हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम ते प्रकट होय मैं जाना॥
तुलसीकृत रामचरितमानस की ये पंक्ति स्पष्ट संकेत देती है-प्रेम सहित भक्ति के महत्व का। ईश्वर सर्वव्यापी है, वह समान रूप से सर्वत्र व्यापक है। वह हमारे अंतस के प्रेम से हमारे समक्ष प्रकट होते है। कहते है कि परमात्मा प्रेम के वश में है। प्रेम भावविह्वल हो मानव जब ईश्वर को पुकारे, प्रेम भाव इतना गहरा हो कि नम आंखों के साथ आत्मा भी ईश्वर के लिए तड़प उठे, तो ईश्वर का अहसास भले ही क्षणिक हो, किंतु हृदय में अवश्य होगा। कबीरदास जी मानव को प्रेम की महत्ता बताते हुए कहते है;
'पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय॥'
भक्ति में प्रेम की बात आए तो विष का प्याला पीने वाली मीरा का दृष्टांत स्वभाविक भी है, अवश्यंभावी भी। उनकी भक्ति ही प्रेम थी और प्रेम ही भक्ति। प्रेम की गहराई इतनी कि कोई सीमा ही न हो। सुध ऐसी कि कोई सुध-बुध ही न रहे। ध्यान ऐसा कि समाधि की अवस्था भी पीछे छूट जाए।
साधक को भक्ति में एकाग्र होने के लिए प्रयत्न करना होता है और ध्यान में समाधि अवस्था के लिए इंद्रिय निग्रह भी करना पड़ता है, साथ ही दु:सह प्रयत्न भी। नि:स्वार्थ प्रेम और उसकी तल्लीनावस्था स्वयं में समाधिवस्था है। भक्ति ही प्रेम है और प्रेम ही भक्ति है। सच्ची भक्ति और सच्चा प्रेम एक समान है। प्रेम तप है, भक्ति रूप ही उसकी सार्थकता है। ईश्वर से प्रेम करने वाला हर जीव से प्रेम करेगा, उनमें ईश्वर का अंश देखते हुए। भेदभाव, वैमनस्यता, परस्पर कटुता सब समाप्त होगी। ईश्वर को किसी भी भोज्य पदार्थ की अथवा भौतिक वस्तु की अभिलाषा नहीं है। विचार करने योग्य विषय है कि जो सारे जगत का भरण पोषण करता है उसका पोषण हम भला कैसे कर पाएंगे, फिर भी यदि हम उन्हे कुछ अर्पण करना चाहे तो वह स्वीकारते है। गीता के नौवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण कहते है, 'हे अर्जुन, यदि कोई पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मुझे प्रेम से अर्पण करता है, उस भक्त का मैं प्रेम पूर्वक अर्पण किया फलादि सगुण रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित ग्रहण करता हूं।' अथर्ववेद कहता है, प्रेम उसी तरह करो जैसे गाय अपने बछड़े को करती है यानी स्वार्थ रहित प्रेम। यही समाज की आवश्यकता है और यही प्राथमिकता भी।
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