परम स्नेही संत
सत्संग से हमें वह रास्ता मिलता है, जिससे हमारा तो उद्धार हो जाता है, हमारे इक्कीस कुलक भी तर जाते हैं।
बिनु सत्संग न हरिकथा ते बिन मोह न भाग।
मोह गये बिनु राम पद, होवहिं न दृढ़ अनुराग।।
सत्संग की जगह पर जाने से, एक-एक कदम रखने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है। देवर्षि नारद दासी के पुत्र थे…. विद्याहीन, जातिहीन, धनहीन, कुलहीन और व्यवसायहीन दासी के पुत्र। चतुर्मास में वह दासी साधुओं की सेवा में लगायी गयी थी। साधारण दासी थी। वह साधुओं की सेवा में आती थी तो अपने छोटे बच्चे को भी साथ में ले आती थी। वह बच्चा कीर्तन करता, सत्संग सुनता। साधुओं के प्रति उसकी श्रद्धा हो गयी। उसको कीर्तन, सत्संग, ध्यान का रंग लग गया। उसको आनंद आने लगा। संतों ने नाम रख दिया हरिदास। सत्संग, ध्यान और कीर्तन में उसका चित्त द्रवित होने लगा। जब साधु जा रहे थे तो वह बोलाः “गुरुजी ! मुझे साथ ले चलो।”
संतः “बेटा ! अभी तुझे हम साथ नहीं ले जा सकते। जन्मों-जन्मों का साथी जो हृदय में बैठा है, उसकी भक्ति कर, प्रार्थना कर।”
संतों ने ध्यान-भजन का तरीका सिखा दिया और वही हरिदास आगे चलकर देवर्षि नारद बना। जातिहीन, विद्याहीन, कुलहीन और धनहीन बालक था, वह देवर्षि नारद बन गया। नारदजी को तो देवता भी मानते हैं, मनुष्य भी उनकी बात मानते हैं और राक्षस भी उनकी बात मानते हैं।
कहाँ तो दासी पुत्र ! जातिहीन, विद्याहीन, कुलहीन और कहाँ भगवान को सलाह देने की योग्यता !
ऐसे महान बनने के पीछे नारदजी के जीवन के तीन सोपान थेः
1. सोपान था-सत्संग, साधु समागम।
2. सोपान था-उत्साह।
3. सोपान था-श्रद्धा।
सत्संग, उत्साह और श्रद्धा अगर छोटे से छोटे आदमी में भी हों तो वह बड़े से बड़े कार्य कर सकता है। यहाँ तक कि भगवान भी उसे मान देते हैं। वे लोग धनभागी हैं जिनको सत्संग मिलता है ! वे लोग विशेष धनभागी हैं जो सत्संग दूसरों को दिलाने की सेवा करके संत और समाज के बीच की कड़ी बनने का अवसर खोज लेते हैं, पा लेते हैं और अपना जीवन धन्य कर लेते हैं!
।। जय गुरु ।।
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