महात्मा बनने के मार्ग में मुख्य विघ्न!
ज्ञानी, महात्मा और भक्त कहलाने तथा बनने के लिए तो प्राय: सभी इच्छा करते है, परन्तु उसके लिए सच्चे हृदय से साधन करने वाले लोग बहुत कम है। साधन करने वालों में भी परमात्मा के निकट कोई बिरले ही पहुँचता है; क्योकि राह में ऐसी बहुत सी विपद-जनक घाटियाँ आती है जिनमे फसकर साधक गिर जाते है। उन घाटियों में ‘कन्चन; और ‘कामिनी’ ये दो घाटियाँ बहुत ही कठिन है, परन्तु इनसे भी कठिन तीसरी घाटी मान-बड़ाई और ईर्ष्या की है। किसी कवि ने कहा है:-
कंच्चन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह।
मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह।।
इन तीनो में सबसे कठिन है बड़ाई। इसी को कीर्ति, प्रशंसा, लोकेष्णा आदि कहते है। शास्त्र में जो तीन प्रकार की त्रष्णा (पुत्रैष्णा, लोकैष्णा और वित्तेष्णा) बताई गयी है। उन तीनो में लोकैष्णा ही सबसे बलवान है। इसी लोकैष्णा के लिए मनुष्य धन, धाम, पुत्र, स्त्री और प्राणों का भी त्याग करने के लिए तैयार हो जाता है।
जिस मनुष्य ने संसार में मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग कर दिया, वही महात्मा है और वही देवता और ऋषियों द्वारा भी पूजनीय है। साधू और महात्मा तो बहुत लोग कहलाते है किन्तु उनमे मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग करने वाला कोई विरला ही होता है। ऐसे महात्माओं की खोज करने वाले भाइयों को इस विषय का कुछ अनुभव भी होगा।
हम लोग पहले जब किसी अच्छे पुरुष का नाम सुनते है तो उनमे श्रद्धा होती है पर उनके पास जाने पर जब हमें उनमें मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा दिखलाई देती है, तब उन पर हमारी वैसी श्रद्धा नहीं ठहरती जैसी उनके गुण सुनने के समय हुई थी। यद्यपि अच्छे पुरुषों में किसी प्रकार भी दोषदृष्टि करना हमारी भूल है, परन्तु स्वभाव दोष से ऐसी वृतियाँ होती हुई प्राय: देखि जाती है और ऐसा होना बिलकुल निराधार भी नहीं है। क्योकि वास्तव में एक ईश्वर के सिवा बड़े-से-बड़े गुणवान पुरुषों में भी दोष का कुछ मिश्रण रहता ही है। जहाँ बड़ाई का दोष आया की झूठ, कपट और दम्भ को स्थान मिल जाता है तो अन्यान्य दोषों के आने को सुगम मार्ग मिल जाता है। यह कीर्ति रूप दोष देखने में छोटा सा है परन्तु यह केवल महात्माओं को छोड़कर अन्य अच्छे-से-अच्छे पुरुषों में भी सूक्ष्म और गुप्तरूप से रहता है। यह साधक को साधन पथ से गिरा कर उसका मूलोच्छेदन कर डालता है।
—श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
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