इस संसार में मानव आखिर कौन है?
जिनमें उत्तम कर्म हो, जीने की कला जानकर सही ढंग से जीते हो, वही वास्तव में मानव है।
संसार में केवल अपने लिए साधारण जीव भी जी लेते हैं, जैसे पशु पक्षी, कीट पतंग आदि। लेकिन नियम निष्ठा से जीना कोई विरला संत ही जानते हैं। संसार में ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जो चाहते हैं कि हमारे द्वारा दूसरे को भी सुख पहुंचे और इसके लिए वे सदा प्रयत्नशील रहते हैं। मनुष्य का शरीर चौरासी लाख प्रकार की योनियों में सबसे श्रेष्ठ है, लेकिन मनुष्य शरीर रहते हुए भी अगर हमारे अंदर मानवीय गुण सन्निहित नहीं है, तो जैसे रावण ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी राक्षस की गिनती में गिने गए, कंस मनुष्य के रूप में होते हुए भी राक्षस कहलाये, उसी तरह हमारे अंदर मानवीय गुण नहीं रहने पर राक्षस कहलाएंगे। मनुष्य के पास मे दो तरह के गुण होते हैं :-
1) दैवी गुण, 2) दानवीय गुण।
दैवी गुण क्या है? दूसरों के सुखों का ख्याल रखना। चाहे आप कितने भी कष्ट में पड़े हुए हैं, लेकिन दूसरे के सुख का ख्याल रखते हैं, तो दैवी गुण है। लेकिन दानवीय स्वभाव वाले सिर्फ अपना ही ख्याल रखते हैं और दूसरों को सुखी, उन्नति समृद्धि देखकर जलते हैं, ऐसे गुण जिनमें समाहित होते हैं, वे मनुष्य के रूप में दानव हैं। एक-दूसरे को सुख पहुँचाने, आदर देने का गुण मानव शरीर में है। यह गुण हममें नहीं है, तो हम मानव नहीं, पशु तुल्य हैं। -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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