गया, पहाड़ से गिराया गया, बर्तन में बंद करके चूल्हे पर चढ़ाकर औंटा गया, तो बर्तन खाली हो गया। कबीर साहब दूसरे ओर से टहलते हुए आ गए। हाथी के पैर के नीचे दबाया गया तो हाथी को वह सिंह-जैसा देखने में आया। साधु से श्राप दिलाने के लिए साधु को निमंत्रण दे दिया।
वह ईश्वर सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। परमात्मा को साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण या सगुण-निर्गुण के परे, किसी प्रकार भी मानो, किंतु पूर्ण भरोसा रखो, सुख-दुःख में, हानि-लाभ में; सबमें भरोसा रखो। सत्संग करो, ध्यान करो और गुरुजनों की सेवा करो। -संत मेँहीँ
🙏🌹श्री सद्गुरु महाराज की जय🌹🙏

शनिवार, 5 जून 2021

मध्य वृत्ति | जहाँ मन रहता है, वहीं जीव रहता है | सदाचार, सद्युक्ति, सद्ज्ञान और अभ्यास जिनमें है, वही सद्गुरु है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

मध्य वृत्ति 
प्यारे लोगो! 
जहाँ मन रहता है, वहीं जीव रहता है। दाईं वृत्ति में चंचलता रहती है, बाईं वृत्ति में मूढ़ता रहती है। दोनों के बीच में रहने से मन सतोगुण में रहता है। अपने मन को बीच अर्थात् सुषुम्ना में रखना चाहिए। आज्ञाचक्र का ध्यान सबसे श्रेष्ठ ध्यान है।  काम भी करो,  परन्तु मन को मध्य  में रखो। मूढ़ता और चंचलता को छोड़कर रहो। चंचलता हैरान करती है और मूढ़ता बेवकूफ बनाकर छोड़ती है। इन तीनों से बचने के लिए मध्यवृत्ति में रहो। सुषुम्ना ही मध्यवृत्ति है। 

सर्वानिन्द्रियकृतान्दोषान्वारयतीति   तेन  वरणा   भवति । 
सर्वानिन्द्रियकृतान्पापान्नाशयतीति तेन नाशी भवतीति ।।

सब पापों और इन्द्रियों के दोषों को जो दूर करता है, वह है वरणा और नासी है। दोनों भौंओं और नासिका का जो मिलन स्थान है, वहीं पर ब्रह्मज्ञानी लोग अपने मन को रखते हैं। परमात्मा की उपासना वरणा और नासी के बीच में करो। स्थूल सृष्टि और सूक्ष्म सृष्टि दोनों का मिलन स्थान भी वहीं है। 

यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पद्मे फलानि वे । 
तानि    सर्वानि  सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्ति हि ।। -शिव-संहिता 

पाँच चक्रों के जो जो गुण कहे गए हैं, वह आज्ञाचक्र के ध्यान से प्राप्त हो जाता है। दोनों हाथों से  किसी चीज को मजबूती से पकड़ने पर सारा शरीर का बल उस ओर फिर जाता है। उसी प्रकार दृष्टियोग से दृष्टि की धारों को एक जगह पर जोड़ने से इन्द्रियों की सब धारें सिमटकर वहाँ एकत्र हो जाती हैं। इस ज्ञान को बिना सच्चे गुरु के लोग भूले हुए रहते हैं। खोजते फिरते हैं, रास्ता नहीं मिलता है। यह रास्ता मोक्ष में जाने का या ईश्वर को प्राप्त करने का है। कुछ लोग अपने मन से रास्ता ध्र लेते हैं और वही दूसरे को भी बतलाते हैं। इसी तरह परं परांदे अनेक लोग गुरु के पंजे में पड़े हुए हैं। संत कबीर साहब का वचन है- 
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना,  खोजत फिरत राह नहीं जाना । 
सतगुरु वह है, जो सद्युक्ति जाने और सदाचार का पालन करते हुए अभ्यास में रत रहे। सदाचार, सद्युक्ति, सद्ज्ञान और अभ्यास जिनमें है, वही सद्गुरु है। ऐसे गुरु नहीं मिलने पर सही ज्ञान नहीं मिलता है और भटकता रहता है। मन गरेडि़या है, जीव सिंह का बच्चा है। इन्द्रियाँ भेड़-बकरियाँ हैं। इस ज्ञान को जाननेवाला साधु-संत हैं। जो जीवों की दशा को जानते हैं, उसे साधु-संत कहते हैं। तुम मन इन्द्रियों के वश में मत रहो, तुम इनके संचालक हो। भांओं से नीचे अर्ध है और भौंओं से ऊपर ऊर्ध्व है। इनके बीच अर्थात् सुषुम्ना में ध्यान लगाओ। बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाओ; यही संतों की युक्ति है। पंडितों का वेद और  संतों का भेद है।  

शुक्रवार, 28 मई 2021

तीन प्रकार के शब्द | महर्षि मेँहीँ | Teen prakar ke shabd | Three types of words | Maharshi Mehi | Pravachan | Santmat | Satsang

संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का प्रवचन:- 
तीन प्रकार के शब्द :
यन्मनसा न   मनुते   येनाहुर्मनो मतम् । 
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।  -केनोपनिषद् खंड-1 
इन्द्रियगम्य पदार्थ और देशकाल से घिरे हुए पदार्थ को ब्रह्म नहीं कहते हैं। जो रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द नहीं है, वह ब्रह्म है। जो देश-कालातीत है, उसको प्राप्त करने पर जीवन्मुक्त हो जाता है। संत कबीर साहब कहते हैं- 
जीवन मुक्त सो मुक्ता हो । 
जब लग जीवन मुक्ता नाहीं।
तब लग दुःख सुख भुगता हो।।
इन्द्रियगम्य पदार्थों में पड़ा रहना बड़ी हानि है। शरीर के रहते ही जीवन्मुक्त होता है।  आकाश एक ही है, लेकिन घर और बाहर के आकाश को अलग- अलग समझने पर वह भिन्न मालूम पड़ता है। सर्वव्यापी का मतलब है कि पिण्ड को भरकर भी बाहर हो। संसार भर के पोथियों को पढ़ जाओ, फिर भी परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकते हो। वह आत्मा से ही पहचाना जाता है। रूप क्या है, जो नेत्र से ग्रहण होता है। चेतन आत्मा पर जड़ शरीर का आवरण पड़ा हुआ है, इसलिए आत्मा का ज्ञान नहीं होता है। कैवल्य दशा में रहकर जानो तब वह जानने में आता है। 1904 ई0 से इस सत्संग से मैं जुड़ा हुआ हूँ। मैंने यही जाना है कि बिना सुरत-शब्द-योग से परमात्मा की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती है। नाद की खोज अन्दर में करनी चाहिए। जिस गूँज में शान्ति है, वह अन्तर्नाद है। मुझको ईश्वर के बारे में बाबा देवी साहब का वचन पसन्द है। उन्होंने कहा-जैसे लाह से लपेटी हुई लकड़ी को अग्नि के ऊपर रखो तो वह लाह अग्नि के द्वारा झड़ जाती है। उसी प्रकार साधन की अग्नि के द्वारा अंदर के आवरणों को दूर किया जाता है। चेतन आत्मा के पवित्र सुख को निर्मल सुख कहते हैं। ऊपर उठने के लिए प्रकाश और शब्द अवलम्ब है। रूप तक प्रकाश पहुँचाता है और अरूप तक शब्द पहुँचाता है।  ज्योति ध्यान,  विन्दु ध्यान पहला साधन  है।  यह देखने  की युक्ति से  होता  है।   

काजर दिये से का भया, ताकन को  ढब   नाहिं ।।  ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति है न्यारी ।      एकटक  लेवै  ताकि ,  सोई   है  पिव  की प्यारी ।।  ताकै     नैन    मिरोरि,  नहीं   चित   अंतै   टारै ।    बिन ताकै  केहि काम, लाख कोउ   नैन  संवारै ।।
ताके     में    है  फेर,  फेर     काजर    में   नाहीं। 
भंगि मिली जो नाहिं, नफा  क्या जोग   के माहीं।। 
पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं । 
काजर दिये से का भया, ताकन को  ढब  नाहिं ।। 
आँखें बन्द करके देखो, एकटक देखो और चित्त को स्थिर करके देखो। मन की एकाग्रता होने पर वृत्ति का सिमटाव होता है। सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है और ऊर्ध्वगति  से परदों का छेदन होता है। इस प्रकार वह  एक  तल से दूसरे तल पर पहुँचता है। शब्द विहीन संसार कभी नहीं होगा। स्थूल, सूक्ष्म आदि मण्डलों में भी शब्द है। श्रवणात्मक, ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक;  तीन प्रकार के शब्द होते हैं। जो केवल सुरत से सुनते हैं  वह श्रुतात्मक है। अनाम से नाम उत्पन्न हुआ। अशब्द से शब्द हुआ। 

आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह । 
परसत  ही  कंचन  भया, छूटा बंधन मोह ।।    
               -संत कबीर साहब 

नाम, अनाम में पहुँचा देता है। संत सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं- 
श्रवण बिना  धुनि  सुनै  नयन  बिनु   रूप  निहारै । 
रसना     बिनु     उच्चरै    प्रशंसा   बहु   विस्तारै ।। 
नृत्य   चरण   बिनु   करै  हस्त  बिनु  ताल बजावै । 
अंग बिना  मिलि   संग   बहुत   आनन्द   बढावै ।। 
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को सेवक भाव  लिये  रहै । 
मिलि परमातम सों आतमा परा भक्ति  सुन्दर कहै।। 
गगन की समाप्ति में मीठी और सुरीली आवाज होती है। वही सार शब्द है गोरखनाथजी महाराज कहते हैं- 
गगन शिखर मँहि बालक बोलहिं वाका नाम धरहुगे कैसा।। 
तथा-    
छः सौ सहस एकीसो जाप। 
अनहद उपजै आपै आप ।। 
शब्द ही परमात्मा तक ले जाएगा। इसीलिए ध्यान करो।     
पूजा  कोटि  समं  स्तोत्रम, स्तोत्र  कोटि   समं  जपः।      
जाप  कोटि  समं  ध्यानं,  ध्यानं  कोटि   समो  लयः ।।  
(यह प्रवचन दिनांक 3-10-1949 ई0 को मुरादाबाद (यू0 पी0) सत्संग मंदिर में अपराह्नकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था।)
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

गुरुवार, 27 मई 2021

हम किधर को जाएँगे, मालूम नहीं ! -महर्षि मेँहीँ | MAHARSHI MEHI | SANTMAT

यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है। किसी को यह यकीन नहीं है कि मैं सदा नहीं रहूँगा। 
माया मुलुक को कौन चलावे संग न जात शरीर।

हम किधर को जाएँगे, मालूम नहीं है। संत कबीर जी को बड़ी चिन्ता हो रही है कि संसार से जाना जरूर है। बहुत अन्देशे की बात है। लोग अपना मार्ग नहीं जानते कि कहाँ जाएँगे। यह संसार अज्ञानता का शहर है। इसमें दो जुल्मी फाटक है-एक पुरुष का देह है दूसरा स्त्री का देह है। स्त्री देह में आवे तो भी विकार, पुरुष देह में आवे तो भी विकार। यहाँ से जाने का विचार होता है तो कुबुद्धि उसको जाने नहीं देती। संसय में मत रहो, संसार से हटने (अनासक्त होने) की साधन करो। यहाँ गाफिल मत सोओ। यहाँ मेरा तुम्हारा कोई नहीं। सदा ईश्वर में प्रेम रखो। काम क्रोध लोभ और अहंकार बड़े कठिन कठोर हैं। यह सब शरीर के स्वभाव हैं। उनके वश जो रहते हैं, वे दुःख पाते हैं। जो साधु भजन करता है, उसकी वृत्ति प्रकाश में चली जाती है। उससे निहोरा करो। उस पुरुष का स्वभाव बाहर में बड़ा उत्तम होता है। वह बराबर भजन करता रहता है, जिससे उसका विकार दूर हो जाता है। उनको दया होगी और वे आपको सच्ची राह में लगा देगें। जो पुरुष सच्चा अभ्यासी हो, संयम-नियम से रहता हो उससे निवेदन करो। वह तुमको सही रास्ता पर चढ़ा देगा। उलटो अर्थात बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाओ। नौ द्वारों से दसवें द्वार की ओर चलो, यह मकरतार है। आप जिस चेतन धारा से आए हैं वही आपका रास्ता है। वह चेतन धार ज्योति और शब्द रूप में है। अपने पसरे हुए मन को समेटो। सिमटाव होगा तो ऊर्ध्वगति होगी और ऊर्ध्वगति होने से अपने स्थान पर चले जाओगे। शब्द ही संसार का सार है। शब्द ही वह स्फोट है जिससे संसार बना है। सब बनावट कम्पनमय है। कम्प शब्दमय है। सृष्टि गतिशील, कम्पनमय है। जो उस शब्द को पकड़ता है वह सृष्टि के किनारे पर पहुँचता है। जिसके ऊपर सृष्टि नहीं है, वह परमात्मा है। मानसजप, मानसध्यान से दृष्टियोग करने की योग्यता होती है। दृष्टियोग से  शब्द मार्ग में चलने की योग्यता होती है। 
सद्गुरु वैद्य वचन विश्वासा।
संयम यह न विषय की आशा।

सद्गुरु वचन पर विश्वास करो, संयम से रहो सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है। 
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज।

बुधवार, 26 मई 2021

हमारे गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ) और भगवान बुद्ध- महर्षि संतसेवी परमहंस | SANT MEHI & BHAGWAN BUDHA


हमारे गुरुदेव और भगवान बुद्ध
- महर्षि संतसेवी परमहंस
यह बात लोक और वेद में प्रसिद्ध है कि शशि और सूर्य की भांति सन्तों का अवतरण जगन्मंगल के लिए हुआ करता है। सन्तों की गति अनन्त होती है। उनकी महिमा विभूति के गायन के लिए वाणी भी मूक हो जाती है। सन् सद्गुरु अपने कृपा-कटाक्ष से अनन्त अक्ष का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी के दर्शन करानेवाले होते हैं -

सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार लोचन अनन्त उपारिया, अनन्त दिखावनहार ।। (सन्त कबीर साहब )

वस्तुतः, सर्वेश्वर को पाकर वे इतने विशेष हो जाते हैं कि शेष निःशेष हो जाता है। उनकी दृष्टि इतनी पैनी हो जाती है कि उसे व्यष्टि और समष्टि वेष्टित नहीं कर पाती, वरन् इन उभय का अतिक्रमण कर निर्भय हो सम हो जाती है। यही हेतु है कि सन्तों ने कहीं 'गुरु शंकररूपिणा' कहीं 'कृपासिन्धु नररूप हरि' तो कहीं 'गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः महेश्वरः' के रूप में गुरु के दर्शन किए हैं। इतना ही नहीं, किसी स्थल पर राम-सम, तो कहीं गोविन्द से विशेष और कहीं 'परम पुरुषहू तें अधिक' की दृष्टि से वे गुरु को निहारते हैं। 

किन्तु मुझ जैसा 'मुकुर मलिन अरु नयन विहीना' तथा 'अज्ञ अकोविद अंध अभागी। काई विषय मुकुर मन लागी॥' जन अपने परम गुरुदेव के दिव्य रूप को देखे तो किस दृष्टि से और कुछ बोले तो किस मुँह से?

का मुख ले विनती करों, लाज आवत है मोहि। 
तुव देखत औगुन करौं, कैसे भावों तोहि ॥ 
( सन्त कबीर साहब)

वैशाख शुक्ला चतुर्दशी के दिन हमारे गुरुदेवजी महाराज का आविर्भाव इस जगती तल पर हुआ। चैत और वैशाख वसन्त ऋतु कहलाते हैं। इस ऋतु में सन्त और भगवन्त उभय के अवतार हुए हैं अर्थात् भगवन्त और सन्तरूप में भगवंत-उभय के अवतरण हुए हैं, जैसे चैत शुक्ल नवमी को भगवान राम और वैशाखी पूर्णिमा को भगवान बुद्ध और देखिए, वैशाख शुक्ला पंचमी को आचार्य शंकर और वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को संतमत के आचार्य महर्षि में ही परमहंसजी महाराज हुए। ऋतुराज को योगिराज और ऋषिराज को लाने का श्रेय स्वाभाविक है।

अपने परमाराध्य को मैं राम कहूँ, कृष्ण कहूँ, बुद्ध कहूँ, शंकर कहूँ; समझ में नहीं आता। सन्त कहूँ या भगवंत कहूँ, अपनी अल्प बुद्धि में निर्णय नहीं कर पाता।

रामावतार त्रेतायुग में हुआ। नाम राम था, किन्तु वर्ण श्याम था। कृष्णावतार द्वापर में हुआ। उस समय नाम श्याम और रूप भी श्याम हुआ। गोया त्रेतायुग का अधूरापन द्वापर में पूरा हुआ; किन्तु जब उसमें भी कमी दृष्टिगोचर हुई तो कलियुग के अवतार में उसकी पूर्ति की गई। वह क्या? नाम और रूप तो मिला, किन्तु ग्राम का अभाव था। इसलिए त्रेता युगवाला नाम (राम) रहा और जन्मभूमि का ग्राम श्याम हुआ। यदि और भी स्पष्ट करना चाहें तो ऐसा कह सकते हैं कि भगवान राम ही दूसरे अवतार में श्याम हुए थे। ऐसा क्यों न कहा जाए कि डुन युगल युगों के योग से कलियुग में राम + अनुग्रह = रामानुग्रह नाम पड़ा अर्थात् अनुग्रहपूर्वक राम ग्राम श्याम में अवतरित हुए। 

इस अवसर पर सन्त और भगवन्त के अवतरण पर स्वल्प होगा प्रकाश डालना असंगत न होगा।

साधारण लोग मायावश होकर जन्म लेते हैं, परन्तु महायोगेश्वर माया को स्ववश में रखते हुए संसार के कार्यों का सम्पादन करने के लिए जन्म धारण करते हैं।

संतजन सर्वश्रेष्ठ होते हैं। वे माया को कौन कहे, मायापति को वश में किए होते हैं। 

अपने बस करि राखेउ रामू । 
(रामचरितमानस) 

संत पलटू साहब की वाणी में हम कह सकेंगे ―

सबसे बड़े हैं सन्त दूसरा नाम है।
तीजै दस अवतार तिन्हें परनाम है ।। 
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार हैं। 
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर सन्त मुकुट सरदार हैं।।

संतजन लोक-कल्याणार्थ निज इच्छा से जन्म धारण करते हैं। भगवंत के जन्म का कारण होता है ―

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय व दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ४/७-८) 

अर्थात् हे भारत! जब-जब धर्म मंद पड़ता है, अधर्म की प्रबलता होती है, तब-तब में जन्म धारण करता हूँ। साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश तथा धर्म के प्रतिष्ठापन हेतु युग-युग में जन्म लेता हूँ।

संतजन के लिए दुष्ट और शिष्ट सभी समान होते हैं। अतः वे दष्टों का नहीं, वरन् दुष्टों की दुर्वृत्ति-दुर्बुद्धि का नाश करते हैं। वे अज्ञान का नाश एवं सदज्ञान का प्रकाश करते हैं। वे अपकारक के भी उपकारक होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में ―

सन्त उदय सन्तत सुखकारी।
विस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी॥
भूरज तरु सम सन्त कृपाला।
परहित नित सह विपति विसाला। 
तुलसी सन्त मुअम्ब तरु, फूलै फले पर हेत।
इत तें वे पाहन हनें, उत तें वे फल देत॥

संतजन विश्व-उपकार की भावना स्वेच्छापूर्वक शरीर धारण करके संसार में विचरण करते हैं, इसीलिए अपने आराध्यदेव के संबंध में हम कह सकेंगे कि उनका इस संसार में सहर्ष आना हुआ, इसलिए सहर्ष+आ = सहर्षा उनकी जन्मभूमि का जनपद (जिला) हुआ।

भगवंत संसार रूपी कारागार में कारापाल की भाँति रहते हैं। संत जलकमलवत् जगत में रहते हैं।

भगवंत का अवतरण कारण-मंडल से स्थूल मंडल में किसी कारणवश होता है। कार्य सम्पन्न करके पुनः कारण मंडल में प्रतिष्ठित होते हैं।

संत का अवतरण सत् गुरुधाम परमात्मपद से होता है और लौकिक लीला संपन्न करके परम धाम-अजर लोक में निवास करते हैं। संत कबीर साहब के शब्दों में ―

जमीं आसमान वहाँ नहीं, वह अजर कहावे। 
कहै कबीर कोई साध जन, या लोक मझावै ।।

हमारे सद्गुरु महाराज का जन्म श्याम ग्राम के मँझुआ टोले में हुआ। ऐसा लगता है, जैसे 'मँझावै' का ही यह अपभ्रंश हो । मँझुआ+ आवै = मँझुवावै। यदि हम गुरुदेव को बुद्ध की दृष्टि से देखना चाहें तो उससे भी एक विलक्षण बोध प्राप्त होगा।

भगवान बुद्ध का पूर्व नाम सिद्धार्थ था और पश्चात् का नाम बुद्ध। हमारे सद्गुरु देव का पूर्व नाम 'रामानुग्रह' था और पश्चात् का नाम मेँहीँ ।

भगवान बुद्ध का पितृगृह नेपाल की तराई कपिलवस्तु नगर में था (जो बिहार प्रांत में ही कभी अवस्थित था) हमारे सद्गुरुदेव का पितृगृह नेपाल की तराई पुरैनियाँ ( पूर्णियाँ) जिले में है, जो बिहार राज्यान्तर्गत है।

भगवान बुद्ध का जन्म वैशाख पूर्णिमा को हुआ था। हमारे सद्गुरु का जन्म वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को हुआ अर्थात् एक दिन पूर्व। इस दृष्टि से यदि कहा जाए कि भगवान बुद्ध से हमारे गुरु महाराज एक दिन के बड़े हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

भगवान बुद्ध की माता जब अपने पितृगृह-मायके जा रही थीं, तब मार्ग में ही शालवन में बुद्ध का जन्म हुआ था। हमारे सद्गुरुदेव की माता जब अपने पितृगृह-मायके पहुँच चुकी थीं, तब वहाँ आपका जन्म हुआ।

भगवान बुद्ध जन्म धारण करते ही तत्क्षण सात डेग (कदम) चले थे, जो अलौकिक बात है। हमारे सद्गुरुदेव को जन्मजात सात जटाएँ थीं, जो प्रतिदिन सुलझा देने पर भी पुनः सात-की सात बन जाती थीं, यह विलक्षण जन्मजात योगी के प्रतीक नहीं तो क्या? भगवान बुद्ध की अल्पावस्था में ही उनकी
माता की मृत्यु हुई थी। हमारे सद्गुरुदेव की भी
अल्पावस्था में यानी चार वर्ष की उम्र होने पर
इनकी माता की मृत्यु हुई।

भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोधन ने पुनर्विवाह किया था। हमारे सद्गुरुदेव के पिता बबुजनलाल दासजी ने भी पुनर्विवाह किया था। 

भगवान बुद्ध की सौतेली माँ का अद्भुत् स्नेह उनके प्रति था। उसने लाड़-प्यार से उनका पालन-पोषण किया था और बड़े होने पर भी (बुद्ध होने पर) गुरुवत् उसी प्रतिष्ठा की दृष्टि से उनको देखा। हमारे सद्गुरुदेव की सौतेली माँ का अलौकिक प्यार इनको प्राप्त था और जब आप बड़े हुए तो वे आपको पुत्र की दृष्टि से नहीं, वरन् एक सन्त की दृष्टि से देखती थीं। i इसका सबल प्रमाण है कि जब वे इस जगत से महाप्रयाण कर रही थीं, उस समय उन्होंने आपका आवाहन कर आपके शुभ दर्शन किए थे।

भगवान बुद्ध ने विवाह करके कुछ काल के लिए गृहस्थ धर्म स्वीकार किया था, तत्पश्चात् वे संन्यासी बने। हमारे सद्गुरुदेव ने बाल-ब्रह्मचारी रहकर संन्यास व्रत धारण किया।

भगवान बुद्ध को वृद्ध, रुग्न और मृतक दर्शनरूप प्रचंड पवन के तीन झकझोरे लगने पर प्रबल वैराग्य हुआ। हमारे सद्गुरुदेव को अध्ययन-काल में ही वैराग्य हुआ। आपको परीक्षा-काल में (Builders) शीर्षक का मात्र एक झटका लगा और वैराग्याग्नि प्रदीप्त हो उठी। ऐसा लगता है कि जैसे सूखी दियासलाई पर मात्र एक काठी घिसने की आवश्यकता थी।

भगवान बुद्ध छह वर्षों तक जंगल में कठोर तप करने पर इस निर्णय पर पहुँचे कि इससे अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती। हमारे सद्गुरुदेव ने छह महीने तक जमीन के नीचे रहकर यह निष्कर्ष निकाला कि इस कठिन तपश्चर्या से सर्वेश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता।

भगवान बुद्ध को बिहार राज्यान्तर्गत गया जिले की गया भूमि में वटवृक्ष के नीचे परम सिद्धि की प्राप्ति हुई थी। हमारे सद्गुरु को बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर जिले के गंगा- पुलिनस्थित कुप्पाघाट की गुफा में परम सिद्धि मिली।

स्मरणीय है कि इन दोनों सन्तों की जन्मभूमि गंगा के उत्तरी पार थी और उभय को अभय सिद्धि की प्राप्ति गंगा के दक्षिणी पार में हुई। 

भगवान बुद्ध ने ध्यान करने और पंचशील पालन करने का उपदेश दिया। हमारे सद्गुरुदेव ने ध्यानाभ्यास करने और झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार; इन पंच पापों से विरत रहने का प्रबल आदेश दिया।

भगवान बुद्ध ने बुद्ध, धर्म और संघ की त्रिशरण बताई ―

बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि ।

हमारे गुरुदेव ने त्रिशरण के समास-रूप गुरु, ध्यान और सत्संग का निर्देशन करते हुए एक सर्वेश्वर पर अचल विश्वास एवं पूर्ण भरोसा रखने की शिक्षा दी। 

भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल नामक डाकू तथा अम्बपाली नामक वेश्या का उद्धार किया जबकि हमारे गुरुदेव ने कितने ही दुष्टों तथा अज्ञातनामा (कटिहार नगर की) वेश्या का उद्धार किया। 

भगवान बुद्ध ने पैदल घूम-घूमकर सम्पूर्ण देश में अपने धर्म का प्रचार किया। हमारे सद्गुरुदेव ने भी पदयात्रा करके बीहड़ मार्गों को तय किया और सन्तमत का प्रचार-प्रसार किया; मात्र अपने देश में ही नहीं, अपितु नेपाल राज्य में भी अनपढ़, असभ्य और गिरे हुओं को, जिनको पूछनेवाला कोई नहीं, 
आपने सद्ज्ञान दिया।

अब स्वल्प रूप में जो विषमताएँ हैं, उनका समास रूप में दिग्दर्शन कराना चाहूँगा ।

कहते हैं, भगवान बुद्ध ने वेद और ब्रह्म को अस्वीकार किया, परन्तु हमारे सद्गुरुदेवजी ने उन दोनों को स्वीकार किया और मानवीय मर्यादा दी। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं और भिक्षुणियों की संख्या बढ़ाने में प्रोत्साहन दिया, किन्तु हमारे सद्गुरुजी ने देशकालानुकूल गृहस्थाश्रम में रहने तथा स्वावलम्बी जीवन यापन का आदेश दिया। भगवान बुद्ध ने मौखिक उपदेश दिया, किन्तु परम पूज्य गुरुदेवजी ने मौखिक उपदेश के साथ साहित्य-सृजन भी किया। वेदवादी और पंथवादी के बीच का पाटन-कार्य आपने सफलतापूर्वक किया। साथ ही, साम्प्रदायिक भाव के कारण सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि की जो आपस में कटुता थी, आपने अपने अर्जित ज्ञान और सामंजस्यपूर्ण विचार द्वारा उसकी झंझट का उन्मूलन करके उसमें मधुरिमा ला दी।

अन्य संतों की भाँति आपने एक ईश्वर पर विश्वास दिलाया और उनकी भक्ति दृढ़ की। साथ ही, उनकी प्राप्ति का एकमात्र मार्ग अन्तर्मार्ग बताया, जो ज्योतिर्मय और ध्वनिमय है। जैसे जल में तैरनेवाले के लिए जल ही मार्ग होता है और जल ही अवलम्ब, वैसे ही अंतर्मार्गी साधक के लिए ज्योति और नाद ही मार्ग हैं तथा ये ही दोनों अवलम्ब भी। आपने प्रकाश और शब्द को परमात्मा का वाम और दक्षिण हस्त बतलाया और कहा कि यह शब्द जहाँ विलीन होगा, वहाँ ही उपनिषद् का यह वाक्य 'निःशब्दं परमं पदम्' सार्थक होगा अर्थात् वही परमात्म-धाम है। वहीं गोस्वामी तुलसीदासजी का 'एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद परधामा ।' है। इन कतिपय शब्दों के साथ मैं श्री सद्गुरुजी महाराज के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।

सोमवार, 24 मई 2021

संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस की 137वीं जयन्ती पर विशेष | मानव कल्याण के लिए अवतरित महर्षि मेँहीँ | संक्षिप्त जीवनी | Maharshi-Mehi-Jeevni


संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस की 137वीं जयन्ती पर विशेष
मानव कल्याण के लिए अवतरित महर्षि मेँहीँ


विश्व के प्राय: हर देश के इतिहास में ऐसे महापुरूषों का उल्लेख मिलता है जिनका प्रादुर्भाव विश्व - उपकार - हित हुआ। सृष्टि में जब से मानव का आविर्भाव हुआ, तबसे उनके कल्याण का मार्ग-दर्शन करानेवाले कोई-न-कोई ऐसे महापुरूष होते ही रहे हैं।सभी प्राणी सदा शान्ति की कामना रखते है। शान्ति की खोज प्राचीन काल में सर्वप्रथम ऋषियों ने की। इस शान्ति को प्राप्त करने वाले आधुनिक युग में सन्त कहलाये। 
*    शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं। 
**   शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं।
*** सन्तों के मत वा धर्म को सन्तमत कहते हैं।
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जबसे सृष्टि में संत हुए हैं, तबसे संतमत है। संतमत किसी एक संत के नाम पर प्रचारित मत नहीं है। विश्व में जो भी संत हो गये हैं, उन सभी संतों के मत को संतमत कहते हैं। संतमत कोई नया मत, नया धर्म, नया मजहब, नया रिलिजन नहीं है। यह परम पुरातन, परम सनातन वैदिक मत है। यह वैदिक मत होते हुए भी किसी अवैदिक मत से ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, रोष आदि नहीं करता है। संतमत सभी संतों का समान रूप से सम्मान करता है।भारत की संस्कृति ऋषियों और सनतों की संस्कृति रही है। यहाँ समय-समय पर व्यास, वाल्मीकि, शुकदेव, नारद, याज्ञवल्क्य, जनक, वशिष्ठ, दधीचि, बुद्ध, महावीर, शंकर रामानन्द, नानक, कबीर, सूर, तुलसी, विवेकानंद, रामतीर्थ आदि-जैसे सन्त-मनीषी अवतरित होते ही रहे हैं। इन्हीं ऋषियों और सन्तों की दीर्घकालीन अविच्छिन्न परम्परा की एक अद्भुत और गौरवमीय कड़ी के रूप में अवतरित हुए थे परम पूज्य सन्त सद्गुरू महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज।

सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की संक्षिप्त जीवनी:-
बिहार राज्यान्तर्गत पूर्णियाँ जिला के बनमनखी थाने में सिकलीगढ़ धरहरा नाम की पुरानी बस्ती है, जहाँ श्रीनसीबलाल दासजी के पुत्र कायस्थ कुल भूषण बाबू बबूजन लाल दासजी रहते थे। इनका ससुराल खोखशी श्याम मझुआ ग्राम था, जो उदाकिशुनगंज अनुमंडल में  पड़ता है। यह मधेपुरा जिला के अंतर्गत है। यह मधेपुरा पहले सहरसा जिला का एक अनुमंडल था। इसी खोखशी श्याम मझुआ गाँव को संतावतार सद्गुरू महर्षि मेँहीँ की पावनी जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त हुआ। यह खोखशी श्याम मझुआ ग्राम महर्षि मेँहीँ का ननिहाल है। इसके नानाजी श्रीयुत् बाबू विद्या निवास दासजी थे। आज उसी पावनी जन्मभूमि पर सद्गुरू महर्षि मेँहीँ के समर्पित विरक्त शिष्य पूज्यपाद संत शिशु सूर्य जी महाराज द्वारा निर्मित विशाल सत्संग आश्रम विराजमान है। यह आश्रम संतमत अनुयायियों के लिए परम पावन तीर्थस्वरूप है।इसी खोखशी श्याम मझुआ ग्राम के पावन धाम पर 28 अप्रैल, 1885 ई0 को परम पावन शुभ मुहूर्त में एक अनोखे बालक ने जन्म-ग्रहण किया। चतुर्दिक खुशी का वातावरण छा गया। परम सौभाग्यवती महिमामती मातेश्वरी जनकवती जी अपने भाग्य पर फूली न समायी। जन्म के साथ ही बालक के सिर पर सात जटायें विद्यमान थीं। जिसने भी जटाओं को देखा, उसी ने बालक के महिमावान योगी पुरुष होने की भविष्यवाणी की।ज्योतिषी पंडितजी को बालक के जन्म की तारीख, समय, मुहूर्त बताया गया। जन्म-कुण्डली तैयार करनेवाले पुरोहित ने भी बड़ी उत्सुकता और हर्ष के साथ घोषणा की कि यह बालक असाधारण पैदा हुआ है। यह अपने कुल खानदान का नाम तो रौशन करेगा ही; समाज और मुल्क में भी लोग इनका यशोगान करेंगे। बहुत सोच-विचार के बाद पंडितजी ने बालक का नामकरण किया रामानुग्रह लाल। सबने इस नाम की भी सराहना की। बाद में इनके वात्सल्य भाव रसिक चचेरे दादा-श्रीभारतलाल दासजी ने इनकी बुद्धि की महीनता को देख-परखकर बालक का छोटा-सा पुकारु नामकरण कर दिया मेँहीँ लाल। यही मेँहीँ लाल दास नाम इनके सद्गुरु महाराज ने भी इनकी सूक्ष्म बुद्धि को देखकर स्वीकार कर लिया। बाद में, सद्गुरु बाबा देवी साहब द्वारा इनका लिखा-पढ़ी का नाम स्वामी मेँहीँ दास और पुकारु नाम-‘लाला’ रखा गया था। यही मेँहीँ दास बाद में सद्गुरु के आशिष से साधना की पराकाष्ठा पर पहुँचकर सद्गुरू महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के नाम से देश-विदेश में प्रसिद्ध हुए, जिनकी यशोगाथा आज भी गायी जा रही है। 
स्थिति को देखते हुए भविष्य में भी यह क्रम जारी रहेगा।बालक रामानुग्रह लाल अभी निरा बालपन में ही थे कि इनके सिर से ममतामयी माता की शीतल छाया सदा के लिए उठ गयी। ये अनाथ-से हो गये। परन्तु बहिन झूलन दाय अपनी सेवा में अपने प्यारे भाई को खिलाना-पिलाना, साफ-सफाई करना, नहलाना-धुलाना आदि करती रहती थी। यह भाई भी उस बहिन से प्यार के मारे ऐसा घुल-मिल गया था कि माता की तरह ही उन्हें खाने-पीने आदि के लिए तंग किया करते थे। भाई-बहिन का यह अलौकिक प्रेम विरले को नसीब होता है।महर्षि मेँहीँ की पावनी जन्मभूमि सचमुच में खोखशी और श्याम ग्राम के बीच स्थित मझुआ ग्राम है। यहाँ पर महर्षिजी के नाना श्री विद्यानिवास दास रहते थे। इनका वंशवृक्ष अभी चल रहा  है।रामानुग्रहलाल दासजी जब मात्रा 4 साल के ही थे, तो उनकी माताजी स्वर्ग सिधार गयीं। पाँच वर्ष की अवस्था में कुल पुरोहित के आज्ञानुसार रामानुग्रह लाल का मुंडन संस्कार सम्पन्न हुआ। मुण्डन संस्कार के बाद आपका अक्षरारम्भ गाँव के ही पाठशाला में हुआ। अक्षरारम्भ कैथी लिपि में हुआ। अपने जन्मजात संस्कार की तेजस्विता के कारण आपने अल्पकाल में ही कैथी लिपि के साथ ही देवनागरी लिपि भी सीख ली।11 वर्ष की अवस्था में रामानुग्रह लालजी को पूर्णियाँ जिला स्कूल में पढ़ने के लिए भर्ती कर दिया गया। लौकिक स्कूली शिक्षा के साथ ही आप आध्यात्मिक ग्रंथों और पूजा-पाठ में भी अभिरुचि रखने लगे थे। ये खेल-कूद में भी अपने साथियों में सबके प्यारे बन गये थे। शिक्षक इन्हें अल्पवय में आध्यात्मिक अभिरुचि से मना करते थे, पर इनपर उनका असर नहीं होता था। 4 जुलाई, 1904 ई0 को आप परीक्षा दे रहे थे। आप प्रवेशिका की परीक्षा दे रहे थे और विषय था-अंग्रेजी। परीक्षा के प्रश्न-पत्र का पहला प्रश्न था -"Quote from memory the poem 'Builders' and explain it in your own English." अर्थात् निर्माणकर्ता शीर्षक पद को अपने स्मरण से लिखकर उसकी व्याख्या अपनी अंग्रेजी भाषा में करें। आपने ‘बिल्डर्स’ कविता की प्रथम चार पंक्तियों को इस प्रकार लिखा-For the structure that we  raise,Time is with material's field.Our todays and yesterdays,Are the blocks with which we build."इन पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है- "हमलोंगों का जीवन-मंदिर अपने प्रतिदिन के सुकर्म वा कुकर्म रूप ईंटों से बनता है। जो जैसा कर्म करता है, उसका जीवन वैसा ही बन जाता है। इसलिए हमलोगों को भगवद्भजनरूपी सर्वश्रेष्ठ ईंटों से अपने जीवन- मंदिर की दीवार का निर्माण करते जाना चाहिए। समय की सदुपयोगिता सत्कर्म में है और ईश्वर-भक्ति या भजन से बढ़कर श्रेष्ठ दूसरा कोई भी सत्कर्म नहीं है।"इन उपर्युक्त हार्दिक उद्धारों की अभिव्यक्ति के बाद अंत में आपने तुलसीदास की पंक्ति को लिखा :-"देह धरें कर यहि फल भाई।भजिये राम सब काम बिहाई।।"
यह पंक्ति लिखते-लिखते आप अपने भाव विह्नलता को रोक नहीं सके। आपने परीक्षा निरीक्षक (Invigilator) से कहा-"May I go out sir?" महाशय! क्या में बाहर जा सकता हूँ? निरीक्षक महोदय आपके मनोभाव को परख न सके और बाहर जाने की अनुमति दे दी। उन्होंने कहा- "Yes, you may go out"फिर क्या था? जैसे जलाशय का बाँध् टूटने से जलधरा निर्बाध् गति से आगे बढ़ती है, उसी प्रकार आप भी साधु -संतों की खोज में अनन्त पथ के पथिक बन गये। आप भागते हुए स्वामी रामानन्दजी महाराज (रामानन्दी साधु) की कुटिया पर जोतरामराय पहुँच गये। पिताजी को जब पता लगा, तो वे व्याकुल हो गये और इन्हें घर लाने का प्रयास किया, पर ये नहीं लौटे। इसके पहले भी ये कई बार भागने का प्रयास कर चुके थे, पर बड़ी बहन की याद आते ही लौट आते थे। इस बार नहीं लौटे और रामानन्द स्वामी के आश्रम पर रह गये। ये उनसे पहले ही दीक्षित हो चुके थे।रामानन्द स्वामी से आपको मानस जाप, मानस ध्यान और खुले नेत्रों से त्राटक के अभ्यास की विधि  प्राप्त हुई थी। इस तरीके से आपने वर्षों अभ्यास किया, पर आपकी आत्मिक प्यास नहीं मिटी। तब ये अन्य महात्मा की तलाश मन ही-मन करने लगे, सोचने लगे। एक कहावत है-जहाँ चाह, वहाँ राह।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी लिखा है :-जौं तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होई सहाई।।   इसी कथन के अनुसार मेँहीँ बाबा की मुलाकात बाबा देवी साहब के एक भगवत् प्रेमी शिष्य रामदासजी से हो गयी-डाकघर में।बातचीत के क्रम में रामदास बाबा, मेँहीँ बाबा से बोले-बाबा मेँहीँ दासजी! आप जिस गुरु की सेवा में जीवन का अनमोल समय खर्च कर रहे हैं, वे आपको आत्मज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। इसपर मेँहीँ बाबा गुरु की निंदा सुनकर बिगड़ गये। रामदास बाबा तब भी बोले कि बिगड़ने से मेरा कुछ नहीं होगा? कान खोलकर सुन लें-जबतक आप हमारे सद्गुरु बाबा देवी साहब की शरण में नहीं आयेंगे, तबतक मुक्ति लाभ तो दूर है ही, उसकी राह का भी पता नहीं लगेगा। दोनों अपनी-अपनी जगह चल पड़े। बाबा रामदासजी, अपने गुरु भाई बाबा सिधार से मिलकर बोले कि देखना, मेँहीँ दास से जरा सावधन रहना, वह अपने वर्तमान गुरु का परम भक्त है। इसके बाद वे अपने गुरुदेव बाबा देवी साहब की सेवा में मुरादाबाद होकर पंजाब चले गये।इधर मेँहीँ लालजी अपने गुरु की सेवा में लग गये। परन्तु अपने इस वर्तमान गुरु स्वामी रामानन्दजी के पास उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा का समाधन नहीं हो पाता था। इन्हें न तो साधना में प्रगति दिखाई पड़ती और न ही शंका समाधन हो पाता था। इसलिए वे किसी अच्छे और सच्चे गुरु की तलाश मन-ही-मन कर रहे थे। इसी क्रम में उनको बाबा धीरजजलालजी का पता चला कि वे एक अच्छे अभ्यासी हैं और ज्ञान- ध्यान की बातों को अच्छी तरह समझाते हैं। मेँहीँ बाबा उनके पास समय निकालकर पहुँचे। उनसे स्वाभाविक शिष्टाचार के उपरान्त बातचीत की। इन्होंने धीरजलालजी से पूछा कि क्या आप सत्संग करते हैं? धीरज बाबा बोले कि मैं संतमत का सत्संग करता हूँ।मेँहीँ बाबा ने पूछा कि संतमत-सत्संग क्या है? धीरज बाबा बोले कि सारे आत्मज्ञानी महापुरुषों की आत्मा और परमात्मा संबंधी अनुभव ज्ञान को ही संतमत-सत्संग कहते हैं, जिसमें सबका एक मत हो। तब मेँहीँ बाबा ने पूछा कि क्या आप दरिया साहब को भी मानते हैं? धीरज बाबा बोले कि हाँ, अवश्य मानते हैं, क्योंकि वे भी तो संत थे और उनका विचार भी अनुभवपूरित है तथा अन्य संतों से मिलता है। तब मेँहीँ बाबा ने फिर पूछा कि क्या आप उनकी वाणी को समझा सकते हैं? धीरज बाबा बोले कि जहाँ तक होगा, कोशिश करूँगा, अन्यथा अपने बड़े गुरु भाइयों तथा गुरुदेव से भी पूछकर बता सकता हूँ।मेँहीँ बाबा ने पूछा कि मैं कब आपके पास आउॅं ? धीरज बाबा बोले कि जब भी आपको समय मिले, आ सकते हैं। मैं आपको यथासाध्य समय दूँगा। मेँहीँ बाबा बोले कि मुझे तो दस बजे रात में ही समय मिल सकेगा-आने के लिये। धीरज बाबा बोले कि आइये, मैं उस समय भी मिलूँगा-आपसे। मेँहीँ बाबा चले गये।प्रबल आध्यात्मिक प्यास के कारण मेँहीँ बाबा गुरु की सेवा से निवृत्त होकर रात के 10 बजे दूसरे दिन आ पहुँचे, बाबा धीरजलाल  की सेवा में। 10 बजे रात्रि से 3 बजे भोर तक सत्संग किया और फिर छुट्टी लेकर अपने गुरु रामानन्द स्वामी की सेवा में हाजिर हो गये। गुरुजी की सेवा में त्राुटि नहीं आयी।दूसरे दिन भी यही दिनचर्या रही। इसी तरह 3-4 महीने तक अनवरत रूप से भोजन और आराम की चिन्ता त्यागकर आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त किये। को बड़ छोट कहत अपराधू।  गनि गुन दोष समुझिहहिं साधु ।। वाली कहावत इनपर चरितार्थ हो रही थी। दोनों आध्यात्मिक जगत् के उद्भट वीरपुरुष थे। एक तो सर्वस्व समर्पण करके गुरु का गुलाम बन चुके थे और दूसरे प्रबल उम्मीदवार थे। मेँहीँ बाबा को धीरज बाबा के सत्संग से बहुत संतुष्टि हुई। तब मेँहीँ बाबा कहने लगे, अब आप कृपा कर इस संतमत-सत्संग का व्यावहारिक ज्ञान बताने का कष्ट करें। इसके लिए मुझे क्या करना पड़ेगा, क्या शर्त अदा करनी पड़ेगी, कृपा कर वह भी बतायें।    तब बाबा धीरजलाल बोले कि आपने हमारे गुरु भाई बाबा रामदासजी से एक दिन डाकघर में झगड़ा (बहस) कर लिया था। वे हमसे कह गये हैं। मेँहीँ बाबा बोले कि उन्होंने मेरे वर्तमान गुरुदेव का अपमान किया, तो मैंने उनसे बहस किया था। क्योंकि गुरुदेव की निंदा सुननी पाप है-यह संतवाणी में मैंने पढ़ा है। अब अगर रामदास बाबा हमसे रुष्ट हैं, तो मैं उनसे क्षमा माँग लूँगा, आप उनका पता बताने का कष्ट करें। धीरज बाबा ने पंजाब का पता बताया। मेँहीँ बाबा ने उनके नाम से पत्र लिखा। वे बाबा देवी साहब की सेवा में थे। बाबा देवी साहब और रामदास के नाम से मेँहीँ बाबा ने पत्र लिखा और क्षमा माँगी। बाबा देवी साहब का आशिषयुक्त पत्र रामदास बाबा ने धीरज लाल के नाम से लिखा और लौटाया। पत्र धीरजलाल को मिला, फिर भी वे भजन-भेद बताने से इन्कार कर गये। मेँहीँ बाबा को भागलपुर- मायागंज में राजेन्द्र बाबू (वकील साहब) के पास भेज दिया। मेँहीँ बाबा वहाँ पहुँचे और बहुत-से शंकाओं का समाधान हुआ उनके पास। पिफर राजेन्द्र बाबू ने मेँहीँ बाबा को दृष्टि-साधन की क्रिया बताकर कहा कि मैं आपका गुरु नहीं हूँ। आपके गुरु बाबा देवी साहब ही होंगे, जो हमारे और बहुतों के हैं। फिर  दुर्गापूजा में उनकी भेंट करने को कहा।    
मेँहीँ बाबा, स्वामी रामानंदजी के पास लौट आये और सेवा में लग गये। दुर्गापूजा के अवसर पर पुनः भागलपुर, बाबा देवी साहब की सेवा में पहुँचे। राजेन्द्र बाबू ने इनकी भेंट बाबा साहब से करा दी। बाबा देवी साहब ने मेँहीँ बाबा को आशिष देकर कहा कि लाला! पहले तुम दरियापंथी थे, अब समुद्रपंथी हो गये। अब तुम भटकने से बच गये। मेँहीँ बाबा, दरियापंथी महात्मा रामानंदजी के शिष्य थे, इसीलिए बाबा देवी साहब ने इन्हें दरियापंथी कहा था।    बाबा देवी साहब से मिलकर मेँहीँ बाबा उनपर ही समर्पित हो गये और अपनी सेवा में रख लेने का आग्रह किया। बाबा साहब रीझ गये और आदेश दे दिया। बाबा साहब की सेवा में रहकर मेँहीँ बाबा ने कसकर ध्यान किया और उनके आदेश-उपदेश में अपने को ढाला। बाबा देवी साहब ने इन्हें कुम्भकार के घट की तरह गढ़ा और पक्का बना दिया। 1919 ई0 के 19 जनवरी को बाबा साहब का शरीर पूरा होने पर मेँहीँ बाबा बिहार के विभिन्न जगहों में रहकर ध्यान करते रहे। इसी क्रम में वे सिकलीगढ़ धरहरा, मनिहारी और भागलपुर के परवत्ती नामक महल्ले में भी रहकर ध्यान-सत्संग करते रहे। अंत में उन्होंने भागलपुर के मायागंज महल्ले के पास गंगा के पावन तट पर कुप्पा (गुफा) में रहकर गंभीर साधना की। कठिन शब्द डगर पर चलकर वे शांति को प्राप्त कर गये।    अब वे महर्षि मेँहीँ परमहंस जी के नाम से जाना जाने लगे। धीरे-धीरे संतमत का प्रचार बिहार के बाहर नेपाल, बंगाल, उत्तरप्रदेश,  हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, असम, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल आदि प्रान्तों में भी हुआ। भारत के बाहर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, रूस, अमेरिका, स्वीडेन, नार्वे, जापान, इंगलैंड आदि देशों में भी संतमत फैल गया। आज यह राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय संतमत की गरिमा से विभूषित हो गया है। लेकिन सबसे ज्यादा प्रचार क्षेत्र बिहार और झारखंड ही है। इन राज्यों में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक और वार्षिक सत्संग चलता ही रहता है। ध्यान-साधना  का भी आयोजन लोग करते ही रहते हैं।    महर्षि मेँहीँ द्वारा रचित साहित्य भी आज अध्यात्म-जगत् में विशेष समादृत है। वे हैं :- सत्संग-योग, रामचरितमानस (सार सटीक), विनय-पत्रिका-सार सटीक, सत्संग-सुधा-1,2, 3,4 भाग, संतवाणी सटीक, भावार्थ सहित घटरामायण पदावली, ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति, महर्षि मेँहीँ-पदावली आदि।    इस तरह मेँहीँ बाबा अपने चमत्कारपूर्ण जीवन जीते हुए तथा सत्संग-ध्यान का प्रचार करते हुए 8 जून, 1986 ई0 को भागलपुर के केन्द्रीय स्थल महर्षि मेँहीँ आश्रम में ब्रह्मलीन हो गये। इनके इस सत्संग अभियान को इनके वरिष्ठ शिष्यों ने आगे बढ़ाया और आज भी अनवरत रूप से चलता जा रहा है। इनके वरिष्ठ प्रचारक शिष्यों में पूज्यपाद बाबा श्रीधर दासजी महाराज, पूज्यपाद संतसेवीजी महाराज, पूज्यपाद शाही स्वामीजी महाराज, पूज्यपाद लच्छन दासजी महाराज, पूज्यपाद भुजंगी दासजी महाराज, पूज्यपाद संत किंकरजी महाराज, पूज्यपाद स्वामी विष्णुकान्तजी महाराज, पूज्यपाद स्वामी गंगेश्वरानंद जी महाराज, पूज्यपाद दलबहादुर जी महाराज, पूज्यपाद स्वामी हरिनन्दन दासजी महाराज, पूज्यपाद अच्युतानंदन जी महाराज, स्वामी भगीरथ दासजी महाराज, स्वामी प्रमोद बाबा, स्वामी छोटेलाल बाबा, पूज्य केदार बाबा आदि प्रमुख शिष्य हैं।    आज नक्षत्रों में सूरज और चाँद की तरह महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के नाम अध्यात्म गगन में शोभायमान हैं, तो संतमत-सत्संग भी विश्व-सत्संग समुदाय में प्रथम श्रेणी में परिगणित हैं। यह संतमत आज जातिवर्ग और सम्प्रदाय के संकीर्ण घेरे से बाहर निकलकर पूरे मानव समुदाय को गले लगाने के लिए तैयार होकर आगे बढ़ रहा है। किसी संत की वाणी में है :-जे पहुँचे ते कहि गयेए तिनकी एकै बात।सबै सयाने एक मत तिनकी एकै जात।। 

संस्कृत और अध्यात्म के विज्ञ विद्वान पंडित रामविलास शर्मा के शब्दों में कहेंगे-महर्षि मित्र हि महर्षि मेँहीँए महामहिम्नां महनीय कीत्र्तिः। नादानुसंधन विधन योगीए भारत देशस्य शिवावतारः।।कोई भी 'संत' स्थान, धर्म और काल विशेष से परे होते हैं, बावजूद बिहार, झारखंड आदि राज्यों व नेपाल, जापान आदि देशों में लोकप्रिय संत महर्षि मेँहीँ और उनके आध्यात्मिक-प्रवचन से भारत के राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा, प्रधानमन्त्री श्री वाजपेयी सहित कई राज्यो के राज्यपाल, मुख्यमंत्री, नेपाल के महाराजा सहित अनेक व्यक्ति प्रभावित हुए हैं। मदर टेरेसा और संत बिनोवा भावे उनसे खासे प्रभावित थे। 'सत्संग-योग' पुस्तक उनकी अनुकरणीय कृति है। 
जिसतरह से भगवान बुद्ध के लिए बौद्धगया महत्वपूर्ण रहा है, उसी भाँति महर्षि मेँहीँ के लिए कुप्पाघाट, भागलपुर महत्वपूर्ण स्थल है। प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु इस स्थल के दर्शन करने आते हैं। ऐसे संतशिरोमणि के बारे में देश-विदेश के कई विद्वानों ने चर्चा किये हैं; यथा:-
1. श्री मेँहीँ जी संतमत के वरिष्ठ साधक हैं। -महात्मा गांधी
2. महर्षि मेँहीँ शान्ति की स्वयं परिभाषा है। -डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 
3. पूज्य मेँहीँ दास जी एक आदर्श संत हैं। -डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् 
4. महर्षि मेँहीँ परमहंस जी विलक्षण संत होते हुए भी एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। -आचार्य शिवपूजन सहाय।
5. श्री मेँहीँ जी के ध्यान-योग-विशेषता सचमुच में महान है। -संत विनोबा भावे 
6. बुद्ध, आचार्य शंकर, ईसा, मुहम्मद, नानक, रामानंद, कबीर, चैतन्य, महावीर जैन, महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर, सूर, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस, समर्थ रामदास प्रभृति परामसंतों की परम्परा के श्रेष्ठ लोकसेवी तो हमारे पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंस जी हैं। -गुलजारी लाल नंदा 
7. मैं पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ जी के साथ मात्र दो-तीन दिन ही रहा। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है की मैं साक्षात् बुद्ध भगवान का ही दर्शन कर रहा हूँ। -बौद्ध भिक्षु जगदीश काश्यप 
8.पूज्य गुरु महाराज महर्षि मेँहीँ सम्पूर्ण विश्व-संस्कृति के ध्रुवतारा हैं। -डी0 हॉर्वर्ड (अमेरिका) 
9. महर्षि मेँहीँ जी के साहित्य की आध्यात्मिक विशेषता यह है कि व स्वयं संत होकर संत साहित्य के सम्बन्ध में अपना आचार-विचार प्रकट किये हैं। -राहुल सांकृत्यायन
10. महर्षि मेँहीँ श्रद्धेय एवम् आराध्येय हैं। -मदर टेरेसा 
11. स्वप्न में मुझे जिस महात्मा की छवि आई, आखिर उसे मैंने पा ही ली और पूज्य महर्षि मेँहीँ को अपना सद्गुरु मान बैठी। -युकिको फ्यूजिता (जापान) 
12. मैं महर्षि मेँहीँ को हृदय से गुरु मान चुका हूँ। -नागेन्द्र प्रसाद रिजाल (नेपाल के पूर्व प्रधानमन्त्री )
13. मैंने महर्षि जी के साहित्य को बड़ी चाव से पढ़ी है, सचमुच में महर्षि मेँहीँ परमसंत हैं। -इंदिरा गांधी
14. महर्षि मेँहीँ हमारे राष्ट्र के ध्रुवतारा थे। -डॉ. शंकर दयाल शर्मा
15. महर्षि मेँहीँ बिहार के गौरव थे। --बच्छेन्द्री पाल
16. जिस मेँहीँ का मुझे खोज था, वो मुझे मिल गया। --बाबा देवी साहेब
17. परम संत महर्षि मेँहीँ परमहँस जी महाराज को सादर नमन। -अटल बिहारी वाजपेयी
18. महर्षि मेँहीँ बहुत पहुंचे हुए महात्मा हैं। --भागवत झा आज़ाद
19. श्रद्धेय मेँहीँ बाबा अध्यात्म की बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं। --वी. पी. सिंह
20.. संतमत-सत्संग और महर्षि मेँहीँ से मुझे बहुत प्रेम है। --जे.आर.डी. टाटा
21. मेरे सात प्रश्नों को पूछे बिना ही महर्षि जी ने सटीक उत्तर दिए, महर्षि मेँहीँ बहुत बड़े महात्मा हैं। -रामधारी सिंह 'दिनकर'
22. जिस तरह चंद्र और सूर्य विश्वकल्याण के लिए उदित होते हैं, उसी प्रकार संतों का उदय जगन्मंगल के लिए हुआ करता है। हमारे पूज्य गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज कितने ऊँचे थे ? उनकी तपस्या कितनी ऊँची थी ? वे कितने महान थे ? उनका बखान हम साधारणजन नहीं कर सकते हैं। --महर्षि संतसेवी
23. हमारे सदगुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की छवि सबसे अलग और महान है। -शाही स्वामी महाराज
24. संत और भगवंत के संयुक्त रूप महर्षि मेँहीँ हैं। --शत्रुघ्न सिन्हा
25. सन्तमत के महान प्रवर्तक गुरु महाराज महर्षि मेँहीँ का भारत भूमि पर अवतीर्ण होना हमलोगों का सौभाग्य है। --डॉ. रामजी सिंह 
26. आज भारत के बिहार भूमि पर भगवन् के रूप में परमपूज्य महर्षि मेँहीँ जी महाराज ज्ञान प्रदान कर रहे हैं, यह भारत का गौरव है। --डॉ. माहेश्वरी सिंह 'महेश'
27. महर्षि मेँहीँ को शत्-शत् नमन्। --गोविन्द आहूजा 'गोविन्दा'
28. महर्षि मेँहीँ लोक-परलोक उपकारार्थ जन्म लिये। -न्यायमूर्ति मेदिनी प्रसाद सिंह
29. सन्तमत हमारा धर्म है और महर्षि मेँहीँ हमारे पूज्य गुरु महाराज हैं। --दारोगा प्रसाद राय
30. अपना देश ऋषि-मुनियों का देश है, इस ऋषि-मुनियों की उत्कृष्ट परंपरा में महर्षि मेँहीँ एक प्रमुख संत थे। --लालू प्रसाद 
31. पूर्णियाँ की गोद में खेले महान साहित्यकारों, स्वतंत्रता-सेनानियों के साथ संतों में से प्रख्यात संत महर्षि मेँहीँ भी खेल चुके हैं। --फणीश्वर नाथ 'रेणु' 
32. हमारे पूज्य गुरु महाराज महर्षि मेँहीँ एक महान व्यक्ति थे। -दल बहादुर बाबा (नेपाल)
33. मेरा जब-जब महर्षि मेँहीँ जी से साक्षात्कार हुआ है, मैं उनके पुनीत एवम् लोकोत्तर व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। --डॉ. धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री
34. शांतिदूत महर्षि मेँहीँ बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। --डॉ. यशपाल जैन
35. मैं स्वामी दयानंद और महावीर स्वामी से अत्यधिक प्रभावित था, परंतु परमात्मा के तुरीयातीत स्वरुप का बौद्धिक निर्णय और उनकी प्राप्ति की युक्तियुक्त साधना-विधि तो महर्षि मेँहीँ जी चरणों में ही बैठकर प्राप्त की।  --जैन आचार्य श्री ताले जी
36. मेरा अहोभाग्य है कि मैं महर्षि मेँहीँ जैसे सद्गुरु के संपर्क में आया। --विष्णुकांत शास्त्री
37. महर्षि मेँहीँ विश्व कल्याण हेतु जन्म लिये। --आचार्य परशुराम चतुर्वेदी
38. हमारी पत्रिका 'अवंतिका' के द्वारा महर्षि मेँहीँ जी के हिंदी (भारती) भाषा संबंधी विचार को सम्पूर्ण राष्ट्र के प्रतिष्ठित विद्वतगण ने सराहा है। --डॉ. लक्ष्मी नारायण 'सुधांशु'
39. महर्षि मेँहीँ जी एक दिव्य पुरुष हैं। --डॉ. सम्पूर्णानंद
40. चीन-भारत युद्ध में गुरुदेव महर्षि मेँहीँ के ध्यानयोग की अहम् भूमिका ने बिहारी सैनिकों को अंदर से मजबूत किया। --डॉ. (मेजर) उपेन्द्र ना० मंडल
41. संत मेँहीँ महान संत थे। --डॉ. महेश्वर प्रसाद सिंह
42. मेरे पिता प्रातःस्मरणीय मधुसूदन पॉल पटवारी 'महर्षि मेँहीँ' के गुरु भाई रहे हैं। --योगेश्वर प्रसाद 'सत्संगी'
43. भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना दिव्य-रूप दिखाते समय कहा था- मैं ही सबकुछ हूँ। वही मैं ही 'मेँहीँ' है। --प्रो० सदानंद पॉल
44. डॉ. माहेश्वरी सिंह 'महेश' और डॉ. नागेश्वर चौधरी 'नागेश' ने परमसंत महर्षि मेँहीँ पर शोध-प्रबंध लिखकर बड़े पुण्य कार्य किये हैं। -भूचाल पत्रिका
45. महर्षि मेँहीँ विश्व के उद्भट विद्वान संत थे। --भागीरथी पत्रिका
46.महर्षि मेँहीँ जन-जीवन में चिर स्मरणीय नाम है। --शांति-सन्देश पत्रिका
47. महर्षि मेँहीँ महान लोक शिक्षक थे। -आदर्श-सन्देश पत्रिका
48. संतमत-सत्संग के संस्थापक-प्रचारक व 'सब संतन्ह की बड़ी बलिहारी' के अमर गायक महर्षि मेँहीँ बीसवीं सदी के बुद्ध थे। -साप्ताहिक आमख्याल।
49. कहते हैं, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की भटकती आत्मा का उद्धार महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट में ही हो पायी। --दैनिक हिन्दुस्तान
50. महान संत महर्षि मेँहीँ को सादर स्मरण। --दैनिक जागरण
51. महर्षि मेँहीँ के उदात्त चेतना को चिर नमन्। -दैनिक आज
52. संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ का अवतरण मानव समाज के कल्याण के लिए ही हुआ था। -एक संदेश, राँची

महर्षि मेँहीँ के कुछ चमत्कार 
श्रीगुरुदेव के पावन संस्मरण:-
बाबा श्री श्रीधर दास जी महाराज
हमलोग सन् 1933 ई0 में मुरादाबाद गये थे। वहाँ धर्म सम्मेलन था। सभी धर्मो के लोगों को अपने-अपने धर्म की खूबी कहने के लिये कहा गया था। वहाँ आर्य सामाजी और देव सामाजी में बड़ा विरोध् था। आर्य समाज के प्रवक्ता देव सामाजी की बात नहीं सुनना चाहते थे और देवसमाजी आर्य समाजी की बात सुनना नहीं चाहते थे। आर्य समाजी कहते थे कि ईश्वर नहीं है, यह बात हम कान से नहीं सुनना चाहते हैं। देव समाजी कहते थे-ईश्वर है, यह बात हम कान से सुनना नहीं चाहते हैं। इस सम्मेलन के सभापति थे-पूo नन्दन बाबा। उन्होंने अपने गुरु भाई पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज से प्रवचन देने के लिये निवेदन किया। उस सम्मेलन में परमाराध्यदेव गुरुदेव का गम्भीर, ज्ञान मण्डित भाषण निम्नलिखित हुआ :-"जो कोई ऐसा कहते हैं कि ईश्वर है, तो कोई ईश्वर को प्रत्यक्ष दिखा नहीं सकता। जो कहते हैं कि ईश्वर नहीं है, तो उनके ऐसा कहने से ईश्वर भाग नहीं जायगा। ईश्वर है और नहीं है, इन दोनों बातों को तबतक के लिए अलग रखें। और आप विचारें कि आप क्या चाहते हैं-सुख या दु:ख? दुःख कोई स्वीकार नहीं करेंगे। सभी सुख ही चाहेंगे, लेकिन हम तो महादुःख में पड़े हुए हैं। बार-बार जन्म लेना, मरना, यह आवागमन का चक्र लगा ही रहता है। इससे छुटकारे का कोई उपायए युक्ति चाहिये। दूसरी बात हम कौन हैं? इसपर भी विचार करें। क्या हम शरीर हैं, हम कहते हैं कि हमारा हाथ है, हमारी आँखें हैं, हमारी नाक है, हमारा कान है, आदि, तो ये सब हमारी इन्द्रियाँ हैं। हम इनसे कोई भिन्न तत्त्व हैं। अपने को जानना ही सबसे बड़ा ज्ञान है। सबसे बड़ी बात है कि हम सुख या शान्ति चाहते हैं। यह सुख या शान्ति कहीं बाहर नहीं, अपने अन्दर है और उसे पाने के लिए सद्युक्ति है।इस प्रकार श्रीसद्गुरु महाराज जी के घंटों व्याख्यान हुए, जिसे सुन कर सभी बड़े प्रभावित हुए। उस धर्म- सम्मेलन में एक अंग्रेज भी आये थे। उनकी बुद्धि बड़ी ही तीक्ष्ण थी। कहा जाता था कि सात आदमी अलग-अलग व्याख्यान देते थे, और वे एक किताब लेकर पढ़ते थे। बाद में वे सातों आदमी का जो व्याख्यान होता था, उसे वे कह देते थे। उनका मस्तिष्क उस समय एक लाख रुपये में बिक चुका था। ब्रिटेन की सरकार ने खरीद लिया। जब वे मरने लगेंगे, तो उनके मस्तिष्क को चीरा जायेगा और देखा जायगा कि उनके मस्तिष्क में क्या विशेषता है। वे श्री श्रीसद्गुरू महाराज के प्रवचन से खुश हुए। उनको श्रीसद्गुरु महाराज का दिया गया प्रवचन अंग्रेजी में समझाया गया। वहीं एक आर्य-समाजी से श्रीसद्गुरू महाराज की वार्ता हुई।  श्रीसद्गुरु महाराज ने पूछा- "महाराज! शब्द-साधना  के बारे में आपका क्या मत है? उन्होंने कहा-कान बन्द करने से तो रग-रेशों की आवाजें होती हैं। इन आवाजों को सुनने से क्या लाभ? श्रीसद्गुरू  महाराज ने कहा- "इस तरह शब्द-साधना नहीं किया जाता है। उन्होंने कहा- "तब कैसे सुना जाता है जी? श्रीसद्गुरू महाराज ने कहा कि एकविन्दुता पर शब्द सुना जाता है। एक विन्दुता पर सूक्ष्म नादों को ग्रहण किया जाता है। वहाँ रग-रेशों की आवाजें नहीं होती हैं। वे कुछ देर चुप रहने के बाद बोले कि हो सकता है। वहाँ से श्री सद्गुरु महाराज रायबरेली चले गये।                               ‘गुर पूरे की बेअन्त बड़ाई’ गुरु नानक देव जी महाराज फरमाते हैं- "पूरे गुरु की महिमा-बड़ाई का अन्त नहीं है। "जिज्ञासा होती है-पूरे गुरु कौन? उत्तर में निवेदन है "जीवनकाल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पार कर शब्दातीत पद में समाधि-समय लीन होती है और पिण्ड में बरतने के समय उन्मनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है, ऐसे जीवन्मुक्त परम सन्त पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं। पूरे और सच्चे सद्गुरु का मिलना परम प्रभु सर्वेश्वर के मिलने के तुल्य ही है। "(सत्संग-योग, भाग -4) अनन्त-स्वरूपी सर्वेश्वर को प्राप्त किये सन्त सद्गुरु की शक्ति अपरिमित होती है। उनकी कितनी भी स्तुति क्यों न की जाय, परिमित ही रहेगी। इसी दृष्टि को अपनाये रहकर हमारे प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित श्री सद्गुरु महाराज जी के ये प्रीति-वाक्य हैं-गुरू  गुण अमित अमित को जाना। संक्षेपहिँ सब करत बखाना।। (महर्षि मेँहीँ-पदावली)    सन्त कबीर गुरु-गुण गाते अघाते नहीं। वे कहते हैं-समस्त पृथ्वी को कागज बनाया जाय, सभी वृक्षों की लेखनी बनायी जायँ और सप्तसिन्धु के सलिल की स्याही बनाकर गुरु-गुण लिखा जाय, तब भी पूरा नहीं पड़ता।    सद्ग्रन्थों की सूक्ति है- "भले ही सभी समुद्रों की थाह ले ली जाय, उसके पानी का वजन कर लिया जाय, गंगातटवर्त्ती रेणुओं की गणना कर संख्या में बाँध् ली जाय और गगन के ग्रह-नक्षत्रों को एक साथ साधकर हाथ में कर लिया जाय, किन्तु सन्त-सद्गुरू के गुण-पुंज का वर्णन कर कोई इतिश्री नहीं कर सकता।    विवेक कहता है-विद्या -वरदा वीणा-पाणि-जैसे वक्ता और गणपति-जैसे लेखन-कर्त्ता से भी गुरु की सम्पूर्ण महिमा-विभूति कही वा लिखी नहीं जा सकती। और तो और, चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव, षण्मुख कात्र्तिकेय और सहड्डमुख शेष भी जिनकी कीर्ति गाकर निःशेष नहीं कर सकते।    वास्तविक बात यह है- "जो सन्त-सद्गुरू अनन्त नेत्र का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी सर्वेश्वर का साक्षात्कार कराने वाले हैं, उन अनन्त महिमाधरी और अनन्त उपकारी गुरु का यशगान कर आक्सान कौन कर सकता है?  फिर भी, जैसे दिनकर-भक्त दिवाकर को दीप दिखाकर तुष्ट होते हैं अथवा जिस तरह तीव्रगामी गरुड़ को गगन में गमन करते देख मकान के अन्दर मच्छड़ भी अपना पर पफैलाकर कुछ गुनगुनाता है, उसी तरह यह अकिंचन भी गुरुदेव का कुछ गुण-गुंजन कर मन को संतुष्ट करना चाहता है।    प्रातःस्मरणीय परम पूज्य अनन्त श्री-विभूषित श्रीसद्गुरू महाराज जी नरतन-धारण करने के कारण नरलीला-हेतु शरीर से कुछ दिनों के लिये अस्वस्थ हो गये थे। पटना के ख्यातिप्राप्त डाक्टरों ने श्रद्धा संयुक्त हो आपकी सफल चिकित्सा एवं सेवा की। खासकर डाo नन्दलाल मोदी साहब एवं उनकी धर्मपत्नी धर्मशीला स्वo सूरज मोदी ने गुरुदेव की सेवा के लिये अपने घर के द्वार ही नहीं, हृदय के द्वार भी खोल दिये थे। परम पूज्य गुरुदेव के सहित उनके सभी सेवकों को उन्होंने अपने भवन में कई महीने तक ठहराया और तन, मन, धन से सभी प्रकार की सेवाएँ कीं। चिकित्सा पूरी हो जाने के पश्चात् आपका शरीर रोग-मुक्त हो चुका था, किन्तु दुर्बलता-युक्त था। आप पटना से अपने आश्रम कुप्पाघाट-भागलपुर पधारे । यहाँ के स्वo डाo रामवदन सिंह जी प्रत्येक महीने की सतरह तारीख को एक इंजेक्शन देते थे, दुर्बलता दूर करने के लिये। सन् 1973 ईस्वी की चार फरवरी का प्रसंग है। करुणा-वरुणालय गुरुदेव ने मुझसे कहने की कृपा की-आगामी 17 पफरवरी को डाक्टर रामवदन बाबू इंजेक्शन दे सकेंगे? नहीं दे सकेंगे। मैंने निवेदन किया-गुरूदेव ! वे तो वचन के बड़े पक्के हैं। निश्चित तिथि में उपस्थित होकर इंजेक्शन दे जाते हैं। इस बार वे क्यों नहीं इंजेक्शन दे सकेंगे? गुरुदेव मुस्कुराते हुए बोले-समय आने दीजिये, देखियेगा। पुनः बोले-ईश्वर की लीला देखिये। उनके नहीं आने का कारण मैं जानता हूँ और आप नहीं।    मैंने हाथ जोड़कर कहा-हूजुर ने कितनी बड़ी तपस्या की है। योग-साधना  की है। ईश्वर-भजन कर ईश्वर-स्वरूप हो गये हैं। हुजूर नहीं जानेंगे, तो कौन जानेगा? मैंने क्या किया है? कुछ भी नहीं। मेरे निश्छल और विनय-भरे वचन सुनकर गुरुदेव का कमलमुख खिल उठा। उन्होंने करुणा की दृष्टि से मेरी ओर अवलोकन करते हुए बड़े ही प्रसन्न मन से कहा-आपकी तपस्या मेरी सेवा है। आपने मेरी बड़ी सेवा की है। मेरे बिना आप नहीं रह सकते और आपके बिना मुझको नहीं बनेगा। मैं वरदान देता हूँ कि जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ आप रहेंगे।    मैंने पुनः करबद्ध प्रार्थना कर निवेदन किया-अभी जबतक गुरुदेव के स्थूल शरीर की सेवा करने का सौभाग्य दास को प्राप्त है, तबतक तो हुजूर जहाँ रहेंगे, वहाँ इस अधम को रखेंगे यह तो ठीक है। लेकिन कभी-न-कभी तो शरीर का वियोग होगा। उस समय हुजूर तो ईश्वर में मिलकर एक हो जायेंगे, इस असार संसार में नहीं आयेंगे और मैं तो इस संसार में-आवागमन के चक्र में घूमता रहूँगा। तब हम दोनों एक साथ कैसे रह सकेंगे? मेरी बात श्रवणकर गुरुदेव ने हँसते हुए उत्तर देने की कृपा की-आप संसार में आयेंगे, मैं भी संसार में आऊँगा। मैंने पाणिब हो जिज्ञासा की-गुरूदेव ! जो कोई साधना कर मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार में पुनः आते नहीं। हुजूर कैसे आयेंगे? गुरुदेव गम्भीर स्वर में बोले-लोगों का कल्याण करने के लिये आऊँगा। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध् एक जन्म का नहीं, कई जन्मों का होता है। मेरा और आपका सम्बन्ध् ‘’और" का है। उपर्युक्त बातें तो हमारे परमाराध्यदेव जी ने एकान्त में व्यक्तिगत रूप से मुझसे कहने की अनुकम्पा की थी, किन्तु दिo 27 दिसम्बर 81 ईo को सामूहिक सत्संग के अवसर पर उन्होंने सबके समक्ष स्पष्ट घोषणा की- मोक्ष  तक जाना, एक ही जन्म की बात नहीं है। इसके लिये बहुत जन्मों तक साधन करना होगा। इसीलिये- 
कहै कबीर सुनो धर्म आगरा। अमित हंस लै पार उतर भव सागरा।। 
इसी तरह मैं भी एकदम मोक्ष नहीं चाहता हूँ। बारम्बार आऊँगा और जाऊँगा तो बहुतों को संग लिये जाऊँगा। जैसे समुद्र में पुल बाँध जाय, तो चींटी उसपर चढ़कर इस पार से उस पार हो जाय। इसी तरह जो सन्त सद्गुरु बारम्बार आयेंगे, तो बहुत-से लोगों को ले जाते रहेंगे और बहुतों का संस्कार बन जायगा। (‘शान्ति-सन्देश’ जनवरी 82)   
परमपूज्य गुरुदेव का अमोघ आशिष पाकर मैंने अपने को कृत-कृत्य समझा। फिर  तो भगवान् बुद्ध के वचन, माँ शारदा देवी के कथन एवं महावतार बाबाजी और योगी श्यामाचरण लाहिड़ी जी के परस्पर मिलन-बिछुड़न एवं गुरु के द्वारा शिष्य के दो जन्मों तक के रक्षण- शिक्षण प्रभृति जीवनवृत्त चल-चित्रा की भाँति मेरे सामने आने लगे। दिनांक 18 फरवरी को डाक्टर रामबदन बाबू आये। पारस्परिक लोकाचार के पश्चात् उनसे हँसते हुए मैंने पूछा-आप तो वचन के बड़े पक्के थे, इसबार कच्चे कैसे पड़ गये? उन्होंने दुःख प्रकट करते हुए कहा-क्या बताऊँ, प्रत्येक सोलह तारीख की सन्ध्या को इंजेक्शन की औषधि  मँगाकर अपने पास मैं रख लेता और दिनांक 17 को श्री महाराज जी को इंजेक्शन देता। इसबार दिनांक 16 फरवरी को भागलपुर में वह दवाई मिली नहीं। गत कल्ह दिo 17 को पटना आदमी भेजकर वहाँ से मैंने औषधि मँगायी, तो आज इंजेक्शन देने आया हूँ। गत कल नहीं आ सकने के कारण मैं स्वयं दुःखित तथा लज्जित हूँ। एक तो श्री महाराज जी के स्वास्थ्य का प्रश्न, दूसरे वे मन में क्या कहेंगे, कितना झूठा डाॅक्टर है और तीसरे आपका उपालम्भ मिलेगा, इन सब बातों को सोचकर मैं स्वयं चिन्तित था, किन्तु क्या करता, लाचारी थी। फिर भी, मन में यह विश्वास था कि श्री महाराज जी अन्तर्यामी हैं। वे मेरी असमर्थता को जानकर मुझे अवश्य क्षमा करेंगे। मैंने कहा-डाक्टर साहब! चिन्ता की कोई बात नहीं। सुनिये, एक बात बताऊँ? गत दिनांक 4 फरवरी को ही परमाराध्यदेव मुझसे कह चुके थे कि इस बार दिo 17 फरवरी को डाo रामबदन बाबू इंजेक्शन नहीं दे सकेंगे। मैंने जब कारण पूछा तो उस दिन उन्होंने कुछ बताने की कृपा नहीं की। वह कारण आज स्पष्ट हो गया। मेरे इस कथन से उनके मन में सत्साहस का संचार हुआ और क्षमा-याचना करते हुए उन्होंने गुरुदेव से इंजेक्शन लेने की प्रार्थना की। गुरुदेव बोले-बहुत इंजेक्शन ले चुका। अब इसकी आवश्यकता नहीं है। छोड़ दीजिये। संयोगवश डा0 एन0 एल0 मोदी, पटना से गुरुदेव के दर्शनार्थ आये हुए थे। उनके विशेषाग्रह पर गुरुदेव ने स्वीकृति दी। उस दिन के बाद से आपने इंजेक्शन लेना बन्द कर दिया और अपनी मौज में आकर पूर्ण स्वस्थ हो गये। धन्य  हैं हमारे गुरुदेव! आपकी अनन्त महिमा का अंत कौन पा सकता है!

‘निमित्तमात्रां भव सव्यसाचिन्’ -महर्षि शाही स्वामीजी महाराज   
करते तो सब सद्गुरु ही हैं, पर किसी-न-किसी को निमित्त बनाकर। आज से तीन-चार वर्ष पहले की बात है। परमाराध्य गुरुदेव मनिहारी से वापस आ रहे थे। उस समय श्री संतसेवी जी महाराज सिरदर्द से इतने बेचैन थे कि कार में बैठ नहीं सकते थे। परमाराध्य गुरुदेव स्वयं   अगली सीट पर बैठे और उनको पीछे की सीट पर सुलाकर कुप्पाघाट आश्रम आये। आश्रम पहुँचने पर किसी प्रकार कार से उतार कर उन्हें उनके निवास के कमरे तक पहुँचाया गया। पूज्य गुरुदेव निवास-गृह के बरामदे पर बैठे। मैं भी उनके चरणों में प्रणाम कर निकट ही बैठ गया। मेरी ओर देखकर गुरुदेव ने पूछा- संतसेवी जी को आपने देखा? मैंने कहा-जी हाँ, उनको बहुत कष्ट है। यह सुनते ही गुरुदेव ने कहा-आप जाइए, संतसेवीजी का माथा पोंछ दीजिएगा। मैंने कहा-हूजुर , मेरे माथा पोंछने से क्या होगा? थोड़ी देर चुप होकर पुनः मुझसे गुरुदेव ने कहने की कृपा की-आप जाइए और उनका माथा पोंछ दीजिए। गुरुदेव की आज्ञा पाकर मैं श्री संतसेवीजी महाराज के पास गया और उनके सिर को हल्के हाथों से दाबने लगा। थोड़ी ही देर बाद वे अपने बिछावन पर उठकर बैठ गए और बोले कि अब दर्द कुछ कम हो गया है और मन भी हल्का लगने लगा है। अब मैं दँतवन से मुँह धोऊँगा। दँतवन लेकर मुँह धेने के बाद उन्होंने कहा कि कुछ खाने की भी इच्छा हो रही है। मैंने तुरत बेदाना मँगवाया और उसके दाने निकलवा कर उन्हें खाने के लिए दिया। उसके बाद मैं गुरुदेव के पास आया। गुरुदेव ने मुझसे पूछने की कृपा की-क्या हाल है? मैंने विनीत भाव से उत्तर दिया-हूजुर की कृपा से उनकी तबीयत बहुत अच्छी हो गई है। कुछ बेदाना भी खाये हैं। यह सुनते ही गुरुदेव ने मुझसे कहा-आप जाइए। गुरुदेव ने शब्दशः तो नहीं कहा, पर भाव ऐसा था गोया कह रहे हों- यह बोलने की जरूरत नहीं है। गुरुदेव की कृपा अमोघ है पर है वह अदृश्य और दूसरे के माध्यम से आनेवाली।    
एक दूसरी घटना उस समय की है जब मैं सकरोहर ग्राम में रहता था। उस गाँव का नाई गणेश ठाकुर बात रोग से ग्रस्त था। उसकी पीड़ा असह्य थी। ठीक से चलना-फिरना भी उसके लिए संभव नहीं था। मैंने एक दिन दिवास्वप्न में देखा कि परमपूज्य गुरुदेव मुझे आज्ञा दे रहे हैं कि आप गणेश को कुछ दवा बतला दीजिए। मैंने कहा-हूजुर ! मैं तो कुछ जानता नहीं, क्या बताऊँगा। गुरुदेव ने कहा-कुछ  भी बतला दीजिएगा। उसी दिन सायंकाल गणेश ठाकुर मेरे पास आया। उसे देखकर मुझे स्वप्न की बात याद आ गई। गणेश ठाकुर ने कहा कि मैंने स्वप्न देखा है कि गुरुदेव मुझे आज्ञा दे रहे हैं कि तुम शाही स्वामी के पास जाओ, वे तुम्हें दवा बता देंगे। उसने मुझसे दवा बताने का आग्रह किया। मैं बड़े असमंजस में पड़ गया। ठाकुर पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा-आप मुझे कुछ भी दवा बता दीजिए। मैंने उससे कहा-भाई  जाओ, गंगाजी की मिट्टी लगाओ। वह घर चला गया। उसने गंगाजी की मिट्टी का प्रयोग किया और चंगा भी हो गया। 


मैं उसी दिन बाहर चला गया था। जब कुछ दिनों के बाद सकरोहर लौट रहा था तो देखा कि रास्ते में लोग बड़े गौर से मेरी ओर देख रहे हैं और कुछ इंगित भी कर रहे हैं। गाँव के निकट आ जाने पर मैंने लोगों से पूछा क्या बात है कि आपलोग मेरी ओर इस प्रकार देख रहे हैं? उनलोगों ने बड़े उत्साह से कहा कि आपने गणेश ठाकुर को जो मिट्टी का प्रयोग बताया था उससे वह पूरी तरह स्वस्थ हो गया। मैं गुरु-चरणों में नतमस्तक हो गया। उनकी कृपा से क्या नहीं हो सकता। कृपा करें गुरुदेव और यश का भागी बने शिष्य? ऐसी है उनकी भक्तवत्सलता।
श्रीसद्गुरु-लीलामृत-स्वामी लच्छन दासजी, सत्संग आश्रम, सैदाबाद (पुरैनियाँ)    
पूज्य गुरुदेव की मनिहारी में 1949 ईo को आज्ञा हुई कि तुम सैदाबाद में खेती करो। मैं उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए उसी समय से बराबर हर साल खेती का कार्य करता आ रहा हूँ और उसकी फसल पूज्य गुरुदेव के चैके में भेज दिया करता हूँ। 1942 ईo में सैदाबाद में यह जमीन खरीदी गयी थी। पूज्य गुरुदेव महाराज हर साल धान  काटने के समय दिसम्बर माह में आया करते थे। असह्य कठिन ठंढ को सहन करते हुए, हिमालय की बर्फीली हवाओं का झकोरा खाते हुए, खेती का काम देखना और फिर मोरंग में सत्संग करना, प्रवचन करना और लोगों को चेताना पूज्य गुरुदेव की महान् कृपा थी। देश एवं मोरंग के अनेकों सत्संगी गुरु महाराज के दर्शनाभिलाषी बनकर आते थे और इनकी अमृतमयी वाणी एवं प्रवचनों से लाभान्वित होते थे।    पूज्य गुरुदेव महाराज का चमत्कार-रंगेली बाजार के निकट ग्राम टकुआ के निवासी रेशम लाल दास जी एक गणमान्य एवं धनी  व्यक्ति थे, ने अपने घर के निकट एक विष्णु-मंदिर का निर्माण किया और मुझे एक रात उसमें ठहराया। मंदिर में सत्संग हुआ और सत्संग में उपदेशपूर्ण प्रवचन से प्रभावित होकर उन्होंने मुझ से भजन-भेद लिया। भजन-भेद लेने के कई वर्षों के पश्चात् वह अचानक रोगग्रस्त हो गये। बीमारी काफी बढ़ गयी और वे मर गये। परिवार के सभी लोग तथा अन्य सम्बन्ध्ति व्यक्ति रोने-पीटने लगे। कई घंटों के बाद वे जीवित हो गये और कहने लगे कि मुझे लेने यमदूत आये थे, उसी समय पूज्य गुरु-महाराज जी आ गये और यमदूत से कहने लगे कि अभी यह नहीं जायगा; क्योंकि इसके द्वारा सत्संग का कार्य कराना अभी बाकी है। यह सुनते ही यमदूत ने उन्हें छोड़ दिया। वे कहने लगे कि धन्य! गुरु महाराज ने मुझे बचा लिया। इसके बाद उन्होंने आस-पास के सभी सत्संगियों को बुलवाया और सारी बातें कह सुनायी और विराट नगर; नेपाल से रजिस्ट्रार को बुलाकर सत्संग के नाम से जमीन एवं एक खपड़ा मकान, जो उस जमीन पर अवस्थित था, निबंधित (रजिस्ट्री) कर दिया। साथ ही ईट मँगवाकर मुझे बुलाया और उस जगह पर सत्संग-भवन की नींव डलवायी-जिसकी दीवार बनकर पूरी हो चुकी है।

श्री आराध्यदेव की लीला -श्री प्रमोद दास महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर 
मैं सद्गुरुदेव की गाय की देख-रेख करता था। एक दिन शाम को मैं श्रीचरणों की सेवा में रत था। सोचता था, सरकार मुझे भी अपनी शरण में जगह देते तो मेरा अहोभाग्य होता! उनके पाद्-पद्मों को दबाते समय मेरे मन में अचानक भाव आया कि चैंका में जाकर भोजन कर लेता तो ठीक होता, क्योंकि पीछे भोजन घट जायगा। यह भाव खत्म भी नहीं हो पाया था कि अन्तर्यामी प्रभु ने तुरत मुझे आदेश दिया-जाओ, तुम भोजन कर लो। मैं तो पानी-पानी हो गया। अपनी हीन भावना पर बड़ी लज्जा हुई। मैं सरकार के आदेश को मानकर भोजन करने चला गया।

गुरु-दल -श्री छोटेलाल दासजी    
परमाराध्यदेव शरत्कालीन धूप में अपनी शय्या पर विराजमान थे, उसी समय मैं अपराहनकालीन सत्संग करके नित्य की भाँति उन्हें प्रणाम करने के लिये पहुँचा। बरामदे की देहरी पर सिर टेककर प्रणाम करते ही मैंने सुना-कौन? मैंने निवेदन किया-हुजुर, मैं छोटेलाल हूँ। आराध्यदेव ने पुनः कहने की कृपा की अच्छा, यह तो बताओ, तुम किस दल में रहोगे? गुरु-दल, राम-दल या रावण-दल में? यह मैंने सादर अर्ज किया-हुजुर, मैं तो गुरु-दल में ही रहूँगा। अच्छा, तुम बच गये। ऐसी वाणी परमाराध्यदेव की मौज से निःसृत हुई। उस समय मैं गुरु-वाणी का गूढ़, रहस्यपूर्ण अर्थ नहीं समझ सका था कि मुझ अबोध् को सतोगुणी वृत्ति में बरतने का वे आदेश प्रदान करते हैं या सद्गुरु, ईश्वर और दुष्ट-इन तीनों में सर्वप्रथम, सर्वसमर्थ, करुणावतार कृपासिन्धु, नर-रूप-हरि गुरुदेव को अपनाये रहो-की आज्ञा देते हैं? क्योंकि सन्त कबीर की वाणी है- "हरि रूठे गुरु ठौर हैं, गुरु रूठे  नहिं ठौर।"

श्री सद्गुरु महाराज की कृपा से जान बच गयी     
-श्रीमती गोमती देवी, दिल्ली    
एकबार सन् 1951 में श्री सद्गुरु महाराज मुरादाबाद पधारे थे। दिल्ली से श्री ज्ञान-स्वरूप जी भटनागर गुरु महाराज के दर्शन करने के लिए मुरादाबाद आये थे।  22 जनवरी को श्री ज्ञान-स्वरूप जी सत्संग-आश्रम से दिल्ली जाने के लिए वापस लौट रहे थे। चलते समय गुरु महाराज से जाने के लिए आज्ञा माँगी और उन्हें माला पहनायी। गुरु महाराज ने कहा कि "क्या आज ही जाना है?" उन्होंने कहा- "जी हाँ, जरूरी काम से जाना है।" ज्ञान-स्वरूप जी जब स्टेशन पहुँचे, गाड़ी चलने को तैयार ही नहीं थी, बल्कि धीरे धीरे सरकने भी लगी थी। वह घबड़ाकर दौड़े और गाड़ी का पाँवदान पकड़ा, घबड़ाहट में पावदान हाथ से छूट गया और वह गाड़ी से नीचे गिर पड़े और साधू  लाईन के बीच में जा पड़े। गिरते समय गुरु महाराज का ध्यान किया, गाड़ी ऊपर से जा रही थी, उन्हें गुरु महाराज की आवाज सुनाई दी-जैसे पड़े हो, वैसे ही पड़े रहो, हिलना नहीं। जब गाड़ी चली गयी, तो उन्हें कुछ होश आया। वहाँ भीड़ इकट्ठी हो गयी थी, उनसे धीरे-धीरे कहा- "मुझे अस्पताल ले चलो" और फिर बेहोश हो गये। लाईन पर हाथ आने से थोड़ा-सा हाथ ही कट कर रह गया, परन्तु जान बच गयी, गुरु महाराज की कृपा से ही जान बच गयी।

महर्षि मेँहीँ के उपदेश-
1. यह सुन्दर मनुष्य शरीर पाकर जो क्षणिक विषय-सुख में लवलीन रहते हुए माते रहते हैं और इसी में अपना कुशल समझते हैं, वे अत्यन्त भूल में हैं।
2. रसायन विज्ञान की तरह सत्य है कि आॅक्सीजन और हाइड्रोजन (H2+O=H2O) को मिलाओ, पानी होगा। इसी तरह इंगला- पिंगला को मिलाकर रखो, प्रकाश होगा। वैज्ञानिक आविष्कार जैसे सत्य है, वैसे ही यह सत्य है।
3. कोई भी जल बाह्य संसार में नहीं है, जो हृदय को शुद्ध कर सके। इसके लिए सत्य का व्यवहार होना चाहिए। सत्य के तट पर रहना चाहिए। सत्य का तट क्या है? सत्संग और ध्यान।
4. जिसका चेतन आत्मा तृष्णा की डोरी पर दौड़ती रहती है, उसके लिए शान्ति, तृप्ति और मुक्ति कहाँ!
5. जो संत वचनामृत का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके आदर करते हैं, उनका परम कल्याण होता है।
6. लाचार होकर भी पाप कर्म हो जाने पर कोई पाप के पफल से बच नहीं सकता है। पाप का पफल अवश्य ही भोगना पड़ता है।
7. जो कहते हैं कि भजन करने के लिए मुझको समय नहीं है, यह बहुत गलत बात है। गपशप करने के लिए समय है, सिनेमा देखने के लिए समय है और भजन करने के लिए समय नहीं है-यह बहुत गलत बात है।
8. सत्य बोलोगे, तो दूसरों से पे्रेम बढ़ेगा। प्रेम से मेल होगा, मेल से बल बढ़ेगा, बल बढ़ाने की आवश्यकता है देश को।
9. तप असल में ब्रह्मचर्य-पालन करे, तो वह अच्छा तपी है। शरीर को तपावे और ब्रह्मचर्य का ध्यान नहीं रखे, तो वह उत्तम तप नहीं है।
10.यह सुन्दर मनुष्य-शरीर पाकर अपना जीवन सांसारिक विषयों को खो दो, तो रोना पड़ेगा, इसमें संदेह की बात नहीं है। इसलिए याद रखो, सुअवसर हाथ से न जाने दो।
11.ज्योति और शब्द के अतिरिक्त और कोई रास्ता ईश्वर तक पहुँचने के लिए मानने योग्य नहीं है।
12. जो अपनी मौत को प्रत्यक्ष की तरह देखता है। उनकी सब सांसारिक भोग-वासनाएँ छूट जाती हैं।
13. इस संसाररूपी तालाब में परमात्मा-रूपी निर्मल जल है। यदि माया के परदे को हटा दो, तो परमात्मारूपी निर्मल का दर्शन होगा।
14. जबतक जीवन धरण करें, तबतक सत्संग करें, तो अवश्य ही मरने के बाद वे आगे शरीर पावेगा, तो मनुष्य का शरीर पायेगा, दूसरा हो नहीं सकता।
15. अगर भजन में तरक्की चाहते हो, तो मानस जप कभी नहीं भूलना चाहिए, हरवक्त जारी रखना चाहिए।
16. सबका ईश्वर एक है, ईश्वर तक जाने का मार्ग एक है, और वह मार्ग सबके अन्दर है। उसकी प्राप्ति अपने में होगी। बाहर में नहीं।
17. झूठ,  चोरी, नशा,  हिंसा और व्यभिचार इन पाँच पापों से मनुष्यों को दूर रहना चाहिए, ईत्यादि।
ध्यातव्य है, वैशाख पूर्णिमा को महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था और वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को संत महर्षि मेँहीँ का। दोनों की जयंती मनाई गई। संत महर्षि मेँहीँ को महात्मा बुद्ध का अवतार भी माना जाता है। दोनों संत-महात्मा में कई विशेषताएं समान थी। बीसवीं सदी के संत महर्षि मेँहीँ की चर्चा महात्मा गांधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, संत विनोबा भावे, आचार्य शिवपूजन सहाय, मदर टेरेसा, डॉ. रामधारी सिंह दिनकर इत्यादि सहित पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी किए है। इस महान संत की जन्मोत्सव बिहार सहित देश-विदेश के बहुतायत संख्या में इनके अनुयायी इन्हें याद करते हैं। अतः इनके ढेरों अनुयायी,भक्तों ने भारत सरकार से 'भारत-रत्न' प्रदानार्थ की मांग करते हुए आधिकारिक 'प्रार्थना-पत्र' गृह मंत्रालय, भारत सरकार को भेजा है।इनकी महत्ता को हमारे युवा पीढ़ी जान सके, इसके लिए बिहार सरकार को इनके बारे में पाठ्य पुस्तकों में चर्चा करनी चाहिए, ताकि महान पुरुष की महत्ता से युवा पीढ़ी अनभिज्ञ न रह सके।


प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
🙏श्री सद्गुरु महाराज की जय🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट (रज़ि)



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सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...