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बुधवार, 20 नवंबर 2019

इस योग्य हम कहाँ हैं | Sadguru | Es yogya ham kahan hain | Bhajan | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌷इस योग्य हम कहाँ हैं🌷🙏


इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें।
फिर भी मना रहे हैं, शायद तू मान जाये।।
जब से जनम लिया है, विषयों ने हमको घेरा।
छल और कपट ने डाला, इस भोले मन पे डेरा।
सदबुद्धि को अहम् ने, हरदम रखा दबाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..

निश्चय ही हम पतित हैं, लोभी हैं स्वार्थी हैं।
तेरा ध्यान जब लगायें, माया पुकारती है।
सुख भोगने की इच्छा, कभी तृप्ति हो न पाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..

जग में जहाँ भी देखा, बस एक ही चलन है।
इक दूसरे के सुख में, खुद को बड़ी जलन है।
कर्मों का लेखा जोखा, कोई समझ न पाये।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..


जब कुछ न कर सके तो, तेरी शरण में आये।
अपराध मानते हैं, झेलेंगे सब सजायें।
बस दरश तू दिखा दे, कुछ और हम न चाहें।।
इस योग्य हम कहाँ हैं, गुरुवर तुझे रिझायें..
🙏🌹🌷 जय गुरुदेव 🌷🌹🙏
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 

संतों के विचार को अपनाए बिना: महर्षि हरिनन्दन परमहंस | Santon ke vichar ko apnaye bina... | Maharshi Harinandan Paramhans |

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः 🌹🙏
🍁संतों के विचार को अपनाए बिना हमारा कल्याण नहीं हो सकता। 

हमारे गुरुदेव ने कहा कि संतों के विचार को जानने के लिए सत्संग करो। अगर अपना उद्धार चाहते हो, मुक्ति चाहते हो, दुखों से छुटकारा चाहते हो तो संत का संतान बनो। संतो के बतलाए मार्ग पर चलें तभी संत के संतान बनने के अधिकारी हैं। संत उस ओर जाने के लिए कहता है जिस ओर जीव बंधन मुक्त हो जाता है। कोई बंधन नहीं रहता। उन्होंने कहा कि इस शरीर में नौ द्वार है। फिर भी हम नहीं निकल पाते। कारण यह कष्ट का मार्ग है। जब शरीर की अवधि समाप्त हो जाती है तब यम की मार खाकर इस नौ द्वार में से एक से निकलता है। मनुष्य के शरीर में एक गुप्त मार्ग है। यह मार्ग केवल मनुष्य के शरीर में ही है। इस मार्ग से निकलने में कोई कष्ट नहीं होता।  -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
  🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम 
🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸

संसार में जितने प्रकार के धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और मजहब आदि हैं | -महर्षि संतसेवी | देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू । गुरु में करैं निवास कहत हैं सन्त सभू ।। Maharshi Mehi | Santsevi Pravachan | Santmat Satsang

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🌸संसार में जितने प्रकार के धर्म, पंथ, सम्प्रदाय और मजहब आदि हैं, सबमें किसी-न-किसी प्रकार का पर्व या त्योहार अवश्य मनाया जाता है, लेकिन उसके मनाने में सबकी अपनी-अपनी अलग-अलग रीति होती है। बल्कि कभी-कभी और कहीं-कहीं ऐसा होता है कि जो एक के लिए ग्राह्य होता है, वह दूसरे के लिए त्याज्य भी हो सकता है। जैसे मॉरिशस में जब किन्हीं के यहाँ मेहमान आते हैं, तो उनको भोजन कराते समय उनके सामने सभी चीजें परोसने के बाद गृहपति हाथ जोड़कर प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि ‘हे भगवन! हमारे मेहमान को सुबुद्धि दें कि ये अधिक न खाएँ।’ यह वहाँ के लिए अनिवार्य है, लेकिन अपने देश में वैसा प्रचलन नहीं। इसीलिए मैंने कहा ‘जो एक लिए ग्राह्य हो, वह दूसरे के लिए त्याज्य भी हो सकता है।’ लेकिन गुरु-पर्व के लिए ऐसी बात नहीं है।
यह गुरु-पुर्णिमा इतना पावन पर्व है कि जितने गुरु-भक्त हैं, सबके लिए यह समान है और सबके लिए एक विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यह गुरु-पर्व सामूहिक है, व्यक्तिगत नहीं। यह इतना उत्तम त्योहार है कि जैसे कोई वृक्ष की जड़ में पानी डाल दे तो उसके तनों, सभी डालों और प्रत्येक पत्ते को पानी मिल जाता है, उसी तरह एक गुरु-पूजा करने पर सबकी पूजा हो जाती है। 

देवी देव समस्त पूरण ब्रह्म परम प्रभू । 
गुरु में करैं निवास कहत हैं सन्त सभू ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली )
आप हाथी देखते है, उसके पैर के चिन्ह में सभी जीवों के पद-चिन्ह  समा जाते हैं, उसी तरह एक गुरु-पूजा में सबकी पूजा हो जाती है। यह गुरु-पूजा की महत्तम महिमा है। -महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 

प्रेम | इंसान के लिए दो ही रास्ते हैं – प्रेम करे या फिर दुश्मनी | Prem ya Dushmani | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌹|| प्रेम ||🌹🙏
🍁इंसान के लिए दो ही रास्ते हैं – प्रेम करे या फिर दुश्मनी। इनमें से दुश्मनी के मार्ग को सदियों से इंसान के लिए वज्र्य माना जाता रहा है। फिर बचता है सिर्फ प्रेम। इस प्रेम को पाने, प्रेम प्रदान करने और इसका अनुभव करते-कराते हुए आनंद की प्राप्ति और इससे ईश्वर को अपने भीतर अनुभव करने वाला ही सच्चा और वास्तविक प्रेमी होता है।
इस प्रेम को शब्दों, मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं या देहिक क्रियाओं में विभक्त नहीं किया जा सकता बल्कि प्रेम को आनंद का पर्याय मानते हुए चरम उल्लास की अनुभूति की जा सकती है। प्रेम ऎसा कारक है जिसे अंगीकार कर लेने वाला खुद भी मुक्त हो जाता है और अपने संपर्क में आने वाले दूसरे सभी लोगों की भी मुक्ति चाहने के लिए हर क्षण सर्वस्व समर्पण को तैयार रहता है।
प्रेम के मूल मर्म को समझ लेने वाला इंसान दुनिया में किसी भी एक से प्रेम करता है तो असली प्रेम वही है जिसमें व्यक्ति सभी से प्रेम करे, चाहे वह जड़-चेतन कुछ भी क्यों न हो, ईश्वर या इंसान, पशु आदि कोई भी हो सकता है। सच्चे और निश्छल प्रेमी का प्रेम उदात्त भाव के उत्कर्ष को जीता है और सार्वजनीन होता है। ऎसे इंसान के लिए जड़-चेतन सभी कुछ प्रेम से परिपूर्ण होता है।

जो एक से प्रेम करता है उसका प्रेम यदि सच्चा होता है तो ही वह सभी से प्रेम करता है। वास्तविक प्रेम करने वाला इंसान किसी दूसरे से कभी घृणा कर ही नहीं सकता।
दूसरी तरफ जो लोग किसी एक से प्रेम करते हैं और दूसरों के प्रति संवेदनशील नहीं रह पाते अथवा दूसरों से घृणा या शत्रुता भाव रखते हैं वे सच्चे प्रेमी कभी नहीं हो सकते हैं।
दुनिया की बहुत बड़ी आबादी उन लोगों से भरी पड़ी है जो कि अपने आपको प्रेम करने वालों की श्रेणी में तो रखते हैं लेकिन प्रेम के मर्म से अनभिज्ञ होते हैं। खूब सारी भीड़ है जो किसी न किसी से प्रेम करती है लेकिन इस प्रेम के चक्कर में ही औरों की घृणा, द्वेष या दुश्मनी का पात्र बन जाती है और प्रेम को भुला बैठती है।


असल में यह प्रेम है ही नहीं। प्रेम के साथ संवेदनशीलता, करुणा, आत्मीयता और औदार्य के भावों का सम्मिश्रण रहता है न कि मोह, शत्रुता और एकाधिकार का।
जो एक से प्रेम करता है तथा अन्यों से प्रेमपूर्वक व्यवहार न करे तो इसका सीधा सा अर्थ यही है कि उसका प्रेम आडम्बर और स्वार्थ के व्यापार से ज्यादा कुछ नहीं है। ऎसा प्रेमी जिससे प्रेम करता है उससे भी उसका संबंध स्वार्थ से ज्यादा कुछ नहीं होता बल्कि ऎसा व्यवहार प्रेम नहीं बल्कि बिजनैस की श्रेणी में आता है और इसे प्रेम की संज्ञा नहीं दी जा सकती। शाश्वत प्रेम वही है जो किसी एक से बंधा नहीं रहकर जड़-चेतन सभी पर समान रूप से प्रतिभासित हो और सभी को प्रेम का आनंद अनुभव होता रहे।

प्रेम में परिपूर्ण और गोते लगाने वाला इंसान किसी एक से मोहग्रस्त नहीं होता, बंधता नहीं, बल्कि जिस किसी के सम्पर्क में आता है उसे लगता है कि आत्मीयता और प्रेम का जो निश्छल व्यवहार उसे प्राप्त हो रहा है, वह अपने आपमें अन्यतम और अद्वितीय है।
प्रेम की दिशा आक्षितिज आनंद पाती और दिलाती है तथा उसकी कोई सीमा नहीं होती।  प्रेम अपार और अथाह आनंद की अनुभूति कराता है और ऎसे प्रेम के प्रति न किसी को द्वेष होता है, न मोह या शत्रुता का भाव। एक संत ने तो प्रेेम को सर्वोपरि कारक और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताते हुए बोध वाक्य रच गए – प्रेम तु ही ने प्रेम स्वामी प्रेम त्यां परमेश्वरो!
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏

जिसका मन निश्छल वही बड़ा | Jiska man nischhal hai vahi bara | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🌸जिसका मन निश्छल वही बड़ा🌸
जो मनुष्य दूसरों की भलाई करता है, वह फरिश्ते से कम नहीं। जो व्यक्ति दूसरों की मदद करता हो, किसी का बुरा नहीं करता हो, जो शील स्वभाव का हो, सभी को प्यार से बोलता हो और समय पर कार्य करता हो वह फरिश्ता ही तो है। 
हर पल जो नवीन दिखाई दे, वही सुंदरता का नमूना है। अपने दिमाग के द्वार बंद करने से न जाने किस समय क्या अनोखा तत्व समझ में आ जाए। बुरी बातों को भूल जाना ही बेहतर है वरना अच्छे विचार मन में प्रवेश करना बंद कर देंगे। बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट से नहीं होता है। जिसका मन निश्छल है, वही बड़ा है। व्यस्त रहना ठीक है किंतु  अस्त-व्यस्त नहीं। एक पाप दूसरे पाप का दरवाजा खोल देता है। आदमी आराम के साधन जुटाने में आराम खो देता है। धनी व्यक्ति जहां रुपयों के सहारे जीता है वहीं निर्धन व्यक्ति परिश्रम, प्रभु के सहारे जीता है। 
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
प्रस्तुति: एस.के. मेहता

ज्ञान मार्ग पर चलने वाला और भक्त | Gyan ke marg par chalne wala bhakt | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🙏🌹जय गुरु महाराज🌹🙏
🍁ज्ञानमार्ग पर चलने वाला तो अपने साधन का बल मानता है, पर भक्त की यह विलक्षणता होती है कि वह अपने साधन का बल मानता ही नहीं। कारण कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना तप करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना सत्संग करता हूँ‒इस तरह भीतर में अभिमान रहने से भक्ति प्राप्त नहीं होती। जिनका सीधा-सरल स्वभाव है, जो भगवान्‌ की कृपा पर निर्भर रहते हैं और हरेक परिस्थिति में मस्त, आनन्दित रहते हैं, उन्हीं को भक्ति प्राप्त होती है‒

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा॥
सरल सुभाव  न  मन कुटिलाई।
जथा   लाभ    संतोष    सदाई ।।
         (मानस, उत्तर॰ ४६ । १)

जब तक अपने साधन का अभिमान रहता है, तब तक असली भक्ति प्राप्त नहीं होती। भक्ति प्राप्त होने पर भक्त के मन में यह बात आती ही नहीं कि मैं भजन करता हूँ । जैसे, हनुमान्‌जी महाराज कहते हैं‒ ‘जानउँ नहिं कछु भजन उपाई’ (मानस, किष्किन्धा॰ ३ । २)

हनुमान्‌जी भक्ति के खास आचार्य होते हुए भी कहते हैं कि मैं भजन का उपाय नहीं जानता कि भजन क्या होता है ? कैसे होता है? शबरी को पता ही नहीं था कि भक्ति नौ प्रकार की होती है और वह मेरे में पूर्णरूप से विद्यमान है ! वह कहती है‒


अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह  महँ  मैं  मतिमंद  अघारी।।
        (मानस, अरण्य॰ ३५ । २)

परन्तु भगवान् उसको कहते हैं‒

नवधा  भगति  कहउँ  तोहि पाहीं।
सावधान  सुनु   धरु   मन   माहीं॥......

नव महुँ एकउ   जिन्ह   कें   होई।
नारि पुरुष   सचराचर      कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
सकल प्रकार  भगति  दृढ़   तोरें ॥
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏
सौजन्य: महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट
एस.के. मेहता, गुरुग्राम 
🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸🌿🌸

बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

देहावसान | देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है। महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
देेहावसान समये चित्ते यद्यद्विभावयेत्।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येव जन्मकारणम्।।

देह-त्याग के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है।


जीवनभर जो अपने मन में सोचते हैं, वही भावना अंत में याद आवे, यह संभव है। जन्मभर में कभी जो काम नहीं किया अथवा कभी कभी किया, वह अंत समय याद आवे, संभव नहीं। इसलिए नित्य भजन करें। सब कामों को छोड़कर तथा सब कामों को करते हुए, दोनों ढंग से करें तो अंत समय में अवश्य याद आवेगा तथा अपना परम कल्याण होगा।

प्र्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
-गीता 8/10
अर्थात् जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भौओं के बीच भक्ति से शराबोर होकर और योगबल से अच्छी तरह प्राणों को स्थिर करता है, तो दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है। यह शरीर चला जाएगा, कुछ संग जाने को नहीं है।

माल मुलुक को कौन चलावे, संग न जात शरीर।
करो रे बन्दे वा दिन की तदवीर।।

इसलिए हमलोग भजन-अभ्यास अधिक करें। केवल जानें अथवा पढ़ें, किंतु ध्यान नहीं करें तो उसको लाभ नहीं होता। वैसे ही जैसे-
धन धन कहत धनी जो होते, निर्धन रहत न कोय।
केवल धन-धन के कहने से कोई धनी नहीं होता। काम करते हुए भी अपना ख्याल भजन में लगाकर रखना चाहिए।
*कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।*
*सो ध्यानी परमान, सुरत से अण्डा सेवै।*
*आप रहे जल माहिं, सूखे में अण्डा देवै ।।*
*जस पनिहारी कलस भरे, मारग में आवै।*
*कर छोड़ै मुख वचन,चित्त कलसा में लावै।।*
*फणि मणि धरै उतार, आपु चरने को जावै।*
*वह गाफिल ना परै, सुरति मणि माहिं रहावै।।*
*पलटू कारज सब करै, सुरति रहै अलगान।*
*कमठ दृष्टि जो लावई, सो ध्यानी परमान ।।*
-पलटू साहब

भगवान श्रीकृष्ण का गीता में अर्जुन के प्रति यह उपदेश है- *‘युद्ध भी करो तथा ध्यान भी करो।’*  काम करने के समय भी हमारा ध्यान न छूटे, ऐसी कोशिश करनी चाहिए। जो दोनों तरह से भजन  करते हैं, उनका मन विशेष बिखरता नहीं। इसलिए ऐसा अभ्यास करना चाहिए कि प्रयाणकाल में हमारा ख्याल गड़बड़ न हो जाय कि बारम्बार जन्म लेना पड़े तथा दुःख उठाना पड़े। इससे जो नहीं डरते, वह नहीं कर सकते।
*‘डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।*
*डरत रहे सो ऊबरे, गाफिल खावै मार ।।’*

*‘पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्नतु मन्यते।*
*देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा।।*
*अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते।’*

अर्थ-मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है; मुक्ति वह है, जबकि जीव ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है, जैसे नमक जल में घुलकर एक हो जाता है। इस तरह जब जीव उससे अन्य नहीं रह जाता, तब मुक्ति होती है।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
🙏🌸🌿।। जय गुरु ।।🌿🌸🙏
सौजन्य: *महर्षि मेँहीँ सेवा ट्रस्ट*
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...