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बुधवार, 9 जनवरी 2019

आए जगत् में क्या किया तन पाला के पेट | AAYE JAGAT ME TAN PALA KI PET | जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है |

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।
सहजो दिन धंधे गया रैन गई सुख लेट।।

संत सहजो बाई जी कहती हैं कि जगत में जन्म तो ले लिया परन्तु किया क्या ? तन को पाला या खा-खा कर पेट को बढाया | दिन तो संसार के कार्यों में गँवा दिया और रात सो कर गँवा  दी |

रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥
हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि रात सो कर गँवा  दी और दिन खा कर गँवा  दिया | हीरे जैसे जन्म को अर्थात्त तन को कौड़ी  के भाव गँवा दिया | इस जगत में मनुष्य  की यह स्थिति है कि उसने शरीर को तो जान लिया परन्तु जीवन को भूल गया | यह अहसास नहीं है कि जीवन क्या है ? आज हम जिसे जीवन कहते हैं, वह तो पल प्रतिपल मृत्यु की  और बढ रहा है | परन्तु यह 30-40  वर्ष का जीवन, जीवन नहीं है | हम अपना जन्म दिन मनाते है, हम इतने बड़े हो गए | हमारी आयु बढ़ी नहीं, यह तो हमारे जीवन में से 30-40 वर्ष कम हो गए है, हम मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं | हमें विचार करना चाहिए के हम ने इतने वर्षों में क्या किया, क्या हम ने अपने जीवन के  लक्ष्य को जाना |

एक बार ईसा नदी के किनारे जा रहे थे, रस्ते में देखा कि  एक मछुआरा मछलियाँ पकड़ रहा था | उसके निकट गये उस से पूछते हैं, तुमारा नाम क्या है ? उसने कहा पीटर ! ईसा ने पूछा के पीटर, क्या तुमने जीवन को जाना ? क्या तुम जीवन को पहचानते हो ? उसने कहा हाँ मैं जीवन को जानता हूँ | मछलियाँ पकड़ता हूँ और बाजार में बेचकर अपने जीवन का निर्वाह करता हूँ |

ईसा ने कहा -पीटर ! यह जीवन, जीवन नहीं, जिसे तुम जीवन समझ रहे हो वह जीवन तो मृत्यु की तरफ बढ रहा है | आओ मैं तुम्हे उस जीवन से मिला दूं , जो  मृत्यु के बाद  भी रहता है | पीटर आश्चर्य से  कहता है कि  क्या मृत्यु के बाद भी जीवन है | ईसा कहते हैं - हाँ पीटर ! मृत्यु के बाद  भी जीवन है, इस जीवन का उदेश ही उस शश्वत जीवन को जानना है | अब  ईसा मसीह पीटर को जीवन से अवगत करने के लिए उसे अपने साथ लेकर चलते हैं | तभी कुछ  लोग आते हैं और पीटर से कहते हैं, पीटर! तुम कहाँ जा रहे हो? तुम्हारे  पिता का देहांत हो गया है |

ईसा ने पूछा, पीटर कहाँ चले? पीटर ने कहा -"पिता को दफ़नाने, उन का देहांत हो गया है, दफनाना जरूरी है |" तब ईसा ने कहा - Let the dead burry their deads. "मुर्दे को मुर्दे दफ़नाने दो" तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हे जिन्दगी से मिलाता हूँ  | ईसा के कहने के भाव से स्पष्ट होता है कि  जिन के ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम नहीं, जिन्हों ने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को नहीं जाना वह जिन्दा नहीं, वरन  मरे हुए के सामान ही है | राम चरित मानस में भी कहा है -

जिन्ह हरि भगति ह्रदय नाहि आनी |
जीवत सव समान तई प्रानी ||

संत गोस्वामी तुलसी दास जी कहते है कि जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है | इस लिए हमें भी चाहिए कि हम ऐसे  पूर्ण संत सद्गुरु की खोज कर, उस परम प्रभु परमात्मा को जानें और आवागमन के महा दुःख से छुटकारा पायें। तभी हमारा जीवन सफल हो सकता है |
जय गुरु महाराज

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति | SACHCHAI JEEVAN KI SARVASHRESHTHA REETI-NEETI | SANTMAT=SATSANG

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति: 

सत्य का सम्पूर्ण तत्व है। उसके खण्ड नहीं किये जा सकते। सत्य बोला जाय और उसके अनुसार आचरण न किया जाय। सत्याचरण और सत्य भाषण तो किया जाय किन्तु मनोदशा उसके अनुसार न रखी जाय तो उसे सत्यनिष्ठा नहीं कहा जायेगा। ऐसे विखंडित सत्य से किसी प्रकार के लाभ की आशा नहीं की जा सकती। टूटा-फूटा, अस्त-व्यस्त अथवा कौटिल्यपूर्ण सत्य भी अमृत का ही एक स्वरूप है। 

सत्य का स्वरूप वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-

सत्य यथाथे वांग् मनसे यथा दृष्टं तथानुमतिं तथा वांग् मनश्चेति, परत्र स्वबोध संक्रान्तये वागुप्ता सा यदि न वंचिता, भ्रान्ता वा, प्रतिपन्ति बन्ध्या व भवेत्।”

“सत्य का तात्पर्य है- वाणी के साथ-साथ मन का भी सच्चा होना। जैसा देखा जाय अथवा जैसा अनुमान किया जाय, वैसा ही भाव प्रकट करने का निश्चय रखते हुए बात कहना ‘सत्य’ माना जायेगा। उसमें छल न हो। दूसरों को भ्रम में डालने वाला अथवा वस्तुस्थिति से भिन्न ज्ञान देने का प्रयत्न न किया जाय।” इस प्रकार सर्वांगपूर्ण सत्य ही सत्य है, विखंडित सत्य-असत्य का ही एक प्रकार होता है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति; | SACHCHAI JEEVAN KI SARVASHRESHTHA REETI-NEETI | SANTMAT-SATSANG | सृष्टि के आदि में सत्य की जो महत्ता और श्रेष्ठता थी

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति:

सृष्टि के आदि में सत्य की जो महत्ता और श्रेष्ठता थी वैसी आज बनी बनी हुई है। कोई मानवीय नियम समय के अनुसार भले ही बदले और संशोधित किए गये हों किन्तु सत्य के नियम में आज तक परिवर्तन नहीं किया गया और न कभी किया जा सकता है। सत्य सारे जीवन और सारी सृष्टि का एक मात्र आधार है। सत्य की महत्ता बतलाते हुए महात्मा इमरसन ने एक स्थान पर कहा है- “जिस सुन्दरतम और श्रेष्ठतम आधार पर मनुष्य को अपना जीवन अवस्थित करना चाहिए वह है- सत्य। सत्य के विरुद्ध किया हुआ प्रत्येक आचरण मानव समाज के स्वस्थ शरीर में छुरी भोंकने के समान निन्दनीय है।”

।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

चित्त और वित्त की स्थिति लगभग एक जैसी है | चित्त अर्थात मन को काबू में में रखना असम्भव सा है वैसे ही धन को भी मुट्ठी में बंद कर नहीं रखा जा सकता।

।। चिन्तन ।।

           चित्त और वित्त की स्थिति लगभग एक जैसी है। चित्त अर्थात मन को काबू में में रखना असम्भव सा है वैसे ही धन को भी मुट्ठी में बंद कर नहीं रखा जा सकता। हमारा मन वहीं ज्यादा जाता है जहाँ हम इसे रोकना चाहते हैं। इसीलिए कहा गया है कि मन के लिए निषेध ही निमंत्रण का काम करता है। जहाँ से हटाना चाहेंगे यह उसी तरफ भागेगा।
         ठीक ऐसे ही धन जब आता है तो शांति भी बाहर की ओर भागने लगती है। धन के साथ-साथ स्वयं की शांति और परिवार का सदभाव बना रहे, यह थोड़ा मुश्किल काम है।
          चित्त और वित्त दोनों चंचल हैं, दोनों जायेंगे ही, इसलिए दोनों को जाने भी दीजिए! मगर कहाँ ? जहाँ सत्संग हो, परोपकार हो, जहाँ प्रभु का द्वार हो और जहाँ से हमारा उद्धार हो।
।। जय गुरु ।।

बुधवार, 12 दिसंबर 2018

सनातन धर्म | सनातन धर्म का सत्य | Sanatan | Sanatan-Dharma | Santmat-Satsang | Maharshi-Mehi | Santmat | सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो।

सनातन धर्म का सत्य:
सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।

वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है। मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।

सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं जिनका शाश्वत महत्व है। अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था।

।।ॐ।।असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।। -वृहदारण्य उपनिषद

भावार्थ : अर्थात हे ईश्वर मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।

जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं। असत्य से मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ते हैं। उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है। वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते। मृत्यु आए इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है। अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है।

।।ॐ।। पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। -ईश उपनिषद

भावार्थ : सत्य दो धातुओं से मिलकर बना है सत् और तत्। सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह। दोनों ही सत्य है। "अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि।" अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम ही ब्रह्म हो। यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है। ब्रह्म पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती। वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है। यही सनातन सत्य है।

जो तत्व सदा, सर्वदा, निर्लेप, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं। वेदों का ब्रह्म और गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य है। जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। सृष्टि व ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत, सनातन और सर्वविभु हैं।

जड़ पाँच तत्व से दृश्यमान है-
आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी। यह सभी शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। यह अपना रूप बदलते रहते हैं किंतु समाप्त नहीं होते। प्राण की भी अपनी अवस्थाएँ हैं: प्राण, अपान, समान और यम। उसी तरह आत्मा की अवस्थाएँ हैं: जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुर्या। ज्ञानी लोग ब्रह्म को निर्गुण और सगुण कहते हैं। उक्त सारे भेद तब तक विद्यमान रहते हैं जब तक ‍कि आत्मा मोक्ष प्राप्त न कर ले। यही सनातन धर्म का सत्य है।

ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश। आत्मा का मोक्ष परायण हो जाना ही ब्रह्म में लीन हो जाना है इसीलिए कहते हैं कि ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्‍या यही सनातन सत्य है। और इस शाश्वत सत्य को जानने या मानने वाला ही सनातनी कहलाता है।

आर्यत्व :
आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का नाम न होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य का अर्थ चार श्रेष्ठ सत्य ही होता है। बुद्ध कहते हैं कि उक्त श्रेष्ठ व शाश्वत सत्य को जानकर आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करना ही 'एस धम्मो सनंतनो' अर्थात यही है सनातन धर्म।

इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था।

सनातन मार्ग :
विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर 'मोक्ष' की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था। मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिए ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।

मोक्ष का मार्ग :
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है। यम, नियम, अभ्यास और जागरण से ही मोक्ष मार्ग पुष्ट होता है। जन्म और मृत्यु मिथ्‍या है। जगत भ्रमपूर्ण है। ब्रह्म और मोक्ष ही सत्य है। मोक्ष से ही ब्रह्म हुआ जा सकता है। इसके अलावा स्वयं के अस्तित्व को कायम करने का कोई उपाय नहीं। ब्रह्म के प्रति ही समर्पित रहने वाले को ब्राह्मण और ब्रह्म को जानने वाले को ब्रह्मर्षि और ब्रह्म को जानकर ब्रह्ममय हो जाने वाले को ही ब्रह्मलीन कहते हैं।

विरोधाभासी नहीं है सनातन धर्म :
सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले अलग-अलग काल में अनेक ऋषि हुए हैं। उक्त ऋषियों को दृष्टा कहा जाता है। अर्थात जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा। इसीलिए सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है। जो उक्त ऋषियों की बातों को नहीं समझ पाते वही उसमें भेद करते हैं। भेद भाषाओं में होता है, अनुवादकों में होता है, संस्कृतियों में होता है, परम्पराओं में होता है, सिद्धांतों में होता है, लेकिन सत्य में नहीं।

वेद कहते हैं ईश्वर अजन्मा है। उसे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं, उसने कभी जन्म नहीं लिया और वह कभी जन्म नहीं लेगा। ईश्वर तो एक ही है लेकिन देवी-देवता या भगवान अनेक हैं। उस एक को छोड़कर उक्त अनेक के आधार पर नियम, पूजा, तीर्थ आदि कर्मकांड को सनातन धर्म का अंग नहीं माना जाता। यही सनातन सत्य है।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
जय गुरु महाराज

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

सत्संग का अर्थ; Meaning of Satsang | Santmat Satsang

सत्संग
अक्सर सत्संग का अर्थ लोग प्रवचन सुनना समझते हैं। लेकिन सत्संग का अर्थ प्रवचन सुनना ही नहीं है। सत्संग का अर्थ हैं अच्छे लोगों से मिलना, सत्य का संग करना, अच्छी पुस्तकेें पढ़ना, अच्छी बातें सोचना आदि।
किसी भी क्षेत्र में सफलता पाने का यह प्रवेश द्वार है।

सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्वं निश्चलतत्वे जीवन्मुक्ति:।।

अर्थ :- सत्संग से निस्संगता पैदा होती है और निस्संगता से अमोह ! अमोह से चित्त निश्चल होता है और निश्चल चित्त से जीवन मुक्ति उपलब्ध होती है।
इस श्लोक में बताई गई बात अध्यात्म का एक प्रमुख बिंदु है।
शास्त्रों में न सिर्फ समस्या बताई गई है, बल्कि उसे कैसे सुधारा जाए, यह भी बताया गया है। जिससे व्यक्ति का उत्थान होगा वो पहली चीज है सत्संग।

हमारा मन आग की तरह है, आग में रबर डालो तो चारों तरफ बदबू फैलती है। आग में चंदन डालो तो चारों तरफ खुशबू फैलती है। तो सोचिए की मन रूपी आग में सुबह से शाम तक क्या पड़ रहा है?

यदि अच्छे विचार इस हवन कुंड में पड़ रहे हैं तो आपके आसपास के माहौल में एक खुशी, एक आनंद बहेगा।

सत्संग मतलब है अच्छे विचार। सत्संग का मतलब सिर्फ प्रवचन सुनना नहीं है।
सत्संग का मतलब है कि आप किस तरह की किताबें पढ़ रहे हैं?
किस तरह की बातें सोच रहे हैं?
किस तरह के लोगों से मिल रहे हैं?
किस तरह का खाना खा रहे हैं?
किस तरह के कपड़े पहन रहे हैं?
आप जो भी कर रहे हैं, वे यज्ञ की आहुतियां हैं।
आपके मन और बुद्धि में आहुति पड़ रही है।
प्रश्न यह है कि वह कैसी पड़ रही है?
सत्संग से मन में निस्संगता आती है, निस्संगता से मन शांत होता है। शांत मन से ही आप ध्यान के अधिकारी बनते हैं। क्योंकि जब हमारा मन अशांत हो, चित्त निश्चल न हो, तब
हम ध्यान में नहीं बैठ सकते। ध्यान में तभी बैठ सकते हैं, जब मन शांत हो।
निश्चल तत्वे जीवन मुक्ति:।
और जब मन शांत हो तभी मुक्ति होती है। सत्संग केवल अध्यात्म में ही नहीं होना चाहिए। आप किसी भी क्षेत्र में हों, आपको सत्संग चाहिए। आप यदि किसी व्यवसाय में भी ऊपर उठना चाहते हैं, तो आपको हमेशा उस व्यवसाय से संबंधित पुस्तकें पढ़नी पड़ेंगी। नई-नई रिसर्च हुई है, उसको पढ़ना पड़ेगा। आप ऐसा नहीं सोच सकते कि बस मैंने डिग्री प्राप्त कर ली, अब उसके बाद मुझे पढ़ाई की कोई जरूरत नहीं। आप किसी भी क्षेत्र में यदि आगे बढ़ना चाहते हैं, तो आपको अपने आंख-कान खुले रखने पड़ेंगे, ध्यान में उतरना पड़ेगा। यदि किसी भी क्षेत्र मे सफलता चाहते हैं, तो संग करें उस क्षेत्र में अपने से श्रेष्ठ व्यक्तियों का, जो उस क्षेत्र में माहिर हों।
।। जय गुरु ।।
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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रविवार, 9 दिसंबर 2018

सत्संग-महिमा | SATSANG-MAHIMA | SANTMAT-SATSANG

सत्संग-महिमा
☘शास्त्रों में सत्संग की महिमा खूब गाई गई है। 'श्रीरामचरितमानस' के सुंदरकांड में आता हैः

तात स्वर्ग आपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।

तुल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।

हे तात ! 'स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये तो भी वे सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव माने क्षण मात्र के सत्संग से होता है।'

एक क्षण के सत्संग से जो वास्तविक आनंद मिलता है, वास्तविक सत्य स्वरूप का जो ज्ञान मिलता है, जो सुख मिलता है वैसा सुख स्वर्ग में भी नहीं मिलता। इस प्रकार, सत्संग से मिलने वाला सुख ही वास्तविक सुख है।

'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में ब्रह्मर्षि वशिष्ठजी महाराज मोक्ष के द्वारपालों का विवेचन करते हुए भगवान श्रीराम से कहते हैं-

"शम, संतोष, विचार एवं सत्संग – ये संसाररूपी समुद्र से तरने के उपाय हैं। संतोष परम लाभ है। विचार परम ज्ञान है। शम परम सुख है। सत्संग परम गति है।"

सत्संग का महत्त्व बताते हुए उन्होंने कहा हैः

विशेषेण महाबुद्धे संसारोत्तरणे नृणाम्।
सर्वत्रोपकरोतीह साधुः साधुसमागमः।।

'हे महाबुद्धिमान् ! विशेष करके मनुष्यों के लिए इस संसार से तरने में साधुओं का समागम ही सर्वत्र खूब उपकारक है।'

सत्संग बुद्धि को अत्यंत सात्त्विक बनाने वाला, अज्ञानरूपी वृक्ष को काटने वाला एवं मानसिक व्याधियों को दूर करने वाला है। जो मनुष्य सत्संगतिरूप शीतल एवं स्वच्छ गंगा में स्नान करता है उसे दान, तीर्थ-सेवन, तप या यज्ञ करने की क्या जरूरत है ?"

कलियुग में सत्संग जैसा सरल साधन दूसरा कोई नहीं है। भगवान शंकर भी पार्वतीजी को सत्संग की महिमा बताते हुए कहते हैं-

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।

सभी ब्रह्मवेत्ता संत स्वप्न समान जगत में सत्संग एवं आत्म-विचार से सराबोर रहने का बोध देते हैं। मेरे गुरुदेव के उपदेश एवं आचरण में कभी-भी भिन्नता देखने को नहीं मिलती थी। वे सदैव आत्मचिंतन में निमग्न रहने का आदेश देते थे।
जय गुरु महाराज
सौजन्य : *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...