व्यर्थ का विवाद मत किया कीजिए;
ज्ञानी जनों को कभी भी किसी वाद विवाद में नहीं पड़ना चाहिए और न ही शामिल होना चाहिए।
मनुष्य अनुभूतियों और भावनाओं, विचारों और इच्छाओं द्वेष और घृणा, अभिमान और अहंकार, भय और आदर, शक्ति और सम्मान का दास है। हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि हम सब लोग मनुष्य हैं देवता नहीं हैं। हमारे विचार और भावनाएं शिलाखण्ड पर लिखे अक्षर नहीं हैं। हम सब अपने को बुद्धिमान, विचारवान तथा तर्कशास्त्री होने का दावा करते रहते हैं और उसके अनुसार प्रयत्न भी करते हैं।
मानव मन अपनी स्मृतियों से स्नेह करता है। जो विचार हमारे मस्तिष्क में घर कर चुके हैं उनके प्रति सम्मान की भावना अवश्य बढ़ती रहती है। जब कोई हमारे प्रिय विचारों पर कोई प्रहार करना चाहता है तो हम अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उनकी रक्षा करने में जुट जाते हैं। दूसरों की ओर से बिलकुल कान बन्द कर रक्षा के लिए शत्रुता का रुख धारण कर लेते हैं। यही है मानव स्वभाव। यह बात हमारे साथ, आपके साथ और के साथ है। तर्क-वितर्क, खण्डन-मण्डन में भेदभाव अधिक बढ़ता है। इसमें घृणा के कारण ऐसा अन्तर पड़ जाता है। कि उस अन्तर को भरना कठिन हो जाता है।
हम तर्क-वितर्क, वाद-विवाद तथा खण्डन-मण्डन आदि को त्यागकर मैत्रीपूर्ण ढंग से एक दूसरे से व्यहार करें। यदि हम किसी को प्रेम और सहानुभूति के साथ सन्तुष्ट कर सकें या कोई बात मनवा सकें तो निःसन्देह हम उसके वास्तविक शुभचिन्तक तथा सच्चे मित्र बन जायेंगे।
तर्क-वितर्क तथा बाल की खाल निकालने से हम मित्र नहीं बना सकते। सच्चे मित्र इस ढंग से प्राप्त नहीं होते हैं। वह मार्ग दूसरा ही है। वह प्रेम और सहानुभूति का मार्ग है जिस पर मित्र ही मित्र दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक बात है। यदि आप किसी को गाली देंगे तो बदले में आप गाली खायेंगे। यदि आप किसी को मूर्ख कहेंगे तो आपको भी मूर्ख बनाया जायगा। आप आलोचना करेंगे तो आपको प्रत्यालोचना मिलेगी। अतः यदि आप प्रेम करेंगे तो अवश्य प्रेम प्रतिदान होगा। जैसा बोयेंगे वैसा काटेंगे यह सीधी सी बात है।
प्रेम ही ऐसी महान शक्ति है जो प्रत्येक दशा में जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक होती है। हमें सदैव सहनशीलता तथा धैर्य का सहारा लेना चाहिये। प्रत्येक की बात को सुनने का स्वभाव होना चाहिए। कट्टरता और कायरता को त्यागकर प्रत्येक को प्रसन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए। दूसरों की आलोचना को छोड़ देना चाहिए, विश्वास रखिए कि आपकी प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण सच्ची बातों को सुनने के लिए दुनिया विशेष होगी।
सही मान्यता प्रेम द्वारा ही हो सकती है। बिना प्रेम के मान्यता कृत्रिम होगी। विचार तर्क-वितर्क की दृष्टि नहीं हैं। विचारधारणा तथा विश्वास बहुकाल के सत्संग से बनते हैं। - जय गुरु महाराज।
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