संतो का दर्शन और सत्संग का फल बहुत बड़ा होता है।
अपने जीवन में आप तीर्थ करते है तो बहुत अच्छी बात है। आप दान-पुण्य करते है तो बहुत अच्छी बात है। यज्ञ-याग करते है तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन इनका पुण्य फल आपको सुख देकर फल नष्ट हो जायेगा। पाप पुण्य का फल दुःख देकर पाप नष्ट हो जाता है। पुण्य सुख देकर नष्ट हो जाता है। लेकिन सत्संग का वो फल नष्ट नहीं होता।
सतगुरु मिले अनंत फल कहत कबीर विचार।।
जो सतगुरु का सत्संग पहुंचाते है, अखबार वाले, मुख्य संपादक है, पत्रकार जो भी उसमें सक्रिय होते हैं मुझे तो उनपे मधुर संतोष, प्रसन्नता होती है।एक होता है कर्म, दूसरी होती है भक्ति, तीसरा होता है ज्ञान। लेकिन ये तब तक कर्म-कर्म रहता है, भक्ति-भक्ति रहती है, ज्ञान-ज्ञान रहता है। जब तक उसमें ईश्वर का रस, ईश्वर का महत्त्व और ईश्वर को पाये महापुरुष का सहयोग नहीं मिलता तब हम कर्म में फँसे रहते हैं। जब सत्संग मिल जाता है तो हमारा कर्म, कर्मयोग हो जाता है। ये सब कर्म – कर्मयोग होता है।भक्ति-भक्तियोग हो जाती है और ज्ञान- ज्ञानयोग हो जाता है। योग माना जिससे हम बिछड़े है, उससे मिलाने वाला सत्संग मिल गया। बिछड़े है जो प्यारे से दलबदल भटकते-फिरते है। अपने आनंदस्वरूप प्रभु से बिछड़कर दुखी हैं। लेकिन सत्संग अपने आप में सुखी कर देता है, अपने-आप में तृप्त कर देता है। _*सतृप्त भवति, संसतुष्ट भवति, स अमृतो भवति स तारन्ति लोकांतारिति।*_ वो तरता है दूसरों को तारता है। जय गुरु।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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