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मंगलवार, 10 जुलाई 2018

प्रसिद्ध व धनवान व्यक्ति कैसे बनें? | Prasidh aur dhanwan vyakti kaise bane |

प्रसिद्ध व धनवान व्यक्ति कैसे बनें ?
दोस्तों ! व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने के लिए दान करना अनिवार्य है| जीवन की सबसे सुखद अनुभूति देने में है | दुनिया एपीजे अब्दुल कलाम, मदरटरेसा, बिलगेट्स, अक्षय कुमार जैसे देने वालो को नाम याद रखती है | आपको किसी भिखारी का नाम याद है ? आपने किसी भिखारी को प्रसिद्ध होते हुए सुना है ? ब्रज मोहन जी कहते हैं कि - 

"धनवान वही बनते है जो अपनी जेब खोलते हैं मतलब जो अपनी कमाई में से कुछ हिस्सा दुसरो की मदद के लिए दान करते हैं"

कैसे ? जब आप किसी की निस्वार्थ मदद करते हैं तो लेने वाले का ह्रदय प्रसन होता है | लेने वाला आंतरिक मन से देने वाले को दुआ देता है | वो दुआ उसे यशस्वी बनाती है | और लोग आपकी तरफ आकर्षित होने लगते हैं | पोजेटिव एनर्जी आकर्षित होने लगती है | इससे आपका मनोबल बढ़ने लगता है | जो विपरीत परिस्थति में भी आगे बढ़ने का रास्ता खोज लेता है| और तब आप के आगे बढ़ने का रास्ता खुद ब खुद खुलता जाता  हैं | 

जब किसी को देते है तो महान बन जाते हैं | और जब किसी से लेते हैं तो डाउन हो जाते हैं | इसलिए अगर महान बनना है, धनवान बनना है, प्रसिद्ध बनना है तो अपनी कमाई का कुछ हिस्सा दान करें | वैसे भी जो धन तिजौरी में बंद पड़ा है किसी की मदद में , किसी गरीब  लड़की  की शादी करने में या किसी धार्मिक कार्य करने में खर्च नही किया जाता ऐसे धन का क्या करोगे ?  बच्चों के लिए जोड़ोगे ?

 "बच्चों को विरासत में धन देने की बजाए संस्कार दो, हॉइयर एजुकेशन दो जिससे कल वो आपकी विरासत पर नियत ना रखें बल्कि  आपसे ज्यादा कमा सकें, आपसे बेटर लाइफ जी सकें और समाज में आपका नाम रोशन कर सकें"

किसी गरीब को रोटी कपडा देना ही दान नही है | हर जीव व प्राणी मात्र के प्रति करुणा रखना भी दान है | मानव जीवन का ये उद्देश्य होना चाहिए कि समाज के कल्याण के लिए सहयोग करें और ओर लोगो में सहयोग की भावना जगाएं | अपने से कमजोर तबके के लोगो को स्वालंबी बनाने व ऊपर उठने में सहयोग करें | परमात्मा ने आपको सक्षम बनाया है तो आप दुसरो को सक्षम बनाने में सहयोग करें |

अपना तन मन धन उपकार में लगा सकें तभी जीवन सार्थक है |  तभी जीवन उपयोगी है |  जीवन का बड़ा होना अनिवार्य नही है उपयोगी होना अनिवार्य है | जितना समाज व मानव उथान के हित के लिए आगे बढ़ेंगे उतना ही जीवन सार्थक होगा | तभी अपनी लाइफ में आगे बढ़ सकोगे बड़ा बन सकोगे | 

हर मानव को खुद से एक सवाल करना चाहिए कि में इस दुनिया में क्यों आया हूँ ? मेरा इस जग में भेजने का परमात्मा का उद्देश्य क्या रहा होगा ? धरती नदी पर्वत हवा जीव, जंतु, पौधे, सभी हम लोगो को कुछ ना कुछ देते हैं |अन कंडिशनली देते हैं विदाउट ऐनी सेल्फ इन्टरेष्ट देते हैं | जो भी उनके पास है वो दिए जाते हैं बिना किसी कंडीशन के बिना किसी एक्सेप्टेशन के  बिना कोई कीमत लिए |  

हम ने अपने परिवार को समाज को व अपने देश को क्या दिया ? माली भी जब एक पौधा लगाता है उसे सालो सींचता है खाद देता है विपरीत परिस्थति में उसकी रक्षा करता है लेकिन जब उस पर फल लगते हैं तब  उन्हें सब खाते हैं | 

मजबूत बनो, हल्के बर्तन की तरह मत बनो | हल्के बर्तन चूल्हे पर चढ़ते ही आग बबूला हो जाते हैं उसमे डाले गए पदार्थ उफनने लगते हैं पर भारी भरकम बर्तनो में जो पकता है उसकी गति तो धीमी होती है पर परिपाक उन्ही में ठीक से बन पड़ता हमे बबूले की तरह फूलना फुदकना नही चहिये  ऐसी रीति नीति स्थिर नही रहती वह कुछ क्षण में टूट जाती है | 
।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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परमात्मा को केवल माने नहीं, जाने भी | Parmatma ko kewal jane nahi mane bhi | Satntmat-Satsang |

परमात्मा को केवल माने नहीं, जाने भी!

कहै कबीर जब जान्या, जब  जान्या  तौ  मन मान्या।
मनमाने लोग नही पतीजै, नही पतीजै तौ  हम का कीजै।।

प्र्स्तुत पद संत कबीरदास जी द्वारा रचित है। इस में कबीरदास जी कह्ते है कि - 'जब मैने परमात्मा को अपने भीतर देखा, जाना, तभी मेरा मन परमात्मा को मानने लगा और यदि मनमुख लोग इस बात को नहीं स्वीकारते, तो मैं क्या करूँ ? न करें स्वीकार !
यह बात अगर आज भी किसी मनुष्य को समझाई जाए, तो वह स्वीकार नहीं करता। लोगों  ने परमात्मा को केवल मानने तक ही सीमित कर दिया है। कोई भी उसे जानने का कोशिश नहीं करता। जब बात ईश्वर दर्शन के विषय में आती है, तो लोगो को हजम नही होती। वे अपने व्यर्थ तर्को द्वारा इस तथ्य को झूठा ठहराने की कोशिश करते है। जब कि महापुरषों ने कभी ऐसा नही किया। उन्होने परमात्मा को केवल माना नहीं, अपितु जाना भी। आप जरा क्ल्पना करे कि  एक बेटा अपने पिता को जाकर कहे के,'पिता जी, मै आप को अपना पिता मानता हूँ। तो ऐसे मे वह पिता क्या सोचेगा ? यही न कि, 'अरे मूर्ख ! अभी तू मुझे  केवल अपना पिता मान ही रहा है ! तुने अभी तक जाना नही कि मै तेरा पिता हूँ । कितनी हस्यास्पद बात है न यह !
पर जरा ठहरे ! क्या यह ह्स्यस्पद बात हम लोगो पर लागू नही होती? हम भी तो आज अपने परम पिता परमात्मा को 'मानने' का ही दावा करते है। उसे 'जान ने' का दावा हम में से कितने लोग करते है ? यह दावा तो केवल और केवल एक पूर्ण संत ही कर सकते है या फिर उनके शिष्य जिन्हें उन्होने दीक्षा प्रदान की है। 'दीक्षा' का अर्थ ही होता है - 'दिखाना' अर्थात 'जानना' ।
स्वामी विवेकानन्द जी का इस बारे में स्पष्ट कथन है - जिन्हे अत्मा की अनुभूति या ईश्वर - साक्षात्कार न हुआ हो, उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि अत्मा या ईश्वर है ? यदि ईश्वर है, तो उसका साक्षात्कार करना होगा। यदि आत्मा नामक कोई चीज है, तो उसकी उपलब्धि करनी होगी। अन्था विश्वास ना करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है।' पर आज हम फिर भी लकीर के फकीर बने हुए हैं। सत्य का सन्देश मिलने पर भी अपनॊ मन की बनाई हुई चार दीवारी से ही घिरे रहना पसन्द करते है । बड़े गर्व से कह्ते है - 'जी, मैं इतने देवी- देवताओ को मानता हूँ। इतने अवतारो को मानता हूँ ....बस मानना ही मानना है । देखा नही है । भीतर कुछ साक्षात्कार नहीं हुआ। ऐसे खाली मानने पर टिका हुआ विश्वास पल - भर मे बिखर जाता है। एक बार की घट्ना है -
एक संत महापुरूष आसन पर बैठे हुए थे । एक आदमी उनके पास आया । आकर प्रणाम किया। बड़ा खुश ! संत ने पूछा, क्या हुआ भाई, आप बड़े खुश लग रहे हो? कह्ता है, महाराज ! मै आस्तिक बन गया। संत जी बड़े हैरान हुए - आस्तिक बन गया ! इस से पहले संत  कुछ कह्ते, वह व्यक्ति आपनी कहानी सुनाने लगा । कह्ता है - बहुत समय से मेरे बेटे की नौकरी नहीं लग रही थी । मै एक दिन हनुमान जी के मन्दिर मे गया । वहां मैने हनुमान जी को अल्टीमेटम दे दिया कि अगर पन्द्रह दिन के अन्दर अन्दर मेरे बेटे की नौकरी लग गई, तो मै तुम्हें मानना शुरू कर दूंगा। आस्तिक बन जाऊगा। तुम्हारे मन्दिर में भी आया करूंगा। प्रभु ने मेरी सुन ली। पन्द्रह दिन के अन्दर ही मेरे बेटे की नौकरी लग गई । इस लिए मै आस्तिक बन गया हूँ ! यह बात सुनकर, संत जी ने उस व्यक्ति को समझाते हुए कहा, आप की आस्तिकता की चादर बहुत पतली है । आप के विश्वास के पीछे स्वार्थ की बैसाखियां लगी हुई है । ऐसा विश्वास कभी भी लड़खड़ा कर गिर सकता है । इस लिए इस आधार पर परमात्मा को मानना ठीक नही। मेरी मानो तो आगे से कभी परमात्मा को अल्टीमेटम मत देना । पर यह तो स्वभाव सिद्ध है कि मनुष्य जिस काम मे एक बार सफल हो जाए, तो उसे दोबारा जरूर करता है । ऐसा ही हुआ। कुछ समय के बाद उस आदमी की पत्नी बीमार हो गई । उस ने सोचा कि क्यो ना फिर वही फार्मूला लगाया जाए । भगवान को चेतावानी दी जाए । जाकर फिर हनुमान जी को अल्टीमेटम दे दिया - हनुमान जी ! अगर सात दिनो के अन्दर मेरी पत्नी ठीक नहीं हुई, तो मै आप को मानना छोड दूंगा। फिर से नास्तिक बन जाऊँगा। होता तो वही है जो विधाता ने लिखा हुआ था । पाचवें दिन ही  उस की पत्नी मर गई । वह व्यक्ति फिर से नास्तिक बन गया । कहने का मतलब, उस का परमात्मा को मानना या ना मानना बस एक खेल था । अ:त जरूरत है कि हम तर्को वितर्को व अपनी धारणाओं के आधार पर परमात्मा को सिर्फ़ मानने तक ही सीमित न रहे । बल्कि एक पूर्ण गुरू की शरणागत होकर उस का दर्शन भी करे । उसे तत्व से जाने। तभी हमारा उस पर विश्वास अडिग होगा।
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram


शनिवार, 7 जुलाई 2018

सफलता बाहर नहीं, भीतर है | Safalta baahar nahi bhitar hai | उस राजा ने महात्मा बुद्ध से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सफल किया | Santmat-Satsang

सफलता बाहर नहीं, भीतर है!

सफल जीवन की परिभाषा क्या है? संसारियों के दृष्टिकोण से उन्हीं व्यक्तियों का जीवन सफल है, जिनके पास आपर धन - संपदा है, जो उच्च पद पर आसीन हैं, हजारों - लाखों लोग जिनके मान - सम्मान में सिर झुकाते
हैं |

परन्तु महापुरषों ने धन-पद- प्रतिष्ठा को सफलता का मापदंड कभी नहीं माना | उनके अनुसार सफलता क्षणभंगुरता में नहीं, शाश्वत में है | माया में नहीं, ब्रह्म में है | छाया में नहीं, यथार्थ में है | और चूँकि संसार के ये सभी पदार्थ क्षणभंगुर है, संसार स्वयं माया है, यथार्थ की छाया है, इसलिए इन्हें प्राप्त कर लेने में जीवन की सफलता हो नहीं सकती |

महात्मा बुद्ध के विषय में आता है - एक बार वे बनारस में एक बृक्ष के नीचे ध्यान - साधना में बैठे थे | तभी वहां से वाराणसी का राजा अपने घोड़े पर गुजरा | एकाएक उसकी दृष्टि महात्मा बुद्ध के चेहरे पर पड़ी | उनके मुखमंडल पर दिव्य ओज था, एक अलौकिक आकर्षण! वे अत्यंत आनंद की अवस्था में दिख रहे थे | राजा घोड़े से उतरा और महात्मा बुद्ध के पास गया | उन्हें प्रणाम करके बोला - भगवन, आपको देखकर मेरे मन में एक द्वंद्ध खड़ा हुआ है | कृपा उस का समाधान करें | ...मैं वाराणसी का राजा हूँ | मेरे पास आपर धन - संम्पदा है, वैभव है | यह जो मैंने मुकुट पहना हुआ है, इसमें हजारों अमूल्य रत्न लगे हैं | मेरे ये वस्त्र और जूते भी वेशकीमती रत्नों से जड़े हैं | इतना ही कीमती मेरा यह घोडा है | कई राज्यों - देशों पर मैं विजय प्राप्त कर चुका हूँ | विशाल साम्राज्य का स्वामी हूँ | पर इतना मात्र होते हुए भी मैं दुखी हूँ | लगता है कि संसार में सब कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया | असफल ही रहा | आपके पास कुछ नहीं है | फिर भी आप प्रफुल्लित हैं, प्रसन्न हैं | आप के रोम - रोम से आनन्द का झरना फूट रहा है! ऐसा क्यों?

बुद्ध मुस्कराए! फिर बोले - 'राजन! सफलता बाहर नहीं, भीतर है | सांसारिक वस्तुओं का परिग्रह कर लेने में नहीं, परमात्मा की प्राप्ति में है | एक समय मैं भी तुम्हारी तरह दरिद्र - समृद्ध था | हो सकता है, उस समय मेरे पास बाहरी तो सब कुछ था, पर आंतरिक कुछ नहीं | महल तो सुख साधनों से अटे पड़े थे | पर आंतरिक घर सूना था | इसलिए मैं समृद्ध होते हुए भी दरिद्र था | जब मैंने अंतर्जगत में परवेश किया, तो पाया यह प्रदेश प्रभु का साम्राज्य है | साक्षात् ब्रह्म इस राज्य का स्वामी है | जब तक आपने अंतर्दृष्टि के द्वारा उसका साक्षात्कार नहीं किया, उससे एकाकार नहीं हुए, तब तक बाकी सब होते हुए भी आप दरिद्र हो | और उस एक को मिलने पर बाकी कुछ न होते हुए भी समृद्द हो | यह समृद्धि ही जीवन में शांति व आनंद देती है | जीवन को पूर्णता व सफलता प्रदान करती है | आगे ये कथा बताती है की उस राजा ने महात्मा बुद्ध से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सफल किया |

सारत: सफलता माया को प्राप्त करने में नहीं, ब्रह्म की प्राप्ति में है | इसलिए एक पूर्ण गुरु की शरणागत होकर अपने घट में इश्वर का साक्षात्कार दर्शन करो | तदोपरांत साधना की गहराईयों में उतारकर उससे एकमिक हो | साथ ही, इस महान ब्रह्मज्ञान का जन - जन तक प्रचार परसार करो! तभी आपका जीवन सफलता की परिभाषा बन सकता है |
जय गुरु महाराज!
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

बुधवार, 4 जुलाई 2018

भारत भर में गुरु पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है | Guru Purnima | इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है | Santmat-Satsang | SADGURUMEHI | SANTMEHI

।।श्री सदगुरुवे नम :।।
भारत भर में गुरुपूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूम धाम से मनाया जाता है।
यह जानकर अपार हर्ष होगा कि परम पावन पर्व "गुरु पूर्णिमा" इस महीने के 27 जुलाई 2018, शुक्रवार को है। समस्त स्नेही और विद्द्वतजन को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनायें देते हुए, मैं निवेदन करता हूँ कि जहां भी गुरुदेव का आश्रम मंदिर है वहाँ आकर लाभ उठाएँ।

'गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥'

गुरु को अपनी महत्ता के कारण ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में ही गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी।  जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

गुरु पूर्णिमा का यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।

'राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥'

गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका है। गुरु की महत्ता को सभी धर्मों और सम्प्रदायों ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी है। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।

'हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।
सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय॥'

आप कितने ही कर्म करो, कितनी ही उपासनाएँ करो, कितने ही व्रत और अनुष्ठान करो, कितना ही धन इकट्ठा कर लो और कितना ही दुनिया का राज्य भोग लो लेकिन जब तक सदगुरु के दिल का राज्य तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचता, सदगुरुओं के दिल के खजाने तुम्हारे दिल तक नही उँडेले जाते, जब तक तुम्हारा दिल सदगुरुओं के दिल को झेलने के काबिल नहीं बनता, तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं। देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती।
एक सदगुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकटाते हैं। गुरु मेघ की तरह ज्ञानवर्षा करके शिष्य को ज्ञानवृष्टि में नहलाते रहते हैं। गुरु ऐसे वैद्य हैं जो भवरोग को दूर करते हैं। गुरु वे माली हैं जो जीवनरूपी वाटिका को सुरभित करते हैं। गुरु अभेद का रहस्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं। इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है।
।।श्री सद्गुरु महाराज की जय।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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मंगलवार, 3 जुलाई 2018

शिष्य वही, जिस पे गुरु शासन कर सके | Shishya vahi jis pe Guru shasan kar sake | Always deserve, but never Desire | जो सच को ईमान बना लेते हैं, अपने आप को इन्सान बना लेते हैं |

शिष्य वही, जिस पे गुरु शासन कर सके!

एक व्यक्ति के पास तीन प्रकार के धनुष्य थे | पहला धनुष्य बोला कि, 'हे मालिक, कहीं मुझे यू  ही  पड़े - पड़े जंग न लग जाये, इसलिए तू मेरा इस्तेमाल कर |' दूसरे ने कहा, तू मेरी प्रत्यंचा चढ़ा | लेकिन देखो, ध्यान से ! कहीं मैं टूट न जाओं  ? तीसरे धनुष्य ने कहा,' तू जैसे चाहे मेरा इस्तेमाल कर, बेशक मैं टूट क्यों न जाओं | ठीक ऐसे ही तीन प्रकार के लोग गुरु के पास पहुँचते हैं | पहली प्रकार के लोग पहले धनुष्य कि भांति गुरु की सेवा तो करते हैं, लेकिन इस डर से कहीं सांसारिक कष्ट हमें खत्म न कर दें | कहीं हमारे जीवन में दुःख न आ जाएँ | ये व्यापारी किस्म के होते हैं |

दूसरी प्रकार के भक्त, दूसरे धनुष्य जैसे होते हैं जो कहते हैं हमारी प्रत्यंचा चढाओ, लेकिन ध्यान रखना कहीं हम टूट न जाएँ | ऐसे भक्त सेवा तो करते हैं, लेकिन अपने आप को सुरक्षित रखकर | स्वयं का नुकसान नहीं देख सकते | पहली प्रकार के भक्त तो फिर भी समझाने से समझ जाते हैं | लेकिन ये दूसरे प्रकार के भक्त इतने डरपोक और कायर होते हैं कि समझाने पर भी इनका विवेक जागृत नहीं होता | ये भक्त मुश्किलों से घबराकर, इस पथ को छोड़ देते हैं, इस मार्ग से टूट जाते हैं |और जब टूटते हैं तो दोष भी गुरु को देते हैं , लेकिन ऐसे भक्त भली - भांति समझ लें, कि अगर वे पूर्ण ज्ञान का आनंद नहीं उठा पा रहे इस का एक मात्र कारण यही है क वे उचित मूल नहीं दे रहे | आपको समर्पण और त्याग रुपी मूल्य देना होगा | उसी समय  आप को परमानन्द का अनुभव होगा |
तीसरी प्रकार के शिष्य वे हैं जो कहते हैं , 'हे गुरुवर, हमें अपनी सेवा में लगा लो | बदले में चाहे हम खत्म ही क्यों न हो जाएँ | ऐसे शिष्यों कि तुलना वारिश में सीधे पड़े घड़े के साथ कि जा सकती है | इनमें पात्रता होती है | ये गुरु कृपा को समेट पाते हैं | ये योग्य बनते हैं पर कुछ नहीं मांगते | लोग कहते हैं  First deserve, then desire   पहले योग्य बनो फिर इच्छा करो | पर हमारे वेदों ने कहा Always deserve, but never Desire -  सदा योग्य बने रहो, लेकिन कभी इच्छा मत करो | क्यों कि तुम्हारा अंतरयामी  गुरु सब जनता है कि तुम्हे कब क्या चाहिए | जो भक्त गुरु के सिवा कुछ देखते नहीं, बोलते नहीं, सुनते नहीं, सोचते नहीं, उनका तो सदैव गुरु भी चिंतन किया करते हैं |
आप भी महाराज  जी के निर्देशों को समझें और उनके मुतबिक चलते चलें | खुशकिस्मत होते हैं वो लोग, जिनका चुनाव समय का रहवर करता है | मिटटी के खिलोने को तो एक दिन टूटना ही है | अच्छा होगा अगर हम सत्य कि राहों पर चलते हुए अपने आप को कुर्बान कर दें | मन  से, तन से, अंदर से, बाहर से - सब ओर से गुरु के लक्ष्य  के लिए कुर्बान हो जाएँ | किसी ने खूब कहा है -

जो सच को ईमान बना लेते हैं,
अपने आप को इन्सान बना लेते हैं |
आ जाता है सच पर मरना जिन्हें,
वो मरने को वरदान बना लेते हैं |

अंत  में मैं यही कहना चाहूँगा कि हम सभी ने तीसरे प्रकार का गुरु भक्त बनने का प्रयास करना है | हम ने गुरु को स्वतंत्रता  देनी है, कि वे हमें तराश सके | दूसरों को या ज्ञान को या गुरु को दोष देने की बजाय स्वयं पर दृष्टिपात करना है | कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा दामन अब तक इस लिए खाली है क्यों कि हमने उसके छेद बंद नहीं किए | सच मानिए, गुरु चोबीस घंटे आपका इंतजार कर रहा है कि कब मेरा शिष्य मेरे पास आए | उसके इंतजार को निराशा नहीं देनी, बल्कि ऐसा शिष्य बनना है जिस की उसे तलाश है | वह  शिष्य जिस पर वह शासन कर सके, अपनी मर्ज़ी लागू कर सके | जय गुरु महाराज

प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सोमवार, 2 जुलाई 2018

बाप पतंग उड़ा रहा था बेटा ध्यान से देख रहा था | Baap patang ura raha tha beta dhyan se dekh raha tha | घर | परिवार | अनुशासन | दोस्ती |

बाप पतंग उड़ा रहा था  बेटा ध्यान से देख रहा था

थोड़ी देर बाद बेटा बोला पापा ये धागे की वजह से पतंग और ऊपर नहीं जा पा रही है इसे तोड़ दो

बाप ने धागा तोड़ दिया

पतंग थोडा सा और ऊपर गई और उसके बाद निचे आ गई

तब बाप ने बेटे को समझाया

बेटा जिंदगी में हम जिस उचाई पर है, हमें अक्सर लगता है , की कई चीजे हमें और ऊपर जाने से  रोक रही है, जैसे
            घर,

          परिवार,
        अनुशासन,
           दोस्ती,

और हम उनसे आजाद होना चाहते है, मगर यही चीज होती है
जो हमें उस उचाई पर बना के रखती है.

उन चीजो के बिना हम एक बार तो ऊपर जायेंगे मगर बाद में हमारा वो ही हश्र होगा, जो पतंग का हुआ.

इसलिए जिंदगी में कभी भी
          अनुशासन का,
           घर का ,
           परिवार का,
           दोस्तों का,
     रिश्ता कभी मत तोड़ना...

प्रेम की रीत निराली | Prem ki reet nirali | भगवान राम लक्ष्मण व सीता सहित चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे | Santmat-Satsang

प्रेम की रीत निराली

प्रेम की रीत निराली भगवान राम लक्ष्मण व सीता सहित चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे! राह बहुत पथरीली और कंटीली थी! सहसा प्रभुके चरणों में एक कांटा चुभ गया! फलस्वरूप वह रूष्ट या क्रोधित नहीं हुए, बल्कि हाथ जोड़कर धरती से एक अनुरोध करने लगे ! बोले - "माँ, मेरी एक विनम्र प्रार्थना है तुमसे !!
क्या स्वीकार करोगी ?
धरती बोली - "प्रभु प्रार्थना नही, दासी को आज्ञा दीजिए!
'माँ, मेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज में इस पथ से गुज़रे, तो तुम नरम हो जाना! कुछ पल के लिए अपने आँचल के ये पत्थर और कांटे छुपा लेना ! मुझे कांटा चुभा सो चुभा ! पर मेरे भरत के पाँव में अघात मत करना!', प्रभु विनत भाव से बोले! प्रभु को यूँ व्यग्र देखकर धरा दंग रह गई ! पूछा - "भगवन, धृष्टता क्षमा हो! पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार है ? जब आप इतनी सहजता से सब सहन कर गए, तो क्या कुमार भरत नहीं कर पाँएगें ? और फिर मैंने तो सुना है कि वे संतात्मा है! संत तो स्वभाव से ही सहनशील व धैर्यवान हुआ करते है! फिर उनको लेकर आपके चित में ऐसी व्याकुलता क्यों ? प्रभु बोले - 'नहीं .....नहीं माता! आप मेरे कहने का अभिप्राय नहीं समझीं! भरत को यदि कांटा चुभा, तो वह उसके पाँव को नहीं, उसके हृदय को विदीर्ण कर देगा! ''हृदय विदीर्ण !! ऐसा क्यों प्रभु ?', धरती माँ जिज्ञासा घुले स्वर में बोलीं!' अपनी पीडा़ से नहीं माँ, बल्कि यह सोचकर कि इसी कंटीली राह से मेरे प्रभु राम गुज़रे होंगे और ये शूल उनके पगों में भी चुभे होंगे! मैया, मेरा भरत कल्पना में भी मेरी पीड़ा सहन नहीं कर सकता ! इसलिए उसकी उपस्थिति में आप पंखुड़ियों सी कोमल बन जाना'!
जय हो.....जय श्री राम!
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...