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बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

देहावसान | देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है। महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
देेहावसान समये चित्ते यद्यद्विभावयेत्।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम्।।

देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है।


जीवनभर जो अपने मन में सोचते हैं, वही भावना अंत में याद आवे, यह संभव है। जन्मभर में कभी जो काम नहीं किया अथवा कभी कभी किया, वह अंत समय याद आवे, संभव नहीं। इसलिए नित्य भजन करें। सब कामों को छोड़कर तथा सब कामों को करते हुए, दोनों ढंग से करें तो अंत समय में अवश्य याद आवेगा तथा अपना परम कल्याण होगा।

प्र्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
-गीता 8/10
अर्थात् जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भौओं के बीच भक्ति से शराबोर होकर और योगबल से अच्छी तरह प्राणों को स्थिर करता है, तो दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है। यह शरीर चला जाएगा, कुछ संग जाने को नहीं है।

माल मुलुक को कौन चलावे, संग न जात शरीर।
करो रे बन्दे वा दिन की तदवीर।।

इसलिए हमलोग भजन-अभ्यास अधिक करें। केवल जानें अथवा पढ़ें, किंतु ध्यान नहीं करें तो उसको लाभ नहीं होता। वैसे ही जैसे-
धन धन कहत धनी जो होते, निर्धन रहत न कोय।
केवल धन-धन के कहने से कोई धनी नहीं होता। काम करते हुए भी अपना ख्याल भजन में लगाकर रखना चाहिए।
*कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।*
*सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै।*
*आप रहे जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।*
*जस पनिहारी कलस भरे, मारग में आवै।*
*कर छोड़ै मुख वचन,चित्त कलसा में लावै।।*
*फणि मणि धरै उतार, आपु चरने को जावै।*
*वह गाफिल ना परै, सुरति मणि माहिं रहावै।।*
*पलटू कारज सब करै, सुरति रहै अलगान।*
*कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।*
-पलटू साहब

भगवान श्रीकृष्ण का गीता में अर्जुन के प्रति यह उपदेश है- *‘युद्ध भी करो तथा ध्यान भी करो।’*  काम करने के समय भी हमारा ध्यान न छूटे, ऐसी कोशिश करनी चाहिए। जो दोनों तरह से भजन  करते हैं, उनका मन विशेष बिखरता नहीं। इसलिए ऐसा अभ्यास करना चाहिए कि प्रयाणकाल में हमारा ख्याल गड़बड़ न हो जाय कि बारम्बार जन्म लेना पड़े तथा दुःख उठाना पड़े। इससे जो नहीं डरते, वह नहीं कर सकते।
*‘डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।*
*डरत रहे सो ऊबरे, गाफिल खावै मार ।।’*

*‘पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्नतु मन्यते।*
*देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा।।*
*अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते।’*

अर्थ-मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है; मुक्ति वह है, जबकि जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है, जैसे नमक जल में घुलकर एक हो जाता है। इस तरह जब जीव उससे अन्य नहीं रह जाता, तब मुक्ति होती है।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

मानस जप कैसे करें! Manas Jaap kaise karen | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।

मानस जप कैसे करें?

मानस जप को सभी जपों का सम्राट कहा गया है। इसकी विशेषता है कि इसमें मन्त्र-जापक स्वयं मन ही होता है। मन ही मन, मन से ही गुरु प्रदत्त मन्त्र की मंत्रावृत्ति करनी होती है।


मन इधर-उधर न भटके, इसे निद्रा वा गुणावन (निर्धारित लक्ष्य से भटक कर मन का अन्य विचारों में खो जाना) न घेर ले, इसके लिए, संतों का उपदेश है, मन को समक्ष रखकर, सात्त्विकी वृत्ति में रखकर जप किया जाय (तामसी वृत्ति में नींद तथा रजोगुणी वृत्ति में मन में, विचारों में चंचलता आती है)। इसके लिए अपनी दृष्टि पर निगरानी रखनी भी अत्यावश्यक है।

उदाहरणार्थ, गुरु महाराज के एक प्रवचन में मानस जप से सम्बंधित एक महत्त्वपूर्ण बात आयी है जो ध्यातव्य है-

"... समझो कि तुम्हारे शरीर में दो भाग हैं। दाईं-बाईं ओर का मिलाप जहाँ है, वह मध्य है। दाईं  ओर की वृत्ति पिंगला और बाईं ओर की वृत्ति इड़ा, और बीच में सुषुम्ना है। कोशिश करो कि मध्य-वृत्ति में रखकर जप करने के लिए..."

मध्यवृत्ति में रहकर जप करना चाहिए। यदा-कदा कहीं-कहीं ऐसा कहा जाता है कि जप का दृष्टि से कोई संबंध नहीं है। गुरु महाराज का यह कथन इस स्थिति के  स्पष्टीकरण के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है - *मध्य अर्थात् समक्ष रहते हुए (अर्थात् सामने वृत्ति रखते हुए) जप करना चाहिए*। अपने ही एक अन्य प्रवचन में भी परामराध्य गुरु महाराज पुनः कहते हैं, "मानस जप करो। सुषुम्ना में वृत्ति रखकर नाम जपो।"

गुरु महाराज के प्रवचन में अन्यान्य स्थलों पर भी इसके संकेत मिलते हैं। एक बार पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज ने भी, मेरी जिज्ञासा के उत्तर में, मुझसे कहने की कृपा की थी, *जप करते समय दृष्टि ठीक सामने रखा करो।* एक स्थल पर उन्होंने कहा भी है-

_"जहाँ तक बन पड़े , भजन में मन लगाना चाहिये । कुछ भी दिखे अथवा नहीं दिखे , *अन्धकार को देखते* रहना चाहिये । *मानस-जप* , मानस ध्यान और दृष्टि -साधन, इन तीनों को अन्धकार पट पर ही *करना चाहिये*।"_

इससे भी स्पष्ट होता है कि मानस जप को भी दृष्टि से सम्बन्ध है - ठीक सामने देखते हुए (सिमटी दृष्टि से नहीं, और बिना किसी आकृति अथवा रूप को देखने का भाव रखते हुए सिर्फ सामने देखते हुए) मानस जप करना चाहिये।

सन्तमत के वर्तमान आचार्यश्री पूज्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज की भी यही शिक्षा है। यही बात ध्यान-विषयक जिज्ञासाओं के दौरान अक्सर अत्यन्त वरिष्ठ महात्मा पूज्य अच्युतानन्द बाबा भी कहा करते हैं।  तथा, पूज्य निर्मलानंद बाबा, पूज्य स्वरूपानन्द बाबा, पूज्य सत्यप्रकाश बाबा इत्यादि गण्यमान्य महात्मागण भी इस सिद्धान्त से सहमत हैं।

दरअसल, मन को दृष्टि की सहायता से नियंत्रित रखना सरल और सहज है। दृष्टि भी सूक्ष्म और मन भी सूक्ष्म। _अतः दृष्टि का कार्य ध्यानाभ्यास के प्रथम पग से ही प्रारंभ हो जाता है।_ परमाराध्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज कहा भी करते थे, *"मन का संबंध दृष्टि से है। जहाँ दृष्टि रहती है, वहीं मन रहता है।"* और फिर, मानस जप में मन ही ने तो जपना है मन्त्र! इसलिए यदि हम अपनी दृष्टि को समक्ष, सद्गुरु से ऐसा करने की सद्युक्ति सीखकर, रखते हुए जप करें तो जप में सफलता अपेक्षाकृत सरलतर हो जायेगी।

वस्तुतः, यदि हम ध्यानपूर्वक विचार करेंगे तो पाएँगे कि हम जब कभी मानस जप से भटक जाते हैं और थोड़ी देर बाद जब पुनः चेतते हैं तो पाते हैं कि ठीक उस क्षण में दृष्टि या तो ऊपर, नीचे, बाएँ, दाएँ, अर्थात् सामने की ओर से हटकर कहीं-न-कहीं खिसकी हुई मिलेगी। दृष्टि के खिसकने से जप की एकाग्रता, एकचित्तता जाती रहती है। इसलिए, दृष्टि को ठीक सामने रखते हुए (इसमें कुछ, कोई आकृति विशेष, देखने का भाव न हो, फैली दृष्टि से) जप करना ही सही है। 

इसको एक उदाहरण से समझने की चेष्टा करें। एक बच्चा जो अपने पिता के साथ बाजार या मेला घूमने जाता है और पिता का हाथ छूट जाता है, वह मेले में खो जाता है। पिताश्री को कहीं न पाकर वह बच्चा निराश, हताश हो घर लौट आता है। घर पहुँचकर देखता है कि वहाँ भी ताला लगा हुआ है। वह गृह द्वार, दहलीज पर बैठ जाता है और सामने सड़क की ओर एकटक से निहारता हुआ रोता जाता है, और पूरी कातरता से, विह्वलता से, "ओ पापा, हे पिताजी, हे पिताजी, हे ..., पुकारते हुए मन में भाव कैसा है - हे पिताश्री, आइये न, आजाइये न प्लीज!" पुकारता जाता है, पुकारता जाता है, पुकारता ही जाता है।

कुछ ऐसे ही विह्वल भाव हृदय में लिए सामने देखते हुए यदि हम भी पुकारते जाएँ, पुकारते जाएँ, पुकारते जाएँ - "सिर्फ दृष्टि सामने हो तथा मन में पुकार का भाव हो - "हे गुरु, आप तो उस सामने के अंधकार में ही छिपे हुए हैं न, दर्शन क्यों नहीं देते? हे गुरु! कहाँ छिप गए हैं आप? हे गुरु! कृपाकर प्रकट होइए न!" इस भाव के साथ लगातार टेर लगाते रहेंगे तो सच्चे दिल की कातर पुकार सुन सद्गुरु क्यों नहीं प्रकट होंगे! _"पिउ पिउ पिउ करि कूकिये, ना पड़ि रहिए असरार। बार-बार के कूकते, कबहुँक लगे पुकार।"_

"है ये जप नहीं, फ़रियाद है,
ये पुकार है गुरुदेव की।
मुर्शिदफ़नाफिल ना हुए,
फिर जप किया भी तो क्या किया।।
अरे ओ रे मन रटते रहो, है मन्त्र जो गुरु ने दिया।
कल्याण की गर आश है, बुझने न दो जप का दिया।।"

जप का स्वरूप पुकार का, आह्वान का होना चाहिए; ऐसी व्यग्रता होनी चाहिए पुकार में कि प्रेमपूर्ण जप रुपी पुकार को सुन गुरु प्रगट होने को विवश हो जायें।

गुरु महाराज का हमसब पर करम बरसे, हम जप में ऐसी विह्वल, तीव्र पुकार लगा सकें कि हमारी फ़रियाद सुन गुरु महाराज, हमारे कामिल मुर्शिद हमारे नयनाकाश में सामने प्रकट जाएँ और हम उनको अपलक निहारते हुए उनमें ही खो जायें, फ़ना हो जाएँ, पूरे का पूरा मन उन्हीं में अटक जाए और ऐसा करते वक़्त उसे ये भी इल्म न रहे कि वह उनके अक्स में अटक गया है। अहा! कैसा होगा वो दिन, कैसी होगी वो घडी........

मानस जप की स्वाभाविक परिणति मानस ध्यान में होनी ही चाहिए।

🙏🙏 जय गुरु! 🙏🙏

सोमवार, 5 अगस्त 2019

पाप पुण्य कर्म फल अलग-अलग | Santmat Satsang | Paap Punya Karma

🙏🌹 श्री सद्गुरवे नमः 🌹🙏
🍁ईश्वर-भक्ति का ज्ञान सबको देना चाहिए। एक ईश्वर की उपासना ठीक है। बहुदेव उपासना ठीक नहीं। बहुदेव उपासी ईश्वर को भूल जाता है। वही नास्तिक है। फिर ऐसा भ्रम कि अमुक जगह मरने से स्वर्ग और अमुक जगह मरने से नरक होगा, यह बात नहीं हो सकती। गंगा-स्नान करने से, आपके मृतक शरीर को गंगा के किनारे जलाने से अथवा आपकी हड्डियाँ या भस्म को गंगाजी में देने से स्वर्ग हरगिज नहीं हो सकता।

 
पाप करके पुण्य करें, इससे पाप नहीं कट सकता। पुण्य का फल अलग और पाप का फल अलग मिलेगा। आपने किसी से दो रुपया कर्ज लिया और किसी को दो रुपया दान दिया, इसलिए वह महाजन आपसे रुपया नहीं माँगे, यह कहाँ की बात है? वह तो कहेगा कि आपने दान अपने लिए किया, मुझे उससे क्या? मेरा रुपया दो।
युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष झूठ बोले, बल्कि उनकी प्रेरणा से झूठ बोले, फिर भी दो मुहूर्त तक नरक में रहना पड़ा। उसके लिए खातिरदारी नहीं हुई। जो कर्म कीजिएगा, उसका फल भोगना ही पड़ेगा। तब आप कहेंगे कि क्या कर्म-फल से कोई छूट नहीं सकता? सौर-जगत में रहने से सूर्य का प्रभाव पड़ेगा ही। यदि सौर जगत से कोई पार हो जाए तो उस पर सूर्य का प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार कर्म मंडल में रहने से कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा। कर्ममण्डल पार कर जाने से कर्मफल छूट जाएगा। इसीलिए मैंने पहले ही कहा कि अपने को इन्द्रियों से छुड़ाओ।

*चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित अहंकार।*
*विमल विचार परमपद, निज सुख सहज उदार।।*
      -विनय-पत्रिका

विचार में अपने का ज्ञान होता है, किंतु पहचान नहीं। अपने को चतुष्ट्य अंतःकरण से छुड़ाओ, कर्ममण्डल से पार हो जाओगे। अपनी पहचान होगी और मोक्ष मिलेगा। फिर कर्मबंधन से छूटोगे। ‘कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चिन्हें।’ लोक- लोकान्तर में जाने से मुक्ति नहीं मिलती। कभी न कभी फिर यहाँ आना ही पड़ेगा। इसलिए अपने को सब आवरणों से छुड़ाकर कैवल्यता प्राप्त करो और मोक्ष प्राप्त कर लो। फिर आवागमन से रहित हो जाओगे।

(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)

🙏🌸🌿 जय गुरु महाराज 🌿🌸🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट

सोमवार, 29 जुलाई 2019

अपराध रहित होकर भगवान का भजन करें! SANTMAT SATSANG

अपराध रहित होकर भगवान् का भजन करें;

अशेषसंक्लेशशमं विधत्ते गुणानुवादश्रवणं मुरारेः ।
कुतः पुनस्तच्चरणारविन्द परागसेवारतिरात्मलब्धा ॥

                    (भा. ३/७/१४)



जितने प्रकार के क्लेश होते हैं, वे सब केवल भगवान् का गुणानुवाद श्रवण करने मात्र से शान्त हो जाते हैं । ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो कथा सुन लें और अगर भक्ति आ गयी तो फिर कहना ही क्या? संसार का ऐसा कोई कष्ट नहीं है जो भगवान् की भक्ति से दूर न हो जाए। कहीं भगवान के चरणों में रति हो गयी फिर तो क्या कहना? निश्चित रूप से समस्त कष्ट केवल कथा सुनने मात्र से चले जाते हैं ।

शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषाः ।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधन्ते हरिसंश्रयम् ॥
                     (भा. ३/२२/३७)

शरीर की जितनी बीमारियाँ हैं, मन के रोग, दैवी-कोप, भौतिक-पंचभूतों के क्लेश, सर्दी-गर्मी या सांसारिक-प्राणियों द्वारा प्राप्त कष्ट, सर्प, सिंह आदि का भय; ये सब भगवान् के आश्रय में रहने वाले पर बाधा नहीं करते ।
लेकिन ध्यान रहे कि कथा एवं हरिनाम निरपराध हो एवं गलती से भी कभी किसी वैष्णव का अपराध ना हो, वैष्णव का अपराध तो सपने में भी नहीं सोचना चाहिए।
नहीं तो सब बेकार है।

न भजति कुमनीषिणां स इज्यां हरिरधनात्मधनप्रियो रसज्ञः।
श्रुतधनकुलकर्मणां मदैर्ये विदधति पापमकिञ्चनेषु सत्सु॥
                  (भा. ४/३१/२१)
कोई कितनी भी आराधना कर रहा है, भजन कर रहा है लेकिन अगर अकिञ्चन भक्तों का अपराध करता है तो भगवान् उसके भजन को स्वीकार नहीं करते हैं। एक छोटे-से साधक-भक्त से भी चिढ़ते हों तो आपका सारा भजन नष्ट; फिर चाहे जप-तप कुछ भी करते रहो, उससे कुछ नहीं होगा क्योंकि भगवान् निर्धनों के धन हैं, गरीबों से प्यार करते हैं।

मनुष्य भक्तों का वैष्णवों का अपराध क्यों करता है?

मद के कारण। विद्या का मद (ज्यादा पढ़ गया तो छोटे लोगों को मूर्ख समझने लगता है); धन का मद (धन-सम्पत्ति ज्यादा बढ़ गयी तो दीनों का तिरस्कार करता है); अच्छे कुल में जन्म का मद (ऊँचे कुल में जन्म हो गया तो अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है और दीन-हीनों की उपेक्षा करता है); इसी तरह से कोई अच्छा कर्म कर लिया तो उसका मद, त्याग-वैराग्य कर लिया तो उससे मद हो जाता है, सांसारिक वस्तुओं में अहंता-ममता के कारण लोग ज्यादा अपराध करते हैं ।
इसलिए अपराध रहित होकर भगवान् का भजन करें, फिर देखें चमत्कार; किसी भी तरह का संकट, क्लेश आपको बाधा नहीं पहुँचा सकेगा।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुईं है | पर हम कभी-कभी इसकी कीमत नहीं समझते हैं और... | Khoobsurat Jindgi

भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुई है !

भगवान ने हमें इतनी खूबसूरत जिंदगी प्रदान की हुई है ! पर हम कभी-कभी इसकी कीमत नहीं समझते हैं और आधी जिंदगी यूँ ही बर्बाद कर देते हैं, जब होश आता है तो बहुत देर हो चुकी होती है!

हमें हमेशा अपने साथ-साथ दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए, दुसरों के लिए कुछ करने के बाद जो सुकून और चैन जीवन में मिलता है वो  कही नहीं मिलता है! सदा अच्छे विचार के साथ दिन की शुरुआत करनी चाहिए! सब कुछ तो भगवान ने पहले से निर्धारित कर के रखा है हमें तो बस कर्म करना है! कर्म करते जाओ फल तो भगवान देगा ही, कर्म से कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए! जीवन में घबराकर परेशान नहीं होना चाहिए! सुख और दुःख तो जीवन के दो हिस्से हैं एक आएगा तो दूसरा जायेगा दोनों सिक्के के दो पहलु है कभी भी एक साथ नहीं रह सकते! अगर हमने सुख को भोगा है तो दुःख को भी झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए! एक सुखी और शांत जीवन हमें तभी मिलेगा जब हम हर पल तैयार रहेंगे जीवन को जीने के लिए, कभी भी हिम्मत हार कर जिंदगी से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए डट कर सामना करना चाहिए जीवन अपने आप खूबसूरत बन जायेगा! ।। जय गुरु ।।

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

अहंकार से ज्ञान का नाश | Ahankar se gyan ka naash | कभी किसी को नहीं सताओ | गुप्तदान महादान | मृत्यु से कोई नहीं बच पाया | Santmat Satsang

अहंकार से ज्ञान का नाश;
अहंकार से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है। अहंकार से ज्ञान का नाश हो जाता है। अहंकार होने से मनुष्य के सब काम बिगड़ जाते हैं। भगवान कण-कण में व्याप्त है। जहाँ उसे प्रेम से पुकारो वहीं प्रकट हो जाते हैं। भगवान को पाने का उपाय केवल प्रेम ही है। भगवान किसी को सुख-दुख नहीं देता। जो जीव जैसा कर्म करेगा, वैसा उसे फल मिलता है। मनुष्य को हमेशा शुभ कार्य करते रहना चाहिए।

कभी किसी को नहीं सताओ :

धर्मशास्त्रों के श्रवण, अध्ययन एवं मनन करने से मानव मात्र के मन में एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सद्भावना एवं मर्यादा का उदय होता है। हमारे धर्मग्रंथों में जीवमात्र के प्रति दुर्विचारों को पाप कहा है और जो दूसरे का हित करता है, वही सबसे बड़ा धर्म है। हमें कभी किसी को नहीं सताना चाहिए। और सर्व सुख के लिए कार्य करते रहना चाहिए।

गुप्तदान महादान :
मनुष्य को दान देने के लिए प्रचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि दान में जो भी वस्तु दी जाए, उसको गुप्त रूप से देना चाहिए। हर मनुष्य को भक्त प्रहलाद जैसी भक्ति करना चाहिए। जीवन में किसी से कुछ भी माँगो तो छोटा बनकर ही माँगो। जब तक मनुष्य जीवन में शुभ कर्म नहीं करेगा, भगवान का स्मरण नहीं करेगा, तब तक उसे सद्‍बुद्धि नहीं मिलेगी।

मृत्यु से कोई नहीं बच पाया :

धन, मित्र, स्त्री तथा पृथ्वी के समस्त भोग आदि तो बार-बार मिलते हैं, किन्तु मनुष्य शरीर बार-बार जीव को नहीं मिलता। अतः मनुष्य को कुछ न कुछ सत्कर्म करते रहना चाहिए। मनुष्य वही है, जिसमें विवेक, संयम, दान-शीलता, शील, दया और धर्म में प्रीति हो। संसार में सर्वमान्य यदि कोई है तो वह है मृत्यु। दुनिया में जो जन्मा है, वह एक न एक दिन अवश्य मरेगा। सृष्टि के आदिकाल से लेकर आज तक मृत्यु से कोई भी नहीं बच पाया।
   ।। जय गुरू महाराज ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 17 जुलाई 2019

कर्मयोग | KARMAYOG | मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विषय-भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं होती | Santmat Satsang

कर्मयोग 

अध्याय तीन : कर्मयोग      श्लोक-39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च || ३९ ||

अनुवाद:

इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है |

तात्पर्य

मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विषय-भोग क्यों न किया जाय काम की तृप्ति नहीं होती, जिस प्रकार कि निरन्तर ईंधन डालने से अग्नि कभी नहीं बुझती | भौतिक जगत् में समस्त कार्यकलापों का केन्द्रबिन्दु मैथुन (कामसुख) है, अतः इस जगत् को मैथुन्य-आगार या विषयी-जीवन की हथकड़ियाँ कहा गया है | एक सामान्य वन्दीगृह में अपराधियों को छड़ों के भीतर रखा जाता है इसी प्रकार जो अपराधी भगवान् के नियमों की अवज्ञा करते हैं, वे मैथुन-जीवन द्वारा बंदी बनाये जाते हैं | इन्द्रियतृप्ति के आधार पर भौतिक सभ्यता की प्रगति का अर्थ है, इस जगत् में जीवात्मा की बन्धन अवधि का बढाना | अतः यह काम अज्ञान का प्रतीक है जिसके द्वारा जीवात्मा को इस संसार में रखा जाता है | इन्द्रियतृप्ति का भोग करते समय हो सकता है कि कुछ प्रसन्नता की अनुभूति हो, किन्तु यह प्रसन्नता की अनुभूति ही इन्द्रियभोक्ता का चरम शत्रु है |

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...