हमारे जीवन का प्रत्येक पल मूल्यवान व अंतहीन संभावनाअों से भरा है, प्रत्येक पल के प्रति अादर अौर विश्वास रखें व उस का सदुपयोग करें।
सगुण भक्तिधारा के संत तुलसीदास ने रामचरितमानस में संतों के दिव्य स्वरूप का वर्णन किया है। संतों की उनकी इस व्याख्या में एक ओर स्फटिक की सुँदरता है, तो दूसरी और मोती के आब की तरलता। तुलसी का संत स्वरूप उदात्त, निर्मल और पावन है। उनके अनुसार जिसके अंतःकरण में ‘स्व’ की भावना का विसर्जन हो गया वही संत में राग उस समय गलता है, जब वह स्वयं को परमार्थ के लिए उत्सर्ग कर देता है। उसके उत्सर्ग में प्रतिदान नहीं, बलिदान की भावना रहती है। प्रतिग्रह न होकर आत्मसमर्पण होता है, लेने का नहीं लुटा देने का भाव प्रधान होता है। संत औरों के लिए स्वयं को लुटा देता है। अपने को निःशेष भाव से लुटाकर ही मेघ जलधि कहलाता है। संत भी मेघ की भाँति अवघड़दानी होता है।
तुलसीदास जी कहते हैं संतों के अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह रूपी मनोविकार नहीं होता। उनका जीवन जप, तप, व्रत और संयम से संयमित होता है। श्रद्धा, मैत्री, मुदिता, दया आदि श्रेष्ठ गुण उनके हृदय में सदैव वास करते हैं। संतों का हृदय मोम के समान होता है। उनकी करुणा हिमालय सदृश्य होती है, जो पिघल−पिघलकर अगणित धाराओं के रूप में प्रवाहित होती है। यही धाराएँ आगे चलकर संत परंपरा बनी हैं। संतों के उपदेशों ने ही संत परंपरा की नींव डाली।
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