हमारे गुरुदेव और भगवान बुद्ध
- महर्षि संतसेवी परमहंस
यह बात लोक और वेद में प्रसिद्ध है कि शशि और सूर्य की भांति सन्तों का अवतरण जगन्मंगल के लिए हुआ करता है। सन्तों की गति अनन्त होती है। उनकी महिमा विभूति के गायन के लिए वाणी भी मूक हो जाती है। सन् सद्गुरु अपने कृपा-कटाक्ष से अनन्त अक्ष का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी के दर्शन करानेवाले होते हैं -
सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार लोचन अनन्त उपारिया, अनन्त दिखावनहार ।। (सन्त कबीर साहब )
वस्तुतः, सर्वेश्वर को पाकर वे इतने विशेष हो जाते हैं कि शेष निःशेष हो जाता है। उनकी दृष्टि इतनी पैनी हो जाती है कि उसे व्यष्टि और समष्टि वेष्टित नहीं कर पाती, वरन् इन उभय का अतिक्रमण कर निर्भय हो सम हो जाती है। यही हेतु है कि सन्तों ने कहीं 'गुरु शंकररूपिणा' कहीं 'कृपासिन्धु नररूप हरि' तो कहीं 'गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः महेश्वरः' के रूप में गुरु के दर्शन किए हैं। इतना ही नहीं, किसी स्थल पर राम-सम, तो कहीं गोविन्द से विशेष और कहीं 'परम पुरुषहू तें अधिक' की दृष्टि से वे गुरु को निहारते हैं।
किन्तु मुझ जैसा 'मुकुर मलिन अरु नयन विहीना' तथा 'अज्ञ अकोविद अंध अभागी। काई विषय मुकुर मन लागी॥' जन अपने परम गुरुदेव के दिव्य रूप को देखे तो किस दृष्टि से और कुछ बोले तो किस मुँह से?
का मुख ले विनती करों, लाज आवत है मोहि।
तुव देखत औगुन करौं, कैसे भावों तोहि ॥
( सन्त कबीर साहब)
वैशाख शुक्ला चतुर्दशी के दिन हमारे गुरुदेवजी महाराज का आविर्भाव इस जगती तल पर हुआ। चैत और वैशाख वसन्त ऋतु कहलाते हैं। इस ऋतु में सन्त और भगवन्त उभय के अवतार हुए हैं अर्थात् भगवन्त और सन्तरूप में भगवंत-उभय के अवतरण हुए हैं, जैसे चैत शुक्ल नवमी को भगवान राम और वैशाखी पूर्णिमा को भगवान बुद्ध और देखिए, वैशाख शुक्ला पंचमी को आचार्य शंकर और वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को संतमत के आचार्य महर्षि में ही परमहंसजी महाराज हुए। ऋतुराज को योगिराज और ऋषिराज को लाने का श्रेय स्वाभाविक है।
अपने परमाराध्य को मैं राम कहूँ, कृष्ण कहूँ, बुद्ध कहूँ, शंकर कहूँ; समझ में नहीं आता। सन्त कहूँ या भगवंत कहूँ, अपनी अल्प बुद्धि में निर्णय नहीं कर पाता।
रामावतार त्रेतायुग में हुआ। नाम राम था, किन्तु वर्ण श्याम था। कृष्णावतार द्वापर में हुआ। उस समय नाम श्याम और रूप भी श्याम हुआ। गोया त्रेतायुग का अधूरापन द्वापर में पूरा हुआ; किन्तु जब उसमें भी कमी दृष्टिगोचर हुई तो कलियुग के अवतार में उसकी पूर्ति की गई। वह क्या? नाम और रूप तो मिला, किन्तु ग्राम का अभाव था। इसलिए त्रेता युगवाला नाम (राम) रहा और जन्मभूमि का ग्राम श्याम हुआ। यदि और भी स्पष्ट करना चाहें तो ऐसा कह सकते हैं कि भगवान राम ही दूसरे अवतार में श्याम हुए थे। ऐसा क्यों न कहा जाए कि डुन युगल युगों के योग से कलियुग में राम + अनुग्रह = रामानुग्रह नाम पड़ा अर्थात् अनुग्रहपूर्वक राम ग्राम श्याम में अवतरित हुए।
इस अवसर पर सन्त और भगवन्त के अवतरण पर स्वल्प होगा प्रकाश डालना असंगत न होगा।
साधारण लोग मायावश होकर जन्म लेते हैं, परन्तु महायोगेश्वर माया को स्ववश में रखते हुए संसार के कार्यों का सम्पादन करने के लिए जन्म धारण करते हैं।
संतजन सर्वश्रेष्ठ होते हैं। वे माया को कौन कहे, मायापति को वश में किए होते हैं।
अपने बस करि राखेउ रामू ।
(रामचरितमानस)
संत पलटू साहब की वाणी में हम कह सकेंगे ―
सबसे बड़े हैं सन्त दूसरा नाम है।
तीजै दस अवतार तिन्हें परनाम है ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार हैं।
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर सन्त मुकुट सरदार हैं।।
संतजन लोक-कल्याणार्थ निज इच्छा से जन्म धारण करते हैं। भगवंत के जन्म का कारण होता है ―
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय व दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ४/७-८)
अर्थात् हे भारत! जब-जब धर्म मंद पड़ता है, अधर्म की प्रबलता होती है, तब-तब में जन्म धारण करता हूँ। साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश तथा धर्म के प्रतिष्ठापन हेतु युग-युग में जन्म लेता हूँ।
संतजन के लिए दुष्ट और शिष्ट सभी समान होते हैं। अतः वे दष्टों का नहीं, वरन् दुष्टों की दुर्वृत्ति-दुर्बुद्धि का नाश करते हैं। वे अज्ञान का नाश एवं सदज्ञान का प्रकाश करते हैं। वे अपकारक के भी उपकारक होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में ―
सन्त उदय सन्तत सुखकारी।
विस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी॥
भूरज तरु सम सन्त कृपाला।
परहित नित सह विपति विसाला।
तुलसी सन्त मुअम्ब तरु, फूलै फले पर हेत।
इत तें वे पाहन हनें, उत तें वे फल देत॥
संतजन विश्व-उपकार की भावना स्वेच्छापूर्वक शरीर धारण करके संसार में विचरण करते हैं, इसीलिए अपने आराध्यदेव के संबंध में हम कह सकेंगे कि उनका इस संसार में सहर्ष आना हुआ, इसलिए सहर्ष+आ = सहर्षा उनकी जन्मभूमि का जनपद (जिला) हुआ।
भगवंत संसार रूपी कारागार में कारापाल की भाँति रहते हैं। संत जलकमलवत् जगत में रहते हैं।
भगवंत का अवतरण कारण-मंडल से स्थूल मंडल में किसी कारणवश होता है। कार्य सम्पन्न करके पुनः कारण मंडल में प्रतिष्ठित होते हैं।
संत का अवतरण सत् गुरुधाम परमात्मपद से होता है और लौकिक लीला संपन्न करके परम धाम-अजर लोक में निवास करते हैं। संत कबीर साहब के शब्दों में ―
जमीं आसमान वहाँ नहीं, वह अजर कहावे।
कहै कबीर कोई साध जन, या लोक मझावै ।।
हमारे सद्गुरु महाराज का जन्म श्याम ग्राम के मँझुआ टोले में हुआ। ऐसा लगता है, जैसे 'मँझावै' का ही यह अपभ्रंश हो । मँझुआ+ आवै = मँझुवावै। यदि हम गुरुदेव को बुद्ध की दृष्टि से देखना चाहें तो उससे भी एक विलक्षण बोध प्राप्त होगा।
भगवान बुद्ध का पूर्व नाम सिद्धार्थ था और पश्चात् का नाम बुद्ध। हमारे सद्गुरु देव का पूर्व नाम 'रामानुग्रह' था और पश्चात् का नाम मेँहीँ ।
भगवान बुद्ध का पितृगृह नेपाल की तराई कपिलवस्तु नगर में था (जो बिहार प्रांत में ही कभी अवस्थित था) हमारे सद्गुरुदेव का पितृगृह नेपाल की तराई पुरैनियाँ ( पूर्णियाँ) जिले में है, जो बिहार राज्यान्तर्गत है।
भगवान बुद्ध का जन्म वैशाख पूर्णिमा को हुआ था। हमारे सद्गुरु का जन्म वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को हुआ अर्थात् एक दिन पूर्व। इस दृष्टि से यदि कहा जाए कि भगवान बुद्ध से हमारे गुरु महाराज एक दिन के बड़े हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
भगवान बुद्ध की माता जब अपने पितृगृह-मायके जा रही थीं, तब मार्ग में ही शालवन में बुद्ध का जन्म हुआ था। हमारे सद्गुरुदेव की माता जब अपने पितृगृह-मायके पहुँच चुकी थीं, तब वहाँ आपका जन्म हुआ।
भगवान बुद्ध जन्म धारण करते ही तत्क्षण सात डेग (कदम) चले थे, जो अलौकिक बात है। हमारे सद्गुरुदेव को जन्मजात सात जटाएँ थीं, जो प्रतिदिन सुलझा देने पर भी पुनः सात-की सात बन जाती थीं, यह विलक्षण जन्मजात योगी के प्रतीक नहीं तो क्या? भगवान बुद्ध की अल्पावस्था में ही उनकी
माता की मृत्यु हुई थी। हमारे सद्गुरुदेव की भी
अल्पावस्था में यानी चार वर्ष की उम्र होने पर
इनकी माता की मृत्यु हुई।
भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोधन ने पुनर्विवाह किया था। हमारे सद्गुरुदेव के पिता बबुजनलाल दासजी ने भी पुनर्विवाह किया था।
भगवान बुद्ध की सौतेली माँ का अद्भुत् स्नेह उनके प्रति था। उसने लाड़-प्यार से उनका पालन-पोषण किया था और बड़े होने पर भी (बुद्ध होने पर) गुरुवत् उसी प्रतिष्ठा की दृष्टि से उनको देखा। हमारे सद्गुरुदेव की सौतेली माँ का अलौकिक प्यार इनको प्राप्त था और जब आप बड़े हुए तो वे आपको पुत्र की दृष्टि से नहीं, वरन् एक सन्त की दृष्टि से देखती थीं। i इसका सबल प्रमाण है कि जब वे इस जगत से महाप्रयाण कर रही थीं, उस समय उन्होंने आपका आवाहन कर आपके शुभ दर्शन किए थे।
भगवान बुद्ध ने विवाह करके कुछ काल के लिए गृहस्थ धर्म स्वीकार किया था, तत्पश्चात् वे संन्यासी बने। हमारे सद्गुरुदेव ने बाल-ब्रह्मचारी रहकर संन्यास व्रत धारण किया।
भगवान बुद्ध को वृद्ध, रुग्न और मृतक दर्शनरूप प्रचंड पवन के तीन झकझोरे लगने पर प्रबल वैराग्य हुआ। हमारे सद्गुरुदेव को अध्ययन-काल में ही वैराग्य हुआ। आपको परीक्षा-काल में (Builders) शीर्षक का मात्र एक झटका लगा और वैराग्याग्नि प्रदीप्त हो उठी। ऐसा लगता है कि जैसे सूखी दियासलाई पर मात्र एक काठी घिसने की आवश्यकता थी।
भगवान बुद्ध छह वर्षों तक जंगल में कठोर तप करने पर इस निर्णय पर पहुँचे कि इससे अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती। हमारे सद्गुरुदेव ने छह महीने तक जमीन के नीचे रहकर यह निष्कर्ष निकाला कि इस कठिन तपश्चर्या से सर्वेश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता।
भगवान बुद्ध को बिहार राज्यान्तर्गत गया जिले की गया भूमि में वटवृक्ष के नीचे परम सिद्धि की प्राप्ति हुई थी। हमारे सद्गुरु को बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर जिले के गंगा- पुलिनस्थित कुप्पाघाट की गुफा में परम सिद्धि मिली।
स्मरणीय है कि इन दोनों सन्तों की जन्मभूमि गंगा के उत्तरी पार थी और उभय को अभय सिद्धि की प्राप्ति गंगा के दक्षिणी पार में हुई।
भगवान बुद्ध ने ध्यान करने और पंचशील पालन करने का उपदेश दिया। हमारे सद्गुरुदेव ने ध्यानाभ्यास करने और झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार; इन पंच पापों से विरत रहने का प्रबल आदेश दिया।
भगवान बुद्ध ने बुद्ध, धर्म और संघ की त्रिशरण बताई ―
बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि ।
हमारे गुरुदेव ने त्रिशरण के समास-रूप गुरु, ध्यान और सत्संग का निर्देशन करते हुए एक सर्वेश्वर पर अचल विश्वास एवं पूर्ण भरोसा रखने की शिक्षा दी।
भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल नामक डाकू तथा अम्बपाली नामक वेश्या का उद्धार किया जबकि हमारे गुरुदेव ने कितने ही दुष्टों तथा अज्ञातनामा (कटिहार नगर की) वेश्या का उद्धार किया।
भगवान बुद्ध ने पैदल घूम-घूमकर सम्पूर्ण देश में अपने धर्म का प्रचार किया। हमारे सद्गुरुदेव ने भी पदयात्रा करके बीहड़ मार्गों को तय किया और सन्तमत का प्रचार-प्रसार किया; मात्र अपने देश में ही नहीं, अपितु नेपाल राज्य में भी अनपढ़, असभ्य और गिरे हुओं को, जिनको पूछनेवाला कोई नहीं,
आपने सद्ज्ञान दिया।
अब स्वल्प रूप में जो विषमताएँ हैं, उनका समास रूप में दिग्दर्शन कराना चाहूँगा ।
कहते हैं, भगवान बुद्ध ने वेद और ब्रह्म को अस्वीकार किया, परन्तु हमारे सद्गुरुदेवजी ने उन दोनों को स्वीकार किया और मानवीय मर्यादा दी। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं और भिक्षुणियों की संख्या बढ़ाने में प्रोत्साहन दिया, किन्तु हमारे सद्गुरुजी ने देशकालानुकूल गृहस्थाश्रम में रहने तथा स्वावलम्बी जीवन यापन का आदेश दिया। भगवान बुद्ध ने मौखिक उपदेश दिया, किन्तु परम पूज्य गुरुदेवजी ने मौखिक उपदेश के साथ साहित्य-सृजन भी किया। वेदवादी और पंथवादी के बीच का पाटन-कार्य आपने सफलतापूर्वक किया। साथ ही, साम्प्रदायिक भाव के कारण सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि की जो आपस में कटुता थी, आपने अपने अर्जित ज्ञान और सामंजस्यपूर्ण विचार द्वारा उसकी झंझट का उन्मूलन करके उसमें मधुरिमा ला दी।
अन्य संतों की भाँति आपने एक ईश्वर पर विश्वास दिलाया और उनकी भक्ति दृढ़ की। साथ ही, उनकी प्राप्ति का एकमात्र मार्ग अन्तर्मार्ग बताया, जो ज्योतिर्मय और ध्वनिमय है। जैसे जल में तैरनेवाले के लिए जल ही मार्ग होता है और जल ही अवलम्ब, वैसे ही अंतर्मार्गी साधक के लिए ज्योति और नाद ही मार्ग हैं तथा ये ही दोनों अवलम्ब भी। आपने प्रकाश और शब्द को परमात्मा का वाम और दक्षिण हस्त बतलाया और कहा कि यह शब्द जहाँ विलीन होगा, वहाँ ही उपनिषद् का यह वाक्य 'निःशब्दं परमं पदम्' सार्थक होगा अर्थात् वही परमात्म-धाम है। वहीं गोस्वामी तुलसीदासजी का 'एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद परधामा ।' है। इन कतिपय शब्दों के साथ मैं श्री सद्गुरुजी महाराज के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।