यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 30 जुलाई 2018

एक संत ने एक रात स्वप्न देखा कि उनके पास एक देवदूत आया है, देवदूत के हाथ में एक सूची है। Ek Sant ka swapna | Ek Katha |

एक संत ने एक रात स्वप्न देखा कि उनके पास एक देवदूत आया है, देवदूत के हाथ में एक सूची है। उसने कहा, ‘यह उन लोगों की सूची है, जो प्रभु से प्रेम करते हैं।’ संत ने कहा, ‘मैं भी प्रभु से प्रेम करता हूँ, मेरा नाम तो इसमें अवश्य होगा।’ देवदूत बोला, ‘नहीं, इसमें आप का नाम नहीं है।’ संत उदास हो गए - फिर उन्होंने पूछा, ‘इसमें मेरा नाम क्यों नहीं है। मैं ईश्वर से ही नहीं अपितु गरीब, असहाय, जरूरतमंद सबसे प्रेम करता हूं। मैं अपना अधिकतर समय दूसरो की सेवा में लगाता हूँ, उसके बाद जो समय बचता है उसमें प्रभु का स्मरण करता हूँ - तभी संत की आंख खुल गई।


दिन में वह स्वप्न को याद कर उदास थे, एक शिष्य ने उदासी का कारण पूछा तो संत ने स्वप्न की बात बताई और कहा, ‘वत्स, लगता है सेवा करने में कहीं कोई कमी रह गई है।’ तभी मैं ईश्वर को प्रेम करने वालो की सूची में नहीं हूँ - दूसरे दिन संत ने फिर वही स्वप्न देखा, वही देवदूत फिर उनके सामने खड़ा था। इस बार भी उसके हाथ में कागज था। संत ने बेरुखी से कहा, ‘अब क्यों आए हो मेरे पास - मुझे प्रभु से कुछ नहीं चाहिए।’ देवदूत ने कहा, ‘आपको प्रभु से कुछ नहीं चाहिए, लेकिन प्रभु का तो आप पर भरोसा है। इस बार मेरे हाथ में दूसरी सूची है।’ संत ने कहा, ‘तुम उनके पास जाओ जिनके नाम इस सूची में हैं, मेरे पास क्यों आए हो ?’
देवदूत बोला, ‘इस सूची में आप का नाम सबसे ऊपर है।’ यह सुन कर संत को आश्चर्य हुआ - बोले, ‘क्या यह भी ईश्वर सेप्रेम करने वालों की सूची है।’ देवदूत ने कहा, ‘नहीं, यह वह सूची है जिन्हें प्रभु प्रेम करते हैं, ईश्वर से प्रेम करने वाले तो बहुत हैं, लेकिन प्रभु उसको प्रेम करते हैं जो सभी से प्रेम करता हैं। प्रभु उसको प्रेम नहीं करते जो दिन रात कुछ पाने के लिए प्रभु का गुणगान करते है।’ - प्रभु आप जैसे निर्विकार, निस्वार्थ लोगो से ही प्रेम करते है। संत की आँखे गीली हो चुकी थी - उनकी नींद फिर खुल गयी -वो आँसू अभी भी उनकी आँखों में थे ।
।। जय गुरु ।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram


बुधवार, 25 जुलाई 2018

धन की तीन गति- दान, भोग और नाश | Dhan ki teen gati-Daan bhog Naash | Santmat-Satsang

‘दानं भोगं नाशः …’
पञ्चतन्त्र के नीतिवचन: धन की तीन गति- दान, भोग और नाश;
समाज में धन की महत्ता सर्वत्र प्रायः सबके द्वारा स्वीकारी जाती है, और धनसंचय के माध्यम से स्वयं को सुरक्षित रखने का प्रयत्न कमोबेश सभी लोग करते हुए देखे जाते हैं। कदाचित् विरले लोग ही इस प्रश्न पर तार्किक चिंतन के साथ विचार करते होंगे कि धन की कितनी आवश्यकता किसी को सामान्यतः हो सकती है। यदि किसी मनुष्य को असीमित मात्रा में धन प्राप्त होने जा रहा हो तो क्या उसने उस पूरे धन को स्वीकार कर लेना चाहिए, या उसने इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि किस प्रयोजन से एवं किस सीमा तक उस धन के प्रति लालायित होना चाहिए। नीतिग्रंथों में प्राचीन भारतीय चिंतकों के एतद्संबंधित विचार पढ़ने को मिल जाते हैं। ऐसा ही एक शिक्षाप्रद ग्रंथ पंचतंत्र है। उसमें धन के बारे में गंभीर सोच देखने को मिलती है। उस ग्रंथ से चुनकर दो श्लोकों को यहां पर उद्धृत किया जा रहा है:-

(स्रोत: विष्णुशर्मारचित पञ्चतन्त्र, भाग 1 – मित्रसंप्राप्ति, श्लोक १५३ एवं १५४, क्रमशः)

दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः।

पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये॥

(दातव्यम्, भोक्तव्यम्, धन-विषये सञ्चयः न कर्तव्यः, पश्य इह मधुकरिणाम् सञ्चितम् अर्थम् हरन्ति अन्ये।)

अर्थात: (धन का दो प्रकार से उपयोग होना चाहिए।) धन दूसरों को दिया जाना चाहिए, अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए। किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए। ध्यान से देखा जाय तो मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे हर ले जाते हैं।

पंचतंत्र के रचनाकार का मत है कि मनुष्य को धन का उपभोग कर लेना चाहिए अथवा उसे जरूरतमंदों को दान में दे देना चाहिए। अवश्य ही उक्त नीतिकार इस बात को समझता होगा कि धन कमाने के तुरंत बाद ही उसका उपभोग संभव नहीं है। उसका संचय तो आवश्यक है ही, ताकि कालांतर में उसे उपयोग में लिया जा सके। उसका कहने का तात्पर्य यही होगा कि उपभोग या दान की योजना व्यक्ति के विचार में स्पष्ट होनी चाहिए। धनोपार्जन एवं तत्पश्चात् उसका संचय बिना विचार के निरर्थक है। बिना योजना के संचित वह धन न तो व्यक्ति के भोग में खर्च होगा और न ही दान में। नीतिकार ने मधुमक्खियों का उदाहरण देकर यह कहना चाहा है कि संचित धन देर-सबेर दूसरों के पास चला जाना है। मधुमक्खियों का दृष्टांत कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण है। वे बेचारी तो शहद का संचय भविष्य में अंडों से निकले लारवाओं के लिए जमा करती हैं, जिनके विकसित होने में वह शहद भोज्य पदार्थ का कार्य करता है। यह प्रकृति द्वारा निर्धारित सुनियोजित प्रक्रिया है। किंतु उस शहद को मनुष्य अथवा अन्य जीवधारी लूट ले जाते हैं। मनुष्य के संचित धन को भले ही कोई खुल्लमखुल्ला न लूटे, फिर भी वह दूसरों के हाथ जाना ही जाना है, यदि उसे भोग या दान में न खर्चा जाए। कैसे, यह आगे स्पष्ट किया जा रहा है।

दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति॥

(दानम्, भोगम्, नाशः, तिस्रः गतयः भवन्ति वित्तस्य, यः न ददाति, न भुङ्क्ते, तस्य तृतिया गतिः भवति।)

अर्थात: धन की संभव नियति तीन प्रकार की होती है। पहली है उसका दान, दूसरी उसका भोग, और तीसरी है उसका नाश। जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है।

इस स्थान पर धन के ‘नाश’ शब्द की व्याख्या आवश्यक है। मेरा मानना है कि धन किसी प्रयोजन के लिए ही अर्जित किया जाना चाहिए। अगर कोई प्रयोजन ही न हो तो वह धन बेकार है। जीवन भर ऐसे धन का उपार्जन करके, उसका संचय करके और अंत तक उसकी रक्षा करते हुए व्यक्ति जब दिवंगत हो जाए तब वह धन नष्ट कहा जाना चाहिए। वह किसके काम आ रहा है, किसी के सार्थक काम में आ रहा है कि नहीं, ये बातें यह उस दिवंगत व्यक्ति के लिए कोई माने नहीं रखती हैं।

अवश्य ही कुछ जन यह तर्क पेश करेंगे कि वह धन दिवंगत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों के काम आएगा। तब मोटे तौर पर मैं दो स्थितियों की कल्पना करता हूं। पहली तो यह कि वे उत्तराधिकारी स्वयं धनोपार्जन में समर्थ और पर्याप्त से अधिक स्व्यमेव अर्जित संपदा का भरपूर भोग एवं दान नहीं कर पा रहे हों। तब भला वे पितरों की छोड़ी संपदा का ही क्या सदुपयोग कर पायेंगे ? उनके लिए भी वह संपदा अर्थहीन सिद्ध हो जाएगी। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि वे उत्तराधिकारी स्वयं अयोग्य सिद्ध हो जाए और पुरखों की छोड़ी संपदा पर निर्भर करते हुए उसी के सहारे जीवन निर्वाह करें। उनमें कदाचित् यह सोच पैदा हो कि जब पुरखों ने हमारे लिए धन-संपदा छोड़ी ही है तो हम क्यों चिंता करें। सच पूछें तो इस प्रकार की कोई भी स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण एवं कष्टप्रद होगी। कोई नहीं चाहेगा कि ऐसी नौबत पैदा हो। तब अकर्मण्य वारिसों के हाथ में पहुंची संपदा नष्ट ही हो रही है यही कहा जाएगा। एक उक्ति है: “पूत सपूत का धन संचय, पूत कपूत का धन संचय।” जिसका भावार्थ यही है कि सुपुत्र (तात्पर्य योग्य संतान से है) के लिए धन संचय अनावश्यक है, और कुपुत्र (अयोग्य संतान) के लिए भी ऐसा धन छोड़ जाना अंततः व्यर्थ सिद्ध होना है।
।।जय गुरु।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram


रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूं भी गुरु कीन | GURU | Ramkrishna | Vivekanand | 600 का नकली नोट क्यों नहीं आता, क्योंकि 600 का असली नोट ही नहीं बना |

रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |
यह परमात्मा द्वारा निर्मित एक अटल नियम है | जिसे हम और आप चाह कर भी नहीं उलट सकते | ठीक वैसे ही जैसे किसी को अपनी नेत्रहीनता का उपचार कराना है, तो नेत्र चिकित्सक की ही पनाह लेनी होगी | यह नितांत अटूट नियम है | इतना अटूट कि अगर कल किसी नेत्र चिकित्सक को अपनी नेत्रहीनता के उपचार की जरूरत पड़े, तो वह भी यह उपचार स्वयं करने में असमर्थ है | उसे भी किसी अन्य नेत्र चिकित्सक की टेक लेनी ही पड़ेगी | यही कारण था सज्जनों, कि परम प्रभु श्री राम ने भी इस नियम को रजामंदी दी | गुरु वशिष्ठ के आश्रित हुए | द्वापर युगीन जगदगुरु श्री कृषण ने भी इन्ही पदचिन्हों का अनुसरण किया | वो स्वयं ऋषि दुर्वासा की शरणागत हुए -

रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |

तीन लोक के नायका गुरु आगे आधीन ||

इस संदर्भ में कुछ लोग अक्सर एक प्रश्न उठा देते हैं | वह यह कि फिर मीरा, नामदेव, धन्ना आदि भक्तों ने बिना गुरु के प्रभु को कैसे पा लिया था? मीरा श्री कृषण से बातें किया करती थी | नामदेव ने 72 वार विट्ठल का  दर्शन किया था | धन्ना ने तो पत्थर तक में से भगवान को प्रकट कर लिया था | इनके पास तो कोई गुरु नहीं था | पर जो लोग ऐसा कहते हैं उनका ज्ञान अधूरा है | नि: सन्देह इन भक्तों के प्रेम व भावना के वशीभूत होकर भगवान इनके समक्ष प्रकट हो जाया करते थे | वे प्रभु के तत्त्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर पाते थे | पर इससे इनका पूर्ण कल्याण नहीं हो पाया था | इसलिए बाद में इन सब ने भी पूर्ण गुरू की शरण ग्रहण की थी | इतिहास बताता है कि मीरा ने गुरु रविदास जी से, नामदेव ने विशोबा खेचर से व धन्ना ने स्वामी रामानंद जी से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था |
बस समझ लो! सृष्टि के आदिकाल से वर्तमान तक जिसने भी ईश्वर को पाया, गुरु के सान्निध्य में ही पाया | नरेंद्र - रामकृष्ण, दयानंद - विरजानंद, जनक - अष्टावक्र, एकनाथ - जनादर्न, प्लोटो - सुकरात आदि जोड़े, इस बात को सिद्ध करते हैं | अब जब इन सभी ने इस हिदायत को कान दिए थे, बंधुओं, हम कैसे अनसुना कर सकते हैं? कैसे इस अटल नियम से हटकर अपना अलग राग आलाप सकते हैं?
हो सकता है, इन दलीलों को सुनकर अब आपका दिल कुछ मोम हुआ हो | गुरु शरणागति का नेक इरादा आपके मन - अम्बर पर कौंधा हो | मगर 99 प्रतिशत सम्भावना है कि इस इरादे को झट ग्रहण लग जायेगा | आपका यह नवजात हौंसला पस्त हो जाएगा | आप कहेंगे, दलीलें नि:सन्देह पुख्ता हैं | मगर इनकी तामील में बड़ी भारी समस्या है | हम जैसे ही इनसे गदगद होकर कदम आगे बढ़ाते हैं, हमारे मन के परदे पर अख़बारों की कुछ सुर्खियाँ उमड़ आती हैं | चलचित्रों के कुछ दृश्य घूम जातें हैं | इनमें उन सब स्कैंडलों या काण्डों की झलकियाँ हैं, जिनके नायक चोर, डाकू, ठग या लुटेरे नहीं, बल्कि समाज के नामी-गिरामी धर्मगुरु हैं | ये अनैतिकता और चरित्रहीनता के ज्वलंत उदाहरण बने दीखते हैं।

बिना दर्द भी आह भरने वाले बहुत मिलेंगे,
धर्म ने नाम पर गुनाह करने वाले बहुत मिलेंगे,
किसे फुर्सत है भटके हुए को राह दिखाने की,
विश्वास देकर गुमराह करने वाले बहुत मिलेंगे |
अब बताए, यहाँ कदम - कदम पर ऐसे रहबर हैं, वहां मुसाफिरों को किस पर एतबार आये? मैं आप की बात से सहमत हूँ , मगर बाजार में 500 का नकली नोट आता है, क्यों कि 500 का असली नोट है, 600 का नकली नोट क्यों नहीं आता, क्योंकि 600 का असली नोट ही नहीं बना | इस लिए अगर समाज में नकली धर्म गुरुओं की भरमार हैं, हमें उन की पहचान धार्मिक ग्रंथों के आधार पे करनी चाहिए | भगवा वस्त्र कोई संत की पहचान नहीं है, इस वस्त्र में तो रावण भी आया था और माता सीता को उठाकर ले गया था | आप किसी का भगवा वस्त्र देखकर उस को गुरु मत धारण कर लेना, वो खुद तो नर्क में जायेगा आप को भी ले डूबेगा | पूर्ण संत की पहचान उस का ज्ञान है, सभी धार्मिक ग्रन्थ इस बात का प्रमाण देते हैं कि जब भी संसार पे अधर्म बढ़ जाता है, जब उलटी बाढ़ ही खेत को खाने लग जाती है | जब धर्म गुरू ही समाज को लूटने लग जाते हैं, तब वो शक्ति शारीर रूप में इस धरा पे आती है और समाज का मार्ग दर्शन करती है | जो संत हमें हमारे शरीर में ही परमात्म दर्शन का सही मार्ग बता दे, वही पूर्ण सतगुरु है | इस लिए हमें ऐसे पूर्ण संत की खोज करनी चाहिए, तभी हमारे जीवन का लक्ष्य पूर्ण हो सकता है |
जय गुरू महाराज
Posted by S.K.Mehta, Gurugram


सोमवार, 23 जुलाई 2018

भूकंप आने पर तुम भागे, मैं भी भागा! तुम बाहर की तरफ भागे और मैं अन्दर की तरफ भागा जहाँ भूकंप नहीं पहुँचता है। Japan | Bhookamp

Superb Saakhi

जापान में एक झेन फकीर को कुछ मित्रों ने भोजन पर बुलाया था। सातवीं मंजिल के मकान पर भोजन कर रहे हैं, अचानक भूकंप आ गया। सारा मकान कंपने लगा। भागे लोग। कोई पच्चीस-तीस मित्र थे। सीढ़ियों पर भीड़ हो गयी। जो मेजबान था वह भी भागा। लेकिन भीड़ के कारण अटक गया दरवाजे पर। तभी उसे ख्याल आया कि मेहमान का क्या हुआ? लौटकर देखा, वह झेन फकीर आंख बंद किये अपनी जगह पर बैठा है -जैसे कुछ हो ही नहीं रहा! मकान कंप रहा है, अब गिरा तब गिरा। लेकिन उस फकीर का उस शांत मुद्रा में बैठा होना, कुछ ऐसा उसके मन को आकर्षित किया, कि उसने कहा, अब जो कुछ उस फकीर का होगा वही मेरा होगा। रुक गया। कंपता था, घबड़ाता था, लेकिन रुक गया। भूकंप आया, गया। कोई भूकंप सदा तो रहते नहीं। फकीर ने आंख खोली, जहां से बात टूट गयी थी भूकंप के आने से, वहीं से बात शुरू की
लेकिन मेजबान ने कहा : मुझे क्षमा करें, मुझे अब याद ही नहीं कि हम क्या बात करते थे। बीच में इतनी बड़ी घटना घट गयी है कि सब अस्तव्यस्त हो गया। अब तो मुझे एक नया प्रश्न पूछना है। हम सब भागे, आप क्यों नहीं भागे?
उस फकीर ने कहा : तुम गलत कहते हो। तुम भागे, मैं भी भागा। तुम बाहर की तरफ भागे, मैं भीतर की तरफ भागा। तुम्हारा भागना दिखाई पड़ता है, क्योंकि तुम बाहर की तरफ भागे। मेरा भागना दिखाई नहीं पड़ा तुम्हें लेकिन अगर गौर से तुमने मेरा चेहरा देखा था, तो तुम समझ गये होओगे कि मैं भी भाग गया था। मैं भी यहां था नहीं, मैं अपने भीतर था। और मैं तुमसे कहता हूं के मैं ही ठीक भागा।, तुम गलत भागे। यहां भी भूकंप था और जहां तुम भाग रहे थे वहां भी भूकंप था। बाहर भागोगे तो भूकंप ही भूकंप है। मैं ऐसी जगह अपने भीतर भागा। जहां कोई भूकंप कभी नहीं पहुंचता है। मैं वहां निश्चित था। मैं बैठ गया अपने भीतर जाकर। अब बाहर जो होना हो हो। मैं अपने अमृत -गृह मैं बैठ गया, जहां मृत्यु घटती ही नहीं। मैं उस निष्कंप दशा में पहुंच गया, जहां भूकंपों की कोई बिसात नहीं
अगर तुम्हें बाहर का जोखम दिखाई पड़ जाये तो तुम्हारे जीवन में अंतर्यात्रा शुरू हो सकती है।
।। जय गुरु ।।

शनिवार, 21 जुलाई 2018

काटने (अलग करने) वाले की जगह हमेशा नीचे होती है।

कहानी : काटने (अलग करने) वाले की जगह हमेशा नीचे होती है और जोडने वाले की जगह हमेशा ऊपर होती है ।

एक दिन किसी कारण से स्कूल में छुट्टी की घोषणा होने के कारण,एक दर्जी का बेटा, अपने पापा की दुकान पर चला गया ।

वहाँ जाकर वह बड़े ध्यान से अपने पापा को काम करते हुए देखने लगा ।

उसने देखा कि उसके पापा कैंची से कपड़े को काटते हैं और कैंची को पैर के पास टांग से दबा कर रख देते हैं ।

फिर सुई से उसको सीते हैं और सीने के बाद सुई को अपनी टोपी पर लगा लेते हैं ।

जब उसने इसी क्रिया को चार-पाँच बार देखा तो उससे रहा नहीं गया, तो उसने अपने पापा से कहा कि वह एक बात उनसे पूछना चाहता है ?

पापा ने कहा-बेटा बोलो क्या पूछना चाहते हो ?

बेटा बोला- पापा मैं बड़ी देर से आपको देख रहा हूं , आप जब भी कपड़ा काटते हैं, उसके बाद कैंची को पैर के नीचे दबा देते हैं, और सुई से कपड़ा सीने के बाद, उसे टोपी पर लगा लेते हैं, ऐसा क्यों ?

इसका जो उत्तर पापा ने दिया-उन दो पंक्तियाँ में मानों उसने ज़िन्दगी का सार समझा दिया ।

उत्तर था- ” बेटा, कैंची काटने का काम करती है, और सुई जोड़ने का काम करती है, और काटने वाले की जगह हमेशा नीची होती है परन्तु जोड़ने वाले की जगह हमेशा ऊपर होती है ।

यही कारण है कि मैं सुई को टोपी पर लगाता हूं और कैंची को पैर के नीचे रखता हूं........!!



शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

गुरु सेवा गुरु के प्रति की गयी सेवा है। जब एक शिष्य अपने गुरु से प्रेम करता है वह गुरु की सेवा करता है.. | Guru Sewa |

गुरु सेवा गुरु के प्रति की गयी सेवा है। जब एक शिष्य अपने गुरु से प्रेम करता है वह गुरु की सेवा करता है। "गुरु सेवा जो सभी शिष्यों के लिए सामान्य है"  गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण होती है और अध्यात्मिक तकनीकों का नियमित एवं अनुशासित ढंग से अभ्यास करना होता है। सभी शिष्य गुरु के प्रति भौतिक या भौगोलिक सामीप्य नहीं रखते हैं। इसलिए वे गुरु के प्रति व्यक्तिगत सेवा नहीं कर सकते हैं।

इसलिए जहाँ कहीं भी शिष्य रहता हो जीवन के किसी भी पड़ाव में निम्नवत शिक्षाओं एवं दिशानिर्देशों द्वारा सेवा कर सकता है।
                                                   
गुरु के प्रति सच्ची गुरु भक्ति या प्रेम निसंदेह गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण करना होता है। एक शिष्य जो गुरु की शिक्षाओं का अभ्यास करता है, वह क्रोध, नुकसान, घमंड, आसक्ति एवं तामसिकता के आंतिरिक लघु परिपथों से ऊपर उठ जाएगा। वह आशीर्वाद के बारे में जो गुरु से प्रवाहित होता है दूसरों के लिए एक उदाहरण होता है। वह अध्यात्मिक रूप से फलता फूलता है एवं उसकी प्रेम एवं सेवा की सुगंध उसके गुरु को प्रदर्शित करती है तथा गौरवान्वित करती है।
               
कुछ शिष्य होते हैं जो गुरु से सामीप्य या सम्बन्ध रखते हैं। गुरु उनसे अपने लिए कुछ कार्य करने के लिए कह सकते हैं। यह भी गुरु सेवा होती है। यह कोई भी कार्य हो सकता है। यह आश्रम में झाड़ू लगाना, कपड़ों को साफ करना, पौधों की सिंचाई करना, किराने का सामान खरीदना, भोजन पकाना, गुरु के चरणों को दबाना या आगंतुकों का स्वागत करना हो सकता है। शिष्य को इमानदारी एवं समर्पण से वही कार्य करना चाहिए जो उससे कहा जाये। उसे दूसरे को दिए गए कार्य पर ध्यान नहीं देना चाहिए ना ही उसे दूसरों के  द्वारा करने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। शिष्य के मस्तिष्क में गुरु के प्रति स्वयं या पक्षपात की हीनता की भावना या अन्य नकारात्मक विचार नहीं होने चाहिए। गुरु द्वारा दिया गया कोई भी कार्य पवित्र होता है एवं उसका निष्पादन सर्वोच्च प्रतिभा के साथ होना चाहिए। प्रत्येक शिष्य को वही कार्य या सेवा दी जाती है जो गुरु द्वारा शिष्य की कार्मिक आवश्यकताओं तथा उनकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर  भी निर्धारित किया  जाता है। किसी भी शिष्य को दूसरों को दिए गए कार्य को करने की  या ईर्ष्या की भावना नहीं रखनी चाहिए। हम लोगों द्वारा प्रेम एवं निष्ठा के साथ गुरु द्वारा तय  किये गए कार्य को करना सर्वश्रेष्ठ सेवा होती है जो हम कर सकते हैं।


 गुरु सेवा का आशीर्वाद उन क्षेत्रों को भरता तथा पूर्ण करता है जिसका शिष्य के जीवन में अभाव होता है। गुरु सेवा शिष्य के ऊपर स्वास्थ्य, अच्छे जीवन साथी, संतान, कार्य, धन, ज्ञान, बुद्धिमत्ता, आलौकिक क्ष्रमताओं, ईश्वर का आशीर्वाद  एवं निरपेक्ष से एकाकार के रूप में आशीर्वाद का प्रवाह होता है।
                                          
राम ने वशिष्ठ ऋषि के प्रति गुरु सेवा को किया तथा उन्हें प्रसन्न किया।
               
कृष्ण ने भी अपने गुरु सान्दिपनी के आश्रम में गुरु सेवा की। उन्होंने भूमि को धोया एवं स्वच्छ किया, पूजन सामग्री, अलाव एवं पानी एकत्रित किया। यद्यपि वे भगवान विष्णु के अवतार थे, वे विनीत, आज्ञाकारी तथा समर्पित थे। उन्होंने अन्य दूसरे साधारण विद्यार्थियों की तरह अपने गुरु द्वारा दिए गए समस्त कार्य को सम्पादित किया। परिणाम के रूप में वे चौंसठ दिनों में चौंसठ कलाओं में माहिर हो गए। यह सही दृष्टिकोण से संपादित की गयी गुरु सेवा का आशीर्वाद है।
                   
जो लोग गुरु सेवा करते हैं उन्हें सेवा उचित इच्छा, तत्परता एवं आज्ञा से तथा दूसरों के प्रति बिना किसी ईर्ष्या की भावना से करना चाहिए जो गुरु से निरन्तर सम्पर्क  में रहते हैं। जो लोग दूर हैं और गुरु से सीधे सम्पर्क नहीं रख सकते हैं, उन्हें नियमित रूप से मंत्र जाप एवं ध्यान करना चाहिए और सिखाये गए अध्यात्मिक अभ्यासों के दूसरे नियमों का अनुसरण करना चाहिए। गुरु सेवा सर्वोच्च सम्भावित पुरस्कारों को प्रदान करती है।
                   
गुरु सेवा स्वयं में एक पुरस्कार है। सदैव गुरु की सेवा तन, मन, धन, एवं आत्मा से करें।
जय गुरु महाराज
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

गुरु सेवा ते भगति कमाई, तब यह मानस देही पाई | Guru Sewa te bhakti kamai tab yah manush dehi pai | Santmat-Satsang

गुरु सेवा ते भगति कमाई, तब यह मानस देही पाई!

हे जीव! यह मनुष्य देह तुझे गुरु की सेवा तथा भक्ति की कमाई करने के लिए मिली है। इस देह के लिए देवी-देवता भी तरसते हैं। वह भी चाहते हैं कि हम मनुष्य शरीर को धारण करके गुरु की भक्ति कर सकें। हे जीव तू इस मूल्यवान शरीर को पाकर भजन के काम में आलस्य करता है तथा भजन के कार्य को कल पर छोड़ता है, सो यह तेरी उस व्यक्ति वाली मिसाल है जिसे एक साधु की सेवा करने से एक सप्ताह के लिए पारस मिला था परंतु उसने उससे कोई भी लाभ न लिया। एक व्यक्ति साधु-संतों की सेवा किया करता था। एक बार एक साधु उस के घर आया जिसके पास पारसमणि थी। उस व्यक्ति ने अपने नम्र स्वभावानुसार उस साधु की सेवा की। साधु ने प्रसन्न होकर कहा, 'यह पारसमणि मैं तुझे एक सप्ताह के लिए दे जा रहा हूँ इसमें यह गुण छिपा हुआ है कि यदि लोहा इससे छू जाए तो वह लोहा स्वर्ण में बदल जाता है। एक सप्ताह के भीतर तुम जितना चाहे सोना बना लेना परन्तु सात दिन व्यतीत होने पर यह वस्तु तुम से वापस ले ली जायेगी। यह कह कर साधु चला गया। तत्पश्चात वह व्यक्ति पारस को घर रख कर बाजार चला गया। लोहे का भाव पूछने लगा। मालूम हुआ कि लोहा दो रुपये सेर है। सोचने लगा शायद कल कुछ सस्ता हो जाए, आज महंगा है। यह सोचकर वापस आ गया। दूसरे दिन जब बाजार में गया तो पता चला आज भाव कल से अधिक है। वह पुन: लौट आया उसका विचार था कि लोहा सस्ता होने पर खरीदूंगा। अर्थात रोजाना बाजार में आता-जाता और लोहे का भाव पूछ कर वापस घर चला आता। सात दिन व्यतीत हो गए। साधु अपने वचनों के अनुसार आ गया उस व्यक्ति को उसी प्रकार कंगाल देखकर चकित हुए तथा कहा,' अरे मैंने तो तुझे पारस दिया था कि तू जितना चाहे सोना बना ले ताकि तेरी निर्धनता दूर हो जाए, क्या तुमने उससे कोई लाभ नहीं उठाया? वह व्यक्ति बोला महाराज! क्या करता कई बार बाजार गया परन्तु लोहे का भाव ही बहुत तेज रहा। इसलिए यह कार्य न हो सका। यह सुनकर साधु उस व्यक्ति की नादानी पर हंसा और कहने लगा, तुमने व्यर्थ ही लोहे का भाव पूछने में सात दिन गंवा दिए तथा अनमोल समय खो दिया। साधु पारस ले गया। इसलिए संत कहते हैं कि हे जीव! करोड़ों वर्षों से आवागमन के चक्कर में ठोकरें खाते हुए देख कर मालिक ने दया करके तुझे हीरे जैसा जन्म दिया था ताकि तू निम्न जन्म के कंगालपन से छूट जाए परंतु तूने यह अनमोल समय माया की गिनतियां करते हुए खो दिया तथा जो लाभ इस मानव जन्म से उठाना था वह न उठा सका।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम


सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...