आध्यात्मिक दौर से गुजरते परिवेश में ऐसे बहुत सी बातें हैं जो कि हम लोग अनजाने में ही अपना लेते हैं और पता भी नहीं चलता कि किस तरह और कब हम सुसंगती से कुसंगति में कदम रखते चले जाते हैं और बाद में पाश्चाताप के सिवा कुछ भी नहीं रहता है।
कुसंगत दीमक की तरह है जो अंदर ही अंदर इंसान को खोखला बना देता है और उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने नहीं देता। आध्यात्मिक जीवन में इसका सर्वथा त्याग है नहीं तो आध्यामिक जीवन में सफलता मिलना अत्यंत कठिन है।
हमें सत्संगति और कुसंगति का भेद जानकर इसका सर्वथा त्याग करना ही चाहिए। इसके लिए संत महात्माओं का शरण लेना और उनके बताये मार्ग पर चलना अति आवश्यक है इसी में हमारा उद्देश्य छुपा है और इसी में हमारा उद्धार है।
सत्संगति और कुसंगति में भेद:-
सत्संगति कल्याण का मूल है और कुसंगति पतन का। कुसंगति पहले तो मीठी लगती है पर इसका फल बहुत ही कड़वा होता है।
पवन के संग से धूल आकाश में ऊँची चढ़ जाती है और वही नीचे की ओर बहने वाले जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है यह संग का प्रभाव ही है।।
दुर्जनों के प्रति आकर्षित होने से मनुष्य को अंत में धोखा ही खाना पड़ता है। कुसंगति से आत्मनाश, बुद्धि-विनाश होना निश्चित है। दुर्जनों के बीच में मनुष्य की विवेकशक्ति उसी प्रकार मंद हो जाती है, जैसे अंधकार में दृष्टि। बहुत से अयोग्य व्यक्ति मिलकर भी आत्मोद्धार का मार्ग उसी प्रकार नहीं ढूँढ सकते, जैसे सौ अंधे मिलकर देखने में समर्थ नहीं होते। कुसंगति से व्यक्ति परमार्थ के मार्ग से पतित हो जाता है।
अंधे को अंधा मिले, छूटै कौन उपाय।
कुसंगति के कारण मनुष्य को समाज में अप्रतिष्ठा और अपकीर्ति मिलती है। दुर्जनों की संगति से सज्जन भी अप्रशंसनीय हो जाते है। अतः कुसंगति का शीघ्रातिशीघ्र परित्याग करके सदा सत्संगति करनी चाहिए।
सत्संगति:-
सत्संग सिद्धि का प्रथम सोपान है। सत्संगति बुद्धि की जड़ता नष्ट करती है, वाणी को सत्य से सींचती है। पुण्य बढ़ाती है, पाप मिटाती है, चित्त को प्रसन्नता से भर देती है, परम सुख के द्वार खोल देती है।
प्रार्थना और पुकार से भावनाओं का विकास होता है, भावबल बढ़ता है। प्राणायाम से प्राणबल बढ़ता है, सेवा से क्रिया बल बढ़ता है और सत्संग से समझ बढ़ती है। मनुष्य अपनी बुद्धि से ही प्रत्येक बात का निश्चय नहीं कर सकता। बहुत सी बातों के लिए उसे श्रेष्ठ मतिसम्पन्न मार्गदर्शक एवं समर्थ आश्रयदाता चाहिए। यह सत्संगति से ही सुलभ है।
संत कबीर जी के शब्दों में-
बहे बहाये जात थे, लोक वेद के साथ।
रस्ता में सदगुरु मिले, दीपक दीन्हा हाथ।।
सदगुरु भवसागर के प्रकाश-स्तम्भ होते हैं। उनके सान्निध्य से हमें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान होता है। कहा भी गया हैः
सतां संगो हि भेषजम्।
'संतजनों की संगति ही औषधि है।' अनेक मनोव्याधियाँ सत्संग से नष्ट हो जाती हैं। संतजनों के प्रति मन में स्वाभाविक अनुराग-भक्ति होने से मनुष्य में उनके सदगुण स्वाभाविक रूप से आने लगते हैं। साधुपुरुषों की संगति से मानस-मल धुल जाता है, इसलिए संतजनों को चलता फिरता तीर्थ भी कहते हैं।
हमारा देश अन्य देशों की अपेक्षा ज्यादा सुसंस्कृत कहलाती है साथ-ही-साथ साधु-संतों महात्माओं का देश कहलाता है और संतजन हमारे देश की गरीमा है।।
इसलिए जब भगवान राम ने माता शवरी को नवधा भक्ति बताई थी तो सबसे पहले संतजन का संग करने को कहा था।।
हमारा जीवन सुखमय और सुसंस्कृत हो आध्यात्मिकता की चरम सीमा तक जाये इसी शुभकामनाएँ के साथ गुरु महाराज जी के श्रीचरणों में मेरा शत-शत नमन वंदन!🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार, गुरुग्राम
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