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शनिवार, 5 जून 2021

मध्य वृत्ति | जहाँ मन रहता है, वहीं जीव रहता है | सदाचार, सद्युक्ति, सद्ज्ञान और अभ्यास जिनमें है, वही सद्गुरु है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

मध्य वृत्ति 
प्यारे लोगो! 
जहाँ मन रहता है, वहीं जीव रहता है। दाईं वृत्ति में चंचलता रहती है, बाईं वृत्ति में मूढ़ता रहती है। दोनों के बीच में रहने से मन सतोगुण में रहता है। अपने मन को बीच अर्थात् सुषुम्ना में रखना चाहिए। आज्ञाचक्र का ध्यान सबसे श्रेष्ठ ध्यान है।  काम भी करो,  परन्तु मन को मध्य  में रखो। मूढ़ता और चंचलता को छोड़कर रहो। चंचलता हैरान करती है और मूढ़ता बेवकूफ बनाकर छोड़ती है। इन तीनों से बचने के लिए मध्यवृत्ति में रहो। सुषुम्ना ही मध्यवृत्ति है। 

सर्वानिन्द्रियकृतान्दोषान्वारयतीति   तेन  वरणा   भवति । 
सर्वानिन्द्रियकृतान्पापान्नाशयतीति तेन नाशी भवतीति ।।

सब पापों और इन्द्रियों के दोषों को जो दूर करता है, वह है वरणा और नासी है। दोनों भौंओं और नासिका का जो मिलन स्थान है, वहीं पर ब्रह्मज्ञानी लोग अपने मन को रखते हैं। परमात्मा की उपासना वरणा और नासी के बीच में करो। स्थूल सृष्टि और सूक्ष्म सृष्टि दोनों का मिलन स्थान भी वहीं है। 

यानि यानि हि प्रोक्तानि पंच पद्मे फलानि वे । 
तानि    सर्वानि  सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्ति हि ।। -शिव-संहिता 

पाँच चक्रों के जो जो गुण कहे गए हैं, वह आज्ञाचक्र के ध्यान से प्राप्त हो जाता है। दोनों हाथों से  किसी चीज को मजबूती से पकड़ने पर सारा शरीर का बल उस ओर फिर जाता है। उसी प्रकार दृष्टियोग से दृष्टि की धारों को एक जगह पर जोड़ने से इन्द्रियों की सब धारें सिमटकर वहाँ एकत्र हो जाती हैं। इस ज्ञान को बिना सच्चे गुरु के लोग भूले हुए रहते हैं। खोजते फिरते हैं, रास्ता नहीं मिलता है। यह रास्ता मोक्ष में जाने का या ईश्वर को प्राप्त करने का है। कुछ लोग अपने मन से रास्ता ध्र लेते हैं और वही दूसरे को भी बतलाते हैं। इसी तरह परं परांदे अनेक लोग गुरु के पंजे में पड़े हुए हैं। संत कबीर साहब का वचन है- 
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना,  खोजत फिरत राह नहीं जाना । 
सतगुरु वह है, जो सद्युक्ति जाने और सदाचार का पालन करते हुए अभ्यास में रत रहे। सदाचार, सद्युक्ति, सद्ज्ञान और अभ्यास जिनमें है, वही सद्गुरु है। ऐसे गुरु नहीं मिलने पर सही ज्ञान नहीं मिलता है और भटकता रहता है। मन गरेडि़या है, जीव सिंह का बच्चा है। इन्द्रियाँ भेड़-बकरियाँ हैं। इस ज्ञान को जाननेवाला साधु-संत हैं। जो जीवों की दशा को जानते हैं, उसे साधु-संत कहते हैं। तुम मन इन्द्रियों के वश में मत रहो, तुम इनके संचालक हो। भांओं से नीचे अर्ध है और भौंओं से ऊपर ऊर्ध्व है। इनके बीच अर्थात् सुषुम्ना में ध्यान लगाओ। बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाओ; यही संतों की युक्ति है। पंडितों का वेद और  संतों का भेद है।  

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