।। चिन्तन ।।
चित्त और वित्त की स्थिति लगभग एक जैसी है। चित्त अर्थात मन को काबू में में रखना असम्भव सा है वैसे ही धन को भी मुट्ठी में बंद कर नहीं रखा जा सकता। हमारा मन वहीं ज्यादा जाता है जहाँ हम इसे रोकना चाहते हैं। इसीलिए कहा गया है कि मन के लिए निषेध ही निमंत्रण का काम करता है। जहाँ से हटाना चाहेंगे यह उसी तरफ भागेगा।
ठीक ऐसे ही धन जब आता है तो शांति भी बाहर की ओर भागने लगती है। धन के साथ-साथ स्वयं की शांति और परिवार का सदभाव बना रहे, यह थोड़ा मुश्किल काम है।
चित्त और वित्त दोनों चंचल हैं, दोनों जायेंगे ही, इसलिए दोनों को जाने भी दीजिए! मगर कहाँ ? जहाँ सत्संग हो, परोपकार हो, जहाँ प्रभु का द्वार हो और जहाँ से हमारा उद्धार हो।
।। जय गुरु ।।
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