सेवा, सहयोग, साधना!
मनुष्य-जन्म की शुरुआत सेवा से होती है और अंत भी उसी में। जीवन का आदि और अंत-यह दो ऐसी अवस्थाएँ है, जब मनुष्य सर्वथा अशक्त-असमर्थ होता है, इसलिए उसे सहारे की आवश्यकता पड़ती है। इन दोनों का मध्यवर्ती अंतराल ही ऐसा है, जिसमें आदमी सबसे समर्थ, सशक्त और योग्य होता है यही वह काल है, जब उसे स्वयं पर किए गए उपकारों के बदले समाज को उपकृत करके ऋण चुकाना पड़ता है यदि वह ऐसा न करे और जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत सेवा लेता रहे, तो उसकी वह कृतघ्नता मरणोत्तर जीवन में ऐसा वज्राघात बनकर बरसती है, जिसके लिए उसके पास सिर्फ पछतावा ही शेष रहता है। इसलिए समझदार लोग सेवा की महत्ता को समझते और उसे अपनाते हैं।
जो व्यक्ति अपना वैभव लुटाकर दूसरों को स्वस्थता और खुशियाँ बाँटते हैं, समर्पण भाव से अपनी सेवा, साधना में जुटे रहते हैं, वह वास्तव में स्तुत्य है। ऐसे व्यक्ति इहलोक में ही स्वर्ग-मुक्ति के उस आयाम को प्राप्त कर लेते हैं, जिसके लिए शास्त्रों में अन्य लोकों की चर्चा हैं।
सेवा प्रकाराँतर से एक साधना है। जो इसे भली प्रकार संपन्न कर लेता है, समझना चाहिए उसने सब कुछ पा लिया। यों ईश्वरप्राप्ति जीवन का चरम लक्ष्य है, पर जहाँ निर्दोष और निर्विकार सहयोग, सम्मान,यश, कीर्ति आदि हो, वहाँ भी ईश्वरीय अंश प्रकाशित हो रहा होता है। ऐसे में वह व्यक्ति चमत्कारिक ईश-विभूतियों को भले ही न पा सके , पर आत्मिक ऋद्धि और भौतिक सिद्धियों का स्वामी तो हो ही जाता है। इसीलिए सेवा को सर्वोपरि ईश्वर-उपासना कहा गया है। इसे हर हालत में हर एक को करनी ही चाहिए।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट (रजि.)*
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