जो भगवद्-भजन करेंगे, सत्संग करेंगे, वे चौरासी लाख योनियों में क्यों जाएंगे?
वे तो अंततः प्रभु में ही मिलेंगे। एक अँगीठी थी। उसमें दहकते हुए सारे कोयले लाल-लाल हो रहे थे। उन कोयलों में से एक ने सोचा- एक साथ रहने से तो सभी लाल-ही-लाल हैं। क्यों ना अलग होकर हम अपना अलग प्रभाव डालें। वह अंगूठी से कूदकर नीचे आ गया। जब तक वह सब कोयले के साथ था, तब तक उसमें गर्मी थी और वह लाल था। जब वह अंगूठी से नीचे गिरा तो कुछ देर वह लाल रहा और उसमें गर्मी भी रही, लेकिन धीरे-धीरे लाली खत्म हो गई और गर्मी भी समाप्त हो गई। कोयला काला ही रह गया। उसी तरह जो अपने को सत्संग के माहौल में रखता है वह लाल-ही-लाल बन कर एक दिन परम लाल-परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
पर जब कोई अपरिपक्व साधक अलग जाकर संस्था बनाता है, तो कुछ दिन तक तो लाली रहती है, लेकिन धीरे-धीरे वह माया में पड़ जाता है और उसका मन कोयले की तरह काला बनकर रह जाता है। संत तुलसी साहब ने कहा है:-
"सखी सीख सुनि गुनि गाँठि बाँधौं।
ठाठ ठट सत्संग करै।।
जब रंग संग अपंग आली री।
अंग सत मत मन मरै।।"
सत्संग करते-करते ही सत्संग का रंग लगेगा और जो मन विषयों में भागता है, वह मन मर जाएगा, उस ओर से मुड़ जाएगा। विषय की ओर से निर्विषय की ओर चला जाएगा। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-"सठ सुधरहिं सत्संगत पाई। पारस परसि कुधातु सोहाई।।"जो मूर्ख हैं वे भी सत्संग पाकर सुधर जाते हैं।(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏
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