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रविवार, 19 अगस्त 2018

राग और द्वेष क्या है? इनका नाश कैसे हो सकता है। जब हमारा लगाव किसी से या कहीं होने लगता है, तो उसे राग या आसक्ति कहते हैं। ये लगाव यूं ही नहीं होता। Santmat-Satsang

राग और द्वेष क्या हैं?
इनका नाश कैसे हो सकता है?

जब हमारा लगाव किसी से या कहीं होने लगता है, तो उसे राग या आसक्ति कहते हैं। ये लगाव यूं ही नहीं होता। इसके पीछे वहां से मिल रहे सुख होते हैं या सुख मिलने की उम्मीद होती है, चाहे वह घर हो, घरवाले हों, रिश्तेदार हों या फिर सुख-सुविधा के साधन। इसका पता तब लगता है, जब सुख मिलना बंद हो जाए या अहम को ठेस पहुंचे। ऐसे में व्यक्ति दुखी हो जाता है और फिर यहीं से द्वेष जन्म लेता है। जहां राग था, अब द्वेष हो गया। बिना राग के द्वेष नहीं होता।

ये राग-द्वेष जिंदगी भर चलता रहता है। इसकी जड़ें मन में इतनी मजबूत हो जाती हैं कि इनके संस्कार जन्म-मरण की वजह बनने लगते हैं और आने वाला जन्म इन्हीं पर निर्भर करने लगता है। फिर जन्म वहीं होता है, जहां पहले राग या द्वेष था। हो सकता है, जो आज दुश्मन है, अगले जन्म में वही बेटा बन जाए, इस जन्म में जो मां है, वह बेटी बन जाए, जो आज आपका नौकर है, अगले जन्म में मालिक बन जाए। जिस घर से आज ज्यादा राग है, हो सकता है, कल कुत्ता बनकर उसी घर के आगे बैठे रहें।

कुछ साधक केवल द्वेष दूर करने में लग जाते हैं। जिनसे द्वेष होता है, उन्हें मनाने लगते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि जहां से राग था, वहीं से द्वेष आता है और जहां से द्वेष है, द्वेष के दूर होने पर वहीं से राग भी पैदा होने लगता है। इसलिए हमें द्वेष के साथ-साथ राग को भी दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। जब राग ही नहीं रहेगा, तो द्वेष कैसे पैदा होगा? राग दूर करने के लिए अपने सीमित प्रेम को बढ़ाते जाइए, इतना बढ़ाईए कि संसार में सबके लिए एक जैसी प्रेम भावना आ जाए। न किसी के लिए कम, न किसी के लिए ज्यादा।

प्रेम में राग-द्वेष नहीं है-इसमें दूसरे को अपना मानते हुए उसके हित की कामना अंतर्निहित होती है!
भाव प्रकट करने से प्रेम स्थायी बनता है। परमात्मा तक प्रेम भाव से ही पहुंच सकते हैं। संसार के सभी मनुष्यों में प्रेम की भावना होनी चाहिए। मनुष्य जीवन राग, द्वेष से बंधा हुआ है इसे अपने से निकाल देना चाहिए। सत्कर्म के साथ सच्चाई के मार्ग पर चलना चाहिए।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम

शनिवार, 18 अगस्त 2018

राखी महज कच्चा धागा नहीं | Rakhi mahaj kachcha dhaga nahi | Rakshabandhan | जब हम बदलेंगे, फिर दुनिया बदलेगी | SANTMAT | SADGURU |

राखी महज कच्चा धागा नहीं !

राखी मात्र धागा नहीं, बल्कि भावनाओं का पुलिंदा है | इसका रेशा - रेशा उच्च व् पवित्र भावनाओं में गुंथा है | यह इन भावनाओं में समाई महान शक्ति ही है, जो राखी इतना क्रन्तिकारी इतिहास रच सकी है |

राखी को 'रक्षा - बंधन' भी कहा जाता है अर्थात एक ऐसा बंधन जिसमें दोनों ओर की रक्षा की कामना निहित है! बंधने वाले की रक्षा की कामना तो है ही, बंधवाने वाले के लिए भी यह सूत्र एक अमोघ रक्षा कवच है | यही कारण है कि वैदिक काल में जब लोग ऋषियों के पास आशीष लेने जाया करते थे, तो ऋषिगण उनकी कलाईयों पर रक्षा - बंध बांधते थे | वैदिक मन्त्रों से अभिमंत्रित मोली या सूत का धागा बंधकर उनकी रक्षा की मंगलकामना करते थे |

और सच कहूं तो, सिर्फ बंधने और बंधवाने वाले की रक्षा ही क्यों! बल्कि मेरी, समूचे भारत की संस्कृति की रक्षा इसमें छिपी हुए है | आज भारत की संताने एक ऐसे चौराहे पर जा खड़ी है, जहाँ से भटकने की संभावनाएं भरपूर है | यह पर्व उन चौराहों पर खड़ा होकर, पहरेदार की तरह, उन्हें भटकने से रोकता है | उनकी इच्छाओं और वृत्यों अंकुश लगाता है | आज यहाँ नारी को केवल रूप सौन्दर्ये के आधार पर ही तोला जाता है, उसे कुदृष्टि से ही देखा जाता है, जहाँ बलात्कार और छेड़ - छाड़ के किस्से आए दिन अख़बारों की सुर्ख़ियों में छाए रहते हैं - वहां रक्षा बंधन का यह पर्व एक बुलंद और क्रन्तिकारी सन्देश समाज को देता है | वह यह की एक नारी केवल नवयौवना या युवती ही नहीं, कहीं न कहीं एक बहन भी है! एक समय था जब एक घर की बहन, बेटी को पूरे गाँव की बहन और बेटी समझा जाता था | पर आज के समाज में तो एक बहन, बेटी अपने खुद के घर में सुरक्षित नहीं है | इस तरह यह त्यौहार पवित्रता की परत हमारी दृष्टि पर चढ़ाता है | नारी को बहन रूप में देखना सिखाता है! इस लिए अगर यह पर्व अपनी वास्तविक गरिमा में हो जाए, तो समाज की बहुत सी भीषण समस्याओं का उन्मूलन सहज ही हो जाएगा !रक्षा बंधन का यह पर्व मनाना तब ही सही अर्थों में सार्थक हो सकता है, जब हम अपनी सोच के साथ - साथ, अपने कर्म में भी बदलाव लायें, वो केवल ब्रह्मज्ञान की ध्यान साधना से ही संभव हो पाएगा | जब हम बदलेंगे, फिर दुनिया बदलेगी | अंत में मेरी और से सभी को रक्षा - बंधन के इस पर्व की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनायें |

जय गुरु महाराज

बुधवार, 15 अगस्त 2018

धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं | Dharma aur Adhyatm Bharat ke mool pran hain | जिस प्रकार प्राण के बगैर शरीर निर्जीव हो जाता है, ठीक उसी प्रकार.... | Santmat-Satsang

धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं!

धर्म और अध्यात्म भारत के मूल प्राण हैं। जिस प्रकार प्राण के बगैर शरीर निर्जीव हो जाता है, ठीक उसी प्रकार धर्म, अध्यात्म, आस्था भक्ति योग व तत्वज्ञान के बगैर यह देश अस्तित्वहीन हो जाएगा। भारत पूरे विश्व में गुरु के रूप में प्रतिष्ठित है। विश्व को ज्ञान, वैराग्य की शिक्षा देना, सत्य के मार्ग का अनुगामी बनाना भारत का ही कार्य रहा है। वर्तमान जीवन-शैली में पदार्थ विज्ञान ने तमाम भौतिक संसाधनों को प्रस्तुत कर दिया है। आज की आधुनिक सभ्यता संसाधनों के अधीन हो गई है। समाज में उपयोगितवाद बढ़ता चला जा रहा है। यह सत्य है कि सांसारिक जीवनयापन के लिए भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इसे किसी भी प्रकार से नकारा नहीं जा सकता। आवश्यकता के अनुसार उपयोगी वस्तुओं की आपूर्ति तो करनी ही चाहिए, परंतु मानव जीवन को अत्याधिक इंद्रिय-पोषण बना दिया जाना भी कदापि उचित नहीं है। तमाम भौतिक संसाधनों के ढेर के नीचे दबकर प्राप्त उपलब्धियों के भंवर में फंसकर आज का मानव विक्षिप्त होता जा रहा है। उसकी सभ्यता, सत्यता व सरलता समाप्ति की ओर है। प्रेम रस सूख गया है और मोह रस व्याप्त होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण सत्यता के विपरीत दिशा की ओर बढ़ना है। मौजूदा दौर में विश्व भर में मानव के पग सत्य के विपरीत दिशा में काफी आगे बढ़ गए हैं। जिसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं। ऐसे में बिना विलंब किए हुए और इस दिशा में कहीं और अधिक देर न हो जाए सत्य के मार्ग पर पुन: लौट पड़ना चाहिए। अब थोथे तर्कों का सहारा छोड़ना होगा। यह कहना कि हम जो कर रहे हैं वही ठीक है इस आग्रह को तो छोड़ना ही होगा। संसार को दिखाने के लिए धर्म और भक्ति का बाह्य आडंबर छोड़कर मर्म को समझते हुए किसी दिखावे के बगैर परमात्मा की प्राप्ति के लिए अग्रसर हो जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। उस अविनाशी पूर्णब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए मनुष्य को भक्ति व अध्यात्म का सहारा लेना ही होगा। इस मार्ग के लिए तर्क की भूमिका तो बहुत न्यून है। प्राथमिक स्तर पर तो तर्क की थोड़ी बहुत भूमिका है, परंतु आगे के मार्ग के लिए तर्क को उसी तरह छोड़ना होगा जैसे अंतरिक्ष में जाने वाला उपग्रह अपने अवयवों को मार्ग में छोड़ता चला जाता है।


दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त! मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वफ़ा आएगी!! | Maharshi-Mehi | Santmat-Satsang | SANTMEHI

दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त!
मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वफ़ा आएगी!!


२०वीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज ने दिनांक : १-६-१९५२ ई० को एक साहित्य-सम्मेलन के दौरान अपने वक्तव्य में कहा था:-
अपने देश में अब कई वर्षों से स्वराज्य प्राप्त है। यह हमें भारतीय जनता के लिए सर्वेश्वर की असीम कृपा से अहोभाग्य है। स्वराज्य प्राप्त होने के पहले आशा थी कि स्वराज्य प्राप्त होने पर हम लोगों को सुराज्य होगा और हम लोग सुखी हो जाएंगे।  परंतु हम लोग स्वराज्य पाने पर अपने को सुखी नहीं पा रहे हैं। क्योंकि अपने में अनैतिकता, भ्रष्टाचार, केवल भौतिकता की ओर झुकाव और आध्यात्मिकता की ओर से मुख मोड़ाव का साम्राज्य हमारे यहां हो गया है।  इसी से स्वराज में हम सुराज्य नहीं देख रहे हैं और जनता दुखी है। जैसे विदेशी शासन की प्रबल शक्ति को हमलोगों ने अनेक कष्टों और अपमानों को सहन करके अपने देश से हटाया है, उसी तरह चाहिए कि इस कथित साम्राज्य को भी हम लोग दूर कर दें।

कबीर साहब कहते हैं -
छिमा गहो हो भाई, धर सतगुरु चरणी ध्यान रे।।
मिथ्या कपट तजो चतुराई, तजो जाति अभिमान रे।
दया दीनता क्षमता धारो, हो जीवन मृतक समान रे।।
सुरत निरत मन पवन एक करि, सुनो शब्द धुन तान रे।
कहै कबीर पहुंचो सतलोका, जहां रहै पुरुष अमान रे।।

इस अमृतमय शब्द को समझकर इसमें निहित सदुपदेशों के अनुकूल यदि लोग आचरण करें, तो वे झूठ, चोरी, चोरी-बजारी और घूसखोरी, घृणित स्वार्थ, पर-पीड़न, धूर्तता और कपट आदि जो सुराज्य के परमबाधक हैं और जनता के परम दुखदाई हैं, सबको छोड़ देंगे। देश में सुराज्य होगा, जनता सुखी हो जाएगी और साथ-ही-साथ मोक्ष धर्म-साधन में भी जनता लग जाएगी जिससे उनका परम कल्याण हो जाएगा। इहलोक और परलोक दोनों में सुख प्राप्त होगा।

परमात्म-भक्ति की ओर अर्थात आध्यात्मिकता की ओर का प्रेरण, समाज को सदाचार पालन की ओर प्रेरण करेगा। सदाचार पालन से सामाजिक-नीति और आचरण उत्तम बनेंगे। राजनीति तथा शासन सूत्र का संचालन भी तब निर्दोष और सुखदायक होगा। इस तरह से राज्य में सुराज्य होगा और देशवासी सुखी हो जाएँगे।
-संत सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
।।जय गुरु महाराज।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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रविवार, 12 अगस्त 2018

मन के मैल को दूर कर आत्मानंद से तृप्त हो जाओ | Man ke mail ko door kar aatmanand se tripta ho jao | Satsang |

मन के मैल को दूर कर आत्मानंद से तृप्त हो जाओ;
जिस प्रकार दूध में घी व्याप्त रहता है और मंथन करने से ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार तुम में परम पुरुष व्याप्त है। साधनारूपी मंथन से तुम उनको पा जाओगे। परम पुरुष तुम्हारे भीतर है, इस देवता को तुम बाहर की पूजा से नहीं प्राप्त कर सकते। उसके द्वारा तो तुम उससे और दूर हटते जाते हो।

लोग कहते है, 'यहां तीर्थ है, इस कुंड में स्नान करने से शत अश्वमेध के बराबर पुण्य की प्राप्ति होती है।' सच्चा तीर्थ तो आत्मतीर्थ है जहां पहुंचने के लिए न तो एक पाई खर्च होती है और न ही सेकेण्ड का समय लगता है। उपवास मन के भीतर छिपे हुए परम पुरुष के निकट वास करने का प्रयास है। यही उपवास का सच्चा अर्थ है। इस क्रिया में संतुलित भोजन से सहायता मिलती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि भोजन नहीं करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है।

नदी सूख गई है, ऊपर बालू है, किंतु बालू के नीचे स्वाभाविक रूप से छना हुआ निर्मल पानी है। ऊपर से बालू हटाओ और निर्मल जल से अपनी प्यास बुझाओ। मन के मैल को दूर करो और आत्मानंद से तृप्त हो जाओ। ज्ञानी के कथित ज्ञान में दो अवगुण हैं, आलस्य और अहंकार। घमंडी परमात्मा से बहुत दूर रहता है। आलस्य में सबसे अधिक भयानक है आध्यात्मिक आलस्य।

आज देर हो गई, साधना नहीं करेंगे, कल ठीक से कर लेंगे। सिनेमा-नाटक-भोजन सब में बराबर समय दिया जाता है, और कटौती होती है केवल साधना के समय में से। नींद आती है केवल भगवत चर्चा के समय। लोगों को कहानी याद होगी कि राम के वनवास काल में चौदह वर्ष तक लक्ष्मण ने जागकर उनके रक्षक के रूप में पहरेदारी की।

एक दिन उनको नींद आ गई। उस वीर ने तब निद्रा पर धनुष बाण से हमला कर दिया। निद्रा बोली, 'आप कैसे वीर हैं! महिला पर शस्त्र उठाते हैं!' लक्ष्मण बोले, 'क्षमा कीजिए, अभी आप नहीं आइए। जब राम का अयोध्या में राजतिलक हो जाए तब आप आ सकती हैं।'

फिर जब राम के साथ तिलक समारोह में लक्ष्मण उनकी सेवा कर रहे थे तब निद्रा ने उन पर हमला बोल दिया। लक्ष्मण जी ने फिर विरोध किया, तो निद्रा ने फिर पूछा, 'मैं कहां जाऊं!' लक्ष्मण बोले, 'जब किसी धर्म सभा में कोई अधार्मिक पहुंच जाए, तुम उसी की आंखों पर बैठ जाओ।'

उसी समय से निद्रा का यह क्रम चालू है। कर्मी में एक ही दोष होता है, वह है अहंकार। किन्तु भक्त जानता है कि मैं कुछ नहीं हूं, परम पुरुष ही सब कुछ है। कर्म का श्रेय मेरा नहीं है, इसलिए भक्त में अहंकार नहीं आता है। और आलस्य भी नहीं आएगा क्योंकि वे सोचेगा कि मेरे भगवान का काम मैं नहीं करूंगा तो कौन करेगा, मैं किसके इंतजार में रहूंगा कि वह उनका काम करे।' - आनंदमूर्ति
।।जय गुरु।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला ... | Ek Sadhu desh me yatra ke liye paidal nikla | Adhyam gyan ki baate.. |

एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला, रात हो जाने पर एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका आनंद ने साधु की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर फिर उसे विदा किया।
साधु ने आनंद के लिए प्रार्थना की  -
"भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।"
साधु की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला
अरे भाई, जो है, यह भी नहीं रहने वाला
साधु आनंद की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया।

दो वर्ष बाद साधु फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है।

साधु आनंद से मिलने गया। आनंद ने अभाव में भी साधु का स्वागत किया। झोंपड़ी में जो फटी चटाई थी उस पर बिठाया। खाने के लिए सूखी रोटी दी। दूसरे दिन जाते समय साधु की आँखों में आँसू थे। साधु कहने लगा - "हे भगवान् ! ये तूने क्या किया ?"
आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - "आप क्यों दु:खी हो रहे हो ? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान्  मनुष्य को जिस हाल में रखे, मनुष्य को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो !
यह भी नहीं रहने वाला ।"

साधु ने मन में सोचा कि
सच्चा साधु तो तू ही है, आनंद।

कुछ वर्ष बाद साधु फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है। मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद  नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया। साधु ने आनंद  से कहा - "अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया । भगवान् करे अब तू ऐसा ही बना रहे।
यह सुनकर आनंद  फिर हँस पड़ा और कहने लगा - "साधु ! अभी भी तेरी नादानी बनी हुई है"
साधु ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला ?"
आनंद उत्तर दिया - "हाँ, यह भी चला जाएगा जो इसको अपना मानता है वो ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा का अंश आत्मा।"
आनंद की बात को साधु ने गौर से सुना और चला गया।

साधु कुछ साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद  का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है।

साधु कहता है - "अरे मनुष्य ! तू किस बात का अभिमान करता है ? क्यों इतराता है ? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता । तू सोचता है, पडोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ । लेकिन सुन, न तो तेरी मौज रहेगी और न ही तेरी मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे मनुष्य वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते है और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।"

साधु कहने लगा - "धन्य है, आनंद ! तेरा सत्संग और धन्य है तुम्हारे सद्गुरु !
मैं तो झूठा साधु हूँ, असली साधु तो तेरी जिन्दगी है। अब तेरी तस्वीर पर कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं ।"

साधु दुसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद ने अपनी तस्वीर पर लिखवा रखा है - "आखिर में यह भी नहीं रहेगा"

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

आशिर्वाद से आसान होती है सफलता | Aashirwad se aasaan hoti hai safalta | सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछु मोरि प्रभुताई | Santmat-Satsang | Ramji-Hanumanji

आशीर्वाद से आसान होती है सफलता;
विनम्रता  दूसरों को प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि कई बार स्वयं को अहंकार में भी डुबो सकती है। विनम्रता से पैदा हुआ अहंकार बहुत ही सूक्ष्म होता है।

इसलिए जब कभी हम विनम्रता का व्यवहार कर रहे हों, इस बात में सावधान रहें कि जब दूसरे हमारी विनम्रता पर हमारी प्रशंसा करें तो हम प्रशंसा को कानों से हृदय में उतरने न दें। अपनी योग्यता को कहीं न कहीं परमात्मा की शक्ति से जोड़े रखें, तो अहंकार के खतरे कम हो जाते हैं।

सुंदरकांड में भगवान श्रीराम हनुमानजी की प्रशंसा कर रहे थे, तब हनुमानजी ने कहा- मेरा लंका जाना, उसे जलाना, लौटकर आना यह सब मेरे वश में नहीं है।


सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।

यह सब तो श्रीरघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ भी नहीं है। संत बताते हैं कि भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा था- फिर समुद्र किस शक्ति से लांघा।

हनुमानजी का जवाब था आपके द्वारा दी गई अंगूठी से। भगवान श्रीराम समझ गए, ये एक बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर है। इसमें भक्त ने स्वयं को बचाया है और श्रेय परमात्मा को दे दिया है। तब भगवान श्रीराम ने याद दिलाया कि अंगूठी तो सीताजी को दे दी थी, फिर लौटकर कैसे आए? हनुमानजी समझ गए कि इस समय भगवान जमकर परीक्षा ले रहे हैं। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया- आते समय माता सीता ने उनकी चूड़ामणि दी थी। उसी के सहारे लौटा हूं। इस प्रताप में मेरा स्वयं का कोई योगदान नहीं है।

बड़ी सुंदर बात हनुमानजी बताते हैं कि जब गया तो पिता की कृपा थी और जब लौटा तो मां का आशीर्वाद साथ था। जिनके साथ जीवन के संघर्ष में माता-पिता के आशीर्वाद होते हैं उनकी सफलताएं सरल हो जाती हैं।
जय गुरु
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...