उदार हृदय के लिए संसार ही कुटुंब है;
कोशिश करिए कि आप अजातशत्रु बन जाएं। इसके दो अर्थ हैं - पहला यह कि आप हमेशा शत्रुओं को पराजित करते हैं, ये सांसारिक अर्थ है।
आध्यात्मिक अर्थ है कि आपका कोई शत्रु ही नहीं होता। लेकिन फिर संसार कहता है जिसका कोई शत्रु नहीं होता, उसका कोई मित्र भी नहीं होता। दरअसल शत्रुता और मित्रता का संबंध यदि उद्योग, कर्म से जोड़ें तो अर्थ दूसरे होंगे। यदि इसमें भावना की बात करें तो मतलब बदल जाएंगे।
चलिए, एक रूपक पर विचार करते हैं। हमारे शरीर के कई हिस्से हैं जैसे हाथ-पैर, मन-मस्तिष्क आदि इंद्रियां। ऊपर से देखें तो इन सबके काम अलग-अलग हैं, लेकिन सब मिलकर परिणाम शरीर को देते हैं। कहीं न कहीं एक-दूसरे के हित में लगे हैं। यदि शरीर के अलग-अलग भाग एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने की वृत्ति में सक्रिय हो जाएं तो शरीर के लिए अहितकारी होता है।
इसी बात को संसार से जोड़ा जाए। जब हम अपने कार्यस्थल पर हों, तो साथियों के बीच ऐसा ही भाव रखें। आपके जितने भी वरिष्ठ व अधीनस्थ लोग हैं, उन्हें अपने शरीर के अंग मानकर व्यवस्था का हिस्सा बन जाएं। हमारे शास्त्रों में लिखा गया है कि जिनका हृदय उदार है, उनके लिए सारा संसार ही कुटुंब है। हममें और जानवरों में यही फर्क है। वे भी मिल-जुलकर रहते हैं, पर उसे झुंड कहते हैं। हम जब मिल-जुलकर रहते हैं तो हमने इसे कुटुंब कहा है। अपने कार्यालय को कुटुंब मानकर कार्य करें, तब आप अजातशत्रु हो जाएंगे। जैसे हमारे एक घर में कई घर शामिल होते हैं, हर सदस्य का अपना-अपना घर है, फिर भी कुटुंब का भाव सबको एक कर देता है।
हर एक के हृदयों में क्षमा, दया, शांति, तितिक्षा, शील, सौजन्यता, सच्ची आस्तिकता और उदारता का होना अनिवार्य हैं, तभी हम सच्चे सुहृदयी कहला सकते हैं।
जय गुरु
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