राग और द्वेष क्या हैं?
इनका नाश कैसे हो सकता है?
जब हमारा लगाव किसी से या कहीं होने लगता है, तो उसे राग या आसक्ति कहते हैं। ये लगाव यूं ही नहीं होता। इसके पीछे वहां से मिल रहे सुख होते हैं या सुख मिलने की उम्मीद होती है, चाहे वह घर हो, घरवाले हों, रिश्तेदार हों या फिर सुख-सुविधा के साधन। इसका पता तब लगता है, जब सुख मिलना बंद हो जाए या अहम को ठेस पहुंचे। ऐसे में व्यक्ति दुखी हो जाता है और फिर यहीं से द्वेष जन्म लेता है। जहां राग था, अब द्वेष हो गया। बिना राग के द्वेष नहीं होता।
कुछ साधक केवल द्वेष दूर करने में लग जाते हैं। जिनसे द्वेष होता है, उन्हें मनाने लगते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि जहां से राग था, वहीं से द्वेष आता है और जहां से द्वेष है, द्वेष के दूर होने पर वहीं से राग भी पैदा होने लगता है। इसलिए हमें द्वेष के साथ-साथ राग को भी दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। जब राग ही नहीं रहेगा, तो द्वेष कैसे पैदा होगा? राग दूर करने के लिए अपने सीमित प्रेम को बढ़ाते जाइए, इतना बढ़ाईए कि संसार में सबके लिए एक जैसी प्रेम भावना आ जाए। न किसी के लिए कम, न किसी के लिए ज्यादा।
प्रेम में राग-द्वेष नहीं है-इसमें दूसरे को अपना मानते हुए उसके हित की कामना अंतर्निहित होती है!
भाव प्रकट करने से प्रेम स्थायी बनता है। परमात्मा तक प्रेम भाव से ही पहुंच सकते हैं। संसार के सभी मनुष्यों में प्रेम की भावना होनी चाहिए। मनुष्य जीवन राग, द्वेष से बंधा हुआ है इसे अपने से निकाल देना चाहिए। सत्कर्म के साथ सच्चाई के मार्ग पर चलना चाहिए।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: एस.के. मेहता, गुरुग्राम