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गुरुवार, 9 अगस्त 2018

गुरु नानक वाणी: पहिलै पिआरि लगा थण दुधि!! | Guru Nanak Devji Vani | Santmat-Satsang |

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि।।

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि।।
दूजै माइ बाप की सुधि॥
तीजै भया भाभी बेब।।
चउथै पिआरि उपंनी खेड॥
पंजवै खाण पीअण की धातु।।
छिवै कामु न पुछै जाति॥
सतवै संजि कीआ घर वासु॥
अठवै क्रोधु होआ तन नासु॥
नावै धउले उभे साह॥
दसवै दधा होआ सुआह॥
गए सिगीत पुकारी धाह॥
उडिआ हंसु दसाए राह॥
आइआ गइआ मुइआ नाउ॥
पिछै पतलि सदिहु काव॥
नानक मनमुखि अंधु पिआरु॥
बाझु गुरू डुबा संसारु॥
(गुरवाणी)

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि सब से पहले इस जीव आत्मा का माता के दूध से प्रेम हो गया और जब कुछ  होश आया तो माँ-बाप की पहचान हो गई | बहन भाई  की जानकारी मिल गई | उस के बाद खेलने कूदने में मस्त हो गया | कुछ बड़ा हुआ तो खाने पीने की इच्छाएँ  पैदा होने लगी | उस के बाद तरह-तरह की कामनाओं का शिकार हुआ | फिर घर गृहस्ती में उलझ गया | आठवें स्थान पर कहतें हैं कि क्रोश द्वारा तन का नाश करने पर तुल गया | बाल सफेद हो गये, बूढा हो गया, शवांस भी आने मुश्किल हो गये | उस के बाद शरीर जल कर राख बन जाता है | हंस रुपी जीव आत्मा शरीर छोड़ देती है | सगे सम्बन्धी सभी रोते हैं | मानव शरीर में जन्म लिया और शरीर के ही कार्य व्वहार में लगे रहे | एक दिन ऐसा आया जब शरीर छोड़कर चले गये | जाने के बाद  घर वाले श्राद्ध इत्यादि में लग जाते हैं | श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि मनमुख व्यक्ति, मन के विचारों के अनुसार चलने वाले, अंधों के समान व्यवहार करते हुए नजर आते हैं | क्योंकि जीवन को पहचानने की आँख गुरु द्वारा मिलती है | परन्तु गुरु को जाने बिना यह संसार अज्ञानता के अंधकार में डूब रहा है | इसलिए हमें चाहिए कि पूर्ण संत सद्गुरु की शरण में जाएँ जहाँ हमारी अज्ञानता का अंधकार समाप्त हो सकता है और मानव जीवन सफल हो सकता है |
जय गुरु महाराज
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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एक नगर के राजा ने यह घोषणा करवा दी कि कल जब मेरे महल का द्वार खोला जायेगा ... | Gyanprad prerak kahani |

एक नगर के राजा ने यह घोषणा करवा दी कि कल जब मेरे महल का मुख्य दरवाज़ा खोला जायेगा, तब जिस व्यक्ति ने जिस वस्तु को हाथ लगा दिया वह वस्तु उसकी हो जाएगी !

इस घोषणा को सुनकर सभी नगर-वासी रात को ही नगर के दरवाज़े पर बैठ गए और सुबह होने का इंतजार करने लगे ! सब लोग आपस में बातचीत करने लगे कि मैं अमुक वस्तु को हाथ लगाऊंगा ! कुछ लोग कहने लगे मैं तो स्वर्ण को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग कहने लगे कि मैं कीमती जेवरात को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग घोड़ों के शौक़ीन थे और कहने लगे कि मैं तो घोड़ों को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग हाथीयों को हाथ लगाने की बात कर रहे थे, कुछ लोग कह रहे थे कि मैं दुधारू गौओं को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग कह रहे थे कि राजा की रानियाँ बहुत सुन्दर है मैं राजा की रानीयों को हाथ लगाऊंगा, कुछ लोग राजकुमारी को हाथ लगाने की बात कर रहे थे ! कल्पना कीजिये कैसा अद्भुत दृश्य होगा वह !!

उसी वक्त महल का मुख्य दरवाजा खुला और सब लोग अपनी अपनी मनपसंद वस्तु को हाथ लगाने दौड़े ! सबको इस बात की जल्दी थी कि पहले मैं अपनी मनपसंद वस्तु को हाथ लगा दूँ ताकि वह वस्तु हमेशा के लिए मेरी हो जाएँ और सबके मन में यह डर भी था कि कहीं मुझ से पहले कोई दूसरा मेरी मनपसंद वस्तु को हाथ ना लगा दे !

राजा अपने सिंघासन पर बैठा सबको देख रहा था और अपने आस-पास हो रही भाग दौड़ को देखकर मुस्कुरा रहा था ! कोई किसी वस्तु को हाथ लगा रहा था और कोई किसी वस्तु को हाथ लगा रहा था !

उसी समय उस भीड़ में से एक छोटी सी लड़की आई और राजा की तरफ बढ़ने लगी ! राजा उस लड़की को देखकर सोच में पढ़ गया और फिर विचार करने लगा कि यह लड़की बहुत छोटी है शायद यह मुझसे कुछ पूछने आ रही है ! वह लड़की धीरे धीरे चलती हुई राजा के पास पहुंची और उसने अपने नन्हे हाथों से राजा को हाथ लगा दिया ! राजा को हाथ लगाते ही राजा उस लड़की का हो गया और राजा की प्रत्येक वस्तु भी उस लड़की की हो गयी !

जिस प्रकार उन लोगों को राजा ने मौका दिया था और उन लोगों ने गलती की; ठीक उसी प्रकार ईश्वर भी हमे हर रोज मौका देता है और हम हर रोज गलती करते है ! हम ईश्वर को हाथ लगाने अथवा पाने की बजाएँ ईश्वर की बनाई हुई संसारी वस्तुओं की कामना करते है और उन्हें प्राप्त करने के लिए यत्न करते है पर हम कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि यदि ईश्वर हमारे हो गए तो उनकी बनाई हुई प्रत्येक वस्तु भी हमारी हो जाएगी !
।।जय गुरु।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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शनिवार, 4 अगस्त 2018

कहानी - किस्से आपने खूब पढ़े होंगे मगर जो बात मैं आपसे कहने जा रहा हूँ वह अगर आपके मर्म को छू जाए तो.... | Kahani-kisse |

कहानी - किस्से आपने खूब पढ़े होंगे मगर जो बात मैं आपसे कहने जा रहा हूँ वह अगर आपके मर्म को छू जाए तो अपने बच्चों को अवश्य बताएं : -
पढ़ाई पूरी करने के बाद एक छात्र किसी बड़ी कंपनी में नौकरी पाने की चाह में इंटरव्यू देने के लिए पहुंचा....
छात्र ने बड़ी आसानी से पहला इंटरव्यू पास कर लिया...
अब फाइनल इंटरव्यू
कंपनी के डायरेक्टर को लेना था...
और डायरेक्टर को ही तय
करना था कि उस छात्र को नौकरी पर रखा जाए या नहीं...
डायरेक्टर ने छात्र का सीवी (curricular vitae) देखा और पाया कि पढ़ाई के साथ- साथ यह छात्र ईसी (extra curricular activities) में भी हमेशा अव्वल रहा...
डायरेक्टर- "क्या तुम्हें पढ़ाई के दौरान
कभी छात्रवृत्ति (scholarship) मिली...?"
छात्र- "जी नहीं..."

डायरेक्टर- "इसका मतलब स्कूल-कॉलेज की फीस तुम्हारे पिता अदा करते थे.."
छात्र- "जी हाँ , श्रीमान ।"
डायरेक्टर- "तुम्हारे पिताजी क्या काम करते है?"
छात्र- "जी वो लोगों के कपड़े धोते हैं..."
यह सुनकर कंपनी के डायरेक्टर ने कहा- "ज़रा अपने हाथ तो दिखाना..."
छात्र के हाथ रेशम की तरह मुलायम और नाज़ुक थे...
डायरेक्टर- "क्या तुमने कभी कपड़े धोने में अपने पिताजी की मदद की...?"
छात्र- "जी नहीं, मेरे पिता हमेशा यही चाहते थे
कि मैं पढ़ाई करूं और ज़्यादा से ज़्यादा किताबें
पढ़ूं...
हां, एक बात और, मेरे पिता बड़ी तेजी से कपड़े धोते हैं..."
डायरेक्टर- "क्या मैं तुम्हें एक काम कह सकता हूं...?"
छात्र- "जी, आदेश कीजिए..."
डायरेक्टर- "आज घर वापस जाने के बाद अपने पिताजी के हाथ धोना...
फिर कल सुबह मुझसे आकर मिलना..."
छात्र यह सुनकर प्रसन्न हो गया...
उसे लगा कि अब नौकरी मिलना तो पक्का है,
तभी तो डायरेक्टर ने कल फिर बुलाया है...
छात्र ने घर आकर खुशी-खुशी अपने पिता को ये सारी बातें बताईं और अपने हाथ दिखाने को कहा...
पिता को थोड़ी हैरानी हुई...
लेकिन फिर भी उसने बेटे
की इच्छा का मान करते हुए अपने दोनों हाथ उसके
हाथों में दे दिए...
छात्र ने पिता के हाथों को धीरे-धीरे धोना शुरू किया.
साथ ही उसकी आंखों से आंसू भी झर-झर बहने लगे...
पिता के हाथ रेगमाल (emery paper) की तरह सख्त और जगह-जगह से कटे हुए थे...
यहां तक कि जब भी वह कटे के निशानों पर पानी डालता, चुभन का अहसास
पिता के चेहरे पर साफ़ झलक जाता था...।
छात्र को ज़िंदगी में पहली बार एहसास हुआ कि ये
वही हाथ हैं जो रोज़ लोगों के कपड़े धो-धोकर उसके
लिए अच्छे खाने, कपड़ों और स्कूल की फीस का इंतज़ाम करते थे...
पिता के हाथ का हर छाला सबूत था उसके एकेडैमिक कैरियर की एक-एक
कामयाबी का...
पिता के हाथ धोने के बाद छात्र को पता ही नहीं चला कि उसने उस दिन के बचे हुए सारे कपड़े भी एक-एक कर धो डाले...
उसके पिता रोकते ही रह गए , लेकिन छात्र अपनी धुन में कपड़े धोता चला गया...
उस रात बाप- बेटे ने काफ़ी देर तक बातें कीं ...
अगली सुबह छात्र फिर नौकरी के लिए कंपनी के डायरेक्टर के ऑफिस में था...
डायरेक्टर का सामना करते हुए छात्र की आंखें गीली थीं...
डायरेक्टर- "हूं , तो फिर कैसा रहा कल घर पर ?
क्या तुम अपना अनुभव मेरे साथ शेयर करना पसंद करोगे....?"
छात्र- " जी हाँ , श्रीमान कल मैंने जिंदगी का एक वास्तविक अनुभव सीखा...
नंबर एक... मैंने सीखा कि सराहना क्या होती है...
मेरे पिता न होते तो मैं पढ़ाई में इतनी आगे नहीं आ सकता था...
नंबर दो... पिता की मदद करने से मुझे पता चला कि किसी काम को करना कितना सख्त और मुश्किल होता है...
नंबर तीन.. . मैंने रिश्तों की अहमियत पहली बार
इतनी शिद्दत के साथ महसूस की..."
डायरेक्टर- "यही सब है जो मैं अपने मैनेजर में देखना चाहता हूं...
मैं यह नौकरी केवल उसे देना चाहता हूं जो दूसरों की मदद की कद्र करे,
ऐसा व्यक्ति जो काम किए जाने के दौरान दूसरों की तकलीफ भी महसूस करे...
ऐसा शख्स जिसने
सिर्फ पैसे को ही जीवन का ध्येय न बना रखा हो...
मुबारक हो, तुम इस नौकरी के पूरे हक़दार हो..."
आप अपने बच्चों को बड़ा मकान दें, बढ़िया खाना दें,
बड़ा टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर सब कुछ दें...
लेकिन साथ ही अपने बच्चों को यह अनुभव भी हासिल करने दें कि उन्हें पता चले कि घास काटते हुए कैसा लगता है ?
उन्हें भी अपने हाथों से ये काम करने दें...
खाने के बाद कभी बर्तनों को धोने का अनुभव भी अपने साथ घर के सब बच्चों को मिलकर करने दें...
ऐसा इसलिए
नहीं कि आप मेड पर पैसा खर्च नहीं कर सकते,
बल्कि इसलिए कि आप अपने बच्चों से सही प्यार करते हैं...
आप उन्हें समझाते हैं कि पिता कितने भी अमीर
क्यों न हो, एक दिन उनके बाल सफेद होने ही हैं...
सबसे अहम हैं आप के बच्चे किसी काम को करने
की कोशिश की कद्र करना सीखें...
एक दूसरे का हाथ
बंटाते हुए काम करने का जज्ब़ा अपने अंदर
लाएं...
यही है सबसे बड़ी सीख......
जय गुरु
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

सोमवार, 30 जुलाई 2018

एक संत ने एक रात स्वप्न देखा कि उनके पास एक देवदूत आया है, देवदूत के हाथ में एक सूची है। Ek Sant ka swapna | Ek Katha |

एक संत ने एक रात स्वप्न देखा कि उनके पास एक देवदूत आया है, देवदूत के हाथ में एक सूची है। उसने कहा, ‘यह उन लोगों की सूची है, जो प्रभु से प्रेम करते हैं।’ संत ने कहा, ‘मैं भी प्रभु से प्रेम करता हूँ, मेरा नाम तो इसमें अवश्य होगा।’ देवदूत बोला, ‘नहीं, इसमें आप का नाम नहीं है।’ संत उदास हो गए - फिर उन्होंने पूछा, ‘इसमें मेरा नाम क्यों नहीं है। मैं ईश्वर से ही नहीं अपितु गरीब, असहाय, जरूरतमंद सबसे प्रेम करता हूं। मैं अपना अधिकतर समय दूसरो की सेवा में लगाता हूँ, उसके बाद जो समय बचता है उसमें प्रभु का स्मरण करता हूँ - तभी संत की आंख खुल गई।


दिन में वह स्वप्न को याद कर उदास थे, एक शिष्य ने उदासी का कारण पूछा तो संत ने स्वप्न की बात बताई और कहा, ‘वत्स, लगता है सेवा करने में कहीं कोई कमी रह गई है।’ तभी मैं ईश्वर को प्रेम करने वालो की सूची में नहीं हूँ - दूसरे दिन संत ने फिर वही स्वप्न देखा, वही देवदूत फिर उनके सामने खड़ा था। इस बार भी उसके हाथ में कागज था। संत ने बेरुखी से कहा, ‘अब क्यों आए हो मेरे पास - मुझे प्रभु से कुछ नहीं चाहिए।’ देवदूत ने कहा, ‘आपको प्रभु से कुछ नहीं चाहिए, लेकिन प्रभु का तो आप पर भरोसा है। इस बार मेरे हाथ में दूसरी सूची है।’ संत ने कहा, ‘तुम उनके पास जाओ जिनके नाम इस सूची में हैं, मेरे पास क्यों आए हो ?’
देवदूत बोला, ‘इस सूची में आप का नाम सबसे ऊपर है।’ यह सुन कर संत को आश्चर्य हुआ - बोले, ‘क्या यह भी ईश्वर सेप्रेम करने वालों की सूची है।’ देवदूत ने कहा, ‘नहीं, यह वह सूची है जिन्हें प्रभु प्रेम करते हैं, ईश्वर से प्रेम करने वाले तो बहुत हैं, लेकिन प्रभु उसको प्रेम करते हैं जो सभी से प्रेम करता हैं। प्रभु उसको प्रेम नहीं करते जो दिन रात कुछ पाने के लिए प्रभु का गुणगान करते है।’ - प्रभु आप जैसे निर्विकार, निस्वार्थ लोगो से ही प्रेम करते है। संत की आँखे गीली हो चुकी थी - उनकी नींद फिर खुल गयी -वो आँसू अभी भी उनकी आँखों में थे ।
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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बुधवार, 25 जुलाई 2018

धन की तीन गति- दान, भोग और नाश | Dhan ki teen gati-Daan bhog Naash | Santmat-Satsang

‘दानं भोगं नाशः …’
पञ्चतन्त्र के नीतिवचन: धन की तीन गति- दान, भोग और नाश;
समाज में धन की महत्ता सर्वत्र प्रायः सबके द्वारा स्वीकारी जाती है, और धनसंचय के माध्यम से स्वयं को सुरक्षित रखने का प्रयत्न कमोबेश सभी लोग करते हुए देखे जाते हैं। कदाचित् विरले लोग ही इस प्रश्न पर तार्किक चिंतन के साथ विचार करते होंगे कि धन की कितनी आवश्यकता किसी को सामान्यतः हो सकती है। यदि किसी मनुष्य को असीमित मात्रा में धन प्राप्त होने जा रहा हो तो क्या उसने उस पूरे धन को स्वीकार कर लेना चाहिए, या उसने इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि किस प्रयोजन से एवं किस सीमा तक उस धन के प्रति लालायित होना चाहिए। नीतिग्रंथों में प्राचीन भारतीय चिंतकों के एतद्संबंधित विचार पढ़ने को मिल जाते हैं। ऐसा ही एक शिक्षाप्रद ग्रंथ पंचतंत्र है। उसमें धन के बारे में गंभीर सोच देखने को मिलती है। उस ग्रंथ से चुनकर दो श्लोकों को यहां पर उद्धृत किया जा रहा है:-

(स्रोत: विष्णुशर्मारचित पञ्चतन्त्र, भाग 1 – मित्रसंप्राप्ति, श्लोक १५३ एवं १५४, क्रमशः)

दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः।

पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये॥

(दातव्यम्, भोक्तव्यम्, धन-विषये सञ्चयः न कर्तव्यः, पश्य इह मधुकरिणाम् सञ्चितम् अर्थम् हरन्ति अन्ये।)

अर्थात: (धन का दो प्रकार से उपयोग होना चाहिए।) धन दूसरों को दिया जाना चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए। किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए। ध्यान से देखा जाय तो मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर ले जाते हैं।

पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि मनुष्य को धन का उपभोग कर लेना चाहिए अथवा उसे जरूरतमंदों को दान में दे देना चाहिए। अवश्य ही उक्त नीतिकार इस बात को समझता होगा कि धन कमाने के तुरंत बाद ही उसका उपभोग संभव नहीं है। उसका संचय तो आवश्यक है ही, ताकि कालांतर में उसे उपयोग में लिया जा सके। उसका कहने का तात्पर्य यही होगा कि उपभोग या दान की योजना व्यक्ति के विचार में स्पष्ट होनी चाहिए। धनोपार्जन एवं तत्पश्चात् उसका संचय बिना विचार के निरर्थक है। बिना योजना के संचित वह धन न तो व्यक्ति के भोग में खर्च होगा और न ही दान में। नीतिकार ने मधुमक्खियों का उदाहरण देकर यह कहना चाहा है कि संचित धन देर-सबेर दूसरों के पास चला जाना है। मधुमक्खियों का दृष्टांत कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण है। वे बेचारी तो शहद का संचय भविष्य में अंडों से निकले लारवाओं के लिए जमा करती हैं, जिनके विकसित होने में वह शहद भोज्य पदार्थ का कार्य करता है। यह प्रकृति द्वारा निर्धारित सुनियोजित प्रक्रिया है। किंतु उस शहद को मनुष्य अथवा अन्य जीवधारी लूट ले जाते हैं। मनुष्य के संचित धन को भले ही कोई खुल्लमखुल्ला न लूटे, फिर भी वह दूसरों के हाथ जाना ही जाना है, यदि उसे भोग या दान में न खर्चा जाए। कैसे, यह आगे स्पष्ट किया जा रहा है।

दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति॥

(दानम्, भोगम्, नाशः, तिस्रः गतयः भवन्ति वित्तस्य, यः न ददाति, न भुङ्क्ते, तस्य तृतिया गतिः भवति।)

अर्थात: धन की संभव नियति तीन प्रकार की होती है। पहली है उसका दान, दूसरी उसका भोग, और तीसरी है उसका नाश। जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है।

इस स्थान पर धन के ‘नाश’ शब्द की व्याख्या आवश्यक है। मेरा मानना है कि धन किसी प्रयोजन के लिए ही अर्जित किया जाना चाहिए। अगर कोई प्रयोजन ही न हो तो वह धन बेकार है। जीवन भर ऐसे धन का उपार्जन करके, उसका संचय करके और अंत तक उसकी रक्षा करते हुए व्यक्ति जब दिवंगत हो जाए तब वह धन नष्ट कहा जाना चाहिए। वह किसके काम आ रहा है, किसी के सार्थक काम में आ रहा है कि नहीं, ये बातें यह उस दिवंगत व्यक्ति के लिए कोई माने नहीं रखती हैं।

अवश्य ही कुछ जन यह तर्क पेश करेंगे कि वह धन दिवंगत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों के काम आएगा। तब मोटे तौर पर मैं दो स्थितियों की कल्पना करता हूं। पहली तो यह कि वे उत्तराधिकारी स्वयं धनोपार्जन में समर्थ और पर्याप्त से अधिक स्व्यमेव अर्जित संपदा का भरपूर भोग एवं दान नहीं कर पा रहे हों। तब भला वे पितरों की छोड़ी संपदा का ही क्या सदुपयोग कर पायेंगे ? उनके लिए भी वह संपदा अर्थहीन सिद्ध हो जाएगी। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि वे उत्तराधिकारी स्वयं अयोग्य सिद्ध हो जाए और पुरखों की छोड़ी संपदा पर निर्भर करते हुए उसी के सहारे जीवन निर्वाह करें। उनमें कदाचित् यह सोच पैदा हो कि जब पुरखों ने हमारे लिए धन-संपदा छोड़ी ही है तो हम क्यों चिंता करें। सच पूछें तो इस प्रकार की कोई भी स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण एवं कष्टप्रद होगी। कोई नहीं चाहेगा कि ऐसी नौबत पैदा हो। तब अकर्मण्य वारिसों के हाथ में पहुंची संपदा नष्ट ही हो रही है यही कहा जाएगा। एक उक्ति है: “पूत सपूत का धन संचय, पूत कपूत का धन संचय।” जिसका भावार्थ यही है कि सुपुत्र (तात्पर्य योग्य संतान से है) के लिए धन संचय अनावश्यक है, और कुपुत्र (अयोग्य संतान) के लिए भी ऐसा धन छोड़ जाना अंततः व्यर्थ सिद्ध होना है।
।।जय गुरु।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूं भी गुरु कीन | GURU | Ramkrishna | Vivekanand | 600 का नकली नोट क्यों नहीं आता, क्योंकि 600 का असली नोट ही नहीं बना |

रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |
यह परमात्मा द्वारा निर्मित एक अटल नियम है | जिसे हम और आप चाह कर भी नहीं उलट सकते | ठीक वैसे ही जैसे किसी को अपनी नेत्रहीनता का उपचार कराना है, तो नेत्र चिकित्सक की ही पनाह लेनी होगी | यह नितांत अटूट नियम है | इतना अटूट कि अगर कल किसी नेत्र चिकित्सक को अपनी नेत्रहीनता के उपचार की जरूरत पड़े, तो वह भी यह उपचार स्वयं करने में असमर्थ है | उसे भी किसी अन्य नेत्र चिकित्सक की टेक लेनी ही पड़ेगी | यही कारण था सज्जनों, कि परम प्रभु श्री राम ने भी इस नियम को रजामंदी दी | गुरु वशिष्ठ के आश्रित हुए | द्वापर युगीन जगदगुरु श्री कृषण ने भी इन्ही पदचिन्हों का अनुसरण किया | वो स्वयं ऋषि दुर्वासा की शरणागत हुए -

रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |

तीन लोक के नायका गुरु आगे आधीन ||

इस संदर्भ में कुछ लोग अक्सर एक प्रश्न उठा देते हैं | वह यह कि फिर मीरा, नामदेव, धन्ना आदि भक्तों ने बिना गुरु के प्रभु को कैसे पा लिया था? मीरा श्री कृषण से बातें किया करती थी | नामदेव ने 72 वार विट्ठल का  दर्शन किया था | धन्ना ने तो पत्थर तक में से भगवान को प्रकट कर लिया था | इनके पास तो कोई गुरु नहीं था | पर जो लोग ऐसा कहते हैं उनका ज्ञान अधूरा है | नि: सन्देह इन भक्तों के प्रेम व भावना के वशीभूत होकर भगवान इनके समक्ष प्रकट हो जाया करते थे | वे प्रभु के तत्त्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर पाते थे | पर इससे इनका पूर्ण कल्याण नहीं हो पाया था | इसलिए बाद में इन सब ने भी पूर्ण गुरू की शरण ग्रहण की थी | इतिहास बताता है कि मीरा ने गुरु रविदास जी से, नामदेव ने विशोबा खेचर से व धन्ना ने स्वामी रामानंद जी से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था |
बस समझ लो! सृष्टि के आदिकाल से वर्तमान तक जिसने भी ईश्वर को पाया, गुरु के सान्निध्य में ही पाया | नरेंद्र - रामकृष्ण, दयानंद - विरजानंद, जनक - अष्टावक्र, एकनाथ - जनादर्न, प्लोटो - सुकरात आदि जोड़े, इस बात को सिद्ध करते हैं | अब जब इन सभी ने इस हिदायत को कान दिए थे, बंधुओं, हम कैसे अनसुना कर सकते हैं? कैसे इस अटल नियम से हटकर अपना अलग राग आलाप सकते हैं?
हो सकता है, इन दलीलों को सुनकर अब आपका दिल कुछ मोम हुआ हो | गुरु शरणागति का नेक इरादा आपके मन - अम्बर पर कौंधा हो | मगर 99 प्रतिशत सम्भावना है कि इस इरादे को झट ग्रहण लग जायेगा | आपका यह नवजात हौंसला पस्त हो जाएगा | आप कहेंगे, दलीलें नि:सन्देह पुख्ता हैं | मगर इनकी तामील में बड़ी भारी समस्या है | हम जैसे ही इनसे गदगद होकर कदम आगे बढ़ाते हैं, हमारे मन के परदे पर अख़बारों की कुछ सुर्खियाँ उमड़ आती हैं | चलचित्रों के कुछ दृश्य घूम जातें हैं | इनमें उन सब स्कैंडलों या काण्डों की झलकियाँ हैं, जिनके नायक चोर, डाकू, ठग या लुटेरे नहीं, बल्कि समाज के नामी-गिरामी धर्मगुरु हैं | ये अनैतिकता और चरित्रहीनता के ज्वलंत उदाहरण बने दीखते हैं।

बिना दर्द भी आह भरने वाले बहुत मिलेंगे,
धर्म ने नाम पर गुनाह करने वाले बहुत मिलेंगे,
किसे फुर्सत है भटके हुए को राह दिखाने की,
विश्वास देकर गुमराह करने वाले बहुत मिलेंगे |
अब बताए, यहाँ कदम - कदम पर ऐसे रहबर हैं, वहां मुसाफिरों को किस पर एतबार आये? मैं आप की बात से सहमत हूँ , मगर बाजार में 500 का नकली नोट आता है, क्यों कि 500 का असली नोट है, 600 का नकली नोट क्यों नहीं आता, क्योंकि 600 का असली नोट ही नहीं बना | इस लिए अगर समाज में नकली धर्म गुरुओं की भरमार हैं, हमें उन की पहचान धार्मिक ग्रंथों के आधार पे करनी चाहिए | भगवा वस्त्र कोई संत की पहचान नहीं है, इस वस्त्र में तो रावण भी आया था और माता सीता को उठाकर ले गया था | आप किसी का भगवा वस्त्र देखकर उस को गुरु मत धारण कर लेना, वो खुद तो नर्क में जायेगा आप को भी ले डूबेगा | पूर्ण संत की पहचान उस का ज्ञान है, सभी धार्मिक ग्रन्थ इस बात का प्रमाण देते हैं कि जब भी संसार पे अधर्म बढ़ जाता है, जब उलटी बाढ़ ही खेत को खाने लग जाती है | जब धर्म गुरू ही समाज को लूटने लग जाते हैं, तब वो शक्ति शारीर रूप में इस धरा पे आती है और समाज का मार्ग दर्शन करती है | जो संत हमें हमारे शरीर में ही परमात्म दर्शन का सही मार्ग बता दे, वही पूर्ण सतगुरु है | इस लिए हमें ऐसे पूर्ण संत की खोज करनी चाहिए, तभी हमारे जीवन का लक्ष्य पूर्ण हो सकता है |
जय गुरू महाराज
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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सोमवार, 23 जुलाई 2018

भूकंप आने पर तुम भागे, मैं भी भागा! तुम बाहर की तरफ भागे और मैं अन्दर की तरफ भागा जहाँ भूकंप नहीं पहुँचता है। Japan | Bhookamp

Superb Saakhi

जापान में एक झेन फकीर को कुछ मित्रों ने भोजन पर बुलाया था। सातवीं मंजिल के मकान पर भोजन कर रहे हैं, अचानक भूकंप आ गया। सारा मकान कंपने लगा। भागे लोग। कोई पच्चीस-तीस मित्र थे। सीढ़ियों पर भीड़ हो गयी। जो मेजबान था वह भी भागा। लेकिन भीड़ के कारण अटक गया दरवाजे पर। तभी उसे ख्याल आया कि मेहमान का क्या हुआ? लौटकर देखा, वह झेन फकीर आंख बंद किये अपनी जगह पर बैठा है -जैसे कुछ हो ही नहीं रहा! मकान कंप रहा है, अब गिरा तब गिरा। लेकिन उस फकीर का उस शांत मुद्रा में बैठा होना, कुछ ऐसा उसके मन को आकर्षित किया, कि उसने कहा, अब जो कुछ उस फकीर का होगा वही मेरा होगा। रुक गया। कंपता था, घबड़ाता था, लेकिन रुक गया। भूकंप आया, गया। कोई भूकंप सदा तो रहते नहीं। फकीर ने आंख खोली, जहां से बात टूट गयी थी भूकंप के आने से, वहीं से बात शुरू की
लेकिन मेजबान ने कहा : मुझे क्षमा करें, मुझे अब याद ही नहीं कि हम क्या बात करते थे। बीच में इतनी बड़ी घटना घट गयी है कि सब अस्तव्यस्त हो गया। अब तो मुझे एक नया प्रश्न पूछना है। हम सब भागे, आप क्यों नहीं भागे?
उस फकीर ने कहा : तुम गलत कहते हो। तुम भागे, मैं भी भागा। तुम बाहर की तरफ भागे, मैं भीतर की तरफ भागा। तुम्हारा भागना दिखाई पड़ता है, क्योंकि तुम बाहर की तरफ भागे। मेरा भागना दिखाई नहीं पड़ा तुम्हें लेकिन अगर गौर से तुमने मेरा चेहरा देखा था, तो तुम समझ गये होओगे कि मैं भी भाग गया था। मैं भी यहां था नहीं, मैं अपने भीतर था। और मैं तुमसे कहता हूं के मैं ही ठीक भागा।, तुम गलत भागे। यहां भी भूकंप था और जहां तुम भाग रहे थे वहां भी भूकंप था। बाहर भागोगे तो भूकंप ही भूकंप है। मैं ऐसी जगह अपने भीतर भागा। जहां कोई भूकंप कभी नहीं पहुंचता है। मैं वहां निश्चित था। मैं बैठ गया अपने भीतर जाकर। अब बाहर जो होना हो हो। मैं अपने अमृत -गृह मैं बैठ गया, जहां मृत्यु घटती ही नहीं। मैं उस निष्कंप दशा में पहुंच गया, जहां भूकंपों की कोई बिसात नहीं
अगर तुम्हें बाहर का जोखम दिखाई पड़ जाये तो तुम्हारे जीवन में अंतर्यात्रा शुरू हो सकती है।
।। जय गुरु ।।

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...