|| मनुष्य के शरीर से ही मुक्ति मिलती है ||
कैसा भी सुंदर और पवित्र शरीर क्यों ना हो, जिसको हम प्रणाम करते हैं; किंतु यह शरीर परमात्मा या ब्रह्म नहीं है; चाहे वह शरीर इष्ट या गुरु आदि का ही क्यों न हो। कोई भी इंद्रिय-गोचर पदार्थ ब्रह्म नहीं हो सकता है। कोई भी शरीर पवित्र-अपवित्र, सुंदर- असुंदर, जिस शरीर से अद्भुत् कार्य ही क्यों न होता हो, चमकीला हो, दिव्य हो, फिर भी वह परमात्मा नहीं; वह परमात्मा की माया है। पानी का फोंका (बुदबुदा) कुछ काल ठहरता है, फिर फूट जाता है। उसी तरह शरीर थोड़ी देर रहेगा, फिर नाश हो जाएगा। इसलिए भजन करो और डरो कि कब शरीर छूट जाएगा। हम लोग आत्मरत होकर आत्म- चिंतन करके परमात्मा की प्राप्ति करें और उसके सुख को भोगें, यह मनुष्य शरीर का काम है। विषयों का ग्रहण का इंद्रियों से होता है। इनसे जो सुख होता है, वह मनुष्य शरीर पाने का फल नहीं। विषयों से परे जो सुख है, उसे प्राप्त करना, मनुष्य-शरीर का काम है। शरीर को शरीरी इस तरह पहने हैं, जैसे कपड़ा और शरीर। कपड़े शीघ्र बदलते हैं, शरीर बहुत काल तक रहता है। जीवनकाल में बहुत बार कपड़ा पहना जाता है, उसी तरह शरीर पर शरीर बहुत बार हुए। *जिस तरह एक कोई भंडार हो, उससे जो लेना चाहो, ले लो। उसी तरह यह शरीर साधनों का भंडार है, इससे जो कीजिए, सो होगा। मनुष्य का शरीर ही है जिससे मुक्ति मिलती है और ईश्वर मिलते हैं, अन्य किसी शरीर में नहीं। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ
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