सन्त-स्तुति (सांयकालीन) |
प्रातः सांयकालीन सन्त-स्तुति सब सन्तन्ह की बडि़ बलिहारी। उनकी स्तुति केहि विधि कीजै, मोरी मति अति नीच अनाड़ी।।सब.।।1।। दुख-भंजन भव-फंदन-गंजन, ज्ञान-घ्यान निधि जग-उपकारी। विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि सरल-सरल जग में परचारी।।सब.।।2।। धनि- ऋषि-सन्तन्ह धन्य बुद्ध जी, शंकर रामानन्द धन्य अघारी। धन्य हैं साहब सन्त कबीर जी धनि नानक गुरू महिमा भारी ।। सब.।।3।। गोस्वामी श्री तुलसि दास जी, तुलसी साहब अति उपकारी। दादू सुन्दर सुर श्वपच रवि जगजीवन पलटू भयहारी।। सब.।।4।। सतगुरु देवी अरू जे भये, हैं, होंगे सब चरणन शिर धारी। भजत है ‘मेँहीँ ’ धन्य-धन्य कहि गही सन्त पद आशा सारी।। सब.।।5।। अपराह्न एवं सायंकालीन विनती प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये, विनवौं कर जोरी। पल-पल छोह न छोडि़ये, सुनिये गुरु मोरी ।।1।। युग-युगान चहुँ खानि में, भ्रमि-भ्रमि दुख भूरी। पाएउँ पुनि अजहूँ नहीं, रहूँ इन्हतें दूरी ।।2।। पल-पल मन माया रमे, कभुँ विलग न होता। भक्ति-भेद बिसरा रहे, दुख सहि-सहि रोता। ।।3।। गुरु दयाल दया करी, दिये भेद बताई। महा अभागी जीव के, दिये भाग जगाई ।।4।। दृष्टि टिकै सु्रति धुन रमै, अस करु गुरु दाया। भजन में मन ऐसो रमै, जस रम सो माया ।।5।। जोत जगे धुनि सुनि पड़ै, सु्रति चढै़ आकाशा। सार धुन्न में लीन होई, लहे निज घर वासा ।।6।। निजपन की जत कल्पना, सब जाय मिटाई। मनसा वाचा कर्मणा, रहे तुम में समाई ।।7।। आस त्रास जग के सबै, सब वैर न नेहू। सकल भुलै एके रहे, गुरु तुम पद स्नेहू ।।8।। काम क्रोध मद लोभ के, नहिं वेग सतावै। सब प्यारा परिवार अरू, सम्पति नहिं भावै ।।9।। गुरु ऐसी करिये दया, अति होइ सहाई। चरण शरण होइ कहत हौं, लीजै अपनाई। ।।10।। तुम्हरे जोत-स्वरूप अरु, तुम्हरे धुन-रूपा। परखत रहूँ निशि दिन गुरु, करु दया अनूपा ।।11।। आरती आरती संग सतगुरु के कीजै। अन्तर जोत होत लख लीजै ।।1।। पाँच तत्व तन अग्नि जराई। दीपक चास प्रकाश करीजै ।।2।। गगन-थाल रवि-शशि फल-फूला। मूल कपूर कलश धर दीजै ।।3।। अच्छत नभ तारे मुक्ताहल। पोहप-माल हिय हार गुहीजै ।।4।। सेत पान मिष्टान्न मिठाई। चन्दन धूप दीप सब चीजैं ।।5।। झलक झाँझ मन मीन मँजीरा। मधुर-मधुर धुनि मृदंग सुनीजै ।।6।। सर्व सुगन्ध उडि़ चली अकाशा। मधुकर कमल केलि धुनि धीजै ।।7।। निर्मल जोत जरत घट माँहीं। देखत दृष्टि दोष सब छीजै ।।8।। अधर-धार अमृत बहि आवै। सतमत-द्वार अमर रस भीजै ।।9।। पी-पी होय सुरत मतवाली। चढि़-चढि़ उमगि अमीरस रीझै ।।10।। कोट भान छवि तेज उजाली। अलख पार लखि लाग लगीजै ।।11।। छिन-छिन सुरत अधर पर राखै। गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।।12।। दमकत कड़क-कड़क गुरु-धामा। उलटि अलल ‘तुलसी’ तन तीजै । ।13।। पूज्यपाद महर्षि मे मेँहीँ परमहंसजी महाराज द्वारा रचित आरती जो उपरिलिखित आरती आरती के बाद गायी जाती है - आरति तन मन्दिर में कीजै। दृष्टि युगल कर सन्मुख दीजै ।।1।। चमके विन्दु सूक्ष्म अति उज्जवल। ब्रह्मजोति अनुपम लख लीजै ।।2।। जगमग जगमग रूप ब्रह्मण्डा। निरखि निरखि जोती तज दीजै ।।3।। शब्द सुरत अभ्यास सरलतर। करि करि सार शबद गहि लीजै ।।4।। ऐसी जुगति काया गढ़ त्यागि। भव-भ्रम-भेद सकल मल छीजै ।।5।। भव-खण्डन आरति यह निर्मल। करि ‘मेँहीँ ’ अमृत रस पीजै ।।6।। |
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