सेवा साधना से ऊब क्यों?
मैंने इतना तो कर लिया, क्या अब सदा मैं ही करता रहूँगा। दूसरों को सेवा कार्य करना चाहिए। ऐसा सोचना उचित नहीं। सेवा कार्य आत्मा की आवश्यकता का पोषण है।.....
किसी पर एहसान करने के लिए दूसरों के सहायक और उपकारी बनने के लिए, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भी नहीं, यश के लिए भी नहीं, सेवा का प्रयोजन आत्मा की गरिमा को अक्षुण्ण रखने और उसका जीवन साधन जुटाये रखने के लिए है .....आत्मा का स्वभाव है - प्रेम और प्रेम की परिणति है सेवा। उससे छुट्टी कैसी? उससे ऊब क्यों? उसे छोड़ा कैसे जा सकता हैं?
जो सेवा की आवश्यकता और महत्ता को समझता है। उसे उससे कभी भी ऊब नहीं आती। जो ऊबता हो समझना चाहिए, अभी उसे सेवा का रस नहीं आया।...
बदला है अब समाँ,
थोड़ा तुम भी बदल जाना।
बिगड़ तो हैं बहुत चुके,
अब इंसान भी बन जाना।
मिटा कर सभी रंजिश मन की,
आओ नई शुरुआत करें।
सेवा करें दीन-हीनों का,
दिल की हर एक बात करें।
अपने लिए तो सब हैं करते,
थोड़ा औरों के लिए भी जरूरी है,
बदल रहा है देश हमारा,
योगदान हमारा भी जरूरी है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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