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रविवार, 24 नवंबर 2019

नित्यप्रति दरसन साधु के, औ साधू के संग। -महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi | Santmat | Darshan

    ।।ॐ।।श्री सद्गुरवे नमः।।
नित्यप्रति दरसन साधु के, औ साधू के संग।
तुलसी काहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग।।
मन तो रमे संसार में, तन साधू के संग।
तुलसी याहि वियोग ते, नहिं लागा हरि रंग।।
साधु का दर्शन यज्ञ के समान होता है। कथा-प्रसंग में, गुरु की सेवा में भी मन का सिमटाव होता है और ईश्वर गुणगान में भी मन का सिमटाव होता है। वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप; इन तीन विधियों से जप होता है। वाचिक में बोल बोलकर जपते हैं, उपांशु में होठ हिलते हैं, पर दूसरा कोई नहीं सुनता। मानस जप मन-ही-मन होता है। मंत्र जप से मन एकाग्र होता है। मूर्ति पोशाक है। उस मूर्ति को धारण करनेवाली आत्मा है, उसी आत्मा का पोशाक मूर्त्ति है। स्थूल में पूर्ण सिमटाव होने पर सूक्ष्म दृष्टि खुलेगी। चित्र में अनेक लकीरे हैं और एक लकीर में अनेक विन्दु। परन्तु एक विन्दु में कुछ फैलाव नहीं है। सूक्ष्म दृष्टि खोलने के वास्ते विन्दु ध्यान होना चाहिए। विन्दु वह है जिसका स्थान हो, पर परिमाण नहीं। परम विन्दु दृष्टि की नोक से प्रकट होता है। दृष्टि वह चीज है, जो देखने की शक्ति है।
कहै कबीर चरण चित राखो ज्यों सूई में डोरा रे । जैसे कसरत करते-करते अपने बल को बढ़ा लेते हैं, उसी तरह दृष्टि के अभ्यास को करने से दृष्टि की नोक अवश्य होगी। संसार का कुल कारोबार शब्द से होता है। शब्द से ही सृष्टि होती है। सृष्टि के आदि में शब्द है, जिसको स्फोट कहते हैं। जब कोई अपने इष्ट के आत्मस्वरूप को पहचानता है, तब उसकी भक्ति पूरी होती है।
सब पशुओं की देह के परमाणु में एक तरह का तासीर नहीं होता है। मनुष्य शरीर में पशु का मांस देना ठीक नहीं। संतों ने हिंसा का विरोध किया। हिंसा दो तरह का होता है-एक वार्य और दूसरा अनिवार्य। हल चलाने या आँगन बुहारने में जो हिंसा होती है, उससे बच नहीं सकते, पर मास-मछली का सेवन नहीं करना चाहिए।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
(प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम)
🙏🌸।। जय गुरु ।।🌸🙏

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