यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, 28 मई 2021

तीन प्रकार के शब्द | महर्षि मेँहीँ | Teen prakar ke shabd | Three types of words | Maharshi Mehi | Pravachan | Santmat | Satsang

संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का प्रवचन:- 
तीन प्रकार के शब्द :
यन्मनसा न   मनुते   येनाहुर्मनो मतम् । 
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।  -केनोपनिषद् खंड-1 
इन्द्रियगम्य पदार्थ और देशकाल से घिरे हुए पदार्थ को ब्रह्म नहीं कहते हैं। जो रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द नहीं है, वह ब्रह्म है। जो देश-कालातीत है, उसको प्राप्त करने पर जीवन्मुक्त हो जाता है। संत कबीर साहब कहते हैं- 
जीवन मुक्त सो मुक्ता हो । 
जब लग जीवन मुक्ता नाहीं।
तब लग दुःख सुख भुगता हो।।
इन्द्रियगम्य पदार्थों में पड़ा रहना बड़ी हानि है। शरीर के रहते ही जीवन्मुक्त होता है।  आकाश एक ही है, लेकिन घर और बाहर के आकाश को अलग- अलग समझने पर वह भिन्न मालूम पड़ता है। सर्वव्यापी का मतलब है कि पिण्ड को भरकर भी बाहर हो। संसार भर के पोथियों को पढ़ जाओ, फिर भी परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकते हो। वह आत्मा से ही पहचाना जाता है। रूप क्या है, जो नेत्र से ग्रहण होता है। चेतन आत्मा पर जड़ शरीर का आवरण पड़ा हुआ है, इसलिए आत्मा का ज्ञान नहीं होता है। कैवल्य दशा में रहकर जानो तब वह जानने में आता है। 1904 ई0 से इस सत्संग से मैं जुड़ा हुआ हूँ। मैंने यही जाना है कि बिना सुरत-शब्द-योग से परमात्मा की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती है। नाद की खोज अन्दर में करनी चाहिए। जिस गूँज में शान्ति है, वह अन्तर्नाद है। मुझको ईश्वर के बारे में बाबा देवी साहब का वचन पसन्द है। उन्होंने कहा-जैसे लाह से लपेटी हुई लकड़ी को अग्नि के ऊपर रखो तो वह लाह अग्नि के द्वारा झड़ जाती है। उसी प्रकार साधन की अग्नि के द्वारा अंदर के आवरणों को दूर किया जाता है। चेतन आत्मा के पवित्र सुख को निर्मल सुख कहते हैं। ऊपर उठने के लिए प्रकाश और शब्द अवलम्ब है। रूप तक प्रकाश पहुँचाता है और अरूप तक शब्द पहुँचाता है।  ज्योति ध्यान,  विन्दु ध्यान पहला साधन  है।  यह देखने  की युक्ति से  होता  है।   

काजर दिये से का भया, ताकन को  ढब   नाहिं ।।  ताकन को ढब नाहिं, ताकन की गति है न्यारी ।      एकटक  लेवै  ताकि ,  सोई   है  पिव  की प्यारी ।।  ताकै     नैन    मिरोरि,  नहीं   चित   अंतै   टारै ।    बिन ताकै  केहि काम, लाख कोउ   नैन  संवारै ।।
ताके     में    है  फेर,  फेर     काजर    में   नाहीं। 
भंगि मिली जो नाहिं, नफा  क्या जोग   के माहीं।। 
पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं । 
काजर दिये से का भया, ताकन को  ढब  नाहिं ।। 
आँखें बन्द करके देखो, एकटक देखो और चित्त को स्थिर करके देखो। मन की एकाग्रता होने पर वृत्ति का सिमटाव होता है। सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है और ऊर्ध्वगति  से परदों का छेदन होता है। इस प्रकार वह  एक  तल से दूसरे तल पर पहुँचता है। शब्द विहीन संसार कभी नहीं होगा। स्थूल, सूक्ष्म आदि मण्डलों में भी शब्द है। श्रवणात्मक, ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक;  तीन प्रकार के शब्द होते हैं। जो केवल सुरत से सुनते हैं  वह श्रुतात्मक है। अनाम से नाम उत्पन्न हुआ। अशब्द से शब्द हुआ। 

आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह । 
परसत  ही  कंचन  भया, छूटा बंधन मोह ।।    
               -संत कबीर साहब 

नाम, अनाम में पहुँचा देता है। संत सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं- 
श्रवण बिना  धुनि  सुनै  नयन  बिनु   रूप  निहारै । 
रसना     बिनु     उच्चरै    प्रशंसा   बहु   विस्तारै ।। 
नृत्य   चरण   बिनु   करै  हस्त  बिनु  ताल बजावै । 
अंग बिना  मिलि   संग   बहुत   आनन्द   बढावै ।। 
बिनु शीश नवे जहँ सेव्य को सेवक भाव  लिये  रहै । 
मिलि परमातम सों आतमा परा भक्ति  सुन्दर कहै।। 
गगन की समाप्ति में मीठी और सुरीली आवाज होती है। वही सार शब्द है गोरखनाथजी महाराज कहते हैं- 
गगन शिखर मँहि बालक बोलहिं वाका नाम धरहुगे कैसा।। 
तथा-    
छः सौ सहस एकीसो जाप। 
अनहद उपजै आपै आप ।। 
शब्द ही परमात्मा तक ले जाएगा। इसीलिए ध्यान करो।     
पूजा  कोटि  समं  स्तोत्रम, स्तोत्र  कोटि   समं  जपः।      
जाप  कोटि  समं  ध्यानं,  ध्यानं  कोटि   समो  लयः ।।  
(यह प्रवचन दिनांक 3-10-1949 ई0 को मुरादाबाद (यू0 पी0) सत्संग मंदिर में अपराह्नकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर हुआ था।)
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

खरी कसौटी राम की काँचा टिकै न कोय | Khari kasauti Ram ki Kancha tikai na koi | Santmat-Satsang

खरी कसौटी राम की काँचा टिकै न कोय!
गुरु खरी कसौटी के आधार पर शिष्य को परखते हैं, कहीं मेरे शिष्य का शिष्यत्व कच्चा तो नहीं है। ठीक एक कुम्हार की तरह! जब कुम्हार कोई घड़ा बनाता है, तो उसे बार-बार बजाकर भी देखता है - 'टन!टन!' वह परखता है कि कहीं मेरा घड़ा कच्चा तो नहीं रह गया। इस में कोई खोट तो नहीं है।

ठीक इसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को परीक्षाओं के द्वारा ठोक-बजाकर देखते हैं। शिष्य के विश्वास, प्रेम, धेर्य, समर्पण, त्याग को परखते हैं। वे देखते हैं कि शिष्य कि इन भूषनों में कहीं कोई दूषण तो नहीं! कहीं आंह की हलकी सी भी कालिमा तो इसके चित पर नहीं छाई हुई ? यह अपनी मन-मति को बिसारकर, पूर्णत: समर्पित हो चूका है क्या ?

क्योंकि जब तक स्वर्ण में  मिटटी का अंश मात्र भी है, उससे आभूषण नहीं गढ़े जा सकते। मैले दागदार वस्त्रों पर कभी रंग नहीं चढ़ता। उसी तरह, जब तक शिष्य में जरा सा भी अहम्, स्वार्थ, अविश्वास या और कोई दुर्गुण है, तब तक वह अध्यात्म के  शिखरों को नहीं छू सकता। उसकी जीवन - सरिता परमात्म रुपी सागर में नहीं समा सकती।

यही कारण है कि गुरु समय समय पर शिष्यों की  परीक्षाएं लेते हैं। कठोर न होते हुए भी कठोर दिखने की लीला करते हैं। कभी हमें कठिन आज्ञाएं देते हैं, तो कभी हमारे आसपास प्रतिकूल परिस्थियाँ पैदा करते हैं। क्योंकि अनुकूल परिस्थियाँ में हर कोई शिष्य होने का दावा करता है। जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है, तो हर कोई  गुरु-चरणों  में श्रद्धा-विश्वास के फूल आर्पित करता है।

🌿कौन सच्चा प्रेमी है ? इस की पहचान तो विकट परिस्थियाँ में  ही होती है। क्योंकि जरा-सी विरोधी व् प्रतिकूल परिस्थियां आई नहीं कि हमारा सारा स्नेह, श्रद्धा और विश्वास बिखरने लगता है। शिष्त्यव डगमगाने लगता है।

जब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने शिष्यों को कसौटी पर कसा, तो हजारों के झुण्ड में से सिर्फ पांच  पियारे ही निकले। इस  लिए सच्चा शिष्य तो वही है, जो गुरु की कठिन आज्ञा को भी शिरोधार्य करने का दम रखता है। चाहे कोई भी परिस्थिति  हो, उसका विश्वास, उसकी प्रीत गुरु -चरणों में अडिग रहती है। सच! शिष्य का विश्वास चट्टान की तरह मजबूत होना चाहिए। वह विश्वास नहीं जो जरा-सी विरोध की आँधियों में डगमगा जाए !!
गुरु की परीक्षाओं के साथ  एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जुड़ा है। वह यह कि परीक्षाएं शिष्य  को केवल परखने के लिए ही नहीं, निखारने के लिए भी होती है। गुरु की परीक्षा एक ऐसी कसौटी है, जो शिष्य के सभी दोष-दुर्गुणों को दूर कर देती है। परीक्षाओं की अग्नि में तपकर जो एक शिष्य कुंदन बन पाता है। कहने का आशय कि गुरु की परीक्षाएं शिष्यों के हित के लिए ही होती है। परीक्षायों के कठिन दौर बहुत कुछ सिखा जाते हैं। याद रखें, सबसे तेज आंच में तपने वाला लोहा ही, सबसे से बड़ा इस्पात बनता है।

इस लिए एक शिष्य के हृदय  में सदैव यही प्रार्थना के स्वर गूंजने चाहिए - 'हे गुरुवर,मुझ में वह सामर्थ्य नहीं कि आपकी कसौटियां पर खरा उतर सकूं। आपकी परीक्षाओं में उतीर्ण हो सकूं। पर आप अपनी कृपा का हाथ सदा मेरे मस्तक पर रखना। मुझे इतनी शक्ति देना कि मैं हर परिस्थिति में इस मार्ग पर अडिग  होकर चल पाऊँ। मुझे ऐसी भक्ति देना कि आपकी कठिन से कठिन आज्ञा को भी पूर्ण समर्पण के साथ शिरोधार्य कर सकूँ। 
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)
🙏जय गुरु महाराज🙏



गुरुवार, 27 मई 2021

हम किधर को जाएँगे, मालूम नहीं ! -महर्षि मेँहीँ | MAHARSHI MEHI | SANTMAT

यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है। किसी को यह यकीन नहीं है कि मैं सदा नहीं रहूँगा। 
माया मुलुक को कौन चलावे संग न जात शरीर।

हम किधर को जाएँगे, मालूम नहीं है। संत कबीर जी को बड़ी चिन्ता हो रही है कि संसार से जाना जरूर है। बहुत अन्देशे की बात है। लोग अपना मार्ग नहीं जानते कि कहाँ जाएँगे। यह संसार अज्ञानता का शहर है। इसमें दो जुल्मी फाटक है-एक पुरुष का देह है दूसरा स्त्री का देह है। स्त्री देह में आवे तो भी विकार, पुरुष देह में आवे तो भी विकार। यहाँ से जाने का विचार होता है तो कुबुद्धि उसको जाने नहीं देती। संसय में मत रहो, संसार से हटने (अनासक्त होने) की साधन करो। यहाँ गाफिल मत सोओ। यहाँ मेरा तुम्हारा कोई नहीं। सदा ईश्वर में प्रेम रखो। काम क्रोध लोभ और अहंकार बड़े कठिन कठोर हैं। यह सब शरीर के स्वभाव हैं। उनके वश जो रहते हैं, वे दुःख पाते हैं। जो साधु भजन करता है, उसकी वृत्ति प्रकाश में चली जाती है। उससे निहोरा करो। उस पुरुष का स्वभाव बाहर में बड़ा उत्तम होता है। वह बराबर भजन करता रहता है, जिससे उसका विकार दूर हो जाता है। उनको दया होगी और वे आपको सच्ची राह में लगा देगें। जो पुरुष सच्चा अभ्यासी हो, संयम-नियम से रहता हो उससे निवेदन करो। वह तुमको सही रास्ता पर चढ़ा देगा। उलटो अर्थात बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाओ। नौ द्वारों से दसवें द्वार की ओर चलो, यह मकरतार है। आप जिस चेतन धारा से आए हैं वही आपका रास्ता है। वह चेतन धार ज्योति और शब्द रूप में है। अपने पसरे हुए मन को समेटो। सिमटाव होगा तो ऊर्ध्वगति होगी और ऊर्ध्वगति होने से अपने स्थान पर चले जाओगे। शब्द ही संसार का सार है। शब्द ही वह स्फोट है जिससे संसार बना है। सब बनावट कम्पनमय है। कम्प शब्दमय है। सृष्टि गतिशील, कम्पनमय है। जो उस शब्द को पकड़ता है वह सृष्टि के किनारे पर पहुँचता है। जिसके ऊपर सृष्टि नहीं है, वह परमात्मा है। मानसजप, मानसध्यान से दृष्टियोग करने की योग्यता होती है। दृष्टियोग से  शब्द मार्ग में चलने की योग्यता होती है। 
सद्गुरु वैद्य वचन विश्वासा।
संयम यह न विषय की आशा।

सद्गुरु वचन पर विश्वास करो, संयम से रहो सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है। 
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज।

बुधवार, 26 मई 2021

हमारे गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ) और भगवान बुद्ध- महर्षि संतसेवी परमहंस | SANT MEHI & BHAGWAN BUDHA


हमारे गुरुदेव और भगवान बुद्ध
- महर्षि संतसेवी परमहंस
यह बात लोक और वेद में प्रसिद्ध है कि शशि और सूर्य की भांति सन्तों का अवतरण जगन्मंगल के लिए हुआ करता है। सन्तों की गति अनन्त होती है। उनकी महिमा विभूति के गायन के लिए वाणी भी मूक हो जाती है। सन् सद्गुरु अपने कृपा-कटाक्ष से अनन्त अक्ष का उन्मेष कराकर अनन्तस्वरूपी के दर्शन करानेवाले होते हैं -

सतगुरु की महिमा अनन्त, अनन्त किया उपकार लोचन अनन्त उपारिया, अनन्त दिखावनहार ।। (सन्त कबीर साहब )

वस्तुतः, सर्वेश्वर को पाकर वे इतने विशेष हो जाते हैं कि शेष निःशेष हो जाता है। उनकी दृष्टि इतनी पैनी हो जाती है कि उसे व्यष्टि और समष्टि वेष्टित नहीं कर पाती, वरन् इन उभय का अतिक्रमण कर निर्भय हो सम हो जाती है। यही हेतु है कि सन्तों ने कहीं 'गुरु शंकररूपिणा' कहीं 'कृपासिन्धु नररूप हरि' तो कहीं 'गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः महेश्वरः' के रूप में गुरु के दर्शन किए हैं। इतना ही नहीं, किसी स्थल पर राम-सम, तो कहीं गोविन्द से विशेष और कहीं 'परम पुरुषहू तें अधिक' की दृष्टि से वे गुरु को निहारते हैं। 

किन्तु मुझ जैसा 'मुकुर मलिन अरु नयन विहीना' तथा 'अज्ञ अकोविद अंध अभागी। काई विषय मुकुर मन लागी॥' जन अपने परम गुरुदेव के दिव्य रूप को देखे तो किस दृष्टि से और कुछ बोले तो किस मुँह से?

का मुख ले विनती करों, लाज आवत है मोहि। 
तुव देखत औगुन करौं, कैसे भावों तोहि ॥ 
( सन्त कबीर साहब)

वैशाख शुक्ला चतुर्दशी के दिन हमारे गुरुदेवजी महाराज का आविर्भाव इस जगती तल पर हुआ। चैत और वैशाख वसन्त ऋतु कहलाते हैं। इस ऋतु में सन्त और भगवन्त उभय के अवतार हुए हैं अर्थात् भगवन्त और सन्तरूप में भगवंत-उभय के अवतरण हुए हैं, जैसे चैत शुक्ल नवमी को भगवान राम और वैशाखी पूर्णिमा को भगवान बुद्ध और देखिए, वैशाख शुक्ला पंचमी को आचार्य शंकर और वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को संतमत के आचार्य महर्षि में ही परमहंसजी महाराज हुए। ऋतुराज को योगिराज और ऋषिराज को लाने का श्रेय स्वाभाविक है।

अपने परमाराध्य को मैं राम कहूँ, कृष्ण कहूँ, बुद्ध कहूँ, शंकर कहूँ; समझ में नहीं आता। सन्त कहूँ या भगवंत कहूँ, अपनी अल्प बुद्धि में निर्णय नहीं कर पाता।

रामावतार त्रेतायुग में हुआ। नाम राम था, किन्तु वर्ण श्याम था। कृष्णावतार द्वापर में हुआ। उस समय नाम श्याम और रूप भी श्याम हुआ। गोया त्रेतायुग का अधूरापन द्वापर में पूरा हुआ; किन्तु जब उसमें भी कमी दृष्टिगोचर हुई तो कलियुग के अवतार में उसकी पूर्ति की गई। वह क्या? नाम और रूप तो मिला, किन्तु ग्राम का अभाव था। इसलिए त्रेता युगवाला नाम (राम) रहा और जन्मभूमि का ग्राम श्याम हुआ। यदि और भी स्पष्ट करना चाहें तो ऐसा कह सकते हैं कि भगवान राम ही दूसरे अवतार में श्याम हुए थे। ऐसा क्यों न कहा जाए कि डुन युगल युगों के योग से कलियुग में राम + अनुग्रह = रामानुग्रह नाम पड़ा अर्थात् अनुग्रहपूर्वक राम ग्राम श्याम में अवतरित हुए। 

इस अवसर पर सन्त और भगवन्त के अवतरण पर स्वल्प होगा प्रकाश डालना असंगत न होगा।

साधारण लोग मायावश होकर जन्म लेते हैं, परन्तु महायोगेश्वर माया को स्ववश में रखते हुए संसार के कार्यों का सम्पादन करने के लिए जन्म धारण करते हैं।

संतजन सर्वश्रेष्ठ होते हैं। वे माया को कौन कहे, मायापति को वश में किए होते हैं। 

अपने बस करि राखेउ रामू । 
(रामचरितमानस) 

संत पलटू साहब की वाणी में हम कह सकेंगे ―

सबसे बड़े हैं सन्त दूसरा नाम है।
तीजै दस अवतार तिन्हें परनाम है ।। 
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार हैं। 
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर सन्त मुकुट सरदार हैं।।

संतजन लोक-कल्याणार्थ निज इच्छा से जन्म धारण करते हैं। भगवंत के जन्म का कारण होता है ―

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय व दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ४/७-८) 

अर्थात् हे भारत! जब-जब धर्म मंद पड़ता है, अधर्म की प्रबलता होती है, तब-तब में जन्म धारण करता हूँ। साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश तथा धर्म के प्रतिष्ठापन हेतु युग-युग में जन्म लेता हूँ।

संतजन के लिए दुष्ट और शिष्ट सभी समान होते हैं। अतः वे दष्टों का नहीं, वरन् दुष्टों की दुर्वृत्ति-दुर्बुद्धि का नाश करते हैं। वे अज्ञान का नाश एवं सदज्ञान का प्रकाश करते हैं। वे अपकारक के भी उपकारक होते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में ―

सन्त उदय सन्तत सुखकारी।
विस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी॥
भूरज तरु सम सन्त कृपाला।
परहित नित सह विपति विसाला। 
तुलसी सन्त मुअम्ब तरु, फूलै फले पर हेत।
इत तें वे पाहन हनें, उत तें वे फल देत॥

संतजन विश्व-उपकार की भावना स्वेच्छापूर्वक शरीर धारण करके संसार में विचरण करते हैं, इसीलिए अपने आराध्यदेव के संबंध में हम कह सकेंगे कि उनका इस संसार में सहर्ष आना हुआ, इसलिए सहर्ष+आ = सहर्षा उनकी जन्मभूमि का जनपद (जिला) हुआ।

भगवंत संसार रूपी कारागार में कारापाल की भाँति रहते हैं। संत जलकमलवत् जगत में रहते हैं।

भगवंत का अवतरण कारण-मंडल से स्थूल मंडल में किसी कारणवश होता है। कार्य सम्पन्न करके पुनः कारण मंडल में प्रतिष्ठित होते हैं।

संत का अवतरण सत् गुरुधाम परमात्मपद से होता है और लौकिक लीला संपन्न करके परम धाम-अजर लोक में निवास करते हैं। संत कबीर साहब के शब्दों में ―

जमीं आसमान वहाँ नहीं, वह अजर कहावे। 
कहै कबीर कोई साध जन, या लोक मझावै ।।

हमारे सद्गुरु महाराज का जन्म श्याम ग्राम के मँझुआ टोले में हुआ। ऐसा लगता है, जैसे 'मँझावै' का ही यह अपभ्रंश हो । मँझुआ+ आवै = मँझुवावै। यदि हम गुरुदेव को बुद्ध की दृष्टि से देखना चाहें तो उससे भी एक विलक्षण बोध प्राप्त होगा।

भगवान बुद्ध का पूर्व नाम सिद्धार्थ था और पश्चात् का नाम बुद्ध। हमारे सद्गुरु देव का पूर्व नाम 'रामानुग्रह' था और पश्चात् का नाम मेँहीँ ।

भगवान बुद्ध का पितृगृह नेपाल की तराई कपिलवस्तु नगर में था (जो बिहार प्रांत में ही कभी अवस्थित था) हमारे सद्गुरुदेव का पितृगृह नेपाल की तराई पुरैनियाँ ( पूर्णियाँ) जिले में है, जो बिहार राज्यान्तर्गत है।

भगवान बुद्ध का जन्म वैशाख पूर्णिमा को हुआ था। हमारे सद्गुरु का जन्म वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को हुआ अर्थात् एक दिन पूर्व। इस दृष्टि से यदि कहा जाए कि भगवान बुद्ध से हमारे गुरु महाराज एक दिन के बड़े हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

भगवान बुद्ध की माता जब अपने पितृगृह-मायके जा रही थीं, तब मार्ग में ही शालवन में बुद्ध का जन्म हुआ था। हमारे सद्गुरुदेव की माता जब अपने पितृगृह-मायके पहुँच चुकी थीं, तब वहाँ आपका जन्म हुआ।

भगवान बुद्ध जन्म धारण करते ही तत्क्षण सात डेग (कदम) चले थे, जो अलौकिक बात है। हमारे सद्गुरुदेव को जन्मजात सात जटाएँ थीं, जो प्रतिदिन सुलझा देने पर भी पुनः सात-की सात बन जाती थीं, यह विलक्षण जन्मजात योगी के प्रतीक नहीं तो क्या? भगवान बुद्ध की अल्पावस्था में ही उनकी
माता की मृत्यु हुई थी। हमारे सद्गुरुदेव की भी
अल्पावस्था में यानी चार वर्ष की उम्र होने पर
इनकी माता की मृत्यु हुई।

भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोधन ने पुनर्विवाह किया था। हमारे सद्गुरुदेव के पिता बबुजनलाल दासजी ने भी पुनर्विवाह किया था। 

भगवान बुद्ध की सौतेली माँ का अद्भुत् स्नेह उनके प्रति था। उसने लाड़-प्यार से उनका पालन-पोषण किया था और बड़े होने पर भी (बुद्ध होने पर) गुरुवत् उसी प्रतिष्ठा की दृष्टि से उनको देखा। हमारे सद्गुरुदेव की सौतेली माँ का अलौकिक प्यार इनको प्राप्त था और जब आप बड़े हुए तो वे आपको पुत्र की दृष्टि से नहीं, वरन् एक सन्त की दृष्टि से देखती थीं। i इसका सबल प्रमाण है कि जब वे इस जगत से महाप्रयाण कर रही थीं, उस समय उन्होंने आपका आवाहन कर आपके शुभ दर्शन किए थे।

भगवान बुद्ध ने विवाह करके कुछ काल के लिए गृहस्थ धर्म स्वीकार किया था, तत्पश्चात् वे संन्यासी बने। हमारे सद्गुरुदेव ने बाल-ब्रह्मचारी रहकर संन्यास व्रत धारण किया।

भगवान बुद्ध को वृद्ध, रुग्न और मृतक दर्शनरूप प्रचंड पवन के तीन झकझोरे लगने पर प्रबल वैराग्य हुआ। हमारे सद्गुरुदेव को अध्ययन-काल में ही वैराग्य हुआ। आपको परीक्षा-काल में (Builders) शीर्षक का मात्र एक झटका लगा और वैराग्याग्नि प्रदीप्त हो उठी। ऐसा लगता है कि जैसे सूखी दियासलाई पर मात्र एक काठी घिसने की आवश्यकता थी।

भगवान बुद्ध छह वर्षों तक जंगल में कठोर तप करने पर इस निर्णय पर पहुँचे कि इससे अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती। हमारे सद्गुरुदेव ने छह महीने तक जमीन के नीचे रहकर यह निष्कर्ष निकाला कि इस कठिन तपश्चर्या से सर्वेश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता।

भगवान बुद्ध को बिहार राज्यान्तर्गत गया जिले की गया भूमि में वटवृक्ष के नीचे परम सिद्धि की प्राप्ति हुई थी। हमारे सद्गुरु को बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर जिले के गंगा- पुलिनस्थित कुप्पाघाट की गुफा में परम सिद्धि मिली।

स्मरणीय है कि इन दोनों सन्तों की जन्मभूमि गंगा के उत्तरी पार थी और उभय को अभय सिद्धि की प्राप्ति गंगा के दक्षिणी पार में हुई। 

भगवान बुद्ध ने ध्यान करने और पंचशील पालन करने का उपदेश दिया। हमारे सद्गुरुदेव ने ध्यानाभ्यास करने और झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार; इन पंच पापों से विरत रहने का प्रबल आदेश दिया।

भगवान बुद्ध ने बुद्ध, धर्म और संघ की त्रिशरण बताई ―

बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि ।

हमारे गुरुदेव ने त्रिशरण के समास-रूप गुरु, ध्यान और सत्संग का निर्देशन करते हुए एक सर्वेश्वर पर अचल विश्वास एवं पूर्ण भरोसा रखने की शिक्षा दी। 

भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल नामक डाकू तथा अम्बपाली नामक वेश्या का उद्धार किया जबकि हमारे गुरुदेव ने कितने ही दुष्टों तथा अज्ञातनामा (कटिहार नगर की) वेश्या का उद्धार किया। 

भगवान बुद्ध ने पैदल घूम-घूमकर सम्पूर्ण देश में अपने धर्म का प्रचार किया। हमारे सद्गुरुदेव ने भी पदयात्रा करके बीहड़ मार्गों को तय किया और सन्तमत का प्रचार-प्रसार किया; मात्र अपने देश में ही नहीं, अपितु नेपाल राज्य में भी अनपढ़, असभ्य और गिरे हुओं को, जिनको पूछनेवाला कोई नहीं, 
आपने सद्ज्ञान दिया।

अब स्वल्प रूप में जो विषमताएँ हैं, उनका समास रूप में दिग्दर्शन कराना चाहूँगा ।

कहते हैं, भगवान बुद्ध ने वेद और ब्रह्म को अस्वीकार किया, परन्तु हमारे सद्गुरुदेवजी ने उन दोनों को स्वीकार किया और मानवीय मर्यादा दी। भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं और भिक्षुणियों की संख्या बढ़ाने में प्रोत्साहन दिया, किन्तु हमारे सद्गुरुजी ने देशकालानुकूल गृहस्थाश्रम में रहने तथा स्वावलम्बी जीवन यापन का आदेश दिया। भगवान बुद्ध ने मौखिक उपदेश दिया, किन्तु परम पूज्य गुरुदेवजी ने मौखिक उपदेश के साथ साहित्य-सृजन भी किया। वेदवादी और पंथवादी के बीच का पाटन-कार्य आपने सफलतापूर्वक किया। साथ ही, साम्प्रदायिक भाव के कारण सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि की जो आपस में कटुता थी, आपने अपने अर्जित ज्ञान और सामंजस्यपूर्ण विचार द्वारा उसकी झंझट का उन्मूलन करके उसमें मधुरिमा ला दी।

अन्य संतों की भाँति आपने एक ईश्वर पर विश्वास दिलाया और उनकी भक्ति दृढ़ की। साथ ही, उनकी प्राप्ति का एकमात्र मार्ग अन्तर्मार्ग बताया, जो ज्योतिर्मय और ध्वनिमय है। जैसे जल में तैरनेवाले के लिए जल ही मार्ग होता है और जल ही अवलम्ब, वैसे ही अंतर्मार्गी साधक के लिए ज्योति और नाद ही मार्ग हैं तथा ये ही दोनों अवलम्ब भी। आपने प्रकाश और शब्द को परमात्मा का वाम और दक्षिण हस्त बतलाया और कहा कि यह शब्द जहाँ विलीन होगा, वहाँ ही उपनिषद् का यह वाक्य 'निःशब्दं परमं पदम्' सार्थक होगा अर्थात् वही परमात्म-धाम है। वहीं गोस्वामी तुलसीदासजी का 'एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद परधामा ।' है। इन कतिपय शब्दों के साथ मैं श्री सद्गुरुजी महाराज के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।

श्री सद्गुरु की सार शिक्षा, याद रखनी चाहिए | The essence education of Shri Sadguru should be remembered.

श्री सद्गुरु की सार शिक्षा, याद रखनी चाहिए।

अति अटल श्रद्धा प्रेम से, गुरु-भक्ति करनी चाहिए।I
मृग-वारि सम सबही प्रप´्चन्ह, विषय सब दुःख रूप हैं।
निज सुरत को इनसे हटा, प्रभु में लगाना चाहिए।।
अव्यक्त व्यापक व्याप्य पर जो, राजते सबके परे।
उस अज अनादि अनन्त प्रभु में, प्रेम करना चाहिए।।
जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिए।
घट मठ प्रप´्चन्ह जब मिटैं, नहिं अंश कहना चाहिए।।
ये प्रकृति द्वय उत्पत्ति लय, होवैं, प्रभू की मौज से।
ये अजा अनाद्या स्वयं हैं, हरगिज न कहना चाहिए।।
आवागमन सम दुःख दूजा, है नहीं जग में कोई।
इसके निवारण के लिए, प्रभु-भक्ति करनी चाहिए।
जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभ-भक्ति कर सकते सभी।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट-पट हटाना चाहिए।।
गुरु-जाप मानस ध्यान मानस, कीजिए दृढ़ साधकर।
इनका प्रथम अभ्यास कर सु्रत शुद्ध करना चाहिए।।
घट-तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा रहे।
कर दृष्टि अरू ध्वनि-योग-साधन, ये हटाना चाहिए।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता।
फिर द्वैतता नहिं कुछ रहेगी, अस मनन दृढ़ चाहिए।।
पाखण्ड अरूऽहंकार तजि, निष्कपट हो अरू दीन हो।
सब कुछ समर्पण कर गुरु की, सेव करनी चाहिए।
सत्संग नित अरू ध्यान नित, रहित करत संलग्न हो।
व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए।।
सब सन्तमत सिद्धान्त ये, सब सन्त दृढ़ हैं कर दिए।
इन अमल थिर सिद्धान्त को, दृढ़ याद रखना चाहिए।।
यह सार है सिद्धान्त सबका, सत्य गुरु को सेवना।
'मेँहीँ' न हो कुछ यहि बिना, गुरु सेवा करनी चाहिए।

सन्तमत सिद्धान्त | SANTMAT PRINCIPLE (Theory) | जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर सर्वाधार मानना चाहिए

सन्तमत सिद्धान्त

1. जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर सर्वाधार मानना चाहिए तथा अपरा (जड़) और परा (चेतन); दोनों प्रकृतियों के पार में, अगुण और सगुण पर, अनादि-अनन्त-स्वरूपी, अपरम्पार शक्तियुक्त, देशकालातीत, शब्दातीत, नाम-रूपातीत, अद्वितीय, मन-बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति-मण्डल एक महान यन्त्र की नाई परिचालित होता रहता है, जो न व्यक्ति है और न व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, सन्तमत में उसे ही परम अध्यात्मपद व परम अध्यायत्म स्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं।

2. जीवात्मा सर्वेश्वर का अभिन्न अंश है।

3. प्रकृति आदि-अन्त सहित है और सृजित है।

4. मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है। इस प्रकार रहना जीव के सब दुःखों का कारण है। इससे छुटकारा पाने के लिए सर्वेश्वर की भक्ति ही एकमात्र उपाय है।

5. मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और सुरत-शब्द-योग द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अन्धकार, प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदो से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य मात्र अधिकारी है।

6. झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिंसा करनी अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी; इन पाँचों महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिए।

7. एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानभ्यास; इन पाँचों को मोक्ष का कारण समझना चाहिए।


सन्तमत की परिभाषा | SANTMAT DEFINITION | शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं।

 

सन्तमत की परिभाषा

1. शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं।

2. शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं।

3. सन्तों के मत वा धर्म को सन्तमत कहते हैं।

4. शान्ति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है। प्राचीन काल में ऋषियों ने इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया। इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचार को कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्वसाधारण के उपकारार्थ वर्णन किया। इन विचारों को ही सन्तमत कहते हैं; परन्तु सन्तमत की मूल भित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं; क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन नादानुसन्धान अर्थात् सुरत-शब्द-योग का गौरव सन्तमत को है, वे तो अति प्राचीन काल की इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं। भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण सन्तों के मत में पृथकत्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पन्थाई भावों को हटाकर विचारा जाय और संतों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय तो, यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है।

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...