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बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

देहावसान | देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है। महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
देेहावसान समये चित्ते यद्यद्विभावयेत्।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम्।।

देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है।


जीवनभर जो अपने मन में सोचते हैं, वही भावना अंत में याद आवे, यह संभव है। जन्मभर में कभी जो काम नहीं किया अथवा कभी कभी किया, वह अंत समय याद आवे, संभव नहीं। इसलिए नित्य भजन करें। सब कामों को छोड़कर तथा सब कामों को करते हुए, दोनों ढंग से करें तो अंत समय में अवश्य याद आवेगा तथा अपना परम कल्याण होगा।

प्र्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
-गीता 8/10
अर्थात् जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भौओं के बीच भक्ति से शराबोर होकर और योगबल से अच्छी तरह प्राणों को स्थिर करता है, तो दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है। यह शरीर चला जाएगा, कुछ संग जाने को नहीं है।

माल मुलुक को कौन चलावे, संग न जात शरीर।
करो रे बन्दे वा दिन की तदवीर।।

इसलिए हमलोग भजन-अभ्यास अधिक करें। केवल जानें अथवा पढ़ें, किंतु ध्यान नहीं करें तो उसको लाभ नहीं होता। वैसे ही जैसे-
धन धन कहत धनी जो होते, निर्धन रहत न कोय।
केवल धन-धन के कहने से कोई धनी नहीं होता। काम करते हुए भी अपना ख्याल भजन में लगाकर रखना चाहिए।
*कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।*
*सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै।*
*आप रहे जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।*
*जस पनिहारी कलस भरे, मारग में आवै।*
*कर छोड़ै मुख वचन,चित्त कलसा में लावै।।*
*फणि मणि धरै उतार, आपु चरने को जावै।*
*वह गाफिल ना परै, सुरति मणि माहिं रहावै।।*
*पलटू कारज सब करै, सुरति रहै अलगान।*
*कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।*
-पलटू साहब

भगवान श्रीकृष्ण का गीता में अर्जुन के प्रति यह उपदेश है- *‘युद्ध भी करो तथा ध्यान भी करो।’*  काम करने के समय भी हमारा ध्यान न छूटे, ऐसी कोशिश करनी चाहिए। जो दोनों तरह से भजन  करते हैं, उनका मन विशेष बिखरता नहीं। इसलिए ऐसा अभ्यास करना चाहिए कि प्रयाणकाल में हमारा ख्याल गड़बड़ न हो जाय कि बारम्बार जन्म लेना पड़े तथा दुःख उठाना पड़े। इससे जो नहीं डरते, वह नहीं कर सकते।
*‘डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।*
*डरत रहे सो ऊबरे, गाफिल खावै मार ।।’*

*‘पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्नतु मन्यते।*
*देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा।।*
*अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते।’*

अर्थ-मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है; मुक्ति वह है, जबकि जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है, जैसे नमक जल में घुलकर एक हो जाता है। इस तरह जब जीव उससे अन्य नहीं रह जाता, तब मुक्ति होती है।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

मानस जप कैसे करें! Manas Jaap kaise karen | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।

मानस जप कैसे करें?

मानस जप को सभी जपों का सम्राट कहा गया है। इसकी विशेषता है कि इसमें मन्त्र-जापक स्वयं मन ही होता है। मन ही मन, मन से ही गुरु प्रदत्त मन्त्र की मंत्रावृत्ति करनी होती है।


मन इधर-उधर न भटके, इसे निद्रा वा गुणावन (निर्धारित लक्ष्य से भटक कर मन का अन्य विचारों में खो जाना) न घेर ले, इसके लिए, संतों का उपदेश है, मन को समक्ष रखकर, सात्त्विकी वृत्ति में रखकर जप किया जाय (तामसी वृत्ति में नींद तथा रजोगुणी वृत्ति में मन में, विचारों में चंचलता आती है)। इसके लिए अपनी दृष्टि पर निगरानी रखनी भी अत्यावश्यक है।

उदाहरणार्थ, गुरु महाराज के एक प्रवचन में मानस जप से सम्बंधित एक महत्त्वपूर्ण बात आयी है जो ध्यातव्य है-

"... समझो कि तुम्हारे शरीर में दो भाग हैं। दाईं-बाईं ओर का मिलाप जहाँ है, वह मध्य है। दाईं  ओर की वृत्ति पिंगला और बाईं ओर की वृत्ति इड़ा, और बीच में सुषुम्ना है। कोशिश करो कि मध्य-वृत्ति में रखकर जप करने के लिए..."

मध्यवृत्ति में रहकर जप करना चाहिए। यदा-कदा कहीं-कहीं ऐसा कहा जाता है कि जप का दृष्टि से कोई संबंध नहीं है। गुरु महाराज का यह कथन इस स्थिति के  स्पष्टीकरण के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है - *मध्य अर्थात् समक्ष रहते हुए (अर्थात् सामने वृत्ति रखते हुए) जप करना चाहिए*। अपने ही एक अन्य प्रवचन में भी परामराध्य गुरु महाराज पुनः कहते हैं, "मानस जप करो। सुषुम्ना में वृत्ति रखकर नाम जपो।"

गुरु महाराज के प्रवचन में अन्यान्य स्थलों पर भी इसके संकेत मिलते हैं। एक बार पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज ने भी, मेरी जिज्ञासा के उत्तर में, मुझसे कहने की कृपा की थी, *जप करते समय दृष्टि ठीक सामने रखा करो।* एक स्थल पर उन्होंने कहा भी है-

_"जहाँ तक बन पड़े , भजन में मन लगाना चाहिये । कुछ भी दिखे अथवा नहीं दिखे , *अन्धकार को देखते* रहना चाहिये । *मानस-जप* , मानस ध्यान और दृष्टि -साधन, इन तीनों को अन्धकार पट पर ही *करना चाहिये*।"_

इससे भी स्पष्ट होता है कि मानस जप को भी दृष्टि से सम्बन्ध है - ठीक सामने देखते हुए (सिमटी दृष्टि से नहीं, और बिना किसी आकृति अथवा रूप को देखने का भाव रखते हुए सिर्फ सामने देखते हुए) मानस जप करना चाहिये।

सन्तमत के वर्तमान आचार्यश्री पूज्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज की भी यही शिक्षा है। यही बात ध्यान-विषयक जिज्ञासाओं के दौरान अक्सर अत्यन्त वरिष्ठ महात्मा पूज्य अच्युतानन्द बाबा भी कहा करते हैं।  तथा, पूज्य निर्मलानंद बाबा, पूज्य स्वरूपानन्द बाबा, पूज्य सत्यप्रकाश बाबा इत्यादि गण्यमान्य महात्मागण भी इस सिद्धान्त से सहमत हैं।

दरअसल, मन को दृष्टि की सहायता से नियंत्रित रखना सरल और सहज है। दृष्टि भी सूक्ष्म और मन भी सूक्ष्म। _अतः दृष्टि का कार्य ध्यानाभ्यास के प्रथम पग से ही प्रारंभ हो जाता है।_ परमाराध्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज कहा भी करते थे, *"मन का संबंध दृष्टि से है। जहाँ दृष्टि रहती है, वहीं मन रहता है।"* और फिर, मानस जप में मन ही ने तो जपना है मन्त्र! इसलिए यदि हम अपनी दृष्टि को समक्ष, सद्गुरु से ऐसा करने की सद्युक्ति सीखकर, रखते हुए जप करें तो जप में सफलता अपेक्षाकृत सरलतर हो जायेगी।

वस्तुतः, यदि हम ध्यानपूर्वक विचार करेंगे तो पाएँगे कि हम जब कभी मानस जप से भटक जाते हैं और थोड़ी देर बाद जब पुनः चेतते हैं तो पाते हैं कि ठीक उस क्षण में दृष्टि या तो ऊपर, नीचे, बाएँ, दाएँ, अर्थात् सामने की ओर से हटकर कहीं-न-कहीं खिसकी हुई मिलेगी। दृष्टि के खिसकने से जप की एकाग्रता, एकचित्तता जाती रहती है। इसलिए, दृष्टि को ठीक सामने रखते हुए (इसमें कुछ, कोई आकृति विशेष, देखने का भाव न हो, फैली दृष्टि से) जप करना ही सही है। 

इसको एक उदाहरण से समझने की चेष्टा करें। एक बच्चा जो अपने पिता के साथ बाजार या मेला घूमने जाता है और पिता का हाथ छूट जाता है, वह मेले में खो जाता है। पिताश्री को कहीं न पाकर वह बच्चा निराश, हताश हो घर लौट आता है। घर पहुँचकर देखता है कि वहाँ भी ताला लगा हुआ है। वह गृह द्वार, दहलीज पर बैठ जाता है और सामने सड़क की ओर एकटक से निहारता हुआ रोता जाता है, और पूरी कातरता से, विह्वलता से, "ओ पापा, हे पिताजी, हे पिताजी, हे ..., पुकारते हुए मन में भाव कैसा है - हे पिताश्री, आइये न, आजाइये न प्लीज!" पुकारता जाता है, पुकारता जाता है, पुकारता ही जाता है।

कुछ ऐसे ही विह्वल भाव हृदय में लिए सामने देखते हुए यदि हम भी पुकारते जाएँ, पुकारते जाएँ, पुकारते जाएँ - "सिर्फ दृष्टि सामने हो तथा मन में पुकार का भाव हो - "हे गुरु, आप तो उस सामने के अंधकार में ही छिपे हुए हैं न, दर्शन क्यों नहीं देते? हे गुरु! कहाँ छिप गए हैं आप? हे गुरु! कृपाकर प्रकट होइए न!" इस भाव के साथ लगातार टेर लगाते रहेंगे तो सच्चे दिल की कातर पुकार सुन सद्गुरु क्यों नहीं प्रकट होंगे! _"पिउ पिउ पिउ करि कूकिये, ना पड़ि रहिए असरार। बार-बार के कूकते, कबहुँक लगे पुकार।"_

"है ये जप नहीं, फ़रियाद है,
ये पुकार है गुरुदेव की।
मुर्शिदफ़नाफिल ना हुए,
फिर जप किया भी तो क्या किया।।
अरे ओ रे मन रटते रहो, है मन्त्र जो गुरु ने दिया।
कल्याण की गर आश है, बुझने न दो जप का दिया।।"

जप का स्वरूप पुकार का, आह्वान का होना चाहिए; ऐसी व्यग्रता होनी चाहिए पुकार में कि प्रेमपूर्ण जप रुपी पुकार को सुन गुरु प्रगट होने को विवश हो जायें।

गुरु महाराज का हमसब पर करम बरसे, हम जप में ऐसी विह्वल, तीव्र पुकार लगा सकें कि हमारी फ़रियाद सुन गुरु महाराज, हमारे कामिल मुर्शिद हमारे नयनाकाश में सामने प्रकट जाएँ और हम उनको अपलक निहारते हुए उनमें ही खो जायें, फ़ना हो जाएँ, पूरे का पूरा मन उन्हीं में अटक जाए और ऐसा करते वक़्त उसे ये भी इल्म न रहे कि वह उनके अक्स में अटक गया है। अहा! कैसा होगा वो दिन, कैसी होगी वो घडी........

मानस जप की स्वाभाविक परिणति मानस ध्यान में होनी ही चाहिए।

🙏🙏 जय गुरु! 🙏🙏

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...