संतमत का संक्षिप्त परिचय
संत और संतमत :- शांति स्वरुप परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त करनेवाले महापुरुष ही संत होते हैं। सभी संतो की मौलिक बातें समान ही हैं। संतों की इसी मौलिक विचारधारा को संतमत कहते हैं।
संतमत का छोटा-सा सिधांत :- गुरु, ध्यान और सत्संग है। संत्संग के द्वारा सुबुधि प्राप्त करना, गुरु के द्वारा साधना का गुप्त रहस्य जानना एवं ध्यान के द्वारा अन्तः प्रकाश तथा अंतर्नाद प्राप्त कर आत्म नियंत्रण की पूर्णता प्राप्त करना, फिर सदाचारी, सांसारिक जीवन बिताना है।
संतमत की परम्परा :-
1.संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज (१८८५-१९८६) :- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज संतमत के आधुनिक काल में मुख्य आधार स्तम्भ हैं। इनका अवतरण मधेपुरा जिले के ग्राम-खोख्शी श्याम मझुआ, बिहार (भारत) में १८८५ इसवी में वैशाखी पूर्णिमा के एक दिन पहले हुआ था। पैत्रिक गाँव सिकलीगढ़ धरहरा जिला पूर्णिया बिहार है। पूर्व संस्कारवश मैट्रिक की परीक्षा में वैराग्य का संवेग हुआ। वैरागी बन लम्बी खोज के बाद सद्गुरु बाबा देवी साहब से संतमत को ठीक से जाना। कुप्पाघाट, भागलपुर बिहार की प्राचीन गुफा में १८ महीने की लगातार उपासना में आत्मानुभूति प्राप्त किया। फिर संतमत का व्यापक प्रचार किया एवं सत्संग-योग चारो भाग जैसे कई सैद्धांतिक पुस्तकों की रचना कर संतमत को मजबूत आधार प्रदान किया। नियमित साधना तथा सत्संग के बीच १०१ वर्षों की आयु पूरी कर ८ जून १९८६ इसवी में इस स्थूल शरीर का परित्याग किया।
2. संत बाबा देवी साहब [१८४१--१९१९] :- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के गुरु संत बाबा देवी साहब मुरादाबाद उत्तरप्रदेश भारत के निवासी थे। मुंशी महेश्वरी लाल ने इन्हे संत तुलसी साहब से आशीर्वाद के द्वारा प्राप्त किया था। इनका जन्म १८४१ ई में हुआ था। इन्हें गुरु संत तुलसी साहब का दर्शन मात्र ४ वर्ष की उम्र में हुआ था। उसी समय गुरु ने इनके सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया था। तब से ही ये ध्यान में संलग्न रहे। अविवाहित रहकर पोस्ट ऑफिस की नौकरी कर आत्मनिर्भर जीवन की स्थिति बनायीं। संतमत का सुन्दर प्रचार घूम-घूम कर किया। जनवरी १९१९ में अपने स्थूल शरीर का त्याग मुरादाबाद में किया।
3. संत तुलसी साहब [१७६३--१८४८] :- संत बाबा देवी साहब के गुरु संत तुलसी साहब के जन्म तथा वंश की ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है, अनुमान से इनका जन्म १७६३ ई० में राजसी परिवार में पुणे में हुआ था। ये प्रखर संत अधिकतर ध्यान-साधना में तल्लीन रहते थे। मौका निकाल कर संतमत का प्रचार भी करते थे। गुरु की स्तुति इन्होने की है, किन्तु उनके गुरु के नाम का पता नहीं चलता है। भोजन के लिए ये भीख मांग लेते थे, गुदरी पहन कर गुजर कर लेते थे। इनकी कई रचनायें हैं। ये संतमत के ज्ञान से भरे हुए हैं। १८४८ई में इन्होंने हाथरस में चोला त्याग किया। यहाँ इनकी समाधि भी है।
4. महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज (१९२०-२००७) :- संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के पट्ट शिष्य एवं अगले आचार्य महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज का जन्म 20.12.1920 इसवी में ग्राम-गम्हरिया, जिला-सुपौल, बिहार (भारत) में हुआ था। १९३९ इसवी में ये गुरु की शरण में आये। लगभग ४० वर्षों तक लगातार गुरु की खास सेवा में रहे। यह एक ऐतिहासिक सेवा है। इनके द्वारा ही गुरुदेव के प्रवचनों एवं कई पुस्तकों की रचना हुई। गुरुदेव के ज्ञान को इन्होंने ही पुस्तक के पन्ने पर लाया। गुरुदेव के बाद १९८६ इसवी से ये 'वर्तमान आचार्य' का कार्य जीवन के अंतिम क्षण यानि ४ जून, २००७ तक करते रहे। इनके द्वारा संतमत सत्संग एवं कुप्पाघाट आश्रम का भरपूर विकास हुआ। इनकी समाधि आश्रम परिसर की भव्यता को बढ़ा रहा है।5. महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज (१९३४ इसवी से लगातार) :- महान संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के प्रमुख शिष्य एवं खास शारीरिक सेवा में रहे। महर्षि हरिनंदन परमहंस जी महाराज का जन्म ग्राम-मचहा, जिला-सुपौल, बिहार (भारत) में १९३४ इसवी के चैत्र मास में रामनवमी के एक दिन पूर्व हुआ था। १९५७ से गुरुदेव की सेवा में ये लगभग २९ वर्षों तक उनके जीवन के अंतिम क्षण तक रहे। २००७ इसवी में महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज के शरीर त्यागने के बाद ये वर्तमान आचार्य का कार्य कर रहें हैं, इनके निर्देशन में संतमत का प्रचार और बढ़ता जा रहा है। आप बुढ़ापे की अवस्था में भी लगातार भ्रमण कर ध्यान एवं सत्संग का सम्यक प्रचार कर रहें हैं। जिला वार्षिक अधिवेशन एवं अखिल भारतीय महाधिवेशन आदि में प्रायः जाते रहतें हैं। बहुत कम कीमत पर पुस्तकें एवं शांति सन्देश पत्रिका उपलब्ध करवातें हैं। संतमत की समझ का विकास कर निःशुल्क दीक्षा (संतों का गुप्त भेद) बताने की व्यवस्था करतें हैं। आपके कार्यकाल में महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट भागलपुर का भरपूर विकास हुआ है। आपको अपने भक्तों से मिले हुए रूपये पैसों से आश्रम में ढेरों विकास कार्य हुआ है और हो रहा है। आपने गुरु महाराज की सेवा भक्ति बड़ी ही तन्मयता एवं लगन से की। आपने लोगों द्वारा दिये गये एक-एक रुपये-पैसों का हिसाब इस कदर रखा कि आपके हिसाब की बही-खाता देखकर गुरु महाराज बहुत प्रसन्न हुए और ऐन वक्त पर वह रूपया गुरु महाराज के काम भी आया इससे गुरु महाराज ने अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में खुश होकर आपको आशिर्वाद प्रदान किये कि "आपको रुपयों-पैसों की कभी कमी नहीं होगी।" इस तरह आपका जीवन गुरुमय हो गया, संतमय हो गया, संतमतमय हो गया है। आपके दर्शन पाकर प्राणी अपने को धन्य मानते हैं, प्रफुल्लित हो उठते हैं, कृत कृत्य हो जाते हैं। आपके श्री चरणों में कोटि-कोटि नमन्!!! --जय गुरु!!!
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