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शनिवार, 21 जुलाई 2018

काटने (अलग करने) वाले की जगह हमेशा नीचे होती है।

कहानी : काटने (अलग करने) वाले की जगह हमेशा नीचे होती है और जोडने वाले की जगह हमेशा ऊपर होती है ।

एक दिन किसी कारण से स्कूल में छुट्टी की घोषणा होने के कारण,एक दर्जी का बेटा, अपने पापा की दुकान पर चला गया ।

वहाँ जाकर वह बड़े ध्यान से अपने पापा को काम करते हुए देखने लगा ।

उसने देखा कि उसके पापा कैंची से कपड़े को काटते हैं और कैंची को पैर के पास टांग से दबा कर रख देते हैं ।

फिर सुई से उसको सीते हैं और सीने के बाद सुई को अपनी टोपी पर लगा लेते हैं ।

जब उसने इसी क्रिया को चार-पाँच बार देखा तो उससे रहा नहीं गया, तो उसने अपने पापा से कहा कि वह एक बात उनसे पूछना चाहता है ?

पापा ने कहा-बेटा बोलो क्या पूछना चाहते हो ?

बेटा बोला- पापा मैं बड़ी देर से आपको देख रहा हूं , आप जब भी कपड़ा काटते हैं, उसके बाद कैंची को पैर के नीचे दबा देते हैं, और सुई से कपड़ा सीने के बाद, उसे टोपी पर लगा लेते हैं, ऐसा क्यों ?

इसका जो उत्तर पापा ने दिया-उन दो पंक्तियाँ में मानों उसने ज़िन्दगी का सार समझा दिया ।

उत्तर था- ” बेटा, कैंची काटने का काम करती है, और सुई जोड़ने का काम करती है, और काटने वाले की जगह हमेशा नीची होती है परन्तु जोड़ने वाले की जगह हमेशा ऊपर होती है ।

यही कारण है कि मैं सुई को टोपी पर लगाता हूं और कैंची को पैर के नीचे रखता हूं........!!

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शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

गुरु सेवा गुरु के प्रति की गयी सेवा है। जब एक शिष्य अपने गुरु से प्रेम करता है वह गुरु की सेवा करता है.. | Guru Sewa |

गुरु सेवा गुरु के प्रति की गयी सेवा है। जब एक शिष्य अपने गुरु से प्रेम करता है वह गुरु की सेवा करता है। "गुरु सेवा जो सभी शिष्यों के लिए सामान्य है"  गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण होती है और अध्यात्मिक तकनीकों का नियमित एवं अनुशासित ढंग से अभ्यास करना होता है। सभी शिष्य गुरु के प्रति भौतिक या भौगोलिक सामीप्य नहीं रखते हैं। इसलिए वे गुरु के प्रति व्यक्तिगत सेवा नहीं कर सकते हैं।

इसलिए जहाँ कहीं भी शिष्य रहता हो जीवन के किसी भी पड़ाव में निम्नवत शिक्षाओं एवं दिशानिर्देशों द्वारा सेवा कर सकता है।
                                                   
गुरु के प्रति सच्ची गुरु भक्ति या प्रेम निसंदेह गुरु की शिक्षाओं का अनुसरण करना होता है। एक शिष्य जो गुरु की शिक्षाओं का अभ्यास करता है, वह क्रोध, नुकसान, घमंड, आसक्ति एवं तामसिकता के आंतिरिक लघु परिपथों से ऊपर उठ जाएगा। वह आशीर्वाद के बारे में जो गुरु से प्रवाहित होता है दूसरों के लिए एक उदाहरण होता है। वह अध्यात्मिक रूप से फलता फूलता है एवं उसकी प्रेम एवं सेवा की सुगंध उसके गुरु को प्रदर्शित करती है तथा गौरवान्वित करती है।
               
कुछ शिष्य होते हैं जो गुरु से सामीप्य या सम्बन्ध रखते हैं। गुरु उनसे अपने लिए कुछ कार्य करने के लिए कह सकते हैं। यह भी गुरु सेवा होती है। यह कोई भी कार्य हो सकता है। यह आश्रम में झाड़ू लगाना, कपड़ों को साफ करना, पौधों की सिंचाई करना, किराने का सामान खरीदना, भोजन पकाना, गुरु के चरणों को दबाना या आगंतुकों का स्वागत करना हो सकता है। शिष्य को इमानदारी एवं समर्पण से वही कार्य करना चाहिए जो उससे कहा जाये। उसे दूसरे को दिए गए कार्य पर ध्यान नहीं देना चाहिए ना ही उसे दूसरों के  द्वारा करने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। शिष्य के मस्तिष्क में गुरु के प्रति स्वयं या पक्षपात की हीनता की भावना या अन्य नकारात्मक विचार नहीं होने चाहिए। गुरु द्वारा दिया गया कोई भी कार्य पवित्र होता है एवं उसका निष्पादन सर्वोच्च प्रतिभा के साथ होना चाहिए। प्रत्येक शिष्य को वही कार्य या सेवा दी जाती है जो गुरु द्वारा शिष्य की कार्मिक आवश्यकताओं तथा उनकी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर  भी निर्धारित किया  जाता है। किसी भी शिष्य को दूसरों को दिए गए कार्य को करने की  या ईर्ष्या की भावना नहीं रखनी चाहिए। हम लोगों द्वारा प्रेम एवं निष्ठा के साथ गुरु द्वारा तय  किये गए कार्य को करना सर्वश्रेष्ठ सेवा होती है जो हम कर सकते हैं।


 गुरु सेवा का आशीर्वाद उन क्षेत्रों को भरता तथा पूर्ण करता है जिसका शिष्य के जीवन में अभाव होता है। गुरु सेवा शिष्य के ऊपर स्वास्थ्य, अच्छे जीवन साथी, संतान, कार्य, धन, ज्ञान, बुद्धिमत्ता, आलौकिक क्ष्रमताओं, ईश्वर का आशीर्वाद  एवं निरपेक्ष से एकाकार के रूप में आशीर्वाद का प्रवाह होता है।
                                          
राम ने वशिष्ठ ऋषि के प्रति गुरु सेवा को किया तथा उन्हें प्रसन्न किया।
               
कृष्ण ने भी अपने गुरु सान्दिपनी के आश्रम में गुरु सेवा की। उन्होंने भूमि को धोया एवं स्वच्छ किया, पूजन सामग्री, अलाव एवं पानी एकत्रित किया। यद्यपि वे भगवान विष्णु के अवतार थे, वे विनीत, आज्ञाकारी तथा समर्पित थे। उन्होंने अन्य दूसरे साधारण विद्यार्थियों की तरह अपने गुरु द्वारा दिए गए समस्त कार्य को सम्पादित किया। परिणाम के रूप में वे चौंसठ दिनों में चौंसठ कलाओं में माहिर हो गए। यह सही दृष्टिकोण से संपादित की गयी गुरु सेवा का आशीर्वाद है।
                   
जो लोग गुरु सेवा करते हैं उन्हें सेवा उचित इच्छा, तत्परता एवं आज्ञा से तथा दूसरों के प्रति बिना किसी ईर्ष्या की भावना से करना चाहिए जो गुरु से निरन्तर सम्पर्क  में रहते हैं। जो लोग दूर हैं और गुरु से सीधे सम्पर्क नहीं रख सकते हैं, उन्हें नियमित रूप से मंत्र जाप एवं ध्यान करना चाहिए और सिखाये गए अध्यात्मिक अभ्यासों के दूसरे नियमों का अनुसरण करना चाहिए। गुरु सेवा सर्वोच्च सम्भावित पुरस्कारों को प्रदान करती है।
                   
गुरु सेवा स्वयं में एक पुरस्कार है। सदैव गुरु की सेवा तन, मन, धन, एवं आत्मा से करें।
जय गुरु महाराज
Posted by S.K.Mehta, Gurugram

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

गुरु सेवा ते भगति कमाई, तब यह मानस देही पाई | Guru Sewa te bhakti kamai tab yah manush dehi pai | Santmat-Satsang

गुरु सेवा ते भगति कमाई, तब यह मानस देही पाई!

हे जीव! यह मनुष्य देह तुझे गुरु की सेवा तथा भक्ति की कमाई करने के लिए मिली है। इस देह के लिए देवी-देवता भी तरसते हैं। वह भी चाहते हैं कि हम मनुष्य शरीर को धारण करके गुरु की भक्ति कर सकें। हे जीव तू इस मूल्यवान शरीर को पाकर भजन के काम में आलस्य करता है तथा भजन के कार्य को कल पर छोड़ता है, सो यह तेरी उस व्यक्ति वाली मिसाल है जिसे एक साधु की सेवा करने से एक सप्ताह के लिए पारस मिला था परंतु उसने उससे कोई भी लाभ न लिया। एक व्यक्ति साधु-संतों की सेवा किया करता था। एक बार एक साधु उस के घर आया जिसके पास पारसमणि थी। उस व्यक्ति ने अपने नम्र स्वभावानुसार उस साधु की सेवा की। साधु ने प्रसन्न होकर कहा, 'यह पारसमणि मैं तुझे एक सप्ताह के लिए दे जा रहा हूँ इसमें यह गुण छिपा हुआ है कि यदि लोहा इससे छू जाए तो वह लोहा स्वर्ण में बदल जाता है। एक सप्ताह के भीतर तुम जितना चाहे सोना बना लेना परन्तु सात दिन व्यतीत होने पर यह वस्तु तुम से वापस ले ली जायेगी। यह कह कर साधु चला गया। तत्पश्चात वह व्यक्ति पारस को घर रख कर बाजार चला गया। लोहे का भाव पूछने लगा। मालूम हुआ कि लोहा दो रुपये सेर है। सोचने लगा शायद कल कुछ सस्ता हो जाए, आज महंगा है। यह सोचकर वापस आ गया। दूसरे दिन जब बाजार में गया तो पता चला आज भाव कल से अधिक है। वह पुन: लौट आया उसका विचार था कि लोहा सस्ता होने पर खरीदूंगा। अर्थात रोजाना बाजार में आता-जाता और लोहे का भाव पूछ कर वापस घर चला आता। सात दिन व्यतीत हो गए। साधु अपने वचनों के अनुसार आ गया उस व्यक्ति को उसी प्रकार कंगाल देखकर चकित हुए तथा कहा,' अरे मैंने तो तुझे पारस दिया था कि तू जितना चाहे सोना बना ले ताकि तेरी निर्धनता दूर हो जाए, क्या तुमने उससे कोई लाभ नहीं उठाया? वह व्यक्ति बोला महाराज! क्या करता कई बार बाजार गया परन्तु लोहे का भाव ही बहुत तेज रहा। इसलिए यह कार्य न हो सका। यह सुनकर साधु उस व्यक्ति की नादानी पर हंसा और कहने लगा, तुमने व्यर्थ ही लोहे का भाव पूछने में सात दिन गंवा दिए तथा अनमोल समय खो दिया। साधु पारस ले गया। इसलिए संत कहते हैं कि हे जीव! करोड़ों वर्षों से आवागमन के चक्कर में ठोकरें खाते हुए देख कर मालिक ने दया करके तुझे हीरे जैसा जन्म दिया था ताकि तू निम्न जन्म के कंगालपन से छूट जाए परंतु तूने यह अनमोल समय माया की गिनतियां करते हुए खो दिया तथा जो लाभ इस मानव जन्म से उठाना था वह न उठा सका।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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तब आप पर ईश्वर की कृपा हो जाती है | Tab aap par Eshwar ki kripa ho jati hai | भक्ति और आराधना का तात्पर्य ये कदापि नहीं है कि हम हाथ में माला लिए रहें | Santmat-Satsang

तब आप पर ईश्वर की कृपा हो जाती है!
भक्ति और आराधना का  तात्पर्य ये कदापि नहीं है कि हम हाथ में माला लिए रहें। भगवान की प्रार्थना, उपासना, स्तुति का मतलब भी इतना ही नहीं है कि हम केवल अपने लिए और अपनों की सलामती के लिए ही कामना करते रहें, भगवान के नाम की माला हाथ में थामे हुए अगर केवल अपने विषय में, मालामाल होने की प्रार्थना करते रहें तो यह अनुचित हो जाएगा।

इससे मनुष्य आध्यात्मिक सम्पत्ति से कंगाल हो जाएगा। वेदों में स्पष्ट कहा गया है कि भगवान की भक्ति का सीधा सा अर्थ है उसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करना और वही ईश्वरीय आज्ञाएं इंसान को सदगुरु प्रदान करते हैं।

इसलिए गुरु आज्ञा का कभी उलंघन न करें, सत्पुरुषों की न स्वयं निन्दा करें और न किसी के द्वारा किए जाने पर श्रवण करें, भगवान के अनेक नामों और स्वरूपों पर कभी भेद न करें।

जैसे शिव और विष्णु, राम और कृष्ण आदि उनमें कोई भेदभाव की दृष्टि न रखें, वैदिक विचारों की भी निन्दा अनुचित है, शास्त्रों का सम्मान करें और गुरु ज्ञानी जनों के प्रति अगाध श्रद्घा बनाए रखें। प्रेम भाव बनाए रखने से जीवन जगमगा उठता है।

ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के द्वारा प्रदत्त सद्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में, उनके द्वारा संचालित सेवा के महान कार्यों में सहयोगी बनकर जो व्यक्ति खड़ा हो जाता है, धर्म के प्रति जो कष्ट सहकर भी वफादारी निभाता है, उसके पुण्य के प्रताप से उसकी आने वाली सात पीढि़यां भवसागर से पार हो जाती हैं और वह भी तर जाता है।

इसलिए धर्म के पुण्य कार्यों में भागीदार बनना, सहयोग और सेवा प्रदान करना अपने जीवन का अंग बनाएं। गुरुचरणों में शीष नवाने वाले लोग, गुरु को मानने वाले लोग तो दुनिया में बहुत मिल जाएंगे। किंतु गुरु की आज्ञा का पालन करने वाले तो विरले ही होते हैं।

पर जो होते हैं उनके हृदय में स्वयं गुरु विराजमान हो जाते हैं, उन्हें ईश्वरीय असीम शक्तियों का अहसास होने लगता है, वे सुख-दुख, मान-अपमान, हानि-लाभ, जय- पराजय, यहां तक कि गुरुकार्यों की सम्पूर्णता के लिए अपना सर्वस्व लगाने से भी पीछे नहीं हटते। क्योंकि उन्हें गुरु का आदेश ईश्वर का संदेश प्रतीत होने लगता है।

गुरु भक्त आरूणी
ऐसा ही एक शिष्य था जिसे गुरु का आदेश ईश्वर का आदेश लगता था। इस शिष्य का नाम था आरुणि। एक बार गुरु ने आरूणी को आदेश दिया कि खेत में पानी लगाना है। पानी का बहाव तेज था, जिससे खेत की मेंड़ टूट गई। आरुणि ने भरसक प्रयत्न किया पानी रोकने का।

लेकिन जैसे ही वह फावड़े से खोदकर मिट्टी लगाता, वैसे ही पानी की तीव्र धरा उसे अपने साथ बहा ले जाती। आरुणि के लिए गुरु की आज्ञा सर्वोपरि थी, उसके महत्व को वह भलीभांति जानता था। पानी और मिट्टी के कीचड़ में वह स्वयं मेड़ बनकर लेट गया और लेटा ही रहा। सुबह से शाम, शाम से रात्रि और भोर होने लगी।

गुरु ने अपने अन्य शिष्यों से कहा आरुणि कहां है? सभी मौन थे, गुरु ने कहा वह तो खेत में पानी लगाने गया था। क्या वहां से लौटकर अभी तक नहीं आया। बिना कुछ कहे सबने जानकारी न होने की असमर्थता जताई। गुरु ने आदेश दिया चलो, मेरे साथ आरुणि अब तक खेत में क्या कर रहा है? और जाकर देखते हैं।

वह नशारा अद्भुत था, भोर का समय और गुरु स्वयं चलकर आरुणि की खोज कर रहे हैं। जाकर देखा आरुणि मिट्टी में धंसा हुआ है और अपनी देह से पानी के प्रवाह को रोक रहा है। मुंह में भी मिट्टी, आंखों में भी मिट्टी, सर्दी से शरीर सुन्न हो गया।

किंतु गुरु-आज्ञा की पालना के सामने ये शारीरिक, मानसिक वेदना क्या महत्व रखती हैं? कीचड़ में सने हुए आरुणि को आज उनके गुरु ने अपने सीने से लगा लिया और सिर पर हाथ रखकर कहने लगे। आरुणि! मेरे प्यारे! तुम ध्न्य हो, और तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी श्रद्घा, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा समर्पण भाव, तुम्हारी सेवा, तुम्हारी आज्ञा पालना केवल मैं नहीं ईश्वर भी देख रहे हैं, तुम्हें अवश्य ही इसका अभीष्ट फल प्राप्त होगा।

आरुणि की आंखों में आंसू हैं, पर गुरु उन प्रेम भाव में बहने वाले मोतियों को अपने हाथों में समेट रहे हैं और आरुणि के उपर हृदय से आशीर्वाद का अमृत बरसा रहे हैं। जो शिष्य गुरु के आदेश का प्राणपन से पालन करता है, प्रतिकूल स्थिति में भी विपदाओं की परवाह किए बिना, संकल्पित होकर सेवा कार्यों में लगा रहता है, उसके उपर ऐसे ही गुरु कृपा और प्रभु की दया बनी रहती है। ऐसे अनोखे शिष्य के लिए तो गुरु स्वयं चलकर उसके पास पहुंच जाते हैं। 
।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

एक गरीब वृद्ध पिता के पास अपने अन्तिम समय में ... | Ek Gyanprad Kahani | Santmat-Satsang

एक गरीब वृद्ध पिता के पास अपने अंतिम समय में दो बेटों को देने के लिए मात्र एक आम था। पिताजी आशीर्वादस्वरूप दोनों को वही देना चाहते थे, किंतु बड़े भाई ने आम हठपूर्वक ले लिया। रस चूस लिया छिल्का अपनी गाय को खिला दिया। गुठली छोटे भाई के आँगन में फेंकते हुए कहा- ' लो, ये पिताजी का तुम्हारे लिए आशीर्वाद है।'

छोटे भाई ने ब़ड़ी श्रद्धापूर्वक गुठली को अपनी आँखों व सिर से लगाकर गमले में गाढ़ दिया। छोटी बहू पूजा के बाद बचा हुआ जल गमले में डालने लगी। कुछ समय बाद आम का पौधा उग आया, जो देखते ही देखते बढ़ने लगा। छोटे भाई ने उसे गमले से निकालकर अपने आँगन में लगा दिया। कुछ वर्षों बाद उसने वृक्ष का रूप ले लिया। वृक्ष के कारण घर की धूप से रक्षा होने लगी, साथ ही प्राणवायु भी मिलने लगी। बसंत में कोयल की मधुर कूक सुनाई देने लगी। बच्चे पेड़ की छाँव में किलकारियाँ

भरकर खेलने लगे।
पेड़ की शाख से झूला बाँधकर झूलने लगे। पेड़ की छोटी-छोटी लक़िड़याँ हवन करने एवं बड़ी लकड़ियाँ
घर के दरवाजे-खिड़कियों में भी काम आने लगीं। आम के पत्ते त्योहारों पर तोरण बाँधने के काम में आने लगे। धीरे-धीरे वृक्ष में कैरियाँ लग गईं। कैरियों से अचार व मुरब्बा डाल दिया गया। आम के रस से घर-परिवार के सदस्य रस-विभोर हो गए तो बाजार में आम के अच्छे दाम मिलने से आर्थिक स्थिति मजबूत हो गई। रस से पाप़ड़ भी बनाए गए, जो पूरे साल मेहमानों व घर वालों को आम रस की याद दिलाते रहते। ब़ड़े बेटे को आम फल का सुख क्षणिक ही मिला तो छोटे बेटे को पिता का ' आशीर्वाद' दीर्घकालिक व सुख- समृद्धिदायक मिला।

यही हाल हमारा भी है परमात्मा हमे सब कुछ देता है सही उपयोग हम करते नही हैं दोष परमात्मा और किस्मत को देते हैं। जय गुरु।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

महर्षि मेँहीँ गुफा दर्शन | कुप्पाघाट भागलपुर | Maharshi Mehi Gufa Darshan | Kuppaghat Bhagalpur | SANT MEHI | SADGURU MEHI

।। श्री सद्गुरुवे नमः ।।

पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।।
एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।

जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा।।
परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा।।

वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।।
एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।।

गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है।

           ऐसे ही हमारे पूरण पुरूष गुरुदेव (संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज) हैं, जिनकी महिमा अपरम्पार है। उन्होंने वर्षों जिन गुफा में तपस्या कर परमात्वस्वरूप के दर्शन किये, उन्हीं गुफा का दर्शन करने का सौभाग्य हम सब को पुनः प्राप्त हुआ दिनांक: 23 जून 2018 को महर्षि मेंहीं आश्रम कुप्पाघाट स्थित भागलपुर में। एकदम शीतल-शान्त वातावरण!
आज भी यह जगह गुरुदेव के अटल भक्ति की शक्ति एवं उनके आलोक से आलोकित हो रहा है! जिसकी आभास वहाँ पहुँचने वाले हर अभ्यासी को सदैव ही होता रहता है।

         गुफा की कुछ तस्वीरें देखिए, जो उस समय हम सब ने मोबाइल से लिया था।
          और आइये संक्षेप में जानते हैं कि गुरुदेव किस तरह से कितने समय कहाँ-कहाँ बिता कर कठिन साधना किये और अंत में इसी जगह पर परमात्मा का साक्षात्कार किये।

हे मेरे गुरुदेव!!!

         परमाराध्य श्री सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज जन्मसिद्ध महायोगेश्वर और एक समर्थ पूरण पुरूष थे। इनका अवतार प्राणिमात्र की अन्तरात्मा को शरीर और संसार के बंधन से मुक्त करने के लिए ही हुआ था। बाल्यावस्था से ही एक श्रेष्ठ मुमुक्षु साधक का आदर्श आचरण प्रस्तुत कर निर्वाण दशा की उपलब्धि का सहज मार्ग खोल दिया है।
         उन्होंने दृष्टियोग की अविराम कठोर साधना और उपासना सन् 1909 ई० से 1922 ई० तक की, जिसमें अन्तिम के तीन महीने उन्होंने धरहरा गाँव में जमीन के अन्दर एक कूप में की इसे उपासना-कूप कह सकते हैं। और यहीं पर उन्होंने दृष्टियोग की साधना पूरी कर एवं स्वरूप-दर्शन अथवा आत्मलाभ होकर परमात्म-दर्शन जो एकमात्र नादानुसंधान या सुरत-शब्द-योग द्वारा ही सम्भव है की दृढ़-साधना में लग गए। जो ग्यारह वर्षों तक अबाध गति से चलता रहा।


            एक बार पुनः शान्त-एकान्त निर्विघ्न स्थान में सूरत-शब्द-योग का दृढ़ साधना के संकल्प के साथ उपयुक्त स्थान की तलाश करते-करते, बहुत से स्थानों का बहुविध निरीक्षण किए, किन्तु अनुकूल नहीं जँचा।
          अंततोगत्वा गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज) सन् 1933 ई० में सिकलीगढ़ धरहरा से येन-केन-प्रकारेण मुरादाबाद होते हुए गढ़मुक्तेश्वर पहुँचे। वहाँ भगवती भगीरथी के सुरम्य पावन तट पर ये कई दिनों तक ध्यानावस्थित रहे। पुनः वहाँ से प्रस्थान कर छपरा में सरयू नदी के मनोरम प्रान्त में तीन दिन तक ध्यानजनित आन्तरिक आनंद में डूबे रहे। वहाँ से कुछ दिन रक्सौल में निवास करते हुए भागलपुर पधारे। भागलपुर शहर के मायागंज मुहल्ले में गंगा नदी के पावन तट पर एक प्राचीन सुरम्य सुरंग के परिदर्शन से अपने उद्देश्य की प्राप्ति में अनुकूल जानकर इनका हृदय अतीव प्रसन्नता से भर गया। इन्होंने इसी सौभाग्यशालिनी गुफा को आत्मज्ञान-प्राप्ति हेतु सूरत-शब्द-योग की ऐकान्तिक गम्भीर साधना करने के लिए अत्यंत उपयुक्त लगने पर इसका चयन किये।
           गुरुदेव ने इस गुफ की आवश्यक मरम्मत व जीर्णोद्धार करवाकर सन् 1933 ई० से सन 1934 ई० के नवम्बर माह तक सूरत-शब्द-योग की कठोर साधना करते रहे। अंततोगत्वा इन्हें पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त हो गया।
           इसी सूरत-शब्द-योग की साधना ने इन्हें निज आत्मस्वरूप की अपरोक्षानुभूति कराकर सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी और पूर्णकाम बना दिया।
           आत्मस्वरूप की अपरोक्षानुभूति कर लेने पर परमाराध्य सद्गुरु महाराज ने समस्त महत्वपूर्ण साधनभूत सामग्रियों का परित्याग कर उन्मुन्यावस्था धारण कर सत्संग, प्रवचन, ग्रंथलेखन और लोकवार्ता-द्वारा जगत् का कल्याण करने लगे।
             यद्यपि इनको अब कुछ भी करना शेष नहीं था, तब भी ये लोककल्याणार्थ आजीवन संध्या-वंदन, स्तुति-प्रार्थना, भोजन-शयन, अध्ययन-मनन और मिलन-भ्रमण आदि समस्त मानवोचित कर्तव्य उचित समय पर करते रहे।
          ऐसे गुरुदेव के चरणों में मैं बारम्बार शिश  नवाकर भव-सागर से पार उतारने की हृदय से प्रार्थना करता हूँ। गुरुदेव के ध्यान करने की जगह जहाँ पर उन्होंने परमात्वस्वरूप के दर्शन किये ऐसे जगह पर अपने को पाकर धन्य-धन्य हो गया। जय गुरु महाराज।
श्री सद्गुरु महाराज की जय।
    --शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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गुरुवार, 12 जुलाई 2018

एक टक्कर कालहूं से लिजै!! | श्री नंदकुमार तुलसी जी के मुख से ― | Ek adbhut ghatna | SANTMEHI | SADGURU MEHI | Maharshi Mehi | Santmat-Satsang

!! एक ठक्कर कालहूँ से लीजै!!

श्री नंदकुमार तुलसी जी के मुख से ―

७-अक्टूबर शुक्रवार को दोपहर के समय पूर्ण उदारता के अवतार, पूर्ण करुणा स्नेह तथा मंगल प्रदान करने वाले श्री गुरुदेव जी को श्रीमती शीला चमड़िया के निवास स्थान पर अपने कमरे में बैठे हुए थे। कि अचानक पूज्य गुरुदेव लेखक को फरमाने लगे कि,यहां से परसों 9 अक्टूबर को हमारी जो यात्रा पंजाब के लिए होने वाली है । उस दिन तो रविवार है और  पंजाब पश्चिम की ओर पड़ता है इसलिए उस ओर यात्रा उस दिन नहीं बनती है । इस पर श्री संतसेवी बाबा ने नर्मता से कहा कि पंजाब जाने वाले हम सब लोगों की संख्या बहुत है और 9 अक्टूबर की बताअनुकूलित रेल गाड़ी में जगह सुरक्षित हो चुकी है उसको इस समय रद्द करवा कर फिर किसी दूसरे दिन के लिए सुरक्षित करवाने में बड़ी कठिनाई और असुविधा होगी। जो सीटें इस रविवार वाली गाड़ी में सुरक्षित करवाई गई है । बड़ी मुश्किल से मिली है । यह सुनकर श्री सदगुरुदेव महाराज एक 2 मिनट तक चुप रहे फिर गंभीर हो गए, और उसे गंभीरता में कहने लगे कि अच्छा तब । *जो स्वर चले ताहि पग आगे दीजै, एक ठक्कर कालों से लीजै।*  इतना कहकर श्री गुरुदेव विश्राम करने के लिए लेट गए इन शब्दों का अर्थ व रहस्य इशारा हम लोगों की समझ में नहीं आया सिर्फ इतना जान पड़ा कि कुछ अशुभ सा होने वाला है । श्री संतसेवी जी महाराज ने भी यही अनुभव किया, परंतु उन्होंने गुरु-चरणों में पूर्ण विश्वास जताते हुए यह कहा कि श्री गुरु महाराज तो साथ ही हैं । इसलिए भय कैसा, मुझे भी उनके इन शब्दों से ढाढस हुआ। हिम्मत भी आई। रविवार 9 अक्टूबर के सुबह 10:30 बजे डीलक्स गाड़ी हावड़ा स्टेशन से अमृतसर के लिए खुली, उसमें श्री गुरु महाराज अपने भक्तों समेत पंजाब यात्रा के लिए चले, गाड़ी अपनी रफ्तार में चलती रही, भोजनोपरांत रात्रि के लगभग 10:30 बजे श्री सदगुरु महाराज रात्रि शयन के लिए लेट गए और बाकी को भी उन्होंने आदेश दिया कि आप लोग भी सो जाएं । इस समय श्री सदगुरु महाराज बहुत गंभीर लग रहे थे। परंतु उनके मुखारविंद पर किसी भी प्रकार की चिंता का कोई भी चिन्ह नजर नहीं आ रहा था । इसलिए हम सब श्री सद्गुरु के चरणों में हर रात्रि की नाई निश्चित हो गए पूरी गहरी नींद में हम थे । कि एक बहुत जोर का खौफनाक धमाका हुआ और दिल को हिला देने वाली रेल की पटरियों की आवाजें हुई । उस समय रात अंधेरी थी । गाड़ी बहुत जोर से धक्के दे-देकर खड़ी हो रही थी गाड़ी के डब्बे अंधकार से भर गए और रुक गए हम सब लोग घबरा गए और भय से जय गुरु- जय गुरु का जाप करते हुए उठ बैठे अपने आप को अंधेरे में पाया परंतु, तुरंत ही ज्ञात हुआ कि पूज्य श्री सदगुरु महाराज तो हमारे साथ ही हैं । इसलिए जल्द ही संभल गए और पहले सबकी नजर श्री गुरु महाराज की सीट की ओर गई अंधेरे में कुछ नजर नहीं आ रहा था टॉर्च बतिया जलाई गई तो देखा कि सभी सुरक्षित है। किसी को कुछ नहीं हुआ है । मात्र पूज्य श्री गुरुदेव अपनी सीट से नीचे सोए हुए श्री भागरथ बाबा तथा श्री राम लगन बाबा के सिर पर आ गिरे थे। हम लोगों ने श्री सदगुरु महाराज को उठाया और सीट पर बिठा दिया पता चला कि नैनी स्टेशन के यार्ड में खड़ी एक मालगाड़ी से यह डीलक्स गाड़ी टकरा गई है। बहुत से लोग मारे गए बहुत से जख्मी हुए, पीड़ा से कढ़ाह रहे थे। इंजन का तो पता ही नहीं चलता है कि कहां गया और इंजन के पीछे के डिब्बे टक्कर के धक्के से एक दूसरे के ऊपर बड़ी ऊंचाई तक चढ़ गए हैं। कुछ डिब्बे गिर पड़े हैं । परंतु हम लोग के डिब्बे उन सब गिरे हुए चकनाचूर हुए डिब्बे के पीछे सुरक्षित है । पटरी के ऊपर ही है यह सुनकर हम लोगों के हृदय में किस-किस तरह का विचार आए और गए इसका वर्णन मैं क्या करूं आप सब ऐसी परिस्थिति को स्वयं ही समझ सकते हैं या सदगुरु महाराज की महान अनुकंपा थी कि अपने ऊपर सारी आपदाओं को लेकर हम लोगों की रक्षा कि, ऐसे संकट हारक सतगुरु महाराज के चरणों में बारंबार नमन जयगुरु महाराज

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...