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बुधवार, 30 मई 2018

संतों की पहचान | SANT | Santon ki pahchan | Santmat | Santmat Satsang |

|| संत ||

☘संतों की पहचान कोई अध्यात्म ज्ञान को जानने वाला सेवक ही कर सकता है। इनका सम्पूर्ण जीवन व सभी कर्म दूसरों के लिए हैं। जैसे स्वाति बूंद अम्बर से गिरकर सीप के मुख में गिरती है तभी सीप मोती बनाता है। जिस प्रकार चन्दन की खुशबू हवा के द्वारा वन के अन्य वृक्षों की दुर्गन्ध को बदलकर उसको भी सुगनिधत कर देती है तथा सम्पूर्ण वन चन्दनमय हो जाता हैं उसी प्रकार संत भी परमात्मा की अमृत रूपी खुशबू को श्रद्धावान मानव के जीवन में प्रकट करके उसे सुगंधित कर देते हैं। सच्चे संत मधुमक्खी की तरह होते हैं जैसे मक्खी तो कर्इ प्रकार की होती हैं किन्तु मधुमक्खी के अलावा अन्य मकिखयाँ फूल से शहद एकत्र नहीं कर सकती बलिक उसे गंदा कर देती हैं तथा भोजन पर बैठने से उसे भी गंदा कर देती हैं जिससे कर्इ प्रकार की बीमारियां हो जाती हैं। जबकि मधुमक्खी फूल से शहद उठाती है। मधुमक्खी अपने मल-मूत्र, बच्चों एवं शहद को एक ही छत्ते में रखती है फिर भी उसके शहद को औषधि के रूप में कर्इ प्रकार के रोगों के निवारण हेतु प्रयोग किया जाता है इसी प्रकार संत योग साधन करके अपने जीवन रूपी फूल में शहद रूपी अमृत की खुशबू को प्रकट करते हैं तथा सदा परमानन्द में रमण करते हैं तथा उनके सानिध्य में जो भी श्रद्धावान मानव पहुंचता है। वह उनसे ''अध्यात्म सत्संग सुनकर जिज्ञासु बनकर विनम्र प्रार्थना करके एवं तन-मन-धन से सेवा करके ''अध्यात्म ज्ञान को प्राप्त करता है तथा वे उस जिज्ञासु को भी उसी ''सुमिरण साधन का अभ्यास बताते हैं जिसके द्वारा उन्होंने अपने जीवन में अमृत खुशबू को प्राप्त किया। जिससे वह अपने जन्म-जन्मान्तरों के कर्म संस्कारों के मृत्यु रोग को जीते जी में मिटाकर अपने आप को जीवन मुक्त कर लेता है। रेशम का कीड़ा अपनी लार थूक के रेशम का धागा तैयार करता है इस रेशम के धागे से बने वस्त्रों से अन्य मनुष्यों की शोभा एवं सुन्दरता बढ़ती है। रेशम को कीड़ा स्वयं अपने प्रयोग में नहीं लेता है उसी प्रकार संत का सम्पूर्ण जीवन व सभी कर्म दूसरों के लिए होते हैं क्योंकि इनके पूर्व जन्मों के संस्कार ज्ञानमय रहे होते हैं। सबका जन्म गृहस्थ में ही हेाता है तथा ''अध्यात्म ज्ञान सम्बन्धी पूर्व जन्मों के कर्म संस्कार सभी में रहते हैं किन्तु मानव को अध्यात्म ज्ञान प्राप्त हेाते ही पूर्व जन्म के कर्म संस्कार तथा सेवा, सत्संग व साधन के कर्म संस्कार भी जुड़ जाते हैं तब पूर्ण साधक की प्रबल धारणा बनकर संसार से विमुख होकर परमात्मा की ओर बहने लगती है। जैसे एक नदी की तीव्र धारा मिटटी को कटान करके अपनी पुरानी धारा से विमुख होकर अन्य दिशा में बहने लगती है तथा पुरानी दिशा में एक बूंद भी नहीं बहती है। इसी प्रकार संतों के ज्ञान सम्बन्धी योग साधन किये हुए पूर्व कर्म संस्कार बहुत मजबूत एवं शकितशाली होते हैं तथा उनकी परमात्मा में धारणा, ध्यान व समाधि स्वत: हो जाती है। ऐसे संत का जीवन कांच के गिलास की तरह होता है जिसके बाहर भीतर स्पष्ट दिखायी देता है। जैसे वृक्ष अपने फल दूसरों को ही प्रदान करता है स्वयं ग्रहण नहीं करता। इसी प्रकार संत भी समदर्शी सेवक बनकर समाज के अशान्त मानव को शान्ति पहुंचाते हैं। सांसारिक गृह को त्यागकर ब्रह्राचरित्र का पालनकर मानव के अन्दर इस पवित्र ''अध्यात्म ज्ञान का प्रत्यक्ष बोध कराते हैं। इस प्रकार इनके द्वारा दिया हुआ ज्ञान ही सेवक में फलीभूत होता है। ''अध्यात्म ज्ञान” के अभाव में आज के मानव में अशान्ति एवं आतंक का वातावरण छाया हुआ है। संत ही मानव के जीवन में स्थायी शान्ति का वातावरण स्थापित कर सकते हैं। जैसे एक सूर्य सम्पूर्ण सौर मंडल को प्रकाशित करता है उसी प्रकार महात्मा की आत्मा परमात्मा के योग से 'अध्यात्म’ सूर्य बनकर अन्य भटकी हुर्इ जीवात्माओं के अंधकारमय जीवन को प्रकाशित कर देती है। जैसे तीन नदियों के संगम होने पर उनके पानी को अलग-अलग नहीं किया जा सकता है उसी प्रकार परमात्मा, महात्मा की आत्मा तथा जीवात्मा का ज्ञान से संयोग हो जाने पर उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। यही अमर ज्ञान है। जय गुरु।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता
गुरुग्राम, हरियाणा

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