पूर्ण संत : सतगुरु!
परमेश्वर स्वयं आकर या अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करता है। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है।
“सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद।
चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“
सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा।
पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।
एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।
जै पंडित तु पढ़िया, बिना दउ अखर दउ नामा।
परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा।
वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।।
एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।।
गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है।
जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै, वाके संग सभि राड़ बढ़ावै।
या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।
कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी नकली संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।
कबीर, सतगुरु शरण में आने से, आई टले बलाय।
जै मस्तिक में सूली हो वह कांटे में टल जाय।।
भावार्थ:- सतगुरु अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से उपदेश लेकर मर्यादा में रहकर भक्ति करने से प्रारब्ध कर्म के पाप अनुसार यदि भाग्य में सजाए मौत हो तो वह पाप कर्म हल्का होकर सामने आएगा। उस साधक को कांटा लगकर मौत की सजा टल जाएगी।
संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै।
ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेश दृढ़ावै।।
आंख ना मूंदै कान ना रूदैं ना अनहद उरझावै।
प्राण पूंज क्रियाओं से न्यारा, सहज समाधी बतावै।।
संत तो जैसे नदी और वृक्ष का जन्म परोपकार के लिए है, वैसे ही संतों का जन्म केवल परोपकार के लिए है। स्वार्थ का तो संतों में लेशमात्र भी नहीं हो सकता। संत बच्चों जैसे निष्पाप होते हैं। हमेशा मन में सागर सी शांति होती है, सभी के लिए असीम दया होती है। सदैव क्षमाशील बर्ताव होता है तथा सात्विक गुणों से परिपूर्ण होते हैं। समर्पण ही संतों का नाम है और कार्य है। करुणा के सिवा जीवन का दूसरा कोई अर्थ होता है, यह संत नहीं जानते। संत भी देहधारी होते हैं क्योंकि हर देह का प्रारब्ध है किंतु वे देह में रहते हैं क्या और अगर देह में रहते हैं तो कहां? संतों के बारे में कल्पना करना भी सामान्य जनों के लिए संभव नहीं है। उन्हें जानने में संत ही समर्थ होते हैं और कोई नहीं। आम जन संत के साथ भी रहकर संत को पहचानने में असमर्थ होते हैं।
।।जय गुरु महाराज।।
Posted by S.K.Mehta, Gurugram
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