आशीर्वाद से आसान होती है सफलता;
विनम्रता दूसरों को प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि कई बार स्वयं को अहंकार में भी डुबो सकती है। विनम्रता से पैदा हुआ अहंकार बहुत ही सूक्ष्म होता है।
इसलिए जब कभी हम विनम्रता का व्यवहार कर रहे हों, इस बात में सावधान रहें कि जब दूसरे हमारी विनम्रता पर हमारी प्रशंसा करें तो हम प्रशंसा को कानों से हृदय में उतरने न दें। अपनी योग्यता को कहीं न कहीं परमात्मा की शक्ति से जोड़े रखें, तो अहंकार के खतरे कम हो जाते हैं।
सुंदरकांड में भगवान श्रीराम हनुमानजी की प्रशंसा कर रहे थे, तब हनुमानजी ने कहा- मेरा लंका जाना, उसे जलाना, लौटकर आना यह सब मेरे वश में नहीं है।
सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।
यह सब तो श्रीरघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ भी नहीं है। संत बताते हैं कि भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा था- फिर समुद्र किस शक्ति से लांघा।
हनुमानजी का जवाब था आपके द्वारा दी गई अंगूठी से। भगवान श्रीराम समझ गए, ये एक बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर है। इसमें भक्त ने स्वयं को बचाया है और श्रेय परमात्मा को दे दिया है। तब भगवान श्रीराम ने याद दिलाया कि अंगूठी तो सीताजी को दे दी थी, फिर लौटकर कैसे आए? हनुमानजी समझ गए कि इस समय भगवान जमकर परीक्षा ले रहे हैं। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया- आते समय माता सीता ने उनकी चूड़ामणि दी थी। उसी के सहारे लौटा हूं। इस प्रताप में मेरा स्वयं का कोई योगदान नहीं है।
बड़ी सुंदर बात हनुमानजी बताते हैं कि जब गया तो पिता की कृपा थी और जब लौटा तो मां का आशीर्वाद साथ था। जिनके साथ जीवन के संघर्ष में माता-पिता के आशीर्वाद होते हैं उनकी सफलताएं सरल हो जाती हैं।
जय गुरु
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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