जय गुरु!
धार्मिकता का बाहरी दिखावा, जैसे गुदड़ी या गेरुआ वस्त्र पहनना, माला, तिलक या भस्म लगाना, केश मुंडाना या जटा बढ़ाना अथवा भिक्षा-पात्र लेकर भीख माँगते चलना आदि केवल आडंबर और पाखंड हैं। परमात्मा के सच्चे प्रेमी ऐसा कोई बाहरी दिखावा नहीं करते, क्योंकि दिखावा केवल दुनिया को दिखाने के लिए होता है। भक्तों का संपूर्ण अभ्यास अंतर्मुखी होता है। वे अंदर में उस नाम से जुड़े होते हैं जो एक मात्र सत्य है:
संत दादू दयाल जी महाराज कहते हैं -
*माया कारणि मूँड मुँड़ाया, यहु तौ जोग न होई।*
*पारब्रह्म सूँ परचा नाहीं, कपट न सीझै कोई।।*
*पीव न पावै बावरी, रचि रचि करै सिंगार।*
*दादू फिरि फिरि जगत सूँ, करेगी बिभचार।।*
*जोगी जंगम सेवड़े, बौद्ध सन्यासी सेख।*
*षटदर्शन दादू राम बिन, सबै कपट के भेख।।*
*बाहर का सब देखिये, भीतर लख्या न जाइ।*
*बाहरि दिखावा लोक का, भीतरि राम दिखाइ।।*
*सचु बिनु साईं ना मिलै, भावै भेष बनाइ।*
*भावै करवत उरध-मुखि, भावै तीरथ जाइ।।*
*साचा हरि का नाँव है, सो ले हिरदे राखि।*
*पाखँड परपँच दूर करि, सब साधौं की साखि।।*
*निरंजन जोगी जानि ले चेला।सकल व्यापी रहै अकेला।।*
*खपर न झोली डंड अधारी। मठी माया लेहु बिचारी।।*
*सींगी मुद्रा विभूति न कंथा। जटा जप आसण नहिं पंथा।।*
*तीरथ बरत न बनखंड बासा।मांगि न खाइ नहीं जगह आसा।।*
*अमर गुरु अविनासी जोगी। दादू चेला महारस भोगी।।*
जय गुरु!
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