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बुधवार, 20 नवंबर 2019

संसार में जितने प्रकार के धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और मजहब आदि हैं | -महर्षि संतसेवी | देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू । गुरु में करैं निवास कहत हैं सन्त सभू ।। Maharshi Mehi | Santsevi Pravachan | Santmat Satsang

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🌸संसार में जितने प्रकार के धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और मजहब आदि हैं, सबमें किसी-न-किसी प्रकार का पर्व या त्योहार अवश्य मनाया जाता है, लेकिन उसके मनाने में सबकी अपनी-अपनी अलग-अलग रीति होती है। बल्कि कभी-कभी और कहीं-कहीं ऐसा होता है कि जो एक के लिए ग्राह्य होता है, वह दूसरे के लिए त्याज्य भी हो सकता है। जैसे मॉरिशस में जब किन्हीं के यहाँ मेहमान आते हैं, तो उनको भोजन कराते समय उनके सामने सभी चीजें परोसने के बाद गृहपति हाथ जोड़कर प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि ‘हे भगवन! हमारे मेहमान को सुबुद्धि दें कि ये अधिक न खाएँ।’ यह वहाँ के लिए अनिवार्य है, लेकिन अपने देश में वैसा प्रचलन नहीं। इसीलिए मैंने कहा ‘जो एक लिए ग्राह्य हो, वह दूसरे के लिए त्याज्य भी हो सकता है।’ लेकिन गुरु-पर्व के लिए ऐसी बात नहीं है।
यह गुरु-पुर्णिमा इतना पावन पर्व है कि जितने गुरु-भक्त हैं, सबके लिए यह समान है और सबके लिए एक विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यह गुरु-पर्व सामूहिक है, व्यक्तिगत नहीं। यह इतना उत्तम त्योहार है कि जैसे कोई वृक्ष की जड़ में पानी डाल दे तो उसके तनों, सभी डालों और प्रत्येक पत्ते को पानी मिल जाता है, उसी तरह एक गुरु-पूजा करने पर सबकी पूजा हो जाती है। 

देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू । 
गुरु में करैं निवास कहत हैं सन्त सभू ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली )
आप हाथी देखते है, उसके पैर के चिन्ह में सभी जीवों के पद-चिन्ह  समा जाते हैं, उसी तरह एक गुरु-पूजा में सबकी पूजा हो जाती है। यह गुरु-पूजा की महत्तम महिमा है। -महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 

प्रेम | इंसान के लिए दो ही रास्ते हैं – प्रेम करे या फिर दुश्मनी | Prem ya Dushmani | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌹|| प्रेम ||🌹🙏
🍁इंसान के लिए दो ही रास्ते हैं – प्रेम करे या फिर दुश्मनी। इनमें से दुश्मनी के मार्ग को सदियों से इंसान के लिए वज्र्य माना जाता रहा है। फिर बचता है सिर्फ प्रेम। इस प्रेम को पाने, प्रेम प्रदान करने और इसका अनुभव करते-कराते हुए आनंद की प्राप्ति और इससे ईश्वर को अपने भीतर अनुभव करने वाला ही सच्चा और वास्तविक प्रेमी होता है।
इस प्रेम को शब्दों, मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं या देहिक क्रियाओं में विभक्त नहीं किया जा सकता बल्कि प्रेम को आनंद का पर्याय मानते हुए चरम उल्लास की अनुभूति की जा सकती है। प्रेम ऎसा कारक है जिसे अंगीकार कर लेने वाला खुद भी मुक्त हो जाता है और अपने संपर्क में आने वाले दूसरे सभी लोगों की भी मुक्ति चाहने के लिए हर क्षण सर्वस्व समर्पण को तैयार रहता है।
प्रेम के मूल मर्म को समझ लेने वाला इंसान दुनिया में किसी भी एक से प्रेम करता है तो असली प्रेम वही है जिसमें व्यक्ति सभी से प्रेम करे, चाहे वह जड़-चेतन कुछ भी क्यों न हो, ईश्वर या इंसान, पशु आदि कोई भी हो सकता है। सच्चे और निश्छल प्रेमी का प्रेम उदात्त भाव के उत्कर्ष को जीता है और सार्वजनीन होता है। ऎसे इंसान के लिए जड़-चेतन सभी कुछ प्रेम से परिपूर्ण होता है।

जो एक से प्रेम करता है उसका प्रेम यदि सच्चा होता है तो ही वह सभी से प्रेम करता है। वास्तविक प्रेम करने वाला इंसान किसी दूसरे से कभी घृणा कर ही नहीं सकता।
दूसरी तरफ जो लोग किसी एक से प्रेम करते हैं और दूसरों के प्रति संवेदनशील नहीं रह पाते अथवा दूसरों से घृणा या शत्रुता भाव रखते हैं वे सच्चे प्रेमी कभी नहीं हो सकते हैं।
दुनिया की बहुत बड़ी आबादी उन लोगों से भरी पड़ी है जो कि अपने आपको प्रेम करने वालों की श्रेणी में तो रखते हैं लेकिन प्रेम के मर्म से अनभिज्ञ होते हैं। खूब सारी भीड़ है जो किसी न किसी से प्रेम करती है लेकिन इस प्रेम के चक्कर में ही औरों की घृणा, द्वेष या दुश्मनी का पात्र बन जाती है और प्रेम को भुला बैठती है।


असल में यह प्रेम है ही नहीं। प्रेम के साथ संवेदनशीलता, करुणा, आत्मीयता और औदार्य के भावों का सम्मिश्रण रहता है न कि मोह, शत्रुता और एकाधिकार का।
जो एक से प्रेम करता है तथा अन्यों से प्रेमपूर्वक व्यवहार न करे तो इसका सीधा सा अर्थ यही है कि उसका प्रेम आडम्बर और स्वार्थ के व्यापार से ज्यादा कुछ नहीं है। ऎसा प्रेमी जिससे प्रेम करता है उससे भी उसका संबंध स्वार्थ से ज्यादा कुछ नहीं होता बल्कि ऎसा व्यवहार प्रेम नहीं बल्कि बिजनैस की श्रेणी में आता है और इसे प्रेम की संज्ञा नहीं दी जा सकती। शाश्वत प्रेम वही है जो किसी एक से बंधा नहीं रहकर जड़-चेतन सभी पर समान रूप से प्रतिभासित हो और सभी को प्रेम का आनंद अनुभव होता रहे।

प्रेम में परिपूर्ण और गोते लगाने वाला इंसान किसी एक से मोहग्रस्त नहीं होता, बंधता नहीं, बल्कि जिस किसी के सम्पर्क में आता है उसे लगता है कि आत्मीयता और प्रेम का जो निश्छल व्यवहार उसे प्राप्त हो रहा है, वह अपने आपमें अन्यतम और अद्वितीय है।
प्रेम की दिशा आक्षितिज आनंद पाती और दिलाती है तथा उसकी कोई सीमा नहीं होती।  प्रेम अपार और अथाह आनंद की अनुभूति कराता है और ऎसे प्रेम के प्रति न किसी को द्वेष होता है, न मोह या शत्रुता का भाव। एक संत ने तो प्रेेम को सर्वोपरि कारक और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताते हुए बोध वाक्य रच गए – प्रेम तु ही ने प्रेम स्वामी प्रेम त्यां परमेश्वरो!
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏

जिसका मन निश्छल वही बड़ा | Jiska man nischhal hai vahi bara | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🌸जिसका मन निश्छल वही बड़ा🌸
जो मनुष्य दूसरों की भलाई करता है, वह फरिश्ते से कम नहीं। जो व्यक्ति दूसरों की मदद करता हो, किसी का बुरा नहीं करता हो, जो शील स्वभाव का हो, सभी को प्यार से बोलता हो और समय पर कार्य करता हो वह फरिश्ता ही तो है। 
हर पल जो नवीन दिखाई दे, वही सुंदरता का नमूना है। अपने दिमाग के द्वार बंद करने से न जाने किस समय क्या अनोखा तत्व समझ में आ जाए। बुरी बातों को भूल जाना ही बेहतर है वरना अच्छे विचार मन में प्रवेश करना बंद कर देंगे। बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट से नहीं होता है। जिसका मन निश्छल है, वही बड़ा है। व्यस्त रहना ठीक है किंतु  अस्त-व्यस्त नहीं। एक पाप दूसरे पाप का दरवाजा खोल देता है। आदमी आराम के साधन जुटाने में आराम खो देता है। धनी व्यक्ति जहां रुपयों के सहारे जीता है वहीं निर्धन व्यक्ति परिश्रम, प्रभु के सहारे जीता है। 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
प्रस्तुति: एस.के. मेहता

ज्ञान मार्ग पर चलने वाला और भक्त | Gyan ke marg par chalne wala bhakt | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌹जय गुरु महाराज🌹🙏
🍁ज्ञानमार्ग पर चलने वाला तो अपने साधन का बल मानता है, पर भक्त की यह विलक्षणता होती है कि वह अपने साधन का बल मानता ही नहीं। कारण कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना तप करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना सत्संग करता हूँ‒इस तरह भीतर में अभिमान रहने से भक्ति प्राप्त नहीं होती। जिनका सीधा-सरल स्वभाव है, जो भगवान्‌ की कृपा पर निर्भर रहते हैं और हरेक परिस्थिति में मस्त, आनन्दित रहते हैं, उन्हीं को भक्ति प्राप्त होती है‒

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा॥
सरल सुभाव  न  मन कुटिलाई।
जथा   लाभ    संतोष    सदाई ।।
         (मानस, उत्तर॰ ४६ । १)

जब तक अपने साधन का अभिमान रहता है, तब तक असली भक्ति प्राप्त नहीं होती। भक्ति प्राप्त होने पर भक्त के मन में यह बात आती ही नहीं कि मैं भजन करता हूँ । जैसे, हनुमान्‌जी महाराज कहते हैं‒ ‘जानउँ नहिं कछु भजन उपाई’ (मानस, किष्किन्धा॰ ३ । २)

हनुमान्‌जी भक्ति के खास आचार्य होते हुए भी कहते हैं कि मैं भजन का उपाय नहीं जानता कि भजन क्या होता है ? कैसे होता है? शबरी को पता ही नहीं था कि भक्ति नौ प्रकार की होती है और वह मेरे में पूर्णरूप से विद्यमान है ! वह कहती है‒


अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह  महँ  मैं  मतिमंद  अघारी।।
        (मानस, अरण्य॰ ३५ । २)

परन्तु भगवान् उसको कहते हैं‒

नवधा  भगति  कहउँ  तोहि पाहीं।
सावधान  सुनु   धरु   मन   माहीं॥......

नव महुँ एकउ   जिन्ह   कें   होई।
नारि पुरुष   सचराचर      कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
सकल प्रकार  भगति  दृढ़   तोरें ॥
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸

बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

देहावसान | देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है। महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
देेहावसान समये चित्ते यद्यद्विभावयेत्।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम्।।

देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है।


जीवनभर जो अपने मन में सोचते हैं, वही भावना अंत में याद आवे, यह संभव है। जन्मभर में कभी जो काम नहीं किया अथवा कभी कभी किया, वह अंत समय याद आवे, संभव नहीं। इसलिए नित्य भजन करें। सब कामों को छोड़कर तथा सब कामों को करते हुए, दोनों ढंग से करें तो अंत समय में अवश्य याद आवेगा तथा अपना परम कल्याण होगा।

प्र्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
-गीता 8/10
अर्थात् जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भौओं के बीच भक्ति से शराबोर होकर और योगबल से अच्छी तरह प्राणों को स्थिर करता है, तो दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है। यह शरीर चला जाएगा, कुछ संग जाने को नहीं है।

माल मुलुक को कौन चलावे, संग न जात शरीर।
करो रे बन्दे वा दिन की तदवीर।।

इसलिए हमलोग भजन-अभ्यास अधिक करें। केवल जानें अथवा पढ़ें, किंतु ध्यान नहीं करें तो उसको लाभ नहीं होता। वैसे ही जैसे-
धन धन कहत धनी जो होते, निर्धन रहत न कोय।
केवल धन-धन के कहने से कोई धनी नहीं होता। काम करते हुए भी अपना ख्याल भजन में लगाकर रखना चाहिए।
*कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।*
*सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै।*
*आप रहे जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।*
*जस पनिहारी कलस भरे, मारग में आवै।*
*कर छोड़ै मुख वचन,चित्त कलसा में लावै।।*
*फणि मणि धरै उतार, आपु चरने को जावै।*
*वह गाफिल ना परै, सुरति मणि माहिं रहावै।।*
*पलटू कारज सब करै, सुरति रहै अलगान।*
*कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।*
-पलटू साहब

भगवान श्रीकृष्ण का गीता में अर्जुन के प्रति यह उपदेश है- *‘युद्ध भी करो तथा ध्यान भी करो।’*  काम करने के समय भी हमारा ध्यान न छूटे, ऐसी कोशिश करनी चाहिए। जो दोनों तरह से भजन  करते हैं, उनका मन विशेष बिखरता नहीं। इसलिए ऐसा अभ्यास करना चाहिए कि प्रयाणकाल में हमारा ख्याल गड़बड़ न हो जाय कि बारम्बार जन्म लेना पड़े तथा दुःख उठाना पड़े। इससे जो नहीं डरते, वह नहीं कर सकते।
*‘डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।*
*डरत रहे सो ऊबरे, गाफिल खावै मार ।।’*

*‘पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्नतु मन्यते।*
*देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा।।*
*अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते।’*

अर्थ-मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है; मुक्ति वह है, जबकि जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है, जैसे नमक जल में घुलकर एक हो जाता है। इस तरह जब जीव उससे अन्य नहीं रह जाता, तब मुक्ति होती है।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

मानस जप कैसे करें! Manas Jaap kaise karen | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।

मानस जप कैसे करें?

मानस जप को सभी जपों का सम्राट कहा गया है। इसकी विशेषता है कि इसमें मन्त्र-जापक स्वयं मन ही होता है। मन ही मन, मन से ही गुरु प्रदत्त मन्त्र की मंत्रावृत्ति करनी होती है।


मन इधर-उधर न भटके, इसे निद्रा वा गुणावन (निर्धारित लक्ष्य से भटक कर मन का अन्य विचारों में खो जाना) न घेर ले, इसके लिए, संतों का उपदेश है, मन को समक्ष रखकर, सात्त्विकी वृत्ति में रखकर जप किया जाय (तामसी वृत्ति में नींद तथा रजोगुणी वृत्ति में मन में, विचारों में चंचलता आती है)। इसके लिए अपनी दृष्टि पर निगरानी रखनी भी अत्यावश्यक है।

उदाहरणार्थ, गुरु महाराज के एक प्रवचन में मानस जप से सम्बंधित एक महत्त्वपूर्ण बात आयी है जो ध्यातव्य है-

"... समझो कि तुम्हारे शरीर में दो भाग हैं। दाईं-बाईं ओर का मिलाप जहाँ है, वह मध्य है। दाईं  ओर की वृत्ति पिंगला और बाईं ओर की वृत्ति इड़ा, और बीच में सुषुम्ना है। कोशिश करो कि मध्य-वृत्ति में रखकर जप करने के लिए..."

मध्यवृत्ति में रहकर जप करना चाहिए। यदा-कदा कहीं-कहीं ऐसा कहा जाता है कि जप का दृष्टि से कोई संबंध नहीं है। गुरु महाराज का यह कथन इस स्थिति के  स्पष्टीकरण के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है - *मध्य अर्थात् समक्ष रहते हुए (अर्थात् सामने वृत्ति रखते हुए) जप करना चाहिए*। अपने ही एक अन्य प्रवचन में भी परामराध्य गुरु महाराज पुनः कहते हैं, "मानस जप करो। सुषुम्ना में वृत्ति रखकर नाम जपो।"

गुरु महाराज के प्रवचन में अन्यान्य स्थलों पर भी इसके संकेत मिलते हैं। एक बार पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज ने भी, मेरी जिज्ञासा के उत्तर में, मुझसे कहने की कृपा की थी, *जप करते समय दृष्टि ठीक सामने रखा करो।* एक स्थल पर उन्होंने कहा भी है-

_"जहाँ तक बन पड़े , भजन में मन लगाना चाहिये । कुछ भी दिखे अथवा नहीं दिखे , *अन्धकार को देखते* रहना चाहिये । *मानस-जप* , मानस ध्यान और दृष्टि -साधन, इन तीनों को अन्धकार पट पर ही *करना चाहिये*।"_

इससे भी स्पष्ट होता है कि मानस जप को भी दृष्टि से सम्बन्ध है - ठीक सामने देखते हुए (सिमटी दृष्टि से नहीं, और बिना किसी आकृति अथवा रूप को देखने का भाव रखते हुए सिर्फ सामने देखते हुए) मानस जप करना चाहिये।

सन्तमत के वर्तमान आचार्यश्री पूज्य महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज की भी यही शिक्षा है। यही बात ध्यान-विषयक जिज्ञासाओं के दौरान अक्सर अत्यन्त वरिष्ठ महात्मा पूज्य अच्युतानन्द बाबा भी कहा करते हैं।  तथा, पूज्य निर्मलानंद बाबा, पूज्य स्वरूपानन्द बाबा, पूज्य सत्यप्रकाश बाबा इत्यादि गण्यमान्य महात्मागण भी इस सिद्धान्त से सहमत हैं।

दरअसल, मन को दृष्टि की सहायता से नियंत्रित रखना सरल और सहज है। दृष्टि भी सूक्ष्म और मन भी सूक्ष्म। _अतः दृष्टि का कार्य ध्यानाभ्यास के प्रथम पग से ही प्रारंभ हो जाता है।_ परमाराध्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज कहा भी करते थे, *"मन का संबंध दृष्टि से है। जहाँ दृष्टि रहती है, वहीं मन रहता है।"* और फिर, मानस जप में मन ही ने तो जपना है मन्त्र! इसलिए यदि हम अपनी दृष्टि को समक्ष, सद्गुरु से ऐसा करने की सद्युक्ति सीखकर, रखते हुए जप करें तो जप में सफलता अपेक्षाकृत सरलतर हो जायेगी।

वस्तुतः, यदि हम ध्यानपूर्वक विचार करेंगे तो पाएँगे कि हम जब कभी मानस जप से भटक जाते हैं और थोड़ी देर बाद जब पुनः चेतते हैं तो पाते हैं कि ठीक उस क्षण में दृष्टि या तो ऊपर, नीचे, बाएँ, दाएँ, अर्थात् सामने की ओर से हटकर कहीं-न-कहीं खिसकी हुई मिलेगी। दृष्टि के खिसकने से जप की एकाग्रता, एकचित्तता जाती रहती है। इसलिए, दृष्टि को ठीक सामने रखते हुए (इसमें कुछ, कोई आकृति विशेष, देखने का भाव न हो, फैली दृष्टि से) जप करना ही सही है। 

इसको एक उदाहरण से समझने की चेष्टा करें। एक बच्चा जो अपने पिता के साथ बाजार या मेला घूमने जाता है और पिता का हाथ छूट जाता है, वह मेले में खो जाता है। पिताश्री को कहीं न पाकर वह बच्चा निराश, हताश हो घर लौट आता है। घर पहुँचकर देखता है कि वहाँ भी ताला लगा हुआ है। वह गृह द्वार, दहलीज पर बैठ जाता है और सामने सड़क की ओर एकटक से निहारता हुआ रोता जाता है, और पूरी कातरता से, विह्वलता से, "ओ पापा, हे पिताजी, हे पिताजी, हे ..., पुकारते हुए मन में भाव कैसा है - हे पिताश्री, आइये न, आजाइये न प्लीज!" पुकारता जाता है, पुकारता जाता है, पुकारता ही जाता है।

कुछ ऐसे ही विह्वल भाव हृदय में लिए सामने देखते हुए यदि हम भी पुकारते जाएँ, पुकारते जाएँ, पुकारते जाएँ - "सिर्फ दृष्टि सामने हो तथा मन में पुकार का भाव हो - "हे गुरु, आप तो उस सामने के अंधकार में ही छिपे हुए हैं न, दर्शन क्यों नहीं देते? हे गुरु! कहाँ छिप गए हैं आप? हे गुरु! कृपाकर प्रकट होइए न!" इस भाव के साथ लगातार टेर लगाते रहेंगे तो सच्चे दिल की कातर पुकार सुन सद्गुरु क्यों नहीं प्रकट होंगे! _"पिउ पिउ पिउ करि कूकिये, ना पड़ि रहिए असरार। बार-बार के कूकते, कबहुँक लगे पुकार।"_

"है ये जप नहीं, फ़रियाद है,
ये पुकार है गुरुदेव की।
मुर्शिदफ़नाफिल ना हुए,
फिर जप किया भी तो क्या किया।।
अरे ओ रे मन रटते रहो, है मन्त्र जो गुरु ने दिया।
कल्याण की गर आश है, बुझने न दो जप का दिया।।"

जप का स्वरूप पुकार का, आह्वान का होना चाहिए; ऐसी व्यग्रता होनी चाहिए पुकार में कि प्रेमपूर्ण जप रुपी पुकार को सुन गुरु प्रगट होने को विवश हो जायें।

गुरु महाराज का हमसब पर करम बरसे, हम जप में ऐसी विह्वल, तीव्र पुकार लगा सकें कि हमारी फ़रियाद सुन गुरु महाराज, हमारे कामिल मुर्शिद हमारे नयनाकाश में सामने प्रकट जाएँ और हम उनको अपलक निहारते हुए उनमें ही खो जायें, फ़ना हो जाएँ, पूरे का पूरा मन उन्हीं में अटक जाए और ऐसा करते वक़्त उसे ये भी इल्म न रहे कि वह उनके अक्स में अटक गया है। अहा! कैसा होगा वो दिन, कैसी होगी वो घडी........

मानस जप की स्वाभाविक परिणति मानस ध्यान में होनी ही चाहिए।

🙏🙏 जय गुरु! 🙏🙏

सोमवार, 5 अगस्त 2019

पाप पुण्य कर्म फल अलग-अलग | Santmat Satsang | Paap Punya Karma

🙏🌹 श्री सद्गुरवे नमः 🌹🙏
🍁ईश्वर-भक्ति का ज्ञान सबको देना चाहिए। एक ईश्वर की उपासना ठीक है। बहुदेव उपासना ठीक नहीं। बहुदेव उपासी ईश्वर को भूल जाता है। वही नास्तिक है। फिर ऐसा भ्रम कि अमुक जगह मरने से स्वर्ग और अमुक जगह मरने से नरक होगा, यह बात नहीं हो सकती। गंगा-स्नान करने से, आपके मृतक शरीर को गंगा के किनारे जलाने से अथवा आपकी हड्डियाँ या भस्म को गंगाजी में देने से स्वर्ग हरगिज नहीं हो सकता।

 
पाप करके पुण्य करें, इससे पाप नहीं कट सकता। पुण्य का फल अलग और पाप का फल अलग मिलेगा। आपने किसी से दो रुपया कर्ज लिया और किसी को दो रुपया दान दिया, इसलिए वह महाजन आपसे रुपया नहीं माँगे, यह कहाँ की बात है? वह तो कहेगा कि आपने दान अपने लिए किया, मुझे उससे क्या? मेरा रुपया दो।
युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष झूठ बोले, बल्कि उनकी प्रेरणा से झूठ बोले, फिर भी दो मुहूर्त तक नरक में रहना पड़ा। उसके लिए खातिरदारी नहीं हुई। जो कर्म कीजिएगा, उसका फल भोगना ही पड़ेगा। तब आप कहेंगे कि क्या कर्म-फल से कोई छूट नहीं सकता? सौर-जगत में रहने से सूर्य का प्रभाव पड़ेगा ही। यदि सौर जगत से कोई पार हो जाए तो उस पर सूर्य का प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार कर्म मंडल में रहने से कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा। कर्ममण्डल पार कर जाने से कर्मफल छूट जाएगा। इसीलिए मैंने पहले ही कहा कि अपने को इन्द्रियों से छुड़ाओ।

*चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित अहंकार।*
*विमल विचार परमपद, निज सुख सहज उदार।।*
      -विनय-पत्रिका

विचार में अपने का ज्ञान होता है, किंतु पहचान नहीं। अपने को चतुष्ट्य अंतःकरण से छुड़ाओ, कर्ममण्डल से पार हो जाओगे। अपनी पहचान होगी और मोक्ष मिलेगा। फिर कर्मबंधन से छूटोगे। ‘कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चिन्हें।’ लोक- लोकान्तर में जाने से मुक्ति नहीं मिलती। कभी न कभी फिर यहाँ आना ही पड़ेगा। इसलिए अपने को सब आवरणों से छुड़ाकर कैवल्यता प्राप्त करो और मोक्ष प्राप्त कर लो। फिर आवागमन से रहित हो जाओगे।

(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)

🙏🌸🌿 जय गुरु महाराज 🌿🌸🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...