संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का प्रवचन:-
तीन प्रकार के शब्द :
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।। -केनोपनिषद् खंड-1
इन्द्रियगम्य पदार्थ और देशकाल से घिरे हुए पदार्थ को ब्रह्म नहीं कहते हैं। जो रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द नहीं है, वह ब्रह्म है। जो देश-कालातीत है, उसको प्राप्त करने पर जीवन्मुक्त हो जाता है। संत कबीर साहब कहते हैं-
जीवन मुक्त सो मुक्ता हो ।
जब लग जीवन मुक्ता नाहीं।
तब लग दुःख सुख भुगता हो।।
इन्द्रियगम्य पदार्थों में पड़ा रहना बड़ी हानि है। शरीर के रहते ही जीवन्मुक्त होता है। आकाश एक ही है, लेकिन घर और बाहर के आकाश को अलग- अलग समझने पर वह भिन्न मालूम पड़ता है। सर्वव्यापी का मतलब है कि पिण्ड को भरकर भी बाहर हो। संसार भर के पोथियों को पढ़ जाओ, फिर भी परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकते हो। वह आत्मा से ही पहचाना जाता है। रूप क्या है, जो नेत्र से ग्रहण होता है। चेतन आत्मा पर जड़ शरीर का आवरण पड़ा हुआ है, इसलिए आत्मा का ज्ञान नहीं होता है। कैवल्य दशा में रहकर जानो तब वह जानने में आता है। 1904 ई0 से इस सत्संग से मैं जुड़ा हुआ हूँ। मैंने यही जाना है कि बिना सुरत-शब्द-योग से परमात्मा की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती है। नाद की खोज अन्दर में करनी चाहिए। जिस गूँज में शान्ति है, वह अन्तर्नाद है। मुझको ईश्वर के बारे में बाबा देवी साहब का वचन पसन्द है। उन्होंने कहा-जैसे लाह से लपेटी हुई लकड़ी को अग्नि के ऊपर रखो तो वह लाह अग्नि के द्वारा झड़ जाती है। उसी प्रकार साधन की अग्नि के द्वारा अंदर के आवरणों को दूर किया जाता है। चेतन आत्मा के पवित्र सुख को निर्मल सुख कहते हैं। ऊपर उठने के लिए प्रकाश और शब्द अवलम्ब है। रूप तक प्रकाश पहुँचाता है और अरूप तक शब्द पहुँचाता है। ज्योति ध्यान, विन्दु ध्यान पहला साधन है। यह देखने की युक्ति से होता है।
काजर दिये से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।। ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति है न्यारी । एकटक लेवै ताकि , सोई है पिव की प्यारी ।। ताकै नैन मिरोरि, नहीं चित अंतै टारै । बिन ताकै केहि काम, लाख कोउ नैन संवारै ।।
ताके में है फेर, फेर काजर में नाहीं।
भंगि मिली जो नाहिं, नफा क्या जोग के माहीं।।
पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं ।
काजर दिये से का भया, ताकन को ढब नाहिं ।।
आँखें बन्द करके देखो, एकटक देखो और चित्त को स्थिर करके देखो। मन की एकाग्रता होने पर वृत्ति का सिमटाव होता है। सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है और ऊर्ध्वगति से परदों का छेदन होता है। इस प्रकार वह एक तल से दूसरे तल पर पहुँचता है। शब्द विहीन संसार कभी नहीं होगा। स्थूल, सूक्ष्म आदि मण्डलों में भी शब्द है। श्रवणात्मक, ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक; तीन प्रकार के शब्द होते हैं। जो केवल सुरत से सुनते हैं वह श्रुतात्मक है। अनाम से नाम उत्पन्न हुआ। अशब्द से शब्द हुआ।
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।
-संत कबीर साहब
नाम, अनाम में पहुँचा देता है। संत सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं-
श्रवण बिना धुनि सुनै नयन बिनु रूप निहारै ।
रसना बिनु उच्चरै प्रशंसा बहु विस्तारै ।।
नृत्य चरण बिनु करै हस्त बिनु ताल बजावै ।
अंग बिना मिलि संग बहुत आनन्द बढावै ।।
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को सेवक भाव लिये रहै ।
मिलि परमातम सों आतमा परा भक्ति सुन्दर कहै।।
गगन की समाप्ति में मीठी और सुरीली आवाज होती है। वही सार शब्द है गोरखनाथजी महाराज कहते हैं-
गगन शिखर मँहि बालक बोलहिं वाका नाम धरहुगे कैसा।।
तथा-
छः सौ सहस एकीसो जाप।
अनहद उपजै आपै आप ।।
शब्द ही परमात्मा तक ले जाएगा। इसीलिए ध्यान करो।
पूजा कोटि समं स्तोत्रम, स्तोत्र कोटि समं जपः।
जाप कोटि समं ध्यानं, ध्यानं कोटि समो लयः ।।
(यह प्रवचन दिनांक 3-10-1949 ई0 को मुरादाबाद (यू0 पी0) सत्संग मंदिर में अपराह्नकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था।)
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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