होना है जिस देह को, पंचतत्व में लीन।
होना है जिस देह को, पंचतत्व में लीन।
उसको साज संवारने, क्यों ? रहा कन्डे बीन।।
कर पाए तो शीघ्र कर, इससे अब सत्काम।
वरना यह मलमूत्र का, भांडा "रोटीराम "।।
भोजन-निद्रा -भोग तो, हम अरु पशु समान।
यह तन तब ही दिव्य है, जब जापे भगवान।।
गर नहीं आज विवेक से, ले पाया तू काम।
तो सौ प्रतिशत sure है, पुनर्जन्म पशुचाम।।
(नीति शतक) में लिखा है कि,
आहार - निद्रा - भय मैथुनम् च, सामान्य मेतत् पशु भिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषा मधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।
आहार - निद्रा - भय और मैथुन तो पशु शरीर और मानव शरीर में एक समान ही है, मनुष्य को जो विवेक रूपी निधि मिली हुई है, बस वही हमें पशुओं से अलग करती है।
विवेक का इस्तेमाल करके हम तो सत्कर्मों के द्वारा धर्म पथ पर चल कर परमात्म तत्व को पा सकते हैं, पशु नहीं। इसलिए अगर मनुष्य तन पाकर भी अगर हमने इस शरीर को यूँ हीं गँवा दिया तो, हममें और पशु में क्या ? अंतर रह गया।
।। जय गुरु ।।
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