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शनिवार, 2 जनवरी 2021

महर्षि संतसेवी जी महाराज का देशप्रेम | Maharshi Santsevi Paramhans Ji Maharaj ka Deshprem | Santmat Satsang

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🍁महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज का देश प्रेम:-
देश-हित में अपना हित निहित है, ऐसी भावना होनी चाहिए। देश की सुरक्षा अपनी सुरक्षा है। देश-हित को दृष्टिगत करते हुए हमारा कर्म होना चाहिए। हम भूल कर भी ऐसा कार्य नहीं करें, जिससे देश का अहित हो। 
जिस जननी के गर्भ से हम जन्म लेते हैं, वह हमारी माता कहलाती है। उसी प्रकार जिस राष्ट्र की धरती पर हम जन्म धारण करते हैं, वह हमारी मातृ तुल्य होती है, बल्कि कुछ अंशों में उससे भी विशेष कहा जा सकता है। 
'जननि जन्म भूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसि।'

जन्मदातृ मातृ की गोद में अज्ञानावस्था में रहकर हम मात्र कुछ महीने मल-मूत्र विसर्जन करते हैं; किंतु पृथ्वी माता की गोद में हम ज्ञानावस्था में रहकर जीवन-पर्यंत मल-मूत्र त्याग करते हैं। जन्मदातृ माता की गोद में हम शैशवावस्था में रहकर स्वल्प काल ही उनका दुग्ध-पान कर किलकारियां भरते हैं; किंतु धरती माता की गोद में हम जीवन-पर्यंत खाते-पीते और आनंद-चैन की वंशी बजाते हैं। इसकी सर्वतोमुखी उन्नति के लिए हमें तन, मन तथा धन समर्पण हेतु सतत प्रस्तुत रहना चाहिए। इतना ही नहीं, देश-रक्षार्थ यदि अपने को बलिवेदी पर चढ़ाना पड़े, तो उससे मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।
जात-पात, ऊंच-नीच, छुआ-छूत एवं पंथाई भावों के भूत को दूरीभूत कर एकजुट होकर हम रहें। सत्य, प्रिय, मृदु एवं मितभाषी बनें। परोपकार की भावना रखें। प्रमुखोपेक्षी न हों। स्वावलंबी जीवन जीयें यानी श्रम-सीकर की सच्ची कमाई कर अपना जीवन-यापन करें। पवित्रोपार्जन से प्राप्त वस्तुओं में संतुष्ट रहें। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, चिढ़, द्वेष, ईर्ष्या आदि तामस विकारों से बचते हुए दया, क्षमा, नम्रता, शील, संतोष प्रभृत्ति सात्विक गुणों को धारण करना हितकर है। 
जिस प्रकार परम संत बाबा देवी साहब का अंतिम उपदेश 'दुनिया वहम है, अभ्यास करो।' महर्षि मेँहीँ की अंतिम वाणी 'सुकिरत कर ले, नाम सुमिर ले, को जाने कल की।' उसी प्रकार इनका अंतिम उपदेश 'धीरज धरै तो कारज सरै' मानव मात्र के कल्याण हेतु प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय है।
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता)
🙏🌼🌿।। जय गुरु ।।🌿🌼🙏

सोमवार, 9 दिसंबर 2019

सत्संग-महिमा | SATSANG MAHIMA | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Ashram | Kuppaghat-Bhagalpur

सत्संग-महिमा
☘शास्त्रों में सत्संग की महिमा खूब गाई गई है। 'श्रीरामचरितमानस' के सुंदरकांड में आता हैः

तात स्वर्ग आपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तुल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।

हे तात ! 'स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये तो भी वे सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव माने क्षण मात्र के सत्संग से होता है।'

एक क्षण के सत्संग से जो वास्तविक आनंद मिलता है, वास्तविक सत्य स्वरूप का जो ज्ञान मिलता है, जो सुख मिलता है वैसा सुख स्वर्ग में भी नहीं मिलता। इस प्रकार, सत्संग से मिलने वाला सुख ही वास्तविक सुख है।

'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में ब्रह्मर्षि वशिष्ठजी महाराज मोक्ष के द्वारपालों का विवेचन करते हुए भगवान श्रीराम से कहते हैं-

"शम, संतोष, विचार एवं सत्संग – ये संसाररूपी समुद्र से तरने के उपाय हैं। संतोष परम लाभ है। विचार परम ज्ञान है। शम परम सुख है। सत्संग परम गति है।"

सत्संग का महत्त्व बताते हुए उन्होंने कहा हैः

विशेषेण महाबुद्धे संसारोत्तरणे नृणाम्।
सर्वत्रोपकरोतीह साधुः साधुसमागमः।।

'हे महाबुद्धिमान् ! विशेष करके मनुष्यों के लिए इस संसार से तरने में साधुओं का समागम ही सर्वत्र खूब उपकारक है।'

सत्संग बुद्धि को अत्यंत सात्त्विक बनाने वाला, अज्ञानरूपी वृक्ष को काटने वाला एवं मानसिक व्याधियों को दूर करने वाला है। जो मनुष्य सत्संगतिरूप शीतल एवं स्वच्छ गंगा में स्नान करता है उसे दान, तीर्थ-सेवन, तप या यज्ञ करने की क्या जरूरत है ?"

कलियुग में सत्संग जैसा सरल साधन दूसरा कोई नहीं है। भगवान शंकर भी पार्वतीजी को सत्संग की महिमा बताते हुए कहते हैं-

उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।

सभी ब्रह्मवेत्ता संत स्वप्न समान जगत में सत्संग एवं आत्म-विचार से सराबोर रहने का बोध देते हैं। मेरे गुरुदेव के उपदेश एवं आचरण में कभी-भी भिन्नता देखने को नहीं मिलती थी। वे सदैव आत्मचिंतन में निमग्न रहने का आदेश देते थे।

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन से कहा था..... -महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi | Krishna

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏


🍁भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन से कहा था कि तुम किसको मारोगे? कुरुक्षेत्र के मैदान में जितने लड़ने आए हैं, ये पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे, ऐसी बात नहीं। शरीर बदलता है, आत्मा अविनाशी है। इस शरीर में जीवात्मा है और शरीर के बंधन में है। शरीर के बंधन में रहने से क्या होता है, यह सबको मालूम है। कभी सुख, कभी दुःख दिन रात की तरह आता-जाता रहता है। कभी लगभग चौदह घंटे की रात और कभी चौदह घंटे का दिन होता है। लेकिन बराबर न रात रहती है, न दिन रहता है। उसी तरह दुःख कभी अधिक, कभी कम। कभी पाण्डव बड़े सुख में थे और कभी भीख भी माँगी, कभी नौकरी भी की। नौकरी में युधिष्ठिर ने भी मार खायी और द्रौपदी ने भी। महारानी सीता भी रोयीं। एक बार कौन कहे, दो-दो बार। 

सूरदासजी ने कहा- 
*ताते सेइये यदुराई।*
*सम्पति विपति विपति सों सम्पति देह धरे को यहै सुभाई।।* 
*तरुवर फूलै फलै परिहरै अपने कालहिं पाई।* 
*सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै सूखे खेह उड़ाई।।* 
*द्वितीय चन्द्र बाढ़त ही बाढे़े घटत घटत घटि जाई।* 
*सूरदास सम्पदा आपदा जिनि कोऊ पतिआई।।* 
सम्पदा व आपदा, किसी का विश्वास नहीं करो कि यह सदा रहेगी। यह तो प्रत्यक्ष अपने देश में हुआ। अंग्रेज बात-की-बात में भाग गया। जमींदारों की जमींदारी चली गई। बहुत-बहुत जमीन भी अब किसी के पास नहीं रहने को। कभी भारत बड़ा धनी था और अब भारत ऋणी है; लेकिन सदा ऋणी रहेगा, ऐसा नहीं।
इस शरीर में कभी सुख, कभी दुःख होता है। सम्पत्ति में बाहर में तो अच्छा लगता है; लेकिन अंतर जलता रहता है। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है- 
*द्रव्यहीन दुख लहइ दुसह अति, सुख सपनेहु नहिं पाये।*
*उभय प्रकार प्रेत पावक ज्यों, धन दुख प्रद स्रुति गाये।।* 
धन होने और नहीं होने, दोनों तरहों में दुःख है। धन नहीं है, तो जलते हैं और धन हो गया, तो जैसे भूत चढ़ गया, चैन नहीं लेने देता। जो सब राष्ट्र वा एक ही राष्ट्र बड़ा धनवान है, तो चुपचाप रहे। लेकिन चुपचाप रहता कहाँ है? उसको भूत लगा है, अपने ऐश्वर्य को बढ़ाने के लिए। भारत कहता है कि हमारे पास धन नहीं है, इससे दुःखी हैं और अमेरिका कहता है-‘हमारे पास अमित धन है, धन के भोगों से बचाओ।’ वह भोग के मारे पागल हो रहा है। इस तरह धन सुख देनेवाला नहीं है। सुख कहने मात्र का है, यथार्थ में नहीं।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 

रविवार, 24 नवंबर 2019

यूकिको फ्यूजिता- जापानी महिला सत्संगी | Yukiko Fujita (Japanies Lady}


बात 1966-67 की है। जापान के टोकियो शहर में 'यूकिको फ्यूजिता' ऩामक महिला ने स्वप्न देखा कि समुद्र की गहराई में एक विशाल मंदिर के द्वार पर एक साधु खड़े हैं जिनके शरीर से दिव्य प्रकाश निकल रहा है। नींद टूटने पर उस रुप को प्रत्यक्ष देखने के लिए उनके मन में एक बेचैनी जगी। भारत को साधु-संतों का देश जानते हुए वह भारत आयी तथा उस स्वप्न-दर्शित रुप की एक झलक हेतु हिमालय से कन्याकुमारी तक भटकी। पर असफल रही व अपने देश लौट गई। 
पर दर्शन की व्याकुलतावश पुनः दूसरे वर्ष आई। इस बार कुप्पाघाट आश्रम व पूज्य गुरुदेव के बारे में सुनकर कुप्पाघाट आश्रम आई। संयोग से उस समय गुरुदेव आश्रम में नहीं थे। पर दीवार पर गुरुदेव की एक तस्वीर को देख कर वह हर्ष से उछल पड़ी और कहने लगी-" ये वही बाबा हैं, जिनके दर्शन स्वप्न में हुए थे।" तत्पश्चात पत्र द्वारा समय लेकर कुछ ही दिनों के बाद हरिद्वार में उन्होने परमाराध्य सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के पवित्र दर्शन किये। दीक्षा देने के निवेदन करने पर गुरुदेव ने उनको कुप्पाघाट आश्रम आन कोे कहा। नियत समय पर वह आश्रम आई व गुरुदेव से दीक्षा ली। 

दीक्षा के बाद गुरुदेव ने उनको वहीं ध्यान करने कहा। गुरुदेव की असीम दया से वह ध्यान में घंटों तक अंतर्जगत् के अद्भुत् दृश्यों को देखती रही जिसे उन्होने गुरुदेव के आदेशानुसार चित्रित भी किया। किसी ने जब उनसे संतमत की साधना-पद्धति के बारे में पूछा तो उन्होने उत्तर दिया-" Very easy and very high."
ऐसे थे हमारे गुरुदेव जो आंतरिक प्रेरणा देकर अपने भक्तों को स्वप्न द्वारा जापान से भी बुला लेते थे। वस्तुतः थे कहना गलत होगा, वे आज भी हैं हम भक्तों के हृदय में। ऐसे महान् संत पूज्य गुरुदेव के पावन चरण कमलों में कोटि-कोटि प्रणाम । जय गुरु ।💐👏🌹🙏🌹

सत्संग जीवन पर्यन्त करो- सद्गुरु मेँहीँ | SANT SADGURU MAHARSHI MEHI PARAMHANS JI MAHARAJ

🙏🌹श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
🌸सत्संग जीवन पर्यन्त करो🌸
प्यारे लोगो!
संत कबीर साहब का वचन है-
निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार।
यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार।।
हे लोगो! तुम बिना डर के बैठे हुए हो, चेतते नहीं हो। इस शरीर के रहते हुए तुम नाम-भजन कर लो। जल के बुलबुले के समान यह शरीर कभी भी नष्ट हो सकता है।
शरीर छूट जाने पर हम दुःख में न पड़ जाएँ, यह डर रहता है।
*नहिं बालक नहिं यौवने, नहिं बिरधी कछु बंध।* 
*वह अवसर नहिं जानिये, जब आय पड़े जम फंद।।*  
       -गुरु नानकदेव
प्रत्यक्ष देखते हैं कि प्रत्येक अवस्था के लोग मर जाते हैं। नाम-भजन करके आवागमन के दुःख से बच सकते हो। नाम (शब्द) सुनने में आता है, देखने में नहीं आता। सुर लय को लोग कैसे लिख सकता है? ईश्वर का नाम वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक दोनों है। 
*दादू सिरजनहार के, केते नावँ अनन्त।* 
*चित आवै सो लीजिए, यों सुमरै साधू संत।।* 
अपने अंदर में अजपा-जाप की ध्वनि स्वाभाविक हो रही है। सुरत को उसमें लगाकर रखना भजन है। सुरत की डोरी इन्द्रियों की घाटों पर लगी हुई है। तिल के द्वार पर मजबूती से देखना, दोनों आँखों की दृष्टि को मजबूती से जोड़ना, यही सुरत को खींचना है।
*सुखमन कै घरि राग सुनि, सुन मण्डल लिवलाइ।* 
शून्य मण्डल में लौ लगाना दृष्टियोग से होता है। पहले सुरत को स्थूल से सूक्ष्म मण्डल में ले जाओ। वैष्णवी मुद्रा  करते हुए नादानुसन्धान करो। उत्तम आचरण से नहीं रहनेवाला यह नाम-भजन नहीं कर सकता है। निकृष्ट आचरणवाले विषयों में लगे रहते हैं। इन्द्रियों को विषयों में लोलुप रखना निकृष्ट आचरण है और विषयों में लोलुप नहीं रखना उत्तम आचरण है। बिना उत्तम आचरण रखे कोई भी नाम-भजन नहीं कर सकता है। जो फँसाव को कम करता जाता है, तब भजन ठीक है और यही भजन की तैयारी है। पहले मानस जप और मानस ध्यान है। ध्यान में भी स्थूल और सूक्ष्म है। उत्तम आचरण रखते हुए जप और ध्यान की डोर को पकड़े रहना नाम-भजन में रत हो जाना है। यही है मरने के बाद दुःख में नहीं जाना। सदा का सुख भजन में ही है। हमारी मौत बहुत नजदीक है। इसका प्रबन्ध ठीक नहीं होने से बराबर मौत से डरते रहेंगे।
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार।
डरत रहै सो ऊबरै, गाफिल खावै मार।।
हमलोगों का शरीर मंदिर है। नियमित रूप से प्रतिदिन इसमें भजन करना चाहिए। मृत्यु के समय भी भजन करने का अभ्यास हो जाए तो बहुत ठीक है। भजन में विलम्ब मत करो।
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 

सुचिता और पुण्य संचय जरूरी | SAINTLY ACCUMULATION | Santmat Satsang | Maharshi Mehi Sewa Trust

🌸शुचिता और पुण्य संचय जरूरी🌸
🌿खूब सारे लोग रोजाना घण्टों तक अपनी-अपनी पूजा पद्धतियों के अनुरूप भजन-पूजन और साधना करते रहते हैं। इनमें से अधिकांश लोग इस कामना से साधना और पूजा करते हैं कि उनके कामों में कोई बाधाएं सामने न आएं, जो समस्याएं और अभाव हैं वे दूर हो जाएं तथा उन्हें अपनी कल्पना के अनुरूप सब कुछ प्राप्त होता रहे।
बहुसंख्य लोगों द्वारा इसी उद्देश्य को लेकर सकाम भक्ति की जाती है। गिनती के कुछेक ही ऎसे लोग होते हैें जो लौकिक कामनाओं की बजाय पारलौकिक सुख के लिए पूजा-पाठ करते रहे हैं। नगण्य लोग ही ऎसे हो सकते हैं जो लौकिक एवं पारलौकिक कामनाओं की बजाय आत्म आनंद, आत्म साक्षात्कार या ईश्वर को पाने की तितिक्षा जगाए रखते हैं।

इन सभी प्रकार के भक्तों और साधकों या मुमुक्षुजनों केअपने लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में सर्वाधिक उत्प्रेरक की भूमिका में यदि कोई है तो वह है व्यक्तिगत शुचिता एवं दिव्यता। जो जितना अधिक शुद्ध चित्त और निर्मल मन वाला होता है वह दूसरों के मुकाबले काफी पहले अपने लक्ष्य को पा लेता है। लेकिन वे लोग पूरी जिन्दगी लक्ष्य से दूर ही रहते हैं जो अपने जीवन में सभी प्रकार की शुचिता नहीं रख पाते हैं।
चाहे ये लोग कितने ही घण्टे पूजा-पाठ करते रहें, माईक पर गला फाड़-फाड़ कर वैदिक ऋचाओं और पौराणिक मंत्रों व स्तुतियों का गान करते रहें, आरती पर आरती उतारते रहें, यज्ञ-अनुष्ठान में मनों और टनों घी एवं हवन सामग्री होम दें, दुनिया भर के नगीनों, अंगुठियों, मालाओं से लक-दक रहें, पूरे शरीर को तिलक-छापों और भस्म से सराबोर करते रहें या फिर दिन-रात मंत्र जाप और संकीर्तन करते रहकर आसमाँ गूंजा दें, इसका कोई चमत्कारिक प्रभाव न वे महसूस कर सकते हैं, न ये जमाना।
ईश्वर को पाने, आत्म साक्षात्कार और अपने सभी प्रकार के संकल्पों की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा हमारे मन-मस्तिष्क और शरीर की मलीनता ही होती है और यह मलीनता हमें लक्ष्य से हमेशा दूर रखती है।

जो लोग मन से साफ व मस्तिष्क से पवित्र होते हैं उनके लिए हर प्रकार की साधना का सौ फीसदी परिणाम शीघ्र ही सामने आ जाता है जबकि जो लोग मन-मस्तिष्क में गंदे विचार लिए होते हैं, जिन्हें शरीर की स्वच्छता और स्वास्थ्य का भान नहीं होता, ऎसे लोग हमेशा अपने सभी प्रकार के लक्ष्यों से दूर ही रहा करते हैं, चाहे ये जमाने भर में अपने आपको कितना ही बड़ा और सच्चा साधक, सिद्ध, पण्डित, आचार्य, संत-महात्मा, महंत, योगी, ध्यानयोगी, बाबाजी या महामण्डलेश्वर अथवा स्वयंभू भगवान ही क्यों न सिद्ध करते रहें।
हर प्रकार की साधना अपने लक्ष्य को पूरा करने से पूर्व चित्त की भावभूमि को शुद्ध करती है और हृदय को शुचिता के मंच के रूप में तैयार करती है। इसके बाद ही व्यक्ति के संकल्पों को साकार होने के लायक ऊर्जा प्राप्त हो सकती है।
हममें से कई सारे लोग रोजाना काफी समय पूजा-पाठ में लगाते हैं, जप और संकीर्तन, सत्संग में रमे रहते हैं और साल भर नित्य पूजा के साथ ही किसी न किसी प्रकार  की नैमित्तिक और काम्य साधना के उपक्रमों में जुटे रहते हैं।

इसके बावजूद हमारे संकल्पों को पूरा होने में या तो बरसों लग जाया करते हैं या फिर ये पूरी जिन्दगी बीत जाने के बावजूद सिद्ध नहीं होते। निरन्तर परिश्रम और समय लगाने के बावजूद इस प्रकार की विषमता और अभाव का क्या कारण है? इस बारे में यदि गंभीरता से सोचा जाए तो यही सामने आएगा कि हमने पूजा-पाठ, साधन भजन और धार्मिक गतिविधियों में जिन्दगी भर का बहुत बड़ा हिस्सा गँवा दिया, बावजूद इसके जहाँ थे वहीं हैं, कुछ भी बदलाव न आया, न देखने को मिला।
इसका मूल कारण यही है कि साधना के साथ-साथ अपने कत्र्तव्य कर्म और रोजमर्रा की जीवनचर्या में शुचिता भी जरूरी है, और अपनी मामूली ऎषणाओं पर नियंत्रण भी। हम रोजाना जितने मंत्र-स्तोत्र पाठ, स्तुतियाँ और भजन-पूजन आदि करते हैं उनसे कई गुना इच्छाएं हमारी रोजाना बनी रहती हैं, ऎसे में जो पुण्य प्राप्त होता है, जो ऊर्जा हमें मिलती है, उसका उन्हीं रोजमर्रा की कामनाओं को पूरी करने में क्षरण हो जाता है और कोई पुण्य या दैवीय ऊर्जा बचती ही नहीं है। ऎसे में हमारी संकल्पसिद्धि हमेशा संदिग्ध ही बनी रहती है, पुण्य के प्रभाव से छोटे-मोटे काम हो जाएं, वह अलग बात है किन्तु कोई बड़ा लक्ष्य प्राप्त कर पाने में हम सदैव विफल रहते हैं।

इसके साथ ही बाहरी एवं हराम का खान-पान, पतितों के साथ रहने और उनकी सेवा-चाकरी करने, दान-दक्षिणा और मिथ्या संभाषण, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, व्यभिचार, कामचोरी, षड़यंत्रों में रमे रहने, बुरे लोगों के साथ काम करने और रहने आदि कारणों से भी रोजाना पुण्यों का क्षय होता रहता है।
इन्हीं वजहों से हमारे खाते में उतने पुण्य अपेक्षित मात्रा में संचित नहीं हो पाते हैं जितने कि हमारे संकल्प की सिद्धि के लिए जरूरी हुआ करते हैं। हम रोज कुआ खोदकर रोज पानी पीने की विवशता भरी स्थिति में आ जाते हैं।
 यही सब हमारी विफलता के बुनियादी तत्व हैं। जीवन में इच्छित कामनाओं की प्राप्ति और संकल्प सिद्धि के लिए यह जरूरी है कि साधना और भजन-पूजन के साथ-साथ समानान्तर रूप से शुचिता और दिव्यता को बनाए रखने के प्रयत्न भी होते रहने चाहिए ताकि पुण्यों की कमी पर लगाम लग सके और अपने पुण्यों के संचय, सत्कर्मों, साधनाओं का ग्राफ अपेक्षित स्तर को प्राप्त कर पाए। ऎसा जब तक नहीं होगा, तब तक घण्टों, माहों और बरसों तक की जाने वाली पुण्य कर्म, साधना का कोई विशेष प्रभाव अनुभव नहीं हो सकता, इस सत्य को समझने की जरूरत है।
हमारे आस-पास ऎसे खूब सारे लोग हैं जो घण्टों मन्दिरों में भगवान की मूर्तियों के पास बने रहते हैं, घण्टियां हिलाते रहते हैं, गला फाड़कर और माईक पर चिल्ला-चिल्ला कर आरतियां, अभिषेक, कथा, सत्संग आदि करते रहते हैं फिर भी बरसों से वैसे ही हैं, न साधक बन पाए न सिद्ध। और ऎसे ही खूब सारे लोगों को हम बरसों से श्मशान तक छोड़ते आ रहे हैं। सभी प्रकार की शुचिता और पुण्य संचय के बिना न हम साधक हो सकते हैं न सिद्धावस्था प्राप्त कर सकते हैं। भगवत्कृपा या साक्षात्कार की बात तो बहुत दूर है।
🙏🌹जय गुरु महाराज🌹🙏
प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम
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सब कोई सत्संग में आइए | Sab koi Satsang me aaeye | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

सब कोई सत्संग में आइए! प्यारे लोगो ! पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मा...