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शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि; | गुरु नानक देव जी कहते हैं कि सब से पहले इस जीव आत्मा का माता के दूध से प्रेम हो गया | GURU-NANAK | SANTMAT-SATSANG

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि।।

पहिलै पिआरि लगा थण दुधि।।
दूजै माइ बाप की सुधि॥
तीजै भया भाभी बेब।।
चउथै पिआरि उपंनी खेड॥
पंजवै खाण पीअण की धातु।।
छिवै कामु न पुछै जाति॥
सतवै संजि कीआ घर वासु॥
अठवै क्रोधु होआ तन नासु॥
नावै धउले उभे साह॥
दसवै दधा होआ सुआह॥
गए सिगीत पुकारी धाह॥
उडिआ हंसु दसाए राह॥
आइआ गइआ मुइआ नाउ॥
पिछै पतलि सदिहु काव॥
नानक मनमुखि अंधु पिआरु॥
बाझु गुरू डुबा संसारु॥ (गुरवाणी)

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि सब से पहले इस जीव आत्मा का माता के दूध से प्रेम हो गया और जब कुछ  होश आया तो माँ-बाप की पहचान हो गई | बहन भाई  की जानकारी मिल गई | उस के बाद खेलने कूदने में मस्त हो गया | कुछ बड़ा हुआ तो खाने पीने की इच्छाएँ  पैदा होने लगी | उस के बाद तरह-तरह की कामनाओं का शिकार हुआ | फिर घर गृहस्ती में उलझ गया | आठवें स्थान पर कहतें हैं कि क्रोश द्वारा तन का नाश करने पर तुल गया | बाल सफेद हो गये, बूढा हो गया, शवांस भी आने मुश्किल हो गये | उस के बाद शरीर जल कर राख बन जाता है | हंस रुपी जीव आत्मा शरीर छोड़ देती है | सगे सम्बन्धी सभी रोते हैं | मानव शरीर में जन्म लिया और शरीर के ही कार्य व्वहार में लगे रहे | एक दिन ऐसा आया जब शरीर छोड़कर चले गये | जाने के बाद  घर वाले श्राद्ध इत्यादि में लग जाते हैं | श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि मनमुख व्यक्ति, मन के विचारों के अनुसार चलने वाले, अंधों के समान व्यवहार करते हुए नजर आते हैं | क्योंकि जीवन को पहचानने की आँख गुरु द्वारा मिलती है | परन्तु गुरु को जाने बिना यह संसार अज्ञानता के अंधकार में डूब रहा है | इसलिए हमें चाहिए कि पूर्ण संत सद्गुरु की शरण में जाएँ जहाँ हमारी अज्ञानता का अंधकार समाप्त हो सकता है और मानव जीवन सफल हो सकता है |

पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै। गुरवाणी | GURVANI | श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि पशु, प्रेत, मूर्ख और पत्थर का भी सत्संग के माध्यम से कल्याण हो जाता है | SANTMAT-SATSANG

|| ॐ श्री सद्गुरवे नमः ||
पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै। (गुरवाणी)

श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि पशु, प्रेत, मूर्ख और पत्थर का भी सत्संग के माध्यम से कल्याण हो जाता है | श्री मदभागवत पुराण में एक कथा आती है गोकर्ण  के भाई धुन्धकारी को बुरे कर्मों के कारण प्रेत योनि की प्राप्ति हुई | जब गोकर्ण ने उसको प्रभु की कथा सुनाई तो वह प्रेत योनि से मुक्त हो गया | इस लिए गोस्वामी तुलसी दास जी ने कहा कि संत महापुरषों की संगत आनंद देने वाली है और कल्याण करती है | सत्संग की प्राप्ति होना फल है, बाकी सभी कर्म फूल की भांति है | जैसे एक पेड़ पर लगा हुआ फूल देखने में तो सुन्दर लगता है किन्तु वास्तव में रस तो फूल के फल में परिवर्तित हो जाने के बाद ही मिलता है | सत्संग को आनंद और कल्याण का मूल कहा गया | जिस के जीवन में सत्संग नहीं, उस के जीवन में सुख सदैव नहीं रह सकता | आत्मिक रस तो महापुरषों की संगति से ही प्राप्त हो सकता है | इस लिए कबीर जी कहते हैं -

कबीर साकत संगु न कीजीऐ दूरहि जाईऐ भागि ॥
बासनु कारो परसीऐ तउ कछु लागै दागु।।

दुष्टों का संग कभी भूल कर भी न करो | यह मानव के पतन का कारण बनता है | जैसे कोयले की खान में जाने पर कालिख लग ही जाती है | दुष्ट और सज्जन देखने में एक ही जैसे लगते हैं परन्तु फल से पता चल जाता है कि दुष्टों का संग अशांति देता है और सज्जनों का संग शांति |

जो दुष्ट हैं, वो भी जब संत महापुरषों जैसे वस्त्र धारण कर लेते हैं सब  लोग उन को को संत समझकर उन का सम्मान करते है | संत की पहचान उसके भगवे वस्त्र नहीं है,भगवे वस्त्र में तो रावण भी आया था जो सीता माता को चुरा कर ले गया | संत की पहचान उस का ज्ञान है, जो संत हमें परमात्मा का ज्ञान करवा दे, वह पूर्ण है, अगर वो हमें किसी बाहरी कर्म कांड में लगाता है, इस का मतलब है वह अधूरा है, ऐसे संतों से हमें सावधान रहना चाहिए। ये बात हमारे सभी धार्मिक शास्त्र कहते हैं | इसलिए हमें ऐसे पूर्ण संत सद्गुरु की खोज करनी चाहिए, जो हमें परमात्मा तक कैसे पहुंचा जा सकता है, का सत्य मार्ग बतावे, ज्ञान करावे। तभी हमारे जीवन का कल्याण संभव है।

।। जय गुरु महाराज ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

गलती करना मानव का स्वभाव है; | Galti karna manav ka swabhaw | Santmat-Satsang

गलती करना मानव का स्वभाव है!
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और गलतियां करना उसका स्वभाव है।


जीवन के हर मोड़ पर जाने-अनजाने गलतियां होती ही रहती है और गलती का होना एक सामन्य घटना है। लेकिन अपने द्वारा हुई गलतियों के बाद अलग-अलग व्यक्ति का अलग नजरिया होता है एक व्यक्ति अपनी गलती को सबक के रूप में लेता है और भविष्य में वैसी गलती दुबारा न हो ऐसा प्रयास करता है जबकि दूसरा अपने द्वारा की गई गलती को अपने ऊपर हावी कर लेता है और उसको लेकर एक अफ़सोस जाहिर करता है की काश! मैंने ऐसा नहीं किया होता तो मेरे साथ ऐसा नहीं होता। दिन रात बस ऐसे ही सोचता रहता है और आत्म ग्लानि से ग्रसित हो जाता है। एक अन्य व्यक्ति गलती को गलती मानने के लिए ही तैयार नहीं होता और अपने आपको हर जगह सही सिद्ध करने की कोशिश में ही लगा रहता है। इन तीनो स्थितियों में पहली स्थिति सर्वश्रेष्ठ है और भविष्य के लिए उन्नतिकारक है।क्योंकि ऐसा व्यक्ति वास्तविकता में जी रहा है। वह मानता है की गलती हर इंसान से होती है और मैं भी एक इंसान हूँ। अगर मुझसे गलती हो गई और उससे कोई बुरा परिणाम मुझे देखने को मिला तो चलो अच्छा हुआ आगे से में ऐसी गलती की पुनरावृति नहीं होने दूंगा। उसकी यह सोच उसको निरन्तर उन्नति की ओर ले जाती है और अपराधबोध से दूर रखती है। दूसरी तरह का व्यक्ति गलती के बारे में बार-बार सोचकर अपने आपको एक अपराधी के रूप में देखता रहता है, और अपनी मानसिक स्थिति को ख़राब कर लेता है। जिससे भविष्य में भी कदम-कदम पर उससे गलतियां होना जारी रहता है और यह स्थिति सदैव उसकी उन्नति को बाधित करती है। तीसरी स्थिति व्यक्ति को विवेक शून्य बना देती है और भावी जीवन में वह अपराधी बन जाता है क्योंकि उसे कुछ गलत नजर आता ही नहीं और अपने को ही सही मानने की हठधर्मिता के चलते वह सही गलत की पहचान खो देता है।इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण हमें आम जिंदगी में देखने को मिलता है और हम आये दिन इस पर चर्चा भी करते रहते हैं की देखो कैसा कलियुग आ गया है। आजकल तो जो व्यक्ति धर्म कर्म करता है और सज्जन होता है उसके जीवन में विपदाएँ आती है और पापी लोग मजे मारते हैं। बात भी सही है और ऐसा ही होता भी है। ऐसी चर्चा का आध्यात्मिक गुरु जबाब देते हैं की यह सब तो जन्म जन्मान्तरों के पुण्य पाप काखेल है जो आज मजे मार रहा है उसने पिछले जन्म में कोई पुण्य किया होगा उसका फल भोग रहा है अभी जो कर रहा है उसका आगे भुगतना पड़ेगा। और जो अभी सत्कर्म करते हुए दुखी है इसका मतलब उसके पुर्व जन्म के पाप का उदय चल रहा है। यह सब उपरोक्त वर्णित तीन प्रकार की मानसिकताओं का अलग-अलग परिणाम है की एक धार्मिक प्रवृति का व्यक्ति इसलिए ज्यादा परेशान दिखाई देता है कीवह अपने द्वारा की गई या हुई गलती को अपने ऊपर हावी कर लेता है। इसी सोच के कारण वो अपराधबोध से ग्रसित हो जाता है और बार-बार अपने से हुई गलती के लिए पश्चाताप की अग्नि में जलता रहता है और निरन्तर उसी में खोया रहकर आगे से आगे गलती करता चला जाता है और दुःखी होता रहता है। जबकि दूसरी प्रकृति का व्यक्ति गलती करता है लेकिन अपने विवेक से उस पर चिंतन करता है व भविष्य के लिए उसे सबक के रूप में लेता है जिससे वह विपरीत परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना लेता है और जीवन की यात्रा का आनन्द लेता है।
अब हमें अपने विशेष तर्कसंगत विवेकपूर्ण बुद्धि से सोचना है कि कौन-सी स्थिति में जीवन जीना है।
🙏🌷🌿।। जय गुरु ।।🌿🌷🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 9 जनवरी 2019

आए जगत् में क्या किया तन पाला के पेट | AAYE JAGAT ME TAN PALA KI PET | जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है |

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट।
सहजो दिन धंधे गया रैन गई सुख लेट।।

संत सहजो बाई जी कहती हैं कि जगत में जन्म तो ले लिया परन्तु किया क्या ? तन को पाला या खा-खा कर पेट को बढाया | दिन तो संसार के कार्यों में गँवा दिया और रात सो कर गँवा  दी |

रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥
हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि रात सो कर गँवा  दी और दिन खा कर गँवा  दिया | हीरे जैसे जन्म को अर्थात्त तन को कौड़ी  के भाव गँवा दिया | इस जगत में मनुष्य  की यह स्थिति है कि उसने शरीर को तो जान लिया परन्तु जीवन को भूल गया | यह अहसास नहीं है कि जीवन क्या है ? आज हम जिसे जीवन कहते हैं, वह तो पल प्रतिपल मृत्यु की  और बढ रहा है | परन्तु यह 30-40  वर्ष का जीवन, जीवन नहीं है | हम अपना जन्म दिन मनाते है, हम इतने बड़े हो गए | हमारी आयु बढ़ी नहीं, यह तो हमारे जीवन में से 30-40 वर्ष कम हो गए है, हम मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं | हमें विचार करना चाहिए के हम ने इतने वर्षों में क्या किया, क्या हम ने अपने जीवन के  लक्ष्य को जाना |

एक बार ईसा नदी के किनारे जा रहे थे, रस्ते में देखा कि  एक मछुआरा मछलियाँ पकड़ रहा था | उसके निकट गये उस से पूछते हैं, तुमारा नाम क्या है ? उसने कहा पीटर ! ईसा ने पूछा के पीटर, क्या तुमने जीवन को जाना ? क्या तुम जीवन को पहचानते हो ? उसने कहा हाँ मैं जीवन को जानता हूँ | मछलियाँ पकड़ता हूँ और बाजार में बेचकर अपने जीवन का निर्वाह करता हूँ |

ईसा ने कहा -पीटर ! यह जीवन, जीवन नहीं, जिसे तुम जीवन समझ रहे हो वह जीवन तो मृत्यु की तरफ बढ रहा है | आओ मैं तुम्हे उस जीवन से मिला दूं , जो  मृत्यु के बाद  भी रहता है | पीटर आश्चर्य से  कहता है कि  क्या मृत्यु के बाद भी जीवन है | ईसा कहते हैं - हाँ पीटर ! मृत्यु के बाद  भी जीवन है, इस जीवन का उदेश ही उस शश्वत जीवन को जानना है | अब  ईसा मसीह पीटर को जीवन से अवगत करने के लिए उसे अपने साथ लेकर चलते हैं | तभी कुछ  लोग आते हैं और पीटर से कहते हैं, पीटर! तुम कहाँ जा रहे हो? तुम्हारे  पिता का देहांत हो गया है |

ईसा ने पूछा, पीटर कहाँ चले? पीटर ने कहा -"पिता को दफ़नाने, उन का देहांत हो गया है, दफनाना जरूरी है |" तब ईसा ने कहा - Let the dead burry their deads. "मुर्दे को मुर्दे दफ़नाने दो" तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हे जिन्दगी से मिलाता हूँ  | ईसा के कहने के भाव से स्पष्ट होता है कि  जिन के ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम नहीं, जिन्हों ने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को नहीं जाना वह जिन्दा नहीं, वरन  मरे हुए के सामान ही है | राम चरित मानस में भी कहा है -

जिन्ह हरि भगति ह्रदय नाहि आनी |
जीवत सव समान तई प्रानी ||

संत गोस्वामी तुलसी दास जी कहते है कि जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है | इस लिए हमें भी चाहिए कि हम ऐसे  पूर्ण संत सद्गुरु की खोज कर, उस परम प्रभु परमात्मा को जानें और आवागमन के महा दुःख से छुटकारा पायें। तभी हमारा जीवन सफल हो सकता है |
जय गुरु महाराज

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति | SACHCHAI JEEVAN KI SARVASHRESHTHA REETI-NEETI | SANTMAT=SATSANG

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति: 

सत्य का सम्पूर्ण तत्व है। उसके खण्ड नहीं किये जा सकते। सत्य बोला जाय और उसके अनुसार आचरण न किया जाय। सत्याचरण और सत्य भाषण तो किया जाय किन्तु मनोदशा उसके अनुसार न रखी जाय तो उसे सत्यनिष्ठा नहीं कहा जायेगा। ऐसे विखंडित सत्य से किसी प्रकार के लाभ की आशा नहीं की जा सकती। टूटा-फूटा, अस्त-व्यस्त अथवा कौटिल्यपूर्ण सत्य भी अमृत का ही एक स्वरूप है। 

सत्य का स्वरूप वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है-

सत्य यथाथे वांग् मनसे यथा दृष्टं तथानुमतिं तथा वांग् मनश्चेति, परत्र स्वबोध संक्रान्तये वागुप्ता सा यदि न वंचिता, भ्रान्ता वा, प्रतिपन्ति बन्ध्या व भवेत्।”

“सत्य का तात्पर्य है- वाणी के साथ-साथ मन का भी सच्चा होना। जैसा देखा जाय अथवा जैसा अनुमान किया जाय, वैसा ही भाव प्रकट करने का निश्चय रखते हुए बात कहना ‘सत्य’ माना जायेगा। उसमें छल न हो। दूसरों को भ्रम में डालने वाला अथवा वस्तुस्थिति से भिन्न ज्ञान देने का प्रयत्न न किया जाय।” इस प्रकार सर्वांगपूर्ण सत्य ही सत्य है, विखंडित सत्य-असत्य का ही एक प्रकार होता है।
।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति; | SACHCHAI JEEVAN KI SARVASHRESHTHA REETI-NEETI | SANTMAT-SATSANG | सृष्टि के आदि में सत्य की जो महत्ता और श्रेष्ठता थी

सच्चाई जीवन की सर्वश्रेष्ठ रीति-नीति:

सृष्टि के आदि में सत्य की जो महत्ता और श्रेष्ठता थी वैसी आज बनी बनी हुई है। कोई मानवीय नियम समय के अनुसार भले ही बदले और संशोधित किए गये हों किन्तु सत्य के नियम में आज तक परिवर्तन नहीं किया गया और न कभी किया जा सकता है। सत्य सारे जीवन और सारी सृष्टि का एक मात्र आधार है। सत्य की महत्ता बतलाते हुए महात्मा इमरसन ने एक स्थान पर कहा है- “जिस सुन्दरतम और श्रेष्ठतम आधार पर मनुष्य को अपना जीवन अवस्थित करना चाहिए वह है- सत्य। सत्य के विरुद्ध किया हुआ प्रत्येक आचरण मानव समाज के स्वस्थ शरीर में छुरी भोंकने के समान निन्दनीय है।”

।। जय गुरु ।।
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

चित्त और वित्त की स्थिति लगभग एक जैसी है | चित्त अर्थात मन को काबू में में रखना असम्भव सा है वैसे ही धन को भी मुट्ठी में बंद कर नहीं रखा जा सकता।

।। चिन्तन ।।

           चित्त और वित्त की स्थिति लगभग एक जैसी है। चित्त अर्थात मन को काबू में में रखना असम्भव सा है वैसे ही धन को भी मुट्ठी में बंद कर नहीं रखा जा सकता। हमारा मन वहीं ज्यादा जाता है जहाँ हम इसे रोकना चाहते हैं। इसीलिए कहा गया है कि मन के लिए निषेध ही निमंत्रण का काम करता है। जहाँ से हटाना चाहेंगे यह उसी तरफ भागेगा।
         ठीक ऐसे ही धन जब आता है तो शांति भी बाहर की ओर भागने लगती है। धन के साथ-साथ स्वयं की शांति और परिवार का सदभाव बना रहे, यह थोड़ा मुश्किल काम है।
          चित्त और वित्त दोनों चंचल हैं, दोनों जायेंगे ही, इसलिए दोनों को जाने भी दीजिए! मगर कहाँ ? जहाँ सत्संग हो, परोपकार हो, जहाँ प्रभु का द्वार हो और जहाँ से हमारा उद्धार हो।
।। जय गुरु ।।

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...