गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरूवार।
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार।।शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक।
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक।।
संत मनुष्य के सच्चे मित्र हैं-संतों का प्रेम निर्मल होता है! सच्चा संत परमात्मा से मिलाता है तथा हमें अात्मदर्शन कराता है, मोह निद्रा में सोए मानव को जगाने का कार्य भी संत ही करते हैं!
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥
अर्थात; मैं ऐसे संतों की वन्दना करता हूँ, जिनके चित्त में किसी प्रकार का भेद नहीं है, जिनका न तो कोई मित्र है और न ही कोई शत्रु है, जिस प्रकार हाथ से तोड़े गये सुगन्धित फूल उन्ही हाथों की अंजलि में रखने पर दोनों हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र मेहता, गुरुग्राम
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