गुरु सेवा गुरु के प्रति की गयी सेवा है। जब एक शिष्य अपने गुरु से प्रेम करता है वह गुरु की सेवा करता है। "गुरु सेवा जो सभी शिष्यों के लिए सामान्य है" गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण होती है और अध्यात्मिक तकनीकों का नियमित एवं अनुशासित ढंग से अभ्यास करना होता है। सभी शिष्य गुरु के प्रति भौतिक या भौगोलिक सामीप्य नहीं रखते हैं। इसलिए वे गुरु के प्रति व्यक्तिगत सेवा नहीं कर सकते हैं।
इसलिए जहाँ कहीं भी शिष्य रहता हो जीवन के किसी भी पड़ाव में निम्नवत शिक्षाओं एवं दिशानिर्देशों द्वारा सेवा कर सकता है।
गुरु के प्रति सच्ची गुरु भक्ति या प्रेम निसंदेह गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण करना होता है। एक शिष्य जो गुरु की शिक्षाओं का अभ्यास करता है, वह क्रोध, नुकसान, घमंड, आसक्ति एवं तामसिकता के आंतिरिक लघु परिपथों से ऊपर उठ जाएगा। वह आशीर्वाद के बारे में जो गुरु से प्रवाहित होता है दूसरों के लिए एक उदाहरण होता है। वह अध्यात्मिक रूप से फलता फूलता है एवं उसकी प्रेम एवं सेवा की सुगंध उसके गुरु को प्रदर्शित करती है तथा गौरवान्वित करती है।
कुछ शिष्य होते हैं जो गुरु से सामीप्य या सम्बन्ध रखते हैं। गुरु उनसे अपने लिए कुछ कार्य करने के लिए कह सकते हैं। यह भी गुरु सेवा होती है। यह कोई भी कार्य हो सकता है। यह आश्रम में झाड़ू लगाना, कपड़ों को साफ करना, पौधों की सिंचाई करना, किराने का सामान खरीदना, भोजन पकाना, गुरु के चरणों को दबाना या आगंतुकों का स्वागत करना हो सकता है। शिष्य को इमानदारी एवं समर्पण से वही कार्य करना चाहिए जो उससे कहा जाये। उसे दूसरे को दिए गए कार्य पर ध्यान नहीं देना चाहिए ना ही उसे दूसरों के द्वारा करने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। शिष्य के मस्तिष्क में गुरु के प्रति स्वयं या पक्षपात की हीनता की भावना या अन्य नकारात्मक विचार नहीं होने चाहिए। गुरु द्वारा दिया गया कोई भी कार्य पवित्र होता है एवं उसका निष्पादन सर्वोच्च प्रतिभा के साथ होना चाहिए। प्रत्येक शिष्य को वही कार्य या सेवा दी जाती है जो गुरु द्वारा शिष्य की कार्मिक आवश्यकताओं तथा उनकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर भी निर्धारित किया जाता है। किसी भी शिष्य को दूसरों को दिए गए कार्य को करने की या ईर्ष्या की भावना नहीं रखनी चाहिए। हम लोगों द्वारा प्रेम एवं निष्ठा के साथ गुरु द्वारा तय किये गए कार्य को करना सर्वश्रेष्ठ सेवा होती है जो हम कर सकते हैं।
गुरु सेवा का आशीर्वाद उन क्षेत्रों को भरता तथा पूर्ण करता है जिसका शिष्य के जीवन में अभाव होता है। गुरु सेवा शिष्य के ऊपर स्वास्थ्य, अच्छे जीवन साथी, संतान, कार्य, धन, ज्ञान, बुद्धिमत्ता, आलौकिक क्ष्रमताओं, ईश्वर का आशीर्वाद एवं निरपेक्ष से एकाकार के रूप में आशीर्वाद का प्रवाह होता है।
राम ने वशिष्ठ ऋषि के प्रति गुरु सेवा को किया तथा उन्हें प्रसन्न किया।
कृष्ण ने भी अपने गुरु सान्दिपनी के आश्रम में गुरु सेवा की। उन्होंने भूमि को धोया एवं स्वच्छ किया, पूजन सामग्री, अलाव एवं पानी एकत्रित किया। यद्यपि वे भगवान विष्णु के अवतार थे, वे विनीत, आज्ञाकारी तथा समर्पित थे। उन्होंने अन्य दूसरे साधारण विद्यार्थियों की तरह अपने गुरु द्वारा दिए गए समस्त कार्य को सम्पादित किया। परिणाम के रूप में वे चौंसठ दिनों में चौंसठ कलाओं में माहिर हो गए। यह सही दृष्टिकोण से संपादित की गयी गुरु सेवा का आशीर्वाद है।
जो लोग गुरु सेवा करते हैं उन्हें सेवा उचित इच्छा, तत्परता एवं आज्ञा से तथा दूसरों के प्रति बिना किसी ईर्ष्या की भावना से करना चाहिए जो गुरु से निरन्तर सम्पर्क में रहते हैं। जो लोग दूर हैं और गुरु से सीधे सम्पर्क नहीं रख सकते हैं, उन्हें नियमित रूप से मंत्र जाप एवं ध्यान करना चाहिए और सिखाये गए अध्यात्मिक अभ्यासों के दूसरे नियमों का अनुसरण करना चाहिए। गुरु सेवा सर्वोच्च सम्भावित पुरस्कारों को प्रदान करती है।
गुरु सेवा स्वयं में एक पुरस्कार है। सदैव गुरु की सेवा तन, मन, धन, एवं आत्मा से करें।
जय गुरु महाराज
Posted by S.K.Mehta, Gurugram