संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है। ईश्वर भक्ति में तीन बातों की प्रधानता होती है - स्तुति, प्रार्थना और उपासना। स्तुति कहते हैं यश-गान करने को। ईश्वर के यश-गान से उनकी महिमा-विभूति जानी जाती है। महिमा-विभूति जानने से उनके प्रति श्रद्धा होती है। श्रद्धा होने से उनकी भक्ति करने की प्रेरणा मिलती है। गो० तुलसीदासजी महाराज ने बतलाया -
जाने बिनु न होइ परतीती।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।
प्रीति बिना नहीं भक्ति दृढ़ाई।
जिमि खगेस जल के चिकनाई।।
जिनकी हम भक्ति या सेवा करना चाहें, जब तक उनके गुणों को हम नहीं जानते हैं, तो उनके ऊपर हमारा विश्वास नहीं होता है। जब विश्वास नहीं होता है, तो उनके साथ प्रेम भी नहीं होता। प्रेम जब नहीं होगा, तो उनकी हम सेवा क्या कर सकेंगे? तब अगर हम सेवा भी करेंगे, तो वह दिखावटी सेवा होगी। जिस तरह से जल की चिकनाई नही ठहरती, उसी तरह वह भक्ति भी नहीं ठहर सकती। इसीलिए आवश्यक है, पहले हम ईश्वर-स्वरूप को समझ लें।
-महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज
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