।। श्री सद्गुरुवे नमः ।।
पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।।
एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।
जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा।।
परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा।।
वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।।
एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।।
गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है।
ऐसे ही हमारे पूरण पुरूष गुरुदेव (संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज) हैं, जिनकी महिमा अपरम्पार है। उन्होंने वर्षों जिन गुफा में तपस्या कर परमात्वस्वरूप के दर्शन किये, उन्हीं गुफा का दर्शन करने का सौभाग्य हम सब को पुनः प्राप्त हुआ दिनांक: 23 जून 2018 को महर्षि मेंहीं आश्रम कुप्पाघाट स्थित भागलपुर में। एकदम शीतल-शान्त वातावरण!
आज भी यह जगह गुरुदेव के अटल भक्ति की शक्ति एवं उनके आलोक से आलोकित हो रहा है! जिसकी आभास वहाँ पहुँचने वाले हर अभ्यासी को सदैव ही होता रहता है।
गुफा की कुछ तस्वीरें देखिए, जो उस समय हम सब ने मोबाइल से लिया था।
और आइये संक्षेप में जानते हैं कि गुरुदेव किस तरह से कितने समय कहाँ-कहाँ बिता कर कठिन साधना किये और अंत में इसी जगह पर परमात्मा का साक्षात्कार किये।
हे मेरे गुरुदेव!!!
परमाराध्य श्री सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज जन्मसिद्ध महायोगेश्वर और एक समर्थ पूरण पुरूष थे। इनका अवतार प्राणिमात्र की अन्तरात्मा को शरीर और संसार के बंधन से मुक्त करने के लिए ही हुआ था। बाल्यावस्था से ही एक श्रेष्ठ मुमुक्षु साधक का आदर्श आचरण प्रस्तुत कर निर्वाण दशा की उपलब्धि का सहज मार्ग खोल दिया है।
उन्होंने दृष्टियोग की अविराम कठोर साधना और उपासना सन् 1909 ई० से 1922 ई० तक की, जिसमें अन्तिम के तीन महीने उन्होंने धरहरा गाँव में जमीन के अन्दर एक कूप में की इसे उपासना-कूप कह सकते हैं। और यहीं पर उन्होंने दृष्टियोग की साधना पूरी कर एवं स्वरूप-दर्शन अथवा आत्मलाभ होकर परमात्म-दर्शन जो एकमात्र नादानुसंधान या सुरत-शब्द-योग द्वारा ही सम्भव है की दृढ़-साधना में लग गए। जो ग्यारह वर्षों तक अबाध गति से चलता रहा।
एक बार पुनः शान्त-एकान्त निर्विघ्न स्थान में सूरत-शब्द-योग का दृढ़ साधना के संकल्प के साथ उपयुक्त स्थान की तलाश करते-करते, बहुत से स्थानों का बहुविध निरीक्षण किए, किन्तु अनुकूल नहीं जँचा।
अंततोगत्वा गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज) सन् 1933 ई० में सिकलीगढ़ धरहरा से येन-केन-प्रकारेण मुरादाबाद होते हुए गढ़मुक्तेश्वर पहुँचे। वहाँ भगवती भगीरथी के सुरम्य पावन तट पर ये कई दिनों तक ध्यानावस्थित रहे। पुनः वहाँ से प्रस्थान कर छपरा में सरयू नदी के मनोरम प्रान्त में तीन दिन तक ध्यानजनित आन्तरिक आनंद में डूबे रहे। वहाँ से कुछ दिन रक्सौल में निवास करते हुए भागलपुर पधारे। भागलपुर शहर के मायागंज मुहल्ले में गंगा नदी के पावन तट पर एक प्राचीन सुरम्य सुरंग के परिदर्शन से अपने उद्देश्य की प्राप्ति में अनुकूल जानकर इनका हृदय अतीव प्रसन्नता से भर गया। इन्होंने इसी सौभाग्यशालिनी गुफा को आत्मज्ञान-प्राप्ति हेतु सूरत-शब्द-योग की ऐकान्तिक गम्भीर साधना करने के लिए अत्यंत उपयुक्त लगने पर इसका चयन किये।
गुरुदेव ने इस गुफ की आवश्यक मरम्मत व जीर्णोद्धार करवाकर सन् 1933 ई० से सन 1934 ई० के नवम्बर माह तक सूरत-शब्द-योग की कठोर साधना करते रहे। अंततोगत्वा इन्हें पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त हो गया।
इसी सूरत-शब्द-योग की साधना ने इन्हें निज आत्मस्वरूप की अपरोक्षानुभूति कराकर सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी और पूर्णकाम बना दिया।
आत्मस्वरूप की अपरोक्षानुभूति कर लेने पर परमाराध्य सद्गुरु महाराज ने समस्त महत्वपूर्ण साधनभूत सामग्रियों का परित्याग कर उन्मुन्यावस्था धारण कर सत्संग, प्रवचन, ग्रंथलेखन और लोकवार्ता-द्वारा जगत् का कल्याण करने लगे।
यद्यपि इनको अब कुछ भी करना शेष नहीं था, तब भी ये लोककल्याणार्थ आजीवन संध्या-वंदन, स्तुति-प्रार्थना, भोजन-शयन, अध्ययन-मनन और मिलन-भ्रमण आदि समस्त मानवोचित कर्तव्य उचित समय पर करते रहे।
ऐसे गुरुदेव के चरणों में मैं बारम्बार शिश नवाकर भव-सागर से पार उतारने की हृदय से प्रार्थना करता हूँ। गुरुदेव के ध्यान करने की जगह जहाँ पर उन्होंने परमात्वस्वरूप के दर्शन किये ऐसे जगह पर अपने को पाकर धन्य-धन्य हो गया। जय गुरु महाराज।
श्री सद्गुरु महाराज की जय।
--शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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